विज्ञान


भविष्य जैविक खेती का

दिनेश मणि

 

फसलों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के जिए जहाँ एक ओर हमने उन्नत किस्मों और कृषि के आधुनिक तरीकों को अपनाया वहीं दूसरी ओर रासायनिक उर्वरकों एवं नाशीजीव रसायनों का भी अत्यधिक इस्तेमाल किया क्योंकि फसलों में नाशीजीवों से होने वाली हानि भी बहुत अधिक है। इन रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। कीटों में कीटनाशी रसायनों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा होने से बहुत से कीट रसायन की साधारण तीव्रता से मरते नहीं हैं अतः किसान अधिक से अधिक रसायन की तीव्रता का उपयोग करते हैं। वर्तमान में अनेक कीटों की प्रजातियों में विभिन्न रासायनिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई है। अधिक तीव्रता के रसायन उपयोग करने से अन्य दूसरे जीवों एवं लाभकारी कीटों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। परजीवी एवं परभक्षी कीट हानिकारक कीटों पर अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं तथा हानिकारक कीटों की रोकथाम करने में कारगर सिद्ध हुए हैं, लेकिन कीटनाशी रसायनों की अधिक मात्रा इस्तेमाल करने से उन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
रशेल कार्सन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘साइलेण्ट स्प्रिंग’ में कीटनाशकों के बिना सोचे-समझे अंधा-धुंध प्रयोग के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि कीटनाशकों का इतनी लापरवाही से प्रयोग किया गया है कि वास्तविक हानिकारक कीटों के अतिरिक्त अन्य जीवों को भी नष्ट कर दिया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि कीटों का जैविक नियंत्रण प्रभावित हुआ और कीटों में रासायनिक कीटनाशकों के लिए प्रतिरोध उत्पन्न हो गया। कीट पुनः बड़ी संख्या में उत्पन्न हुए और द्वितीयक हानिकारक कीट उत्पन्न हो गए और पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई।
मृदा, पानी और संसाधनों की उपलब्धता से जुड़े पर्यावरणीय एवं परिस्थितिकीय प्रभाव के कारण आधुनिक औद्योगिक कृषि प्रणालियाँ अब इस दुनिया की भूख शांत नहीं कर पायेंगी। सन 2009 के खाद्य संकट ने वैश्विक खाद्य प्रणाली में परिवर्तन की ओर इशारा कर किया है। सन् 1950 के दशक में प्रचलन में आई आधुनिक कृषि संसाधनों एवं जीवाश्म ईंधन पर पूर्णतया निर्भर रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करने वाली और अत्यधिक उत्पादन के लक्ष्य पर आधारित हैं। यह नीति बदलनी होगी। हम चुनौतियों की शृंखला का सामना कर रहे हैं। संसाधनों की कमी, पानी की बढ़ती कमी और भूमि के क्षरण में हमें इस बात पर पुनर्विचार हेतु बाध्य कर दिया है कि भविष्य की पीढ़ी के मद्देनजर हम किस प्रकार अपने संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग कर सकते हैं।
दुनिया के कई देशों के उपभोक्ता अब जैव (आर्गेनिक) खाद्य पदार्थों को प्राथमिकता दे रहे हैं। हमारे देश में अन्य कई देशों की तुलना में अभी भी बहुत कम कीटनाशकों का इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे में भारत के कृषि उत्पादों को जैव खाद्य पदार्थों के रूप में लोकप्रिय बनाया जा सकता है। इससे भारत बाकी दुनिया के लोगों के लिए महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। साथ ही जैविक खेती को बढ़ावा देने से कृषि उपादानों पर खर्चा कम हो सकेगा।
सर्वप्रथम 5 नवम्बर 1972 को फ्रांस में इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ आर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट शुरू हुआ। सम्प्रति विश्व के 100 देशों में 650 ऐसे संगठन है। जर्मनी में कुल बाजारू खाद्य का 3-5 प्रतिशत कार्बनिक या जैविक खेती से उत्पन्न किया जाता है, आस्ट्रेलिया में 10 प्रतिशत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में केवल 1-2 प्रतिशत खाद्य जैविक खेती से उत्पन्न किया जाता है। जापान में 1970 से ही ‘आर्गेनिक फार्मर्स’ ने सहकारी समितियाँ बना ली थीं और 1991 तथा ऐसी 100 समितियाँ थीं। कोरिया में 1978 से जैविक खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा हैं चीन में 1990 में कृषि मंत्रालय ने ‘हरित खाद्य’ की योजना प्रारम्भ की। इस प्रकार सरकार ने इस खाद्य के लिए मानदण्ड निर्धारित कर दिए हैं जिसमें सीमित मात्रा में ही पेस्टीसाइडों का प्रयोग करना होता है। हमारे देश में भी 1996 में कार्बनिक कृषि में मानदण्ड निर्धारित करके कार्य प्रारंभ हुआ है, जिसके अन्तर्गत प्रमाणीकरण तथा विपणन कार्य चालू है।
