विज्ञान


स्वस्थ भविष्य के लिए : हरित रसायन

डॉ.विनीता सिंघल
 
 
 
‘विश्व में सात प्रकार के पाप हैं- बिना काम के मिलने वाली संपदा, बिना विवेक का मनोरंजन, बिना चरित्र के ज्ञान, बिना नैतिकता के अर्थ, बिना मानवता के विज्ञान, बिना बलिदान के पूजा और बिना सिद्धांतों के राजनीति।’
-- महात्मा गांधी
 
विज्ञान का मानवीय पक्ष, क्या हो सकता है? प्रसिद्ध आर्थिकशास्त्री हर्मन ने आर्थिक प्रगति और पारिस्थितिकी के बीच संबंध की चर्चा करते हुए कहा था कि आर्थिकी की सतत प्रगति अपने भौतिक आयाम में सीमित है क्योंकि आर्थिकी, पारिस्थितिकी का ही एक उपतंत्र है। ‘उत्पादन’ और ‘खपत’ की बात करते हुए हम भूल जाते हैं कि कुछ प्रक्रियाओं के फलस्वरूप कुछ अपक्षीणित पदार्थ व्यर्थ के रूप में पारिस्थितिक तंत्र में चला जाता है। जिसमें से कुछ का जैव भू-रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा पुनः नवीन संसाधनों के रूप में उपयोग होता है और कुछ व्यर्थ के रूप में ही रह जाता है। इस प्रकार जैवभौतिक रूप से देखा जाए तो उपतंत्र की प्रगति की स्पष्ट रूप से कुछ सीमाएँ हैं। कठिनाई यह है कि हम इन सीमाओं का अनुभव नहीं करते। संभवतः इसी में हरित रसायन की उपयोगिता का भाव छिपा है।
विज्ञान अपने सभी रूपों में मानव की उत्तरजीविता और प्रगति के लिए आवश्यक है। विशेष रूप से, रसायन सदैव लगभग सभी उत्पादन प्रक्रियाओं से संबंधित रहे हैं, जैसे कि खाद्य उद्योग, वस्त्र उद्योग, रंजक, सौन्दर्य-सामग्री, तेल और पेंट, कीटनाशक, प्लास्टिक, औषधि और फार्मास्यूटिकल इत्यादि। दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले ऐसे उत्पादों की एक अंतहीन सूची है जिनमें रसायनों का उपयोग होता है। रसायनों के प्रयोग से हमारा जीवन स्तर बहुत सुधर गया है तथा इनके बिना जीवन संभव ही नहीं लगता। रसायनों के प्रयोग से जो औषधि निर्माण किया जाता है उसके प्रयोग द्वारा हमारी आयु अब 75 वर्ष से भी अधिक हो गयी है जो 19वीं सदी में मात्र 45 वर्ष थी। 
रासायनिक क्रियाओं में अनेक प्रकार के अवयवों, तत्वों एवं विलायकों का प्रयोग किया जाता है। इन प्रक्रियाओं में बहुत से ऐसे पदार्थ भी बनते हैं जो अनचाहे व हानिकारक होते हैं और वातावरण में प्रदूषण फैलाते हैं। चूंकि यह अवयव पर्यावरण में मुक्त हो जाते हैं इसलिए यह रसायन उद्योग की सबसे बड़ी परेशानी है। इस त्रासदी का एक मुख्य उदाहरण है- देश में 1984 की भोपाल गैस त्रासदी जिसमें लगभग 2500 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी थी तथा एक लाख पचास हजार से अधिक व्यक्ति प्रभावित हुये थे। इस उद्योग में मिथाइल आइसोसायनेट नामक अवयव एक अनचाहा यौगिक था जो कि वातावरण में मुक्त हो गया था। इसी प्रकार एक बार अमेरिका के ओहिओ प्रांत में बह रही नदी कुयाहोगा में भीषण आग लग गयी थी। डी डी टी का निर्माण दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जूं व किल्नी मारने के लिये किया गया था परंतु बाद में इसका उपयोग मच्छर मारने के लिये किया जाने लगा। अब अनुसंधानों के आधार पर इसे कैंसर जनक पाया गया है तथा इसके प्रभाव से एक विशेष किस्म की चील भी घटती जा रही है। अतः यही कारण है कि हरित रसायनों का विकास करना आवश्यक हो गया है। यह रसायन न केवल वातावरण के लिये उपयोगी होंगे अपितु हमारे स्वास्थ्य के लिये भी लाभकारी सिद्ध होंेगे। इस प्रकार की प्रतिक्रिया को हरित प्रतिक्रिया कहते हैं। 
