विशेष


बचपन से ही वैज्ञानिक सोच विकसित करने की आवश्यकता

डॉ. समर बागची से मनीष मोहन गोरे की बातचीत

 
विज्ञान क्विज और वैज्ञानिक प्रदर्शनी जैसे विज्ञान लोकप्रियकरण के दो अहम उपकरणों के माध्यम से एक व्यक्ति ने बच्चों में विज्ञान को लेकर उत्साह जगाने की कवायद की और उसने अपने इस साधारण दिखने वाले प्रयास में असाधारण सफलता पाई। दूरदर्शन में ‘क्वेस्ट’ नाम से मशहूर विज्ञान क्विज कार्यक्रम की शुरुआत इस शख्स ने की और १९८३ से १९८८ तक लगातार ५ साल यह टीवी कार्यक्रम अपार सफलता के साथ प्रसारित हुआ। हम बात कर रहे हैं समर बागची की जिन्होंने वैज्ञानिक होने के साथ-साथ एक कुशल विज्ञान संचारक के रूप में भी ख्याति अर्जित की। श्री बागची बिड़ला इंडस्ट्रियल एंड टेक्नॉलॉजिकल म्यूजियम, कोलकाता के कई वर्षों तक निदेशक रहे। इस म्यूजियम में अपने कार्यकाल के दौरान और इसके सामानांतर उन्होंने विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विविध विषयों पर वैज्ञानिक प्रदर्शनी, विज्ञान संभाषण, विज्ञान सम्मेलन, विज्ञान मेला तथा मोबाइल विज्ञान प्रदर्शनी जैसी महत्वपूर्ण विज्ञान लोकप्रियकरण युक्तियों के द्वारा बच्चों, शिक्षकों और जन सामान्य में विज्ञान के बीजारोपण किये। समर बागची के साथ इन्हीं सब बिन्दुओं पर ‘इलेक्ट्रानिकी आपके लिए’ पत्रिका हेतु हुई सारगर्भित चर्चा के खास हिस्से यहाँ प्रस्तुत हैं।
 
कृपया दूरदर्शन पर १९८३ से १९८८ तक प्रसारित होने वाले अपने लोकप्रिय विज्ञान क्विज (क्वेस्ट) के बारे में बताएं। ये कार्यक्रम टीवी पर प्रसारित होने वाले दूसरे विज्ञान कार्यक्रमों से किस तरह भिन्न था?
हमारा क्वेस्ट कार्यक्रम किसी भी दूसरे विज्ञान कार्यक्रम से बिलकुल अलग था। सभी दूसरे क्विज कार्यक्रम बुनियादी तौर पर याद्दाश्त के आधार पर सूचना से जुड़े कार्यक्रम होते थे। लेकिन क्वेस्ट में हम मंच पर साधारण प्रयोग करते थे और ११वीं-१२वीं कक्षा के छात्र (आइंस्टाइन टीम और एस.एन.बोस टीम) को ये पता करना होता था कि प्रयोग में क्या हो रहा है और उसकी व्याख्या करनी होती थी। सोचने के लिए उन्हें सिर्फ एक मिनट का समय दिया जाता था। हिस्सा लेने वाले छात्रों ने बेहतरीन सोच दिखाई। सातवां और अंतिम प्रयोग पूरे देश के दर्शकों के लिए होता था (उस वक्त सिर्फ एक चैनल मौजूद था)। सैकड़ों पत्र आते थे। उस कार्यक्रम को देश के सर्वोच्च वैज्ञानिकों से लेकर आम आदमी तक देखता था। 
 
क्या आपको याद है कि जब आप बच्चे थे तो आपको शिक्षा के बारे में और खासकर विज्ञान की पढ़ाई के बारे में किसने सबसे अधिक प्रेरणा दी थी?
मैं बिहार के पूर्णिया में ३० सितम्बर १९३३ को जन्मा था और मैंने मैट्रिक की परीक्षा बिहार से पास की। कोलकाता से १९५२ में विज्ञान स्नातक करने के बाद मैंने इंडियन स्कूल ऑफ माइंस, धनबाद से माइनिंग इंजीनियरिंग में स्नातक किया, जिसमें मैंने प्रथम श्रेणी में माइन मैनेजर का प्रमाणपत्र हासिल किया। 
जब मैं दुमका में माध्यमिक विद्यालय में पढ़ रहा था, तो वहाँ के भूगोल शिक्षक स्वर्गीय सुबिमल चन्द्र बरारी ने मुझे शिक्षा ग्रहण करने के लिए काफी उत्प्रेरित किया। मैंने उच्च विद्यालय की पढ़ाई बिहार के मुंगेर में जिला स्कूल से की। मुझे विज्ञान की शिक्षा के विषय में कुछ भी याद नहीं। शायद १९४० के दशक में स्कूलों में विज्ञान की सीख को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता था। विज्ञान के प्रति मेरी अभिरुचि कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में माध्यमिक और स्नातक की शिक्षा के दौरान जागी। मुझे भौतिकी के प्रोफेसर डी। पी। रॉय चौधुरी के बारे में स्पष्ट याद है कि वो किसी विषय को पढ़ाते समय कक्षा में कई प्रयोग करते थे। मैं उनके पढ़ाने के तरीके से काफी प्रेरित हुआ। शायद वही शिक्षा मेरे दिमाग में घर कर गई और मैं विज्ञान संग्रहालय में काम करते हुए तथा अवकाश प्राप्त करने के बाद भी विज्ञान के प्रयोग करता रहा। 
 