विश्व के अनेक विकसित राष्ट्रों में कार्बनिक खेती को एक नया आयाम मिला है। पर्यावरण प्रदूषण से त्रस्त एवं भयभीत विकसित राष्ट्रों के नागरिकों द्वारा ऐसे उत्पादों के उपयोग पर बल दिया जा रहा है जो कार्बनिक खेती द्वारा उत्पन्न किए गए हैं। ऐसे उत्पादों को वे कार्बनिक खाद्य कहते हैं। यह किसी अंधविश्वास का सूचक नहीं है अपितु उर्वरकों तथा कीटनाशियों के अत्यधिक प्रयोग से जिस तरह खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता में गिरावट आई है, जिसके कारण समाज में नाना प्रकार के रोगों का प्रसार हुआ है, उससे प्रबुद्ध नागरिक आतंकित हों तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। वस्तुतः रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशियों के अंधाधुंध प्रयोग से फसलों में तमाम विषैले पदार्थ संचित हो रहे हैं। अतः जब इनसे प्राप्त उत्पादों का उपयोग मनुष्यों द्वारा या पशुओं द्वारा होगा तो ये विषैले पदार्थ उनके शरीर में संचित होंगे और उनमें तरह-तरह के रोग उत्पन्न होंगे।
इससे बचने के लिए फसलों को कीटाणुओं व जीवाणुओं का मुकाबला करने के लिए प्रतिरोधी और ज्यादा पोषक तत्वों से परिपूर्ण बनाया जा सकता है। जैविक खेती फसल प्रबंधन में ज्यादा लचीलापन उपलब्ध करा देती हैं। पारंपरिक कीटनाशकों व शाकनाशियों पर निर्भरता कम करती हैं, पैदावार बढ़ा देती है और उत्पादों के स्वच्छ व उच्चतर दर्जे का उत्पादन करती हैं। कम से कम आठ देश पहले ही जैविक फसलों को अपना चुके हैं। पिछले साल दुनिया भर में इन फसलों के तहत आने वाला क्षेत्रफल 2ण्78 करोड़ हैक्टेयर से भी ज्यादा था। जैव-प्रौद्योगिकी का व्यवसायीकरण करने वाला पहला देश चीन था। लेकिन जल्दी ही अमेरिका ने चीन को पीछे छोड़ दिया। अब जैविक फसलों के तहत आने वाले क्षेत्रफल का 74 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका में है। महत्व के क्रम में अन्य देश हैं- अर्जेंटीना, कनाडा, आस्ट्रेलिया, मैक्सिको, स्पेन, फ्रांस, और दक्षिण अफ्रीका। अब तक जो जैविक फसलें व्यावसायिक स्तर पर विकसित की जा चुकी है उनमें सोयाबीन, मक्का, कपास, रैपसीड और आलू शामिल हैं। इनमें से पहली दो फसलों का ही जैविक फसलों के तहत आने वाले कुल क्षेत्रफल में से 82 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा है। दुनिया भर में जैविक फसलों का कुल बाजार मूल्य लगभग 1ण्5 अरब डॉलर है और इसमें निरंतर वृद्धि ही हो रही है।
जैविक खेती वस्तुतः नए सिरे से नए मानदण्डों के अन्तर्गत कृषि की नवीन विधा को अपनाने का आह्वान है। विशेषतया सब्जी उत्पादों के बढ़ते निर्यात का दृष्टि से जैविक खेती महत्वपूर्ण है। सब्जियों के उत्पादन में न केवल अधिक मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग होता है अपितु, अनेक प्रकार के कीटनाशियों का प्रयोग आवश्यक है किन्तु अधिक कीटनाशियों के लगातार प्रयोग से कीटों में इन रसायनों के प्रति सहनशीलता या प्रतिरोधकता बढ़ती जा रही है। अधिक कीटनाशी कीटों को मारने में नहीं अपितु फसलों (विशेषकर सब्जियों) पर अपना पर्याप्त अवशेष छोड़ने में योगदान करते हैं। ये अवशेष सब्जियों के द्वारा मनुष्यों के शरीर में पहुँचकर विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। अतएव जैविक खेती के द्वारा इन उर्वरकों के प्रयोग को घटाना होगा और जैविक नियंत्रण द्वारा कीटों को नियंत्रित करना होगा। उदाहरणार्थ, टमाटर, भिण्डी में छेद करने वाले कीटों का नियंत्रण, ट्राइकोग्रेमा द्वारा, भिंडी, मिर्च तथा लोबिया के माहू कीट का नियंत्रण क्राइसोपेरला कोर्निया द्वारा सम्भव हैं। टमाटर में छेद करने वाले कीट के नियंत्रण हेतु एक विषाणु (एच.ए.एन.पी.वी.) बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इस तरह कीटनाशियों का प्रयोग धीरे-धीरे घटाया जा सकता है। वैसे जैविक खेती से अधिकांश खाद्यान्नों की गुणवत्ता में सुधार सम्भव है किन्तु सब्जियों की गुणवत्ता सुधारने के लिए नए-नए आयाम ढूँढ़े जा रहे हैं। उदाहरणार्थ टमाटर, गाजर और कद्दू (काशीफल) में बीटा कैरोटीन (विटामिन ए का स्रोत) भी मात्रा बढ़ाने वाले जनन-द्रव्य की खोज की जा चुकी है। इसी तरह मिर्च, टमाटर में ऐस्कर्बिक अम्ल (विटामिन सी) की मात्रा बढ़ाने वाला जनन-द्रव्य भी खोजा जा चुका है। सब्जियों में प्रोटीन की मात्रा तथा गुणवत्ता के सुधार की भी आवश्यकता है। जनन-द्रव्यों से पत्तीदार सब्जियों में आयरन की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। सब्जियों में पाये जाने वाले कुछ विपरीत कारकों यथा- आलू में सोलेनीन, टमाटर में ट्रोमैटीन, पत्तीदार सब्जियों में ऑक्सैलेट की मात्रा कम करने की आवश्यकता है।

