सामयिक


विज्ञान लोकप्रियकरण के मायने और भारतीय योगदान

डॉ.मनीष मोहन गोरे

 

विज्ञान और इसका समाज पर होने वाले प्रभाव को लेकर अनेक प्रकार की व्याख्याएं की जाती हैं। लेकिन, यह एक प्रकट सत्य है कि दुनिया में वे देश और उनका समाज कहीं अधिक प्रगतिशील रहा है, जहाँ विज्ञाान के महत्व को समझकर विज्ञाान और वैज्ञाानिक दोनों की सराहना की जाती है। इसलिए यह जरुरी है कि वैज्ञाानिक उन्नति के साथ-साथ ऐसे समाज का निर्माण हो जो कि विज्ञान को आत्मसात करते हुए इसके महत्व को सराहें। यहीं पर विज्ञाान लोकप्रियकरण का औचित्य सामने आता है। वैसे तो विज्ञाान संचार के अनेक उद्देश्य हैं मगर उन सबमें अंतर्निहित एक मूल उद्देश्य है आमजन को विज्ञाान और प्रौद्योगिकी की सूचना को साझा करते हुए उनमें वैज्ञाानिक दृष्टिकोण (साइंटिफिक टेम्पर) का विकास करना।

वैज्ञानिक शोध करते हैं और विज्ञान संचारक उन शोध के सामाजिक निहितार्थों को आमजन के सामने रखते हैं। शोध कार्यों को अंजाम देने और इन पर लिखने वाले वैज्ञानिक संबंधित अध्ययन शाखा के विशेषज्ञ होते हैं, साथ ही इसके लक्ष्य पाठक वर्ग भी समांतर मानसिक स्तर के होते हैं। दूसरी ओर शैक्षिक पाठ्यक्रम में जो वैज्ञानिक जानकारी शामिल की जाती है, वह शोध पत्रों से अलग व सरल होती है, परंतु इन्हें समझने के लिए अनुभवी विषय विशेषज्ञ के मार्गदर्शन की जरूरत होती है। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि शोध पत्र और शैक्षिक पाठ्यक्रम में जो विज्ञान शामिल किया जाता है, वह विशेषज्ञ अनुकूल होता है तथा विषय की पूर्व समझ की मांग करता है। यह एक आम आदमी के समझ से परे होता है। यही वजह है कि ‘नेचर’ में प्रकाशित शोध पत्र विज्ञान संचार की श्रेणी में नहीं आता। शोध लेख या शोध पत्र की रुपरेखा पापुलर विज्ञान लेख से एकदम हटके होती है। संचार प्रक्रिया और समाज के साथ जब विज्ञान का पहलू जुड़ जाए तो उसे व्यापक रूप में विज्ञान लोकप्रियकरण या विज्ञान संचार कहते हैं। वैज्ञानिकों या विशेषज्ञों के परस्पर संवाद को अकादमिक संवाद कहते हैं। इसमें दोनों का बौद्धिक स्तर लगभग समान होता है। लेकिन एक विशेषज्ञ या विज्ञान संचारक या वैज्ञानिक जब आमजन, युवाओं या बच्चों को विज्ञान की जानकारी सरल और सुबोध भाषा-शैली में साझा करता है तब उसे विज्ञान संचार या लोकप्रियकरण कहते हैं।  
विज्ञान लोकप्रियकरण के अंतर्गत आमजन को विज्ञान से जोड़ा जाता है। विज्ञान, तकनीक व इनसे जुड़ी उपलब्धियों की जानकारी वैज्ञानिक, विद्यार्थी, शिक्षक के साथ-साथ एक आम आदमी को होना भी जरूरी है। हर कोई ज्ञान-विज्ञान के बारे में जानने के लिए जिज्ञासु होता है। इसी सहज जिज्ञासा को ध्यान में रखकर भारतीय संविधान के अंतर्गत वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना हर एक नागरिक का मौलिक कर्तव्य सुनिश्चित किया गया है (अनुच्छेद 51।एी,)। विज्ञान संचार के मुख्य रूप से छः व्यापक उद्देश्य होते हैं :