हरित रसायनों की उत्पत्ति वर्ष 1991 में अमेरिका के एक वैज्ञानिक पाल अनास्तास द्वारा की गयी थी। उनके अनुसार ऐसे रसायनों के विकास लिये रासायनिक प्रक्रिया में कुछ सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक होता है तथा ध्यान रखता होता है कि उपरोक्त रासायनिक प्रक्रिया में कोई हानिकारक उत्पाद उत्पन्न न हो तथापि समय के साथ-साथ इसमें कुछ अन्य सिद्धांतों का विकास एवं समावेश किया गया है। प्रायः हरित रसायनों को पर्यावरणीय रसायनों के समकक्ष समझा जाता है परंतु पर्यावरणीय रसायनों को हरित रसायनों से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि पर्यावरणीय रसायनों में पर्यावरण से संबंधित रासायनिक प्रतिक्रियाओं का ही अध्ययन किया जाता है। 
एक ऐसी दुनिया की कल्पना कीजिए जिसमें विषैले विलायकों और रसायनों के स्थान पर औद्योगिक निर्माण में शर्करा, स्टार्च और सूर्य के प्रकाश का उपयोग निवेश के रूप में किया जाता हो। सोचिए कि उत्पाद अ-हानिकर पदार्थों में जैवअपक्षीणित होते हों। कल्पना करिए कि फैक्ट्रियों से बाहर आने वाला पानी शुद्ध और स्वच्छ हो और प्रदूषित नदियों को फिर से जीवनदान मिल गया हो। क्या होता, अगर औद्योगिक रसायन जैव-आधारित होते और किसानों द्वारा पोषणीय कृषि द्वारा उत्पादित किए जाते? एक ऐसे कार्य स्थल की कल्पना कीजिए जो प्रदूषण मुक्त हो और कार्बन डाइ ऑक्साइड ग्रीन हाउस गैस के रूप में उत्सर्जित न होकर, बहुमूल्य औद्योगिक निवेश हो। केवल हरित रसायन ही इस स्वप्न को सच बना सकता है। 
हरित रसायन की खोज सर्वप्रथम अमेरिका व ब्रिटेन में की गयी थी। इस खोज का मुख्य उद्देश्य ऐसी प्रतिक्रियाओं का विकास करना था जिनमें कम से कम अनुपयोगी एवं हानिकारक पदार्थों की उत्पत्ति हो। इन प्रतिक्रियाओं में यह ध्यान रखा जाता था कि उपरोक्त गुण के साथ-साथ क्रिया की गति एवं उत्पाद की गुणवत्ता भी बनी रहे। ऐसा करना संभव हो सके इसके लिए वैज्ञानिक निरंतर नये यौगिक एवं विलायकों तथा उत्प्रेरकों के विकास में लगे हैं। हरित रसायन वास्तव में एक उपयोगी प्रक्रिया के अंग हैं जिसका प्रयोग 1950 से किया जा रहा है, परंतु इसका संज्ञान वर्ष 2005 में उस समय हुआ जब इस काम के लिए वर्ष 2005 का नोबेल पुरस्कार तीन अमेरिकी वैज्ञानिकों (वाई चाउमीन, आर.एच। ग्रुब्स तथा आर.आर। प्रोश्क को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि इस प्रक्रिया में क्रियाशील यौगिक स्थानापन्न हो जाते हैं और कोई  नया यौगिक या अवशेष नहीं बनता है। 
अ - ब   क - ख = अ - क  ब - ख 
यह प्रक्रिया ओलोफिन के निर्माण में एक आम बात है। इस स्थानापन्न प्रक्रिया का उपयोग औषधीय रसायनों, खाद्य पदार्थों, रसायन उद्योग, जैव प्रौद्योगिकी, पॉलीमर उद्योग तथा कागज उद्योग में बहुत ज्यादा किया जा रहा है। यह विधि कीत रसायनों के संश्लेषण हेतु भी अति उपयोगी एवं प्रभावी है। इस रासायनिक प्रक्रिया के 12 मुख्य सिद्धांत हैं जिनका प्रतिपादन वर्ष 1997 में डा पाल अनास्टस व जान सी वाकर द्वारा किया गया था। ये सिद्धांत इस प्रकार हैं