क्या आप अपने समय के और आधुनिक विज्ञान शिक्षकों में कोई फर्क पाते हैं?
निश्चित रूप से अब माध्यमिक विद्यालय से ही विज्ञान की पढ़ाई को काफी महत्त्व दिया जा रहा है। यह विज्ञान शिक्षण का एक सकारात्मक पहलू है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में विज्ञान की शिक्षा के बारे में आपके क्या विचार हैं? जबकि यहाँ कई स्कूल-कॉलेजों में प्रयोगशालाओं का नितांत अभाव है। हालांकि पाठ्यक्रम में विज्ञान को काफी महत्त्व दिया जा रहा है, लेकिन भारत के सभी स्कूलों में, चाहे वो सरकारी हों या निजी, रटने पर ही अधिक जोर दिया जाता है। इससे विज्ञान की समझ विकसित नहीं होती है। मैंने पूरे देश में ३०० से अधिक विज्ञान शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लिया है। जहाँ अच्छी प्रयोगशाला उपलब्ध हैं, वहाँ भी सिर्फ अंक लाने के लिए १० से १२ तयशुदा प्रयोग किये जाते हैं। कक्षा में पढ़ाई के वक्त कोई प्रयोग या गतिविधि नहीं की जाती है। वहाँ सिर्फ खल्ली और जुबान के जरिये पढ़ाई होती है। इस परिदृश्य में बदलाव शुरू हो गये हैं।
क्या विज्ञान की शिक्षा में विज्ञान संचार कोई योगदान देता है?
अगर आप विज्ञान संचार का मतलब विज्ञान की पत्रिकाएं पढ़ना, विशेष व्याख्यान सुनना या प्रदर्शन देखना, विज्ञान मेले और प्रदर्शनियों में भाग लेना, स्कूल की पत्रिकाओं में विज्ञान से जुड़े मुद्दों पर लिखना इत्यादि गतिविधियाँ निकालते हैं, तो निश्चित रूप से विज्ञान संचार विज्ञान के प्रति अभिरुचि जगाता है।
 
आप विज्ञान संचार के क्षेत्र के एक अनुभवी व्यक्ति हैं। हम आपसे संक्षेप में जानना चाहेंगे कि विज्ञान संचार की हमारे समाज में मुख्य भूमिका क्या है?
अगर हमें बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि जगानी है, तो उनमें बचपन से ही कौतुहल, सवाल, खुद कार्य करना, प्रकृति को समझना, विज्ञान की किताबें और पत्रिकाएँ पढ़ने जैसी आदतें डालनी होंगी। अगर स्कूलों में ऐसा नहीं किया जाता, तो इसका मतलब सिर्फ रटने पर ही जोर दिया जाता है। इसका मकसद दिमाग में जबरदस्ती चीजों को घुसाना और परीक्षा में अंक लाने के लिए उसे कागज पर उतार देना है। ये उच्च शिक्षा हासिल करने का मानक भर है। नेशनल कर्रिकुलम फ्रेमवर्क (छब्थ्) ने नए किस्म की गुणवत्तायुक्त शिक्षा के लिए अच्छा ढाँचा तैयार किया है। इसके अलावा शिक्षा के अधिकार ने बच्चों को माध्यमिक स्कूलों के स्तर से ही प्रयोगशाला और लाइब्रेरी का अधिकार दिया है। 
 