  • आमजन को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बारे में नवीन जानकारी से अवगत कराना।
  • आमजन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना।
  • समाज में व्याप्त अंधविश्वासों का निर्मूलन करना और लोगों को मानसिक रूप से सबल बनाकर जीवन में तर्कसंगत निर्णय लेने के लिए उन्हें प्रेरित करना
  • आमजन और विशेष रूप से युवाओं में विज्ञान व प्रोद्योगिकी आधारित कौशल विकास करना तथा रोजगार सृजन के साथ सामाजिक और राष्ट्रीय विकास को सशक्त बनाना।
  • आमजन और वैज्ञानिकों के बीच परस्पर संवाद (डायलाग) की प्रक्रिया आरंभ कर विज्ञान का लोकतांत्रिकरण करना।
  • विज्ञान और तकनीक के समावेश द्वारा समाज के वंचित समुदायों, आदिवासियों, दिव्यांगजनों आदि के जीवन को सुगम बनाना।  

भारत को सपेरों का देश बताकर उपहास बनाया जाता है और इसके पीछे मूल वजह यह है कि हमारे देश में आज भी अंधविश्वास का बोलबाला है। कुछ लोग अंधविश्वास के अलावा चमत्कार दिखाकर भोले-भाले और अशिक्षित लोगों को अपने झांसे में लेने का काम करते हैं। अंधविश्वास के निर्मूलन के साथ चमत्कारों के पीछे निहित विज्ञान की जानकारी देकर उस तथाकथित चमत्कार का पर्दाफाश करना भी विज्ञान संचार का एक अहम उद्देश्य है। इस संदर्भ में एक रोचक उदाहरण साझा किया जाना आवश्यक है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक चमत्कार एक्सपोजर एक्टिविस्ट को गिरतार करने वाले पुलिस सब इंस्पेक्टर को दंडित किया था। न्यायालय ने अपने बयान में कहा कि चमत्कार एक्टिविस्ट (विज्ञान संचारक) संविधान के मौलिक कर्तव्य का पालन कर रहा था (हुलिकल नटराज बनाम चिकमंगलूर पुलिस)।

वैज्ञाानिक दृष्टिकोण बनाम विज्ञान विधि

जहाँ तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात है, यह सोचने समझने और निर्णय करने का एक तर्कसंगत नजरिया होता है। यहाँ पर विज्ञान विधि का उल्लेख आवश्यक है। कोई भी वैज्ञानिक एक नियत विधि या परिपाटी से होकर एक प्रमाणित निष्कर्ष पर पहुंचता है। इसे विज्ञान विधि कहते हैं। इसमें पांच मुख्य चरण होते हैंः 1. प्रेक्षण, 2. प्रश्न का जन्म, 3. संकल्पना, 4. प्रयोग और 5. विश्लेषण व निष्कर्ष।
    जाने अनजाने बहुत से लोग विज्ञान विधि का उपयोग अपने दैनिक जीवन व्यवहार में करते हैं। खासतौर पर दैनिक जीवन का कोई निर्णय लेने में। इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समाज में व्यापक प्रसार हो और यदि लोग अपने दैनिक जीवन व्यवहार और निर्णय लेने में इसका प्रयोग अधिक से अधिक करें तो एक तर्क आधारित समाज का निर्माण होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक सोच, वैज्ञानिक मनोवृत्ति, वैज्ञानिक नजरिया, वैज्ञानिक भावना और वैज्ञानिक चेतना ये सभी अंग्रेजी के दो शब्दों scientific temper से निकले हैं, जिसका प्रयोग सर्वप्रथम भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ (1946) में किया था।    
    एक वैज्ञानिक दृष्टिसम्मत व्यक्ति इस प्रवृत्ति से अनेक लाभ प्राप्त करता है। वह अपनी या दूसरों की गलतियों से मिले अनुभव के आधार पर कदम उठाता है। विज्ञान की न्यूनतम या आदर्श समझ (उपदपउनउ वत वचजपउनउ ेबपमदबम) होने से वह प्रकृति और पर्यावरण का ज्ञान रखता है तथा उसके मुताबिक व्यवहार करता है। एक मामूली उदाहरण, यदि दाल को पकाने से पहले कुछ देर पानी में भिगो दिया जाए तो इससे न केवल दाल पकने में लगने वाला समय कम हो जाएगा, बल्कि ऊर्जा भी बचाई जा सकती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सामान्य विज्ञान की जानकारियों का हमारे जीवन में कितना महत्व है।
हम अपने दैनिक जीवन में बिना वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग किए अनेक ऐसे कार्य करते हैं जो असंगत और नुकसानदायक होते हैं। यहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अत्यंत आवश्यकता है। कुछ उदाहरण देखिए। प्लास्टिक के कप में गर्म चाय या कोई अन्य पेय पदार्थ पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है और कमरे की दुर्गन्ध को दूर करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले रूम फ्रेशनर कैंसर कारक होते हैं। धूप से आकर हम तुरंत ठंडा पानी पी लेते हैं। इससे शरीर के तापमान का संतुलन बिगड़ जाता है। सब्जी और फल धुलकर तुरंत उन्हें प्रयोग कर लेते हैं। जबकि उन्हें पकाने या खाने से पहले घंटा आधा घंटा पानी में रख देने से उनसे कीटनाशक रसायन पानी में घुल जाते हैं। इस तरह उनसे नुकसान का स्तर कम हो जाता है। ऐसी तमाम मामूली मगर जरूरी बातों की जानकारी और उसमें अपनी सूझ-बूझ लगाने से हमारा जीवन स्वस्थ और पर्यावरण सुरक्षित रहता है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित हर एक गूढ़ बात को जानना जरूरी नहीं लेकिन भले उसकी शैक्षिक पृष्ठभूमि विज्ञान की बेशक न रही हो, वह केवल साक्षर ही क्यों न हो, उसे विज्ञान की इतनी जानकारी होनी ही चाहिए कि वह उस जानकारी के संदर्भ में उचित निर्णय ले सके। बीसवीं सदी के विद्वान भारतीय विज्ञान संचारक स्वर्गीय राकेश पोपली ने न्यूनतम विज्ञान पर विस्तृत चिंतन किया था। एनसीएसटीसी ने भी एक परियोजना बनाकर आमजन के लिए न्यूनतम विज्ञान पर शोध किया था। इस तरह हम कह सकते हैं कि विज्ञान संचार, वैज्ञानिक जानकारी और जागरूकता (सजगता) का मिश्रित रूप होता है।