वानस्पतिक कीटनाशी
वानस्पतिक कीट विष पौधे के सभी भागों जैसे- जड़, पत्ती, तना, फूल एवं बीजों से प्राप्त होते हैं, वर्तमान में समेकित कीट प्रबंधन में वानस्पतिक कीटविषों के प्रयोग पर विशेष बल दिया जा रहा है। इनमें तम्बाकू से प्राप्त निकोटीन, क्राइसेन्थमम में फूलों से प्राप्त पाइरेथ्रम, नीम से प्राप्त ऐजेडीरेक्टिन प्रमुख हैं।
प्राकृतिक रूप से उपस्थित पौधों के रसायन कीटों के व्यवहार तथा कार्यिकी को प्रभावित करते हैं, इसलिए कीटों मे इन रसायनों के लिए प्रतिरोध उत्पन्न होना आसान नहीं होता। पौधों से प्राप्त कीटनाशक बिना किसी को क्षति पहुँचाते आसानी से अपने अवयवों में टूट जाते हैं। कीटों की संख्या को बढ़ने से रोकने वाले सक्रिय रसायन (वानस्पतिक कीटनाशक) बहुत सारे पौधों में भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। ये पौध-उत्पाद वो द्वितीय उपावयव है जो कीटों की मौलिक, क्रियात्मक व जैव रासायनिक प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं एवं ये आसानी से क्षरित होते हैं। पौधों की 2121 प्रजातियों में कीट नियंत्रण पौध-उत्पाद गुण पाये गये है, इनमें से 1005 में कीटनाशी, 384 में भोजनरोधी, 297 में प्रतिकर्षक, 31 में कीट वृद्धि निरोधी एवं 27 में कीट आकर्षण गुण पाये गये हैं। देश में लगभग 8 करोड़ नीम के पेड़ हैं जिनसे 0ण्7 करोड़ टन नीम के फलों का उत्पादन हो सकता है। आज 71 व्यावसायिक नीम आधारित कीट रसायन घोल फसलों पर इस्तेमाल करने के लिए उपलब्ध हैं। इनको समेकित प्रबन्ध कार्यक्रम में प्रयोग करके वातावरण पर विषैले कीटनाशकों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। आमतौर पर यह देखा गया है कि व्यावसायिक नीम आधारित कीट रसायनों के उपयोग की मात्रा लगभग 500 मि. लीटर प्रति हैक्टेयर से 5 लीटर प्रति हैक्टेयर तक है। इसमें सुधार लाने की आवश्यकता है। बाजार में उपलब्ध नीम आधारित कीट रसायनों की गुणवत्ता पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। वानस्पतिक कीटनाशियों का प्रयोग हानिकारक कीटों तथा व्याधियों की रोकथाम के साथ-साथ मृदा की उर्वरता को बढ़ाने में भी सहायक है।