आप बिड़ला इंडस्ट्रियल एंड टेक्नॉलॉजिकल म्यूजियम, कोलकाता के निदेशक रहे हैं। विज्ञान संग्रहालय की राष्ट्रीय परिषद के तहत पूर्वी भारत में पाँच संग्रहालयों की देखभाल करते रहे हैं। अपने कार्यकाल में आपने कौन-कौन सी नई योजनाएं शुरू कीं और उनके क्या असर हुए?
मैं १९६२ में कोलकाता के बिड़ला इंडस्ट्रियल एंड टेक्नॉलॉजिकल म्यूजियम (ठप्ज्ड) के साथ माइनिंग एवं मेटलर्जी निरीक्षक के रूप में जुड़ा। संग्रहालय ने आम जनता के लिए अपना दरवाजा १९५९ में खोला था। मैंने एक माइनिंग गैलरी और नई इमारत के तहखाने में कोयले की एक कृत्रिम खदान की शुरूआत की। चेकोस्लोवाकिया के प्राग में विज्ञान संग्रहालय के अलावा दुनिया में ऐसा कोई विज्ञान संग्रहालय नहीं है, जो जमीन के भीतर होने वाली पूरी खुदाई प्रक्रिया दिखाता हो। जर्मनी के बोचम में, जो खनन उद्योग के मध्य में स्थित है, एक बंद खदान को संग्रहालय के रूप में परिणत किया गया है।
लेकिन ठप्ज्ड में मेरा प्रमुख योगदान विभिन्न प्रकार के शैक्षणिक कार्यक्रमों की शुरुआत करनी है, जिसमें मुझे ओजस्वी महानिदेशक डॉ। सरोज घोष का पूरा समर्थन हासिल हुआ। भारत के विज्ञान संग्रहालयों में उनका योगदान अतुल्य है। शैक्षणिक विभाग में अपने कर्मचारियों के सहयोग से मैंने विभिन्न शैक्षणिक कार्यक्रम शुरु करने में प्रमुख भूमिका अदा की, जैसे पाठ्यक्रम के विषयों पर वैज्ञानिक प्रदर्शनी और पश्चिम बंगाल के सैकड़ों विद्यालयों का दौरा, सभा मंडप में विज्ञान के विषयों पर भाषण देना, छात्रों के सालाना विज्ञान सम्मेलन का आयोजन, सालाना विज्ञान मेले का आयोजन, पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मोबाइल विज्ञान प्रदर्शनी का विस्तार, दूरदर्शन में क्वेस्ट नाम से मशहूर विज्ञान क्विज कार्यक्रम की शुरुआत और १९८३ से १९८८ तक ५ साल इसे अनवरत रूप से चलाना, हैम (भ्।ड) रेडियो की शुरुआत करना, निपुणता केन्द्रों की शुरुआत करना इत्यादि। मैंने दुनिया भर के सबसे महत्त्वपूर्ण विज्ञान संग्रहालयों का दौरा किया है। किसी संग्रहालय में इतने शैक्षणिक कार्यक्रमों की सुविधा नहीं हैं। इन्साइक्लोपीडिया में ठप्ज्ड को उसके शैक्षणिक कार्यक्रमों की वजह से विशिष्ट संग्रहालय के रूप में उल्लेख किया जाता है। उस वक्त महानिदेशक रहे डॉ। सरोज घोष के समर्थन से मैंने इन कार्यक्रमों की अगुवाई की।
 
आपके विचार में विज्ञान संचार के लिए कौन सा माध्यम सबसे प्रभावशाली है? क्या आप मानते हैं कि विज्ञान संचार को विज्ञान की सीख और शिक्षा का हिस्सा होना चाहिए? अगर आप इससे सहमत हैं तो इसे किस प्रकार लागू किया जा सकता है?
विज्ञान संचार से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल हैं कि यह किसके लिए संचार किया जा रहा है? ये छात्रों के लिए हो सकता है, अनजान जनता के लिए हो सकता है, या फिर जागरुक दर्शकों के लिए हो सकता है। स्कूल के छात्रों के लिए प्रयोग, गतिविधियां, अवलोकन, विज्ञान पत्रिकाएं, विज्ञान पर टीवी कार्यक्रम (जो निश्चित रूप से भारत में न्यूनतम है), विज्ञान प्रदर्शनियाँ, विज्ञान सम्मेलनों में भागीदारी, प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ी गतिविधियाँ इत्यादि। लोगों के लिए टी.वी., लोकप्रिय भाषण, सम्मेलन, विज्ञान पत्रिकाएं और विज्ञान संचार के अच्छे स्रोत।
 