भारतीय विज्ञाान संचार : कुछ प्रमुख तथ्य

देश की आजादी से पहले के भारत में विज्ञान संचार के क्षेत्र में असंख्य संस्थाओं की भूमिका रही है। इनमें एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल, बांबे लिटरेरी सोसाइटी, मद्रास लिटरेरी सोसाइटी, सीरामपुर कालेज, अलीगढ़ साइंटिफिक सोसाइटी, बिहार साइंटिफिक सोसाइटी, इंडियन एसोसिएशन फार दी कल्टीवेशन ऑफ साइंस, पंजाब साइंस इंस्टीट्यूट, विज्ञान परिषद प्रयाग, उड़ीसा विज्ञान समिति, असम साइंस सोसाइटी, केरल शास्त्र साहित्य परिषद, मराठी विज्ञान परिषद, गुजरात विज्ञान सभा, मध्य प्रदेश विज्ञान सभा, त्रिपुरा साइंस फोरम आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
भारत की आजादी के बाद वैज्ञानिक वातावरण के निर्माण के लिए प्रयोगशालाओं की स्थापना के अलावा, विज्ञान लोकप्रियकरण की दिशा में भी अनेक प्रयोग किए गए। सीएसआईआर के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान प्रकाशन एवं सूचना निदेशालय की स्थापना की गई। 1996 में इसका नाम बदलकर राष्ट्रीय विज्ञान संचार संस्थान या निस्काम कर दिया गया। 2002 में राष्ट्रीय विज्ञान संचार संस्थान के साथ सीएसआईआर की एक और समान उद्देश्य वाली संस्था इंडियन नेशनल साइंटिफिक डाक्यूमेंटेशन सेंटर या इंस्डाक को जोड़कर राष्ट्रीय विज्ञान संचार एवं सूचना स्रोत संस्थान या निस्केयर की स्थापना की गई।
1 अक्टूबर 1961 में शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग का गठन किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य है वैज्ञानिक शब्दावलियों का निर्माण और उनका मानकीकरण करना। इस आयोग ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लगभग सभी विषयों पर प्रामाणिक शब्दावलियों का प्रकाशन किया है। विज्ञान लेखन में प्रामाणिक वैज्ञानिक शब्दावलियों के प्रयोग के लिए ये शब्दावलियां आधार का काम करती हैं। 1962 में 40 विज्ञान लेखकों और शिक्षकों के समूह ने केरल में एक स्वैच्छिक संस्था केरल शास्त्र साहित्य परिषद् का गठन किया। इस संस्था की करीब 2500 इकाइयां केरल में स्थित हैं। शिक्षा, पर्यावरण, स्वास्थ्य, ऊर्जा, कला, साहित्य, प्रकाशन, महिला विकास और शोध केएसएसपी के प्रमुख कार्य क्षेत्र हैं। इस संस्था के द्वारा अभी तक 700 से भी अधिक पापुलर साइंस पुस्तकें मलयालम भाषा में प्रकाशित की गई हैं। 1966 में महाराष्ट्र में मराठी विज्ञान परिषद् नामक एक महत्वपूर्ण विज्ञान लोकप्रियकरण संस्था की स्थापना की गई। महाराष्ट्र के वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के एक समूह ने इस संस्था का गठन किया था जिन्हें इस बात की चिंता थी कि अधिकांश मराठी भाषी लोगों तक वैज्ञानिक जानकारी उनकी अपनी भाषा में अनुपलब्ध है। 6-7 की संख्या से शुरू होकर वर्तमान समय में इस संस्था की सदस्य संख्या 1500 से अधिक हो गई है।