जैविक नियंत्रण
प्राकृतिक पारिस्थितिक प्रणाली में नाशीजीवों पर नियंत्रण उनके प्राकृतिक शत्रुओं के द्वारा स्वतः ही बना रहता है, लेकिन विकृत पारिस्थितिक प्रणाली में नाशीजीवों की संख्या बढ़ जाने पर अधिक संख्या में परजीवी एवं परभक्षी कीड़ों का इस्तेमाल करना पड़ता है। जैविक नियंत्रण कार्यक्रम में इन प्राकृतिक शत्रुओं के संरक्षण ओर उनके संवर्द्धन को पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए। समेकित प्रबंधन कार्यक्रमों में परजीवी पर परभक्षी कीटों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए ट्राइकोग्रामा, क्राइसोपरला, लेडीबर्ड भं्रग आदि कीटों का प्रयोगशालाओं में कृत्रिम आहार पर उत्पादन कर व उनकी संख्या बढ़ाकर उन्हें प्रयोग में लाया जा रहा है। इससे कीटनाशी दवाओं के छिड़काव में कटौती करके, फसल पर आने वाली लागत में कमी होती है तथा प्राकृतिक संतुलन की रक्षा होती है। हमें परजीवी एवं परभक्षी कीटों की ऐसी प्रजातियाँ विकसित करनी चाहिए जो विपरीत परिस्थितियों में भी जयादा कारगर सिद्ध हों। इन परजीवी कीटों में रासायनिक कीटनाशी दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता को विकसित करना भी आवश्यक है।
सूक्ष्मजीवों का प्रयोग कर हानिकारक कीटों, विभिन्न रोगों व खरपतवारों को नियंत्रण करने की विधि जैविक नियंत्रण कहलाती है। इस विधि में प्रयोग आने वाले सूक्ष्म-जीव ‘जैव नियंत्रक कारक’ कहलाते हैं
हानिकारक कीटों या रोगों के नियंत्रण के लिए उपयोग में लाये जाने वाले सूक्ष्म-जीवों को क्रमशः जैव कीटनाशी या जैव रोगनाशी कहते हैं। जैव कीटनाशी जीवाणु, विषाणु, फफूँद, प्रोटोजोआ आदि हो सकते हैं। इनके प्रयोग से कीटों में इनके प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित होने की संभावना भी नहीं रहती है। इनको कीटा नाशी रसायनों के साथ प्रयोग करने पर काफी प्रभावी पाया गया है। ये कीटों की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित कर उनको निष्क्रिय कर मार देते हैं। जैव कीटनाशी का मुख्य जीवाणु बैसिलस थूरिजेन्सिस है। इस समय भारतवर्ष में बी.टी. पर आधारित जैव कीटनाशी का विपणन किया जा रहा है। जैव कीटनाशकों का वर्णन इस प्रकार है-