1. प्रदूषण नियंत्रणः किसी भी प्रक्रिया में अनावश्यक एवं अनुपयोगी पदार्थों के निर्माण को रोक कर प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है। अलग अलग लोगों के लिए इसका तरीका भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए, अगर अपनी गाड़ी की जगह पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का उपयोग किया जाए तो कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। इसी प्रकार अगर कागज का पुनर्चक्रण किया जाए जो प्राकृतिक संसाधनों के अतिउपयोग को तो कम किया ही जा सकता है साथ ही कागज निर्माण के दौरान निकलने वाले विषैले पदार्थों की मात्रा भी कम की जा सकती है। इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है सौर ऊर्जा को रसायन ऊर्जा और विद्युत ऊर्जा में बदलने की प्रभावी विधियां विकसित करना। इससे परमाणु संयंत्रों द्वारा ऊर्जा उत्पन्न करने से बचा जा सकेगा जिसमें बहुत अधिक रेडियो सक्रिय व्यर्थ, गैस और रासायनिक प्रदूषक निकलते हैं।
2. परमाणु मितव्ययताः एक रसायन से दूसरा रसायन बनाते समय, प्रारंभिक रसायन का कुछ भाग नष्ट हो जाता है। परमाणु की मितव्ययता व संश्लेषण हेतु ऐसी प्रक्रियाओं की खोज आवश्यक है जिनमें क्रियाशील घटकों का सम्पूर्ण उपयोग हमारे अंतिम उत्पाद बनने में हो जाय जिसके लिए यह प्रक्रिया की जा रही है। यह बिल्कुल भोजन बनाने जैसा है जिसमें सारे घटक डाल दिए जाते हैं और बिना किसी व्यर्थ के उत्पादन के खाना बन जाता है। कार्बनिक रसायन में इसके कुछ प्रसिद्ध उदाहरणों में हैं ग्रिगनार्ड प्रतिक्रिया और डील्स-एल्डर प्रतिक्रिया जिनमें परमाणु मितव्ययता क्रमशः 44.2 प्रतिशत और 100 प्रतिशत होती है। परमाणु मितव्ययता एक सैद्धांतिक मान है जिसका उपयोग रासायनिक प्रतिक्रिया की परमाणु क्षमता की गणना करने में किया जाता है। 
3. कम घातक रसायन संश्लेषणः यथा संभव रासायनिक उत्पादों के निर्माण हेतु उन विधियों का उपयोग करना चाहिये जिनमें हानिकारक तत्वों का निर्माण न हो या नगण्य हो अन्यथा इन विषालु तत्वों से मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण दोनों पर ही प्रतिकूल प्रभाव पडेंगे। विटिग प्रतिक्रिया के बजाए अधिक सुरक्षित ग्रब्स उत्प्रेरक के जरिए एल्कीन बनाना, इसका एक अच्छा उदाहरण है। सुरक्षिक ग्रब्स प्रतिक्रिया हाल के ही वर्षों की खोज है जबकि विटिग प्रतिक्रिया युगों पुरानी विधि है जो अनेक संश्लेषण प्रतिक्रियाओं में सहायक रही है। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि किस प्र्रकार एक महत्वपूर्ण किंतु पुरानी विधि को एक अपेक्षाकृत सुरक्षित विधि से विस्थापित किया जा सकता है। ग्रब्स उत्प्रेरक, विटिग प्रतिक्रिया की तुलना में बहुत कम व्यर्थ का उत्पादन करते हैं।