देश के अनेक राज्यों में विज्ञान संचार के विविध स्वरूपों में किए जा रहे प्रयासों को एकीकृत कर उन्हें सहायता प्रदान करने तथा विज्ञान लोकप्रियकरण के कार्यक्रमों, योजनाओं और नीतियों के निर्धारण के उद्देश्य से 1982 में भारत सरकार के विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद् (एनसीएसटीसी) की स्थापना की गई। एनसीएसटीसी के द्वारा पूरे देश में विभिन्न परियोजनाओंध्अभियानों के अंतर्गत कार्यशाला, प्रशिक्षण, रेडियो, टीवी कार्यक्रमों की संकल्पना तैयार कर उन्हें क्रियांवित किया जाता है।
विज्ञान लोकप्रियकरण के कार्यों को बड़े पैमाने पर हाथ में लेने, लोकविज्ञान साहित्य के प्रकाशन और विज्ञान संचार से संबद्ध अनेक संसाधन सामग्रियों जैसे कि सीडी रोम, किट, फिल्म, पोस्टर आदि साटवेयर के निर्माण करने के उद्देश्य से 1989 में विज्ञान प्रसार की स्थापना की गई। यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (भारत सरकार) का एक स्वायत्त संस्थान है। इस संस्थान ने लोकविज्ञान साहित्य पर 300 से अधिक पुस्तकें (हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में) प्रकाशित की हैं। बच्चों के लिए विज्ञान क्लबों का नेटवर्क (विपनेट क्लब), हैम रेडियो, गतिविधि किटों का निर्माण, विज्ञान चलचित्र मेला आदि विज्ञान प्रसार के महत्वपूर्ण विज्ञान संचार कार्यक्रम हैं। अंतरिक्ष व खगोलिकी से जुड़ी जागरूकता और टेलीस्कोप निर्माण कार्यशालाओं तथा रात्रि आकाश दर्शन के आयोजन भी विज्ञान प्रसार करता है। अभी हाल ही में इसकी कार्यक्रम सूची में अवसर, साइंस वायर और साइंस चौनल की महत्वपूर्ण कडि़यां जुड़ गयी है।

अहम योजनाएं और अभियान

भारत में विज्ञान लोकप्रियकरण के संदर्भ में जितने भी प्रयास हुए हैं, वे पूरी दुनिया के लिए अनोखे और अद्वितीय हैं। इन्हीं में से कुछ महत्वपूर्ण प्रयासों का विवरण यहां प्रस्तुत है।

राष्ट्रीय पुरस्कार

एनसीएसटीसी (डीएसटी) द्वारा विज्ञान लोकप्रियकरण के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रयासों को उत्प्रेरित, प्रोत्साहित और मान्यता प्रदान करने के लिए 1987 में राष्ट्रीय पुरस्कारों की स्थापना की गयी। वर्तमान में यह राष्ट्रीय पुरस्कार छः श्रेणियों में दिया जाता है- (1) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में उत्कृष्ट प्रयास के लिए, (2) प्रिंट मीडिया द्वारा विज्ञान संचार, (3) बच्चों में विज्ञान लोकप्रियकरण, (4) लोकविज्ञान साहित्य का संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं तथा अंग्रेजी में अनुवाद हेतु, (5) नवप्रवर्तक एवं पारंपरिक प्रणालियों द्वारा विज्ञान संचार तथा (6) इलेक्ट्रानिक मीडिया में विज्ञान संचार के उत्कृष्ट प्रयास के लिए।