  • बी.टी. जीवाणु-आजकल नाशीकीट के नियंत्रण हेतु बैसिलस थूरिन्जियेन्सिस नामक जीवाणु का प्रयोग बहुतायत से किया जा रहा है। निजी कम्पनियाँ भी इस कीटनाशी के उत्पादन में सहयोग कर रही हैं। यह जीवाणु डेल्टा एण्डोटॉक्सिन नामक विषैला द्रव्य कीटों के पेट के अन्दर छोड़ता है। फलस्वरूप कीट रोग ग्रस्त होकर मर जाता है। रोग ग्रस्त सूड़ियां सुस्त हो जाती हैं, मुँह से द्रव्य निकालती हैं, बाद में मर जाती हैं। ऐसे रोगग्रस्त सूंड़ियों से एकत्रित स्पोर का चूर्ण बनाया जाता है जिनका जीवन 6.12 माह का होता है। भारतीय बाजारों में बायोलेप, हाल्ट एवं डेलफिन जैसे नामों से बी.टी. कीटनाशी लोकप्रिय है बी.टी. जीवाणु अल्ट्रा वॉयलेट प्रकाश से प्रभावित होता है। अतः दोपहर बाद ही इस जीवाणु का कीट नियंत्रण में प्रयोग किया जाना लाभप्रद है। इस जीवाणु से गण डिप्टेरा की सूँड़िया ही अधिक प्रभावित होती हैं, बी.टी. जीवाणु का एक ग्राम का एक लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव किया जाता है। खेत में इसका प्रयोग एक समान होना चाहिए। ऐसे क्षेत्र में जहाँ रेशम कीट पाले जा रहे हों, बी.टी. जीवाणु का प्रयोग नहीं करना चाहिए अन्यथा रेशम कीट की सूँड़ियाँ मर सकती हैं।
  • ट्राइकोकार्ड-यह ट्राइकोग्रामा फेसिएटम जाति की छोटी ततैया जो अंड परजीवी है, पर आधारित है। ये लेपिडोप्टेरा वर्ग के लगभग 200 प्रकार के हानिकारक कीटों के अंडों को खाकर जीवित रहती है। मादा ट्राइकोग्रामा अपने अण्डे हानि पहुँचाने वाले कीटों के अण्डों के बीच देती है। ट्राइकोग्रामा का जीवन-चक्र हानिकारक कीटों के अण्डों के बीच चलता है। ट्राइकोकार्ड की पूर्ति पोस्टकार्ड के रूप में होती है, इसमें एक कार्ड पर लगभग 20,000 अण्डे होते हैं। खेतों में जैसे हानिकारक कीट दिखाई दें, इन कार्ड के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर खेत में अलग-अलग स्थान पर पत्तियों के जोड़ पर धागे से बाँध देना चाहिए। ट्राइकोकार्ड का प्रयोग करने से पहले फ्रिज में या बर्फ के डिब्बे में रखें। इसका प्रयोग शाम के समय करना चाहिए। प्रयोग के पहले या बाद में रसायन का छिड़काव नहीं करना चाहिए। इसका प्रयोग सभी फलों, सब्जियों, गन्ना, कपास, सूर्यमुखी व दलहनी फसलों में प्रभावशाली है। बड़ी फसलों में 7 कार्ड/हेक्टेअर व छोटी फसलों में 5 कार्ड/हेक्टेयर का प्रयोग 10.15 दिन के अन्तराल पर 3.4 बार लाभदायक होता है।
  • क्राइसोपर्ला-क्राइसोपर्ला हरे रंग के कीट हैं। इन कीटों के लार्वा सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, व थ्रिप्स आदि के अण्डों और लार्वा को खाते हैं। इनका प्रयोग इन हानिकारक कीटों से प्रभावित खेतों व फसलों हेतु लाभदायक हैं। क्राइसोपर्ला के अण्डों को कोरसियरा के अण्डों के साथ लकड़ी के बक्से में बुरादे के साथ दिया जाता है। इनके लार्वा कोरसियरा के अंडों को खाकर व्यस्क बनते हैं। इनका प्रयोग 50ए000.1ए00ए000 लार्वा या 500.1000 व्यस्क प्रति हेक्टेअर एक हफ्ते में दो बार करना चाहिए।
  • लेडीबर्ड बीटल-यह काले रंग का आस्ट्रेलियन बीटल है। इनका प्रयोग अंगूर, शरीफा, गन्ना की फसल में मिलीबग क्रिप्टोलीमस और स्केल कीट हेतु लाभदायक पाया गया है। इसे लगभग 600 वयस्क प्रति एकड़ की दर से फसलों में छोड़ना चाहिए। इसके शिशु व प्रौढ़ दोनों ही कीटों को खाते हैं।
  • ब्यूवेरिया बैसियाना-यह फफूँदी से बना जैव उत्पाद है। यह विभिन्न प्रकार के फुदके, फली छेदक, दीमक, बाल वाले कैटरपिलर, आदि को नियंत्रित करता है। यह फलों, फूलों, सब्जियों के लिए लाभदायक है। इसकी 1 किग्रा. मात्रा को 30.40 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ मिलाकर लगभग 7.15 दिनों तक नम करके रखने के बाद अन्तिम जुलाई से पहले 1 हेक्टेयर खेत में फैलाते है या इसके 1 किग्रा. पाउडर को 300.400 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव 12.15 दिन के अन्तर पर शाम के समय करना चाहिए। इसके प्रयोग से कीटों के अंडे, लार्वा प्यूपे व वयस्क सभी अवस्थाएँ पंगु व निष्क्रिय होकर मर जाती हैं।
  • न्यूक्लियर पॉलिहेड्रोसिस वायरस (एन.पी.वी.)-एनपीवी विषाणु केवल इंगित कीट को रोगग्रस्त कर नियंत्रित करते हैं। कीटों की सूंड़ी जैसे ही विषाणु से संक्रमित फल, फूल, पत्ती या फल खाती है, ये विषाणु सूंड़ी के आहारनाल की कोशिकाओं से होती हुई न्यूक्लियस में पहुँचकर अधिक मात्रा में वृद्धि कर जाती हैं फलस्वरूप संक्रमित सूँड़ी पौधे के ऊपरी भाग पर चढ़कर लटक जाती है। सूंड़ी का शरीर गलने लगता है, सूँड़ी सुस्त हो जाती है, काली पड़ जाती है। पूरी तरह से संक्रमित सूॅड़ी का शरीर फट जाता है एवं सफेद रंग का विषाणु मिश्रित तरल पदार्थ बाहर आने लगता है एवं सूँड़ी मर जाती है। विषाणु की संख्या सूक्ष्मदर्शी के देखकर इनकी सान्द्रता का पता करते हैं। हमारे देश में संवर्धित एवं विकसित एन.पी.वी. को चना, अरहर, टमाटर, सूरजमुखी, कपास मूँगफली इत्यादि फसलों में प्रयोग किया जा रहा है।
  • परजीवी ब्रेकान-इस परजीवी के शिशु की तरह-तरह के बेधक कीटों की सूँड़ी पर आश्रित होकर उन्हें खा जाते हैं। कपास, सब्जियों, नारियल जैसी फसलों में प्रति एकड़ 500.1000 वयस्क डालने से ये लाभ मिलता है।
  • पार्थीनियम बीटल-पार्थीनियम खरपतवार को नष्ट करने हेतु ‘जाइग्रोगामा’ नामक कीट को प्रयोग किया जा रहा है। यह कीट इस खरपतवार को खाकर समाप्त कर देता है। पार्थीनियम (गाजर घास) फसलों में उगने के साथ ही कुछ मनुष्यों और पालतू पशुओं में खुजली तथा अन्य बीमारियाँ फैलाते हैं। इसके अतिरिक्त नींबू के स्केल कीट का वैलेडिया भृंग द्वारा, नारियल के कीट का ब्रेकान द्वारा चना फली बेधक का कैमपोलेटिस क्लोरीडी से नियंत्रण किया जा रहा है।
  • ट्राइकोडर्मा-यह एक मित्र कवक है, जो प्राकृतिक रूप से मिट्टी में पाया जाता है। इसकी अनेक प्रजातियाँ हैं जिसमें से ‘ट्राइकोडर्मा विरिडी’ प्रजाति प्रमुख रूप से प्रभावी कवकनाशी के रूप में उत्पादकों द्वारा बाजार में विपणन किया जा रहा है। ट्राइकोडर्मा अनेक प्रकार से कार्य करता है। यह रोगकारक कवक के तंतुओं को लपेटकर उनमें भोजन प्राप्त करता है और अन्त में शत्रु कवक को नष्ट कर देता है। यह एक आवरण बनाकर रोगजनित शत्रु कवक से पौधों की रक्षा करता है। इसका विकास शीघ्र होने के कारण अपने कवक तन्तुओं और पौधों की जड़ों के आस-पास फैला देता है जिससे शत्रु कवक पौधे के पास नहीं आ पाते हैं और रोग उत्पन्न नहीं कर पाते हैं।