4. सुरक्षित रसायनों का अभिकल्पनः रासायनिक उत्पादों के निर्माण एवं विकास के लिए यथा संभव यह प्रयास किया जाना चाहिये कि निर्मित उत्पाद की गुणवत्ता अधिकतम हो तथा उत्पाद विषालुता रहित हो। रासायनिक पदार्थों में बहुत से गुण होते हैं जो उनके व्यापारिक मूल्य का निर्धारण करते हैं जैसे कि बहुलकता प्रकृति, कोटिंग बनाने की क्षमता आदि। इसी प्रकार, वे जैविक क्रियाएं भी दिखाते हैं जो उन्हें लाभकारी औषधि जैसे यौगिकों में शामिल करती हैं और अगर वे जैविक रूप से हानिकारक होते हैं तो उन्हें विष की श्रेणी में रखा जाता है। हालांकि, हमारे लिए उपयोगी सभी प्रकार के अणुओं या रसायनों में हमेशा थोड़ी बहुत विषालुता तो होती ही है। इसलिए, आवश्यक हो जाता है कि पूर्व ज्ञान के आधार पर रसायनज्ञ सुरक्षित रसायन का अभिकल्पन करें। अभी तक अणुओं की रचना और उनकी विषालुता से संबंधित काफी आंकड़े जुटाए जा चुके हैं जिनके आधार पर सुरक्षित अणुओं की रचना संभव हो सकेगी।
5. सुरक्षित विलायक और सहायकः विलायक वे पदार्थ, आमतौर से तरल पदार्थ, होते हैं जो अनेक प्रकार के ठोस पदार्थों को विलेय कर सकते हैं और बाद में सरलता से वाष्पित हो जाते हैं। विलायकों के अनेक उपयोग होते हैं जैसे कि रासायनिक प्रतिक्रिया के लिए ठोस पदार्थों को विलेय करना, पेंट्स को घोलना जो दीवारों या दरवाजों पर लगाए जाने के बाद वाष्पित हो जाते हैं, कॉफी को डीकेफीनेट करना, मिश्रणों में से कार्बनिक यौगिकों को अलग करना आदि। यह सोचना भी कठिन और अव्यावहारिक है कि इन विलायकों का उपयोग बंद कर दिया जाए जो पैट्रोल और तेल उद्योग, एक अनवीकरणीय संसाधन की देन हैं। हालाँकि विलायक संश्लेषण प्रक्रियाओं में काफी बड़ी मात्राा में व्यर्थ का उत्पादन करते हैं और वाष्पन के बाद वायु को भी प्रदूषित करते हैं। इसलिए जरूरी है कि किसी भी रासायनिक प्रतिक्रिया में उपयोग किये जाने वाले विलायक एवं घटक पूर्णतया सुरक्षित एवं विषालुता मुक्त होने चाहिए अन्यथा उत्पाद हरित रसायन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकेगा।
6. ऊर्जा दक्षता के लिए अभिकल्पनः ऊर्जा की बढ़ती खपत और भविष्य में मांग और बढ़ने की संभावना के साथ साथ घटते ऊर्जा स्रोतों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गंभीर चिंता में डाल दिया है। इस समस्या का हल उपलब्ध संसाधनों का और गहराई तक दोहन नहीं है बल्कि ऊर्जा उत्पादन के वैकल्पिक स्रोत ढूंढना है। क्योंकि ऊर्जा संरक्षण किसी भी प्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आवश्यक होता है, अतः यह अति महत्वपूर्ण है कि सभी रासायनिक प्रतिक्रियाएँ यथा संभव सामान्य तापमान एवं दबाव पर करना चाहिये ताकि प्रतिक्रिया के लिए न्यूनतम ऊर्जा की आवश्यकता हो तथा ऊर्जा का अनावश्यक ह्रास न हो। दूसरी ओर, सौर ऊर्जा, जैव ईंधन, पवन ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, हाइड्रोजन सैल और प्रोटॉन एक्सचेंज मेम्ब्रेन सैल जैसे कभी न खत्म होने वाले संसाधनों से ऊर्जा उत्पन्न की वैकल्पिक विधियां विकसित करने के लिए अनुसंधान कार्य जारी हैं। इनमें से सबसे बेहतर तरीका है कार्बनिक अणुओं का प्रयोग करके सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलना है।