इन्स्पायर पुरस्कार - मानक  

इंस्पायर-मानक यानि कि युवाओं को अनुंसधान में नवाचार की प्रेरणा प्रदान करना। यह डीएसटी, भारत सरकार का एक लैगशिप कार्यक्रम है, जिसका समन्वयक डीएसटी का स्वायत्त संस्थान नेशनल इन्नोवेशन फाउंडेशन - इंडिया करता है। इस योजना का उद्देश्य 10 से 15 साल की उम्र के 6 से लेकर 10वीं कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के मन में विज्ञान और सामाजिक महत्व के मुद्दों पर उत्पन्न नवाचारों को प्रोत्साहन देना तथा पुरस्कृत करना है। इस योजना से देश में नवाचार का वातावरण तैयार हुआ है।

साइंस चैनल

संचार के तमाम माध्यमों में आज भी विज्ञान की प्रामाणिक खबरें और उनसे जुड़े कंटेंट बेहद कम हैं। सन् 2008 में, सीएसआईआर- निस्टैड द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय मीडिया में विज्ञान का कंटेंट मात्र 3 से 4 प्रतिशत था। आज की स्थिति कमोबेश यही है। जो निजी टीवी चौनल हैं, वे विज्ञान कम ज्योतिष और अवैज्ञानिक सूचनाओं का प्रसारण ज्यादा करते हैं। इस हालात में सुधार के लिए डेडिकेटेड साइंस चौनल की जरुरत वर्षों से बनी हुई थी। इस कमी को भरने के लिए 15 जनवरी 2019 को विज्ञान एव प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार द्वारा दो नये साइंस चैनलों (डीडी साइंस और इण्डियासाइंस) की शुरूआत हुई। डीडी साइंस, एक घंटे का स्लॉट है जिसे दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर सोमवार से शनिवार सायं 5 से 6 बजे तक देखा जा सकता है। अभी इसे एक घंटे से शुरू किया गया है, जिसे भविष्य में पूर्ण विकसित चैनल बना दिया जायेगा। इण्डिया साइंस एक 24ग7 इंटरनेट आधारित विज्ञान टीवी चैनल है। यह व्ज्ज् (ओवर दि टॉप) प्रौद्योगिकी पर कार्य करता है। इस द्विभाषी (हिन्दी एवं अंग्रेजी) चैनल को किसी भी इंटरनेटयुक्त गैजेट जैसे कि लैपटॉप, स्मार्टफोन, स्मार्ट टीवी आदि पर निःशुल्क देखा जा सकता है।
इन साइंस चैनलों का क्रियान्वयन विज्ञान प्रसार, नोएडा द्वारा किया जा रहा है। इन चैनलों पर भारतीय प्रयोगशालाओं में होने वाले अनुसंधानों, एस एंड टी के क्षेत्र में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका, नवाचार, भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान, विज्ञान शिक्षा में किये जाने वाले प्रयोगों, नई तकनीकों आदि के बारे में सरस जानकारी दी जाएगी। ये साइंस चैनल भारत में विज्ञान संचार के इतिहास में मील के पत्थर साबित हुए हैं।

विपनेट क्लब

विपनेट दरअसल विज्ञान प्रसार के मार्गदर्शन में संचालित विज्ञान क्लबों का राष्ट्रीय नेटवर्क है। इसकी शुरुआत 1998 में की गयी थी। कुछ सौ से शुरू हुए इस नेटवर्क में आज दस हजार से भी अधिक साइंस क्लब जुड़े हुए हैं। इन विपनेट क्लबों का उद्देश्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी की जानकारी के प्रसार के साथ-साथ बच्चों में विज्ञान के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना है। ये क्लब भारत के हर राज्य में मौजूद हैं और वे समय-समय पर अपनी विज्ञान और पर्यावरण आदि से संबंधित गतिविधियों की रिपोर्ट विज्ञान प्रसार को भेजते हैं। बच्चे नए विपनेट क्लब बनाने की जानकारी विज्ञान प्रसार के वेबसाइट www.vigyanprasar.gov.in पद से पा सकते हैं।