ट्राइकोडर्मा जैव रोगनाशक, जैव कीटनाशी व जैव उर्वरक है। ट्राइकोडर्मा फसलों में जड़ तथा तना गलन/सड़न, उक्ठा (फफूँदी जनक रोग) और सूत्रकृमि व्याधि को नियंत्रित करने हेतु प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग दलहनों, धान, गेहूँ, गन्ना, कपास, सब्जियों, फलों, फलवृक्षों पर करना लाभप्रद है। ट्राइकोडर्मा का प्रयोग कन्द, कार्प, राइजोम, नर्सरी पौधों को उपचार 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा को एक लीटर पानी में घोल बनाकर डुबोकर करें एवं इसके बाद बुआई या रोपाई करें। बीजशोधन के लिए 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा एक किला बीज में मिलाकर उपचारित कर बोये। इसके द्वारा बीजों का उपचार छायादार स्थान में करें। मृदा शोधन के लिए एक किलो ट्राइकोडर्मा को 25 किग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर, हल्के पानी को मिलाकर, छाया में रखें इसके बाद बुआई के पहले प्रयोग करें। यह मात्रा एक एकड़ के लिए पर्याप्त है। ट्राइकोडर्मा के प्रयोग के पहले या बाद में किसी रासायनिक फफूँदीनाशक व अन्य रसायनों का प्रयोग न करें। पादप सूत्रकृमि के नियंत्रण के लिए ट्राइकोडर्मा के साथ नीम की खली का प्रयोग लाभप्रद होता है। इसके अलावा ट्राइकोडर्मा हारजीएनम और ग्लियोक्लेडियम वायरेन्स से काली मिर्च में लगने वाले ‘फाइटोफ्थोरा कैपसिसी’ का संक्रमण रोका जा सकता है। यह बाजार में सभी जगह तरल पदार्थ एवं चूर्ण के रूप में उपलब्ध हैं। इसके एक ग्राम में एक करोड़ कालोनी बनाने वाली इकाइयाँ होती है। इसको अन्य बहुत से वाहक के साथ भी बनाया जाता है। इसका अच्छा परिणाम पाने के लिए खेत में गोबर की खाद, हरी खाद व उपर्युक्त नमी भी होनी आवश्यक है। इसका प्रयोग करते समय हाथों को आँख व मुँह में न लगायें। उपचार करने के बाद हाथों को साबुन लगाकर अच्छे से धो लें। ट्राइकोडर्मा का भण्डारण धूप में या गर्म स्थानों पर नहीं करना चाहिए। यह निपटाट, अनमोलडर्मा, एकेडर्मा, संजीवनी, बायोडर्मा, इकोडर्मा आदि नामों से बाजार में बिक रहा है।