7. पुनर्नवीकरणीय फीडस्टॉक का उपयोगः इन दिनों यह क्षेत्र न केवल चर्चा में है बल्कि इस दिशा में अनुसंधान कार्य भी तेजी से चल रहे हैं। वातावरण में ऐसे बहुत से अक्षय स्रोत होते हैं जो प्रकृति की देन हैं और यहां निरंतर उपलब्ध रहते हैं। वातावरण से उपलब्ध होने के कारण इनके उपयोग हेतु कोई व्यय भी नहीं करना पड़ता है। अतः यदि यह रासायनिक प्रक्रिया हेतु सुगमता से उपलब्ध हों तो इन्हीं को प्रयोग करना चाहिये क्योंकि इससे वातावरण व पर्यावरण सुरक्षित रहता है।
आज कल पैट्रोलियम तथा अन्य समाप्त प्रायः संसाधनों के बजाय प्राकृतिक संसाधनों से कार्बनिक रसायन और संबंधित उत्पाद बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं। यह कोई बहुत नया क्षेत्र नहीं है क्यों कि बहुत पहले से ही गन्ने, चुकंदर, अंगूर आदि अनेक स्रोतों से इथेनॉल का उत्पादन किया जा रहा है। इसलिए, प्राकृतिक स्रोतों से अन्य रसायन या उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं। इसका सबसे उत्तम विकल्प है काष्ठ, फसलों, कृषि व्यर्थ आदि से प्राप्त बायोमास। प्रकृति से प्राप्त होने वाले पुनर्नवीकरणीय पदार्थ हैं लिग्निन, सुबेरिन, सैल्युलोस, पॉलीहाइड्रॅक्सीएल्कानोएट, लैक्टिक अम्ल, काइटिन, स्टार्च, तेल, ग्लिसरॉल आदि। इनसे अन्य उपयोगी रसायन या पदार्थ बनाए जा सकते हैं जैसे कि काइटिन से बाइटोसान बनाया जा सकता है जिसका उपयोग जल के शुद्धिकरण, बायोमेडिकल अनुप्रयोगों में किया जाता है। विशेष बात यह है कि ये अन्य प्रक्रियाओं जैसे कि खेती के बाद बचे व्यर्थ उत्पाद हैं ओर इसलिए सबसे सस्ता विकल्प हैं।
8. न्यूनीकृत व्युत्पन्नः यह कई चरणों में यौगिकों का संश्लेषण करने वाले रसायनज्ञों पर अधिक लागू होता है। व्युत्पन्न पदार्थ किसी भी रासायनिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग होते हैं परंतु यह प्रक्रिया में न केवल अधिक ऊर्जा व्यय कराते हैं अपितु वातावरण हेतु हानिकारक भी होते हैं अतः प्रक्रिया में ऐसे रोधक समूहों का उपयोग करना चाहिये जो व्युत्पन्न पदार्थ बनने से रोक सकें बल्कि यौगिक संश्लेषण की प्रक्रिया भी जहाँ तक संभव हो छोटी हो। हालांकि संश्लेषण की ऐसी विधियां खोजना चुनौतीपूर्ण है लेकिन आने वाले समय में व्यर्थ को कई टन कम कर पाना संभव होगा और यही हरित रसायन की सफलता है। पोलेरॉयड फिल्म बनाने की प्रक्रिया ऐसी ही एक अभिकल्पित प्रक्रिया है जिसमें अब व्यर्थ के उत्पादन को काफी कम कर दिया गया है।
9. उत्प्रेरणः उत्प्रेरक किसी भी प्रक्रिया की गति को तेज करने में सहायक होते हैं अतः प्रक्रिया को शीघ्र पूर्ण करने हेतु इन उत्प्रेरक रसायनों का उपयोग करना चाहिये जिससे क्रिया को गति प्राप्त हो तथा ऊर्जा का संरक्षण हो सके। इस प्रकार उत्प्रेरक हरित रसायन में तीन प्रकार से सहयोग दे सकते हैं प्रक्रिया की सक्रियक ऊर्जा को कम करके, अनचाही प्रतिक्रियाओं को होने से रोक कर और जैव-उत्प्रेरकों के प्रयोग द्वारा व्यर्थ बहुत कम करके जिनमें से अधिकांश जैवअपक्षीणक और अ-प्रदूषणकारी होते हैं। 