विज्ञान रेल और साइंस एक्सप्रेस

रेल के पहियों पर विज्ञान प्रदर्शनी यानी कि ‘विज्ञान रेल’ विज्ञान प्रसार ने देश में (वर्ष 2004 से 2005 के दौरान) चलाई थी जिसकी बहुत सराहना हुई थी। यह विज्ञान संचार का एक नवाचारी प्रयास था। इस रेल में भारत की वैज्ञानिक विरासत और विज्ञान व तकनीक से जुड़ी देश की उपलब्धियों को प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल माध्यमों क्व जरिए दर्शाया गया था। विज्ञान रेल ने 8 महीने के अपने सफर के दौरान 15000 किलोमीटर की दूरी तय की थी और देश के छोटे-बड़े 60 स्टेशनों पर इसके पड़ाव थे। विज्ञान रेल के बाद एनसीएसटीसी के सौजन्य से अनेक चरणों में साइंस एक्सप्रेस पूरे देश में चलाई गई।
विज्ञाान जत्था
विज्ञान मेला, प्रदर्शनी, संगोष्ठी, कार्यशाला, सम्मेलन, व्याख्यान आदि संपर्क माध्यम के सशक्त उदाहरण होते हैं जिनमें व्यक्ति से व्यक्ति के मध्य परस्पर संपर्क संवाद के माध्यम से विज्ञान संचार किया जाता है। संपर्क माध्यम का एक और महत्वपूर्ण उदाहरण है ‘जत्था’ जिसका प्रयोग भारत में विज्ञान संचार के लिए प्रमुखता से किया गया है। 1987 में भारत जन विज्ञान जत्था का क्रियान्वयन देश के अनेक हिस्सों में कार्यरत 26 स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा किया गया था जिसका नेतृत्व एनसीएसटीसी ने किया था। इन संवाद संचार के मुख्य विषय थे स्वास्थ्य, कृषि, पर्यावरण और विज्ञान विधि। अपने तरह के इस अनोखे विज्ञान संचार अभियान में संचार के विभिन्न प्रभावी माध्यमों जैसे कि पुस्तकों, पोस्टरों, लोक विज्ञान व्याख्यानों, स्लाइड व फिल्म शो, प्रदर्शनियों, नुक्कड़ नाटक, रात्रि आकाश दर्शन, लोकगीत, लोकनृत्य और विज्ञान विषयक प्रतियोगिताओं के उपयोग किए गए थे। इस जत्थे में लगभग 25 हजार किलोमीटर की दूरी तय की गई और इसके भीतर 500 के करीब पड़ाव थे। 1992 में एक और विज्ञान जत्थे भारत जन ज्ञान विज्ञान जत्था का आयोजन राष्ट्रीय स्तर पर किया गया। इस अभियान में विज्ञान संचार को शिक्षा से जोड़ा गया था। इस जत्थे का मूल उद्देश्य था दैनिक जीवन में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भूमिका से परिचय स्थापित करते हुए लक्ष्य वर्ग में कौशलों का विकास करना। इस जत्थे के दौरान पर्यावरण, पानी, स्वास्थ्य, प्रौद्योगिकी, अंधविश्वास, वैज्ञानिक सोच और साक्षरता जैसे अहम मुद्दों पर संचार सामग्रियां तैयार कर बड़े पैमाने पर उनका वितरण किया गया था। इस जत्थे में देश के 375 जिलों में करीब 50000 स्थानों पर जाकर विज्ञान लोकप्रियकरण गतिविधियों को अंजाम दिया गया।

पब्लिक कम्यूनिकेशन आफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी (पीसीएसटी)

पीसीएसटी विज्ञान संचार का एक ग्लोबल नेटवर्क है जिसकी स्थापना साल 1989 में की गयी थी। यह नेटवर्क लगभग हर दो साल पर एक अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान संचार सम्मेलन का आयोजन करता है जिसमें दुनिया के अनेक देशों के विज्ञान संचारक/लेखक शरीक होते हैं। साल 2010 के पीसीएसटी सम्मेलन का मेजबान देश भारत था।