पराजीनी पौधे
आजकल विभिन्न फसलों में बेसिलस थूरिजिएन्सिस नामक जीवाणु के जीन को प्रवेश कराकर ऐसे पौधे तैयार किये जा रहे हैं जिससे जीवाणु की उपस्थिति के कारण कीटों के विरूद्ध कीटनाशक गुण आ जाते हैं। इस प्रकार के पौधों का विकास हीलियोथिस कीट पर नियंत्रण हेतु किया जा रहा है। भारत सरकार ने जैव उर्वरकों प्रोत्साहित करने के लिए देश के सात राज्यों में राष्ट्रीय परियोजनायें शुरू की हैं। देश के शीर्ष संस्था के रूप में राष्ट्रीय जैव उर्वरक केन्द्र की स्थापना गाजियाबाद में की गयी है। इसके अलावा देश में 6 क्षेत्रीय जैव उर्वरक विकास केन्द्र क्रमशः जबलपुर, नागपुर, हिसार, बैंग्लुरू, इम्फाल व भुवनेश्वर में स्थापित किया गया है। ट्राइकोडर्मा, ट्राइकोग्रामा तथा एन.पी.वी. का उत्पादन उत्तर प्रदेश में 6 आई.पी.एम. प्रयोगशालाओं हरदोई, आजमगढ़, वाराणसी, जालौन, बरेली तथा मथुरा के साथ कानपुर, फैजाबाद व मोदीपुरम (मेरठ) कृषि विश्वविद्यालयों तथा भारत सरकार की दो प्रयोगशालाओं, गोरखपुर व लखनऊ में एवं क्राइसोपर्ला का उत्पादन, मेरठ विश्वविद्यालय में तथा सभी जैव कारकां व जैव कीटनाशी का उत्पादन अनेक निजी कम्पनियों में भी किया जा रहा है। आठ नये जैव कीटनाशकों को तथा दो पायलट जैव नियंत्रक प्रायोगिक संयंत्रों का विकास किया गया है। आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण फसलों के लिए जैव नियंत्रकों जैसे-बैकुलोवायरस एंटागोनिस्टिक्स, पैरासाइट प्रीडेटर्स बैक्टीरिया तथा फफूँदी के बड़े स्तर पर उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकी को उद्योगों को स्थानान्तरित किया गया है।

कृषिगत अथवा पारिस्थितिकीय नियंत्रणहमारी प्राचीन कृषि पद्धति बहुत ही उपयुक्त एवं पर्यावरण के अनुकूल थी। मौसम में परिवर्तन भी कम देखे जाते थे लेकिन आज की वैज्ञानिक कृषि प्रणाली में कीटों के संवर्धन में अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है अतः सभी कृषिगत क्रियाएं फसल हेतु उपयुक्त पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए। यदि फसल के वातावरण को परिवर्तित किया जाता है तो वह पारिस्थितिकीय नियंत्रण कहलाता है जबकि कृषिगत प्रबन्ध में वातावरण में सोद्देश्य हेरफेर करते हैं जिससे कीटों की संख्या में कमी आती है। कृषिगत उपायों में के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाता है-

  • समय से जुताई, गुड़ाई, बुआई, निराई, सिंचाई करना चाहिए साथ ही रासायनिक उर्वरकों का संतुलित उपयोग करना चाहिए।
  • फसलों में पौध से पौध एवं पंक्ति से पंक्ति की दूरी, फसल के अन्दर एवं पड़ोस में उगाई गई फसलें, फसल चक्र, एवं फसल के बाद दूसरी फसल का अंतराल, बुवाई अथवा रोपाई के समय को ध्यान में रखकर कीटों की गतिविधियों में कमी की जा सकती है।
  • मिश्रित खेती, पट्टीदार खेती तथा प्रपंच फसलें उगाकर कीटों के प्रकोप में कमी लाई जा सकती है।
  • पोटैशियम उर्वरकों के संतुलित उपयोग से कीटों की संख्या में कमी आती है।

इस प्रकार किसानों द्वारा किये जाने वाले कृषि कार्यों जैसे भूमि की जुताई, स्वच्छ बीज का प्रयोग, सिंचाई का नियमन, बुआई व कटाई के समय का सुनियोजन, ट्रेप फसलों का प्रयोग, सुनियोजित फसल-चक्र व फसल अवशेषों के विघटन इत्यादि द्वारा नाशीजीवों का नियंत्रण किया जाता है। इन्हें ठीक तरीके से अपनाने में काई अतिरिक्त लागत भी नहीं आती है। जिस कीट विशेष को नष्ट किया जाना है अगर उसके जीवन वृतान्त, व्यवहार, आवास व पारिस्थितिकी को पूरी तरह समझ लिया जाए तो खेती विषयक पद्धतियों को परिष्कृत किया जा सकता है। इन तरीकों अपनाने में अतिरिक्त लागत नहीं आती है लेकिन किसानों को नाशीजीवों के प्रबन्ध में इनसे होने वाले लाभों के बारे में पर्याप्त जानकारी देना आवश्यक है। सही समय पर विभिन्न क्रियायें अपनाने से नाशीजीवों एवं व्याधियों की समस्याओं को काफी हद तक रोका जा सकता है।