10. अपक्षय की रूपरेखाः किसी भी प्रक्रिया हेतु ऐसे रसायनों का उपयोग किया जाना चाहिये जो आसानी से वातावरण में विघटित हो जायें तथा अधिक समय तक स्थायी न रहें अन्यथा यह वातावरण में प्रदूषण फैलाते हैं और मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। यही कारण है कि घरों में नियमित रूप से प्रयोग किए जाने वाले पदार्थों पर न केवल नजर रखी जा रही है बल्कि उन पर काम भी किया जा रहा है। इन पदार्थों में आते हैं डिटर्जेंट, प्लास्टिक बैग तथा प्लास्टिक का अन्य सामान तथा पेंट आदि। डिटर्जेंट से फैलने वाले प्रदूषण और खतरे का एक रोचक उदाहरण बीसवीं शताब्दी के पांचवें दशक में उस समय देखने में आया जब नल में से साबुन के झाग वाला पानी आने लगा था। ऐसे पदार्थों का सही और संपूर्ण अपक्षीणन जरूरी है। इसी प्रकार प्लास्टिक के बैग के स्थान पर कपड़े के थैले के प्रयोग से प्लास्टिक प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
11. प्रदूषण नियंत्रण के लिए यथा समय विश्लेषणः प्रक्रिया हेतु ऐसी विश्लेषणात्मक तकनीकियों का उपयोग एवं जानकारी अति आवश्यक है जिससे कि यथा स्थान प्रदूषण का मापन एवं आकलन किया जा सके एवं हानिकारक अपशिष्टों का निर्माण रोका जा सके। ऐसा करके काफी बड़ी मात्रा में ऊर्जा भी बचायी जा सकती है। इस परिकल्पना का महत्व उस समय और भी बढ़ जाता है जब कोई प्रतिक्रिया बड़े पैमाने पर हो रही हो और कुछ मिनटों के लिए बिजली की बचत करके काफी बड़ी मात्रा में ऊर्जा बचायी जा सकती हो। इसी प्रकार, उपोत्पाद बनने को रोक कर शुद्धिकरण की प्रक्रिया के दौरान काफी मात्रा में विलायक बचाया जा सकता है। इन सब लाभों को देखते हुए रसायनज्ञों के लिए यथासमय विश्लेषण जरूरी हो जाता है।
12. दुर्घटना नियंत्रण के लिए सुरक्षित रसायनः उद्योगों में आए दिन घटने वाली दुर्घटनाओं से पर्यावरण को तो क्षति पहुंचती ही है, मानव जीवन भी असुरक्षित हो जाता है और आर्थिक नुकसान भी होता है। इसलिए जरूरी है कि प्रक्रिया में किसी भी विस्फोटक रसायन का प्रयोग यथा संभव नहीं किया जाना चाहिये जिससे कि किसी भी विस्फोट की संभावना न हो और दुर्घटना की संभावना न्यूनतम हो। भोपाल गैस दुर्घटना इसका जीता जागता उदाहरण है।
 
हरित रसायनों हेतु कुछ मुख्य घटक
वातावरण को सुरक्षित रखने व प्रक्रिया को प्रभावी बनाने हेतु प्रक्रिया के घटकों की जानकारी आवश्यक है और वैज्ञानिक निरंतर उपयोगी घटकों की खोज कर रहे हैं। हरित विलायकः विलायक किसी भी रासायनिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग होते हैं। अतः विलायकों के बारे में जानकारी आवश्यक होती है। क्रियात्मक तत्व समानुपाती घोल में प्रभावी रूप से क्रिया करने में सक्षम होते हैं क्योंकि इस प्रकार के विलायकों को  प्रयोग करने (गर्म करने, हिलाने डुलाने इत्यादि) में सहायता मिलती है तथा क्रिया की गति बढ़ जाती है। इन विलायकों की खोज मात्र इस कारण की गयी क्योंकि सामान्य कार्बनिक विलायकों जैसे बेंजीन, टॉलीन, कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथीलीन क्लोराइड इत्यादि के अनेकों दुष्प्रभाव होते हैं। कुछ सामान्य विलायक जिनका वर्तमान में प्रयोग किया जा रहा है, वे हैं-