कलिंग पुरस्कार

1951 आरंभ कलिंग पुरस्कार को विज्ञान लोकप्रियकरण का नोबेल पुरस्कार कहा जा सकता है। यह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार विज्ञान लोकप्रियकरण के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए यूनेस्को की तरफ से प्रति वर्ष किसी लेखक, संपादक, प्राध्यापक, रेडियोध्टीवी कार्यक्रम विशेषज्ञ, फिल्म निर्माता, पत्रकार या वैज्ञानिक को दिया जाता है। भारत में कलिंग फाउंडेशन ट्रस्ट के अध्यक्ष उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बीजू पटनायक रहे हैं जिन्होंने इस न्यास को अनुदान प्रदान किया था। श्री पटनायक एक दूरदर्शी राजनेता थे। उनका विश्वास था कि समाज का आधुनिकीकरण वैज्ञानिक प्रगति द्वारा ही किया जा सकता है।
पहला कलिंग पुरस्कार फ्रांस के भौतिकशास्त्री लुई डी ब्रोग्ली (1892.1987) को दिया गया था। अभी तक भारत के पांच वैज्ञानिकों-विज्ञान संचारकों (जगजीत सिंह-1963, नरेंद्र के। सहगल-1991, जयंत विष्णु नार्लीकर-1996, डी। बालासुब्रमणियम- 1997 और प्रोफेसर यश पाल-2009) को यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया गया है। 2019 का कलिंग पुरस्कार आस्ट्रेलिया के विज्ञान लेखक और टीवी-रेडियो कमेंटेटर कार्ल क्रुस्जेल्निकी को मिला है।  
कलिंग पुरस्कार विजेता को बीस हजार अमेरिकी डालर और अल्बर्ट आइंस्टाइन रजत पदक प्रदान किया जाता है। इसके अलावा, हर एक विजेता को रूचि राम साहनी (भारत के महान विज्ञान संचारक) चेयर से भी नवाजा जाता है, जो साल 2001 (पुरस्कार स्थापना की 50वीं वर्षगांठ) से भारत सरकार द्वारा दिया जाता है। इसके तहत विजेता क पांच हजार अमेरिकी डालर का मानदेय और भारत सरकार के अतिथि के रूप में देश के अंदर दो से लेकर चार हते भ्रमण का अवसर मिलता है।

राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेस

राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेस बाल मन में विज्ञान और इसके प्रयोगों के जरिए शोध की प्रवृत्ति उत्पन्न करने का एक अनोखा मंच है। इस वार्षिक कार्यक्रम का समन्वय एनसीएसटीसी (डीएसटी) द्वारा किया जाता है। इसके अंतर्गत जिला और राज्य स्तरीय बाल विज्ञान कांग्रेस से होकर गुजरते हुए युवा वैज्ञानिक इसकी राष्ट्रीय प्रतियोगिता में शामिल होते हैं। दस से लेकर सत्रह वर्ष की आयु सीमा वाले बच्चे और किशोर इस कार्यक्रम में दिए गए वैज्ञानिक थीम विशेष पर माइक्रो लेवल पर शोध परियोजनाओं का निर्माण करते हैं। इसके जरिए बच्चों और किशोरों में खोजी प्रवृत्ति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उन्मेष होता है। इसमें प्रति वर्ष हजारों की संख्या में बच्चे हिस्सा लेते हैं।

अवसर

वर्ष 2018 से एनसीएसटीसी (डीएसटी) ने ‘अवसर‘ नामक एक पुरस्कार योजना आरम्भ की है जो शोध विद्यार्थियों को अपने शोध विषय पर केंद्रित पापुलर साइंस लेख लिखने पर आकर्षक पुरस्कार देने के सम्बन्ध में है। पी-एच.डी। शोधार्थियों के लिए पहला पुरस्कार 1 लाख रुपए है। वहीं दूसरा पुरस्कार 50 हजार और तीसरा पुरस्कार 25 हजार का रखा गया है। इसके अलावा 100 चयनित प्रविष्टियों में से प्रत्येक को 10 हजार रुपए दिए जाएंगे। पोस्ट डॉक्टोरल फैलो के लिए एक सर्वउत्कृष्ट लेख को 1 लाख रुपए दिए जाएंगे जबकि 20 चयनित प्रविष्टियों को 10 हजार रुपए की राशि दी जाएगी। अवसर के विजेताओं को यह पुरस्कार डीएसटी द्वारा राष्ट्रीय विज्ञान दिवस 28 फरवरी को प्रदान किया जाता है। अवसर योजना का समन्वय और क्रियांवयन विज्ञान प्रसार द्वारा किया जाता है।