क्या सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियां विज्ञान संचार को सही और जरूरी दिशा में ले जाने की दिशा में कार्यरत हैं? क्या आप उनके क्रिया-कलाप से संतुष्ट हैं?
जैसा मैंने ऊपर कहा कि उचित विज्ञान संचार बचपन से ही शुरू कर देना चाहिए। सरकार और गैर-सरकारी संगठन छात्रों में विज्ञान संचार करने की कोशिश कर रहे हैं। फिर भी अभी सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और शिक्षकों के संगठनों को विद्यालयों में विज्ञान की शिक्षा में सुधार के लिए काफी काम करना शेष है। जहाँ तक पर्यावरण के विध्वंस का सवाल है, तो हम आखिरी बिंदु पर खड़े हैं पर्यावरण की दृष्टि से भी और सामाजिक दृष्टि से भी। लिहाजा बचपन से ही वैज्ञानिक सोच विकसित करने की सख्त आवश्यकता है। इस दिशा में विज्ञान संचार अहम भूमिका निभा सकता है। 
 
क्या विज्ञान संचार एजेंसियों के क्रिया-कलापों व प्रयासों को और बढ़ाना चाहिए?
मुझे लगता है कि इस दिशा में सरकार को अहम भूमिका अदा करनी होगी। २०१० में दिया गया शिक्षा का अधिकार अभी तक पूरी तरह लागू नहीं किया गया है। शिक्षकों को उचित प्रशिक्षण देना होगा, क्योंकि आमतौर पर उन्होंने रटकर ज्ञान हासिल किया है। इसके अलावा पर्यावरण संकट के दौर से गुजर रही इस दुनिया में पेशे के रूप में शिक्षण को गंभीरता से लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। बदलाव लाने की असली जिम्मेदारी उन्हीं पर है। एक छात्र शिक्षकों के साथ लगभग १२ सालों तक रहता है। अगर शिक्षक चाहें तो अपने जागरुक छात्रों की बदौलत दुनिया को बदल सकते हैं। सरकार को शिक्षा के मद में और खर्च करना होगा। गैर-सरकारी संगठनों को भी विज्ञान की सीख को बढ़ावा देने की दिशा में अच्छे उदाहरण पेश करने होंगे। इस मामले में मुझे मध्यप्रदेश के एकलव्य और होशंगाबाद जैसे प्रयोग उपयुक्त नज़र आते हैं। 
वैज्ञानिकों को विज्ञान संचार कार्यक्रमों में किस तरह शामिल किया जा सकता है? आमतौर पर वो इसे तुच्छ समझते हैं और अगर कोई इस कार्य में दिलचस्पी दिखाता भी है, तो उनके शोध संस्थान, प्रयोगशाला उनके आड़े आते हैं।
एक वैज्ञानिक का मुख्य कर्तव्य नये ज्ञान का प्रतिपादन है। ये कठिन कार्य है। लेकिन विभिन्न प्रयोगशालाओं में कार्यरत वैज्ञानिक विज्ञान और पर्यावरण पर लोकप्रिय लेखन कर, लोकप्रिय भाषण देकर और टी.वी। कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर विज्ञान संचार के लिए वक्त निकाल सकते हैं। कई वैज्ञानिकों ने ऐसा किया है। लेकिन अभी इस दिशा में और काम करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए भारत सरकार के स्वायत्तशासी संस्थान विज्ञान प्रसार की द्विभाषीय पत्रिका ‘ड्रीम २०४७’ में बेहतरीन आलेखों के जरिये इस काम को बखूबी अंजाम दिया जा रहा है। 
उभरते विज्ञान संचारकों के प्रशिक्षण और प्रोत्साहन की जरूरतों पर आपके क्या विचार हैं? जबकि इस क्षेत्र में कोई पेशा सुनिश्चित नहीं है। 
नए विज्ञान संचारकों को प्रोत्साहन देना जरूरी है। लेकिन रचनात्मक लेखन और संचार सिर्फ विज्ञान संचार अध्ययन के जरिये नहीं आ सकता है। बल्कि संचार में जिन लोगों की रचनात्मकता है और विज्ञान की पृष्ठभूमि है, वो निश्चित रूप से विज्ञान संचार में प्रशिक्षण से लाभांवित होंगे।   
 
देश के उभरते विज्ञान संचारकों के लिए आपका क्या संदेश है?
युवा विज्ञान संचारकों को उस विषय की पूरी जानकारी होनी चाहिए, जिस विषय को लेकर वो संचार कर रहे हैं। एक व्यक्ति अपनी संचार गुणवत्ता को बेहतर बना सकता है। उस व्यक्ति को उस सामाजिक और पर्यावरणीय दुनिया की पूरी जानकारी होनी चाहिए, जहाँ के लिए वो विज्ञान संचार में हिस्सा ले रहा है। 
 
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