प्रतिरोधी पोषक पौधों को उगाना
प्रायः किसी फसल का जहाँ एक पौधा कीटों के प्रति अति संवेदनशील होता है तो वहीं पड़ोसी पौधा कीट प्रतिरोधी हो सकता है। प्रतिरोधी पौधे या तो कीटों द्वारा पसन्द नहीं किये जाते हैं या सहिष्णु होते हैं अथवा कीटों को पोषक आहार नहीं प्राप्त होता हैं अथवा कीटों को पोषक आहार नहीं प्राप्त होता है फलस्वरूप उनका आकार एवं विकास प्रभावित होता है। वे सभी पौधे जिनमें कीटों के प्रति कोई भी प्रतिरोधी लक्षण पाया जाय, प्रतिरोधी पोषक पौधा या प्रजाति कहलाती है। प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिरोधी प्रजातियां को खेती में उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए अन्यथा प्रतियोगी प्रजातियाँ टूट जाती हैं, ऐसा कीटों के बायोटाइप विकसित होने से होता है भारतवर्ष में भी नाशीकीट प्रतिरोधी प्रजातियाँ विकसित की गई हैं। धान की प्रतिरोधी प्रजातियां अधिकतर प्रदेशों में विकसित की गई है।

यांत्रिक एवं भौतिक नियंत्रण
जब कीटों को किसी यंत्र की सहायता या किसी भौतिक विधि से भरा जाता है तो वह यांत्रिक या भौतिक नियंत्रण कहलाता है, इसके द्वारा तुरन्त परिणाम प्राप्त होते हैं, इसीलिए किसानों में यह विधि काफी रोचक और लोकप्रिय है। यांत्रिक उपायों में प्रकाश प्रपंच तकनीक अधिक प्रयोग में लाई जाती है। प्रकाश प्रपंच में पेट्रोमेक्स/लालटेन को एक चिपचिपे मोबिल ऑयल से भरे टब में रखकर खेत में रख देते हैं, तो रात में निकालने वाले नर व मादा कीट प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं और टब में गिरकर मर जाते हैं। कीट नियंत्रण के भौतिक उपायों में भौतिक साधनों जैसे ताप, प्रकाश, ध्वनि, बिजली आदि का प्रयोग करके कीटों की संख्या में कमी लाई जाती है।

फैरोमोन का प्रयोग
प्रत्येक कीट जाति का अपना अलग फैरोमोन रसायन होता है, प्रायः मादा कीट एक प्रकार का हार्मोन निकालकर नरकीट को मैथुन हेतु आकर्षित करते हैं। वैज्ञानिकों ने अनेक कीटों के इस व्यवहार को ही केवल नहीं पहचाना बल्कि हार्मोन के रसायन को भी पहचाना है। उन्हीं रसायनों को कृत्रिम रूप से संश्लेषित कर इनके प्रयोग हेतु कई प्रकार के सेप्टा एवं प्रपंच को भी विकसित किया है। इनका प्रयोग अब नर कीटों को एकत्रित कर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति एवं घनत्व को जानने के लिए कर रहे हैं। फैरोमोन रसायन प्रकृति के अनुरूप होते हैं। कीट नियंत्रण की अन्य विधियों से सहिष्णु भी होते हैं, कपास की गुलाबी सूंडी, गन्ने का बेधक कीट, चने की फली का बेधक कीट, तम्बाकू की सूंडी एवं भिण्डी का चितकबरा सूंडी के फेरोमोन का प्रयोग इनकी संख्या ऑकलन एवं मैथुन में अवरोध हेतु किया जा रहा है। जैविक खेती का एक उद्देश्य जीवंत तथा टिकाऊ खेती का विकास है। इसके अन्तर्गत फार्म प्रबंधन की ऐसी प्रणाली अपनाई जाती है जिससे पारिस्थितिकी सुरक्षित रहे, खरपतवार तथा नाशीजीवों पर नियंत्रण हो, वानस्पतिक तथा जन्तु अवशेषों का पुनर्चक्रण हो, फसल चक्र अपनाया जाय, सिंचाई, निराई, आदि की सही व्यवस्था हो।

dineshmanidsc@gmail.com
ुु