विज्ञान संचार : यह कोई खेल नहीं

विज्ञान संचार में संचारक द्वारा भले ही आसान भाषा और शैली में विज्ञान की जटिल बातें आम आदमी को समझाई जाती हैं, लेकिन यह काम आसान नहीं होता। विज्ञान संचार में विज्ञान की कठिन संकल्पना एक आम आदमी को समझाने के लिए कहानी, किंवदंती और रोचक उदाहरण का सहारा लेना होता है। मगर संचारक को यह ध्यान रखना है कि विज्ञान के सिद्धांत से विचलन न हो और न उसमें कोई तोड़ मरोड़ की जाए। इस लिहाज से विज्ञान संचार की तीन मुख्य कसौटियों पर संचारक को खरा उतरना अपेक्षित है। पहला उसे विज्ञान के सिद्धांतों की सम्यक जानकारी हो, दूसरा उस भाषा पर अच्छी पकड़ हो जिसमें वह संचार करने जा रहा है और तीसरा संप्रेषण कौशल आवश्यक है। विज्ञान संचारक को अपने ज्ञान को सदैव अपडेट भी करते रहना जरूरी है और साथ ही वैज्ञानिक व तकनीकी शब्दावली का प्रयोग भी सोच-समझकर करना चाहिए। प्रसिद्ध भारतीय खगोल वैज्ञानिक और विज्ञान संचारक डॉ। जयंत विष्णु नार्लीकर ंने इसी संदर्भ में विज्ञान संचार की तुलना रस्सी पर संतुलन बनाकर चलने से किया है (माई टेल आफ फोर सिटिज, नेशनल बुक ट्रस्ट, पृष्ठ 366)।
अक्सर देखा जाता है कि जिनका विज्ञान पक्ष प्रबल है, उनका संचार कौशल पक्ष कमजोर होता है और जिनका संचार कौशल प्रबल है, उनका विज्ञान पक्ष कमजोर। असंख्य संचारक ऐसे भी हैं कि जिनके दोनों पक्ष प्रबल और संतुलित होते हैं। विज्ञान संचार संस्थाएं विज्ञान संचारकों/लेखकों को इस संतुलन का ध्यान रखने के लिए भी प्रशिक्षण देती हैं।

वैज्ञानिकों को भी आगे आना होगा  

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि विज्ञान संचार में हार्डकोर वैज्ञानिकों की भागीदारी जरूरी है। अक्सर शोध संस्थानों/ प्रयोगशालाओं की कठोर नीतियों का हवाला देकर वैज्ञानिक इस ओर अपना योगदान देने से कतराते हैं। कई बार यह भी देखने को मिलता है कि वैज्ञानिक समुदाय विज्ञान संचार को हेय दृष्टि से देखता है और इसे मामूली काम मानता है। मगर भारतीय संविधान ने विज्ञान संचार को हर नागरिक का मौलिक कर्तव्य माना है। इस दृष्टि से वैज्ञानिक शोध और प्रगति की जानकारी भारतीय प्रयोगशालाओं से जन सामान्य तक आम भाषा में पहुंचना आवश्यक है। इस कार्य में विज्ञान संचारक और वैज्ञानिक दोनों ही समुदायों की भूमिका अहम है। आजादी के पहले सी.वी। रामन, सत्येंद्र नाथ बोस, मेघनाद साहा और आजादी के बाद प्रोफेसर यश पाल और डॉ। जयंत विष्णु नार्लीकर जैसे भारतीय वैज्ञानिक इसके प्रेरणा- स्रोत हैंै। आज हम संचार युग में जी रहे हैं और शहरों से दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में बुनियादी सुविधाओं और संचार साधनों का अभाव है। ऐसी परिस्थिति में यह एक बड़ा सवाल उभरता है कि इस विशाल ग्रामीण आबादी को विकास की प्रक्रिया में कैसे भागीदार बनाया जाए? बुनियादी सुविधाओं का विकास, विज्ञान संचार के प्रयासों को बढ़ाकर लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है। फलस्वरूप मौजूदा परिदृश्य को बदला जा सकता है। आखिरकार विज्ञान संचार का एक अहम मकसद लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास कर उन्हें दैनिक जीवन में तर्कसंगत निर्णय लेने के लिए समर्थ बनाना है।

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