  • आयनिक तरल पदार्थ: यह प्रायः कार्बनिक कैटायनों के लवण होते हैं जैसे कि एल्काइल अमोनियम एवं एल्काइल पाइरिडीन। ये तरल पदार्थ इसलिये भी विशेष होते हैं क्योंकि ये वातावरण के तापमान या उसके नीचे भी कोई वाष्पीय दबाब नहीं बनाते हैं। इसके अतिरिक्त ये आयनिक तरल पदार्थ विलायक के अतिरिक्त उत्प्रेरक की भूमिका भी निभाते हैं तथा इनके प्रयोग के लिए विशेष उपकरणों या विधियों की भी आवश्यकता नहीं होती है। इनका प्रयोग बहुलक पदार्थों के निर्माण में भी किया जाता है।
  • अतिसंवेदी तरल कार्बन डाइऑक्साइडः संवेदी तापमान एवं दबाव पर कोई भी तरल पदार्थ गैस व तरल की अवस्था के मध्य होता है। इस अवस्था में यह किसी भी ठोस पदार्थ को भेदने तथा कार्बनिक रसायनों को घोलने में सहायक होता है। अतः औद्योगिक उपयोगिता के कारण कार्बन डाइऑक्साइड को इस अवस्था में प्रयोग किया जा सकता है जैसे कि चाय व कॉफी को कैफीन रहित बनाने में। अतिसंवेदी तरल कार्बन डाइऑक्साइड इसलिए बहुत उपयोगी होती है क्योंकि यह ज्वलनशील नहीं होती है। 
  • अतिसंवेदी जलः 374°C तापमान व 218 वायुमंडलीय दाब पर जल अतिसंवेदी हो जाता है। यद्यपि जल में अधिकतम कार्बनिक रसायन नहीं घुलते लेकिन अतिसंवेदी जल में यह कार्बनिक रसायन घुल जाते हैं। अतिसंवेदी तरल कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत अतिसंवेदी जल में कोई भी कार्बनिक क्रिया संभव नहीं होती है। फिर भी कार्बनिक क्रियाएँ अतिसंवेदी जल को अधिक तापमान पर प्रयोग कर संभव हो जाती हैं। अतिसंवेदी जल के प्रयोग द्वारा क्वार्ट्ज़ कणों का संश्लेषण एक अनुपम उदाहरण है क्योंकि इनका उपयोग मोबाइल फोन में होता है। अतिसंवेदी जल के ऑक्सीकरण द्वारा दूषित जल को साफ किया जा सकता है।
  • जल का रासायनिक क्रिया के विलायक के रूप में प्रयोगः जल के अनेक गुणों के कारण इसका उपयोग कार्बनिक क्रियाओं में किया जाता है। 200°C से अधिक तापमान पर जल (तरल अवस्था में) एक कार्बनिक घोलक के रूप में कार्य करता है। जल क्योंकि अज्वलनशील, प्राकृतिक व अविषालु होता है अतः इसकी विशेष उपयोगिता है। अनेक क्रियाएँ जल क्रिया की गति को कई गुना बढ़ा देती हैं। 
  • उपरोक्त के अतिरिक्त हरित रसायनों हेतु कुछ अन्य विचारणीय बातें इस प्रकार हैं- क्रिया ठोस माध्यम में होः यदि विषालु विलायकों का उपयोग न किया जाय तो क्रिया अत्यंत शुद्ध होगी। उदाहरण के तौर पर ब्रोमीनेशन प्रक्रिया, अल्कोहल व अकींस को जलमुक्त करना, थैलाइड व ब्यूटेनोलाइड का संश्लेषण इत्यादि। उत्प्रेरकों, जैवउत्प्रेरकों व फेज ट्रांसफर उत्प्रेरकों का उपयोगः उत्प्रेरकों, जैवउत्प्रेरकों व फेज ट्रांसफर उत्प्रेरकों से किसी भी क्रिया को कम समय में पूरा किया जा सकता है तथा यह हरित रसायनों के लिए लाभदायक हो सकता है। हरित रसायनों के लिए हमें यह ध्यान रखना होगा कि यथासंभव अक्षय स्रोतों का उपयोग किया जाए।
हरित रसायनों की उपयोगिता
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
  • · स्वच्छ प्राण वायुः हानिकारक रसायनों को वायु में कम मात्रा में निर्मुक्त किए जाने से श्वसन के लिए स्वच्छ वायु मिलती है और फेफड़ों को नुकसान नहीं पहुँचता। 
  • · स्वच्छ जलः फैक्ट्रियों द्वारा नदियों में खतरनाक रसायनों का रिसाव न होने से स्वच्छ पेय जल उपलब्ध हो सकेगा। 
  • · रसायन उद्योगों में काम करने वाले कामगारों को सुरक्षित वातावरण मिलेगा, सुरक्षा उपकरणों की आवश्यकता कम होगी और दुर्घटनाओं की संभावना भी कम हो जाएगी। 
  • · न केवल सभी प्रकार के उपभोक्ता उत्पाद जैसे कि औषधियाँ, सुरक्षित होंगे बल्कि उनके बनाने में व्यर्थ का उत्पादन भी कम होगा। कुछ उत्पादों जैसे कि कीटनाशक, प्रक्षालक आदि को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित उत्पादों से विस्थापित किया जा सकेगा।
  • · सुरक्षित आहारः ऐसे कीटनाशकों का प्रयोग करके जो केवल नाशककीटों के लिए ही हानिकारक हों साथ ही प्रयोग करने के बाद शीघ्र ही अपद्याटित हो जाते हों, खाद्य श्रृंखला में अनचाहे रसायनों के प्रवेश को रोका जा सकेगा। 
  • · किसी भी रूप में विषैले रसायनों के संपर्क में आने से बचा जा सकेगा।
· पर्यावरण पर होने वाला प्रभाव
  • · निर्माण प्रक्रिया के दौरान या निस्तारण के समय या प्रयोग के समय अनचाहे ही अनेक रसायन निर्मुक्त होकर पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं लेकिन हरित रसायन या तो जल्दी अपघटित हो जाते हैं अन्यथा उन्हें पुनःप्राप्त करके फिर से उपयोग में लाया जा सकता है। 
  • · पर्यावरण में विषैले रसायनों के न होने से पौधों और जीवों को क्षति पहुंचने का खतरा भी कम हो जाता है। 
  • · ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन विदरण और स्मोग का बनने की दर में भी कमी आ जाएगी। स पारिस्थितिक तंत्र सुरक्षित हो सकेगा। 
  • · व्यर्थ का जमाव कम होगा।
आर्थिक प्रभाव
  • · बेहतर निष्पादन के कारण उसी काम को करने के लिए कम उत्पाद की आवश्यकता होगी। 
  • · निर्माण प्रक्रिया के छोटा हो जाने के कारण उत्पादों का निर्माण तेजी से होगा जिससे संयंत्र की क्षमता बढ़ेगी और ऊर्जा एवं जल की खपत में कमी आएगी। 
  • · व्यर्थ का उत्पादन कम होने उत्पादन लागत के साथ साथ व्यर्थ पदार्थों के रेमेडिएशन पर होने वाले खर्च में कमी आएगी। 
  • · उत्पादों पर लगा सुरक्षा लेबल अधिक संख्या में उपभोक्ताओं को लुभाएगा। स रसायन उद्यमों और उनके उपभोक्ताओं के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी।
 
समय की मांग है कि उत्पादों के निर्माण की ऐसी तकनीकें विकसित की जाएं जो पर्यावरण के अनुकूल हों और उनमें रासायनिक प्रदूषण और व्यर्थ उत्पादन कम से कम हो। जब हरित रसायन और ई-फैक्टर अर्थात पर्यावरण को ध्यान में रखकर कोई रासायनिक उत्पाद बनाया जाएगा तो उद्योगों द्वारा निकलने वाले व्यर्थ पर भी नियंत्रण रखा जा सकेगा। ई-फैक्टर का महत्व किसी भी उत्पाद के अभिकल्पन की अवस्था से ही आरंभ हो जाना चाहिए जिससे यह ग्रीन या हरित संकल्पना के अनुकूल हो। ई-फैक्टर ऐसी नवीन प्रक्रियाएँ और उत्पाद विकसित करने में सहायक होता है जो पर्यावरण को हानि नहीं पहुँचाते। यह ऐसे सुरक्षित, जैव अपक्षीणक और कम हानिकारक और लाभदायक रासायनिक उत्पाद विकसित करने पर जोर देता है जो ऊर्जा प्रभावी भी होते हैं। पिछले दो दशकों में वैज्ञानिकों का यह विचार रहा है कि पर्यावरण सुरक्षा हेतु हमें यथासंभव हरित रसायनों का उपयोग करना चाहिये और तभी हम एक सुरक्षित भविष्य की कामना कर सकते हैं। 
 
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