तकनीकी


अब गुब्बारे करेंगे सैटेलाइट का काम

विजन कुमार पाण्डेय

अब वो दिन दूर नहीं जब आप गुब्बारों में बैठकर अंतरिक्ष की सैर करेंगे। गुब्बारा ही सैटेलाइट का काम करेगा। यह एक सस्ता सौदा होगा जिसके जरिए हमारा नेटवर्क काम करेगा। अभी भारत इस क्षेत्र में बहुत दिलचस्पी नहीं ले रहा है लेकिन अमेरिका और चीन इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। आपको मालूम ही होगा कि भारत के सबसे वज़नी सैटेलाइट जीसैट-11 को यूरोपीय स्पेस एजेंसी के प्रक्षेपण केंद्र फ़्रेंच गयाना से अंतरिक्ष में भेज दिया गया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के मुताबिक़ जीसैट-11 का वज़न 5ए854 किलोग्राम है। यह जियोस्टेशनरी सैटेलाइट पृथ्वी की सतह से 36 हज़ार किलोमीटर ऊपर ऑरबिट में रहेगा। सैटेलाइट इतना बड़ा है कि इसका हर सोलर पैनल चार मीटर से ज़्यादा लंबा है, जो एक सेडान कार के बराबर है। जीसैट-11 में केयू-बैंड और केए-बैंड फ़्रीक्वेंसी में 40 ट्रांसपोंडर होंगे, जो 14 गीगाबाइट/सेकेंड तक की डेटा ट्रांसफ़र स्पीड के साथ हाई बैंडविथ कनेक्टिविटी दे सकते हैं। जीसैट-11 कई मायनों में ख़ास है। ये भारत में बना अब तक का सबसे भारी कम्युनिकेशन सैटेलाइट है। भारी सैटेलाइट का मतलब ये नहीं है कि वो कम काम करेगा। यहाँ भारी होने का मतलब बहुत ताक़तवर और लंबे समय तक काम करने वाला है। यह सबसे ज़्यादा बैंडविथ  वाला उपग्रह भी है, जिससे पूरे भारत में इंटरनेट की सुविधा मिल सकेगी। पहले जीसैट-11 को इसी साल मार्च-अप्रैल में भेजा जाना था लेकिन जीसैट-6ए मिशन के नाकाम होने के बाद इसे टाल दिया गया। 29 मार्च को रवाना जीसैट-6ए से सिग्नल लॉस की वजह इलेक्ट्रिकल सर्किट में गड़बड़ी पायी गई थी। ऐसी आशंका थी कि जीसैट-11 में भी यही दिक़्क़त आ सकती है, इसलिए इसकी लॉन्चिंग को रोक दिया गया था। इसके बाद कई टेस्ट किए गए। फिर पांच दिसम्बर को भारतीय समयानुसार दो बजकर आठ मिनट पर इसे अंतरिक्ष में भेजा गया। इसरो के पास क़रीब चार टन वज़नी सैटेलाइट को भेजने की क्षमता है लेकिन जीसैट-11 का वज़न छह टन के क़रीब है। इसलिये इसे फ़्रेंच गयाना में यूरोपियन स्पेसपोर्ट से भेजा गया। वैसे इसरो अभी ख़ुद भारी सैटेलाइट भेजने पर विचार नहीं कर रहा है लेकिन कुछ साल बाद जब सेमी-क्रायोजेनिक इंजन तैयार हो जाएगा, तब ऐसा सम्भव हो पाएगा।
इस सैटेलाइट से इंटरनेट स्पीड तो तेज़ नहीं होगी क्योंकि वो आपको ऑप्टिकल फ़ाइबर से मिलती है। लेकिन इस सैटेलाइट से कवरेज के मामले में फ़ायदा होगा। जो दूरदराज़ के इलाक़े हैं, वहां इंटरनेट पहुंचाने में फ़ायदा होगा। कई ऐसी जगह हैं, जहाँ फ़ाइबर पहुँचाना आसान नहीं होता, वहाँ इससे इंटरनेट पहुँचाना आसान हो जाएगा। इसके एक और फ़ायदा ये है कि जब कभी फ़ाइबर को नुक़सान होगा, तो इंटरनेट पूरी तरह बंद नहीं होगा और सैटेलाइट के ज़रिए वो चलता रहेगा। इसरो अपने जीएसएलवी-3 लॉन्चर की वज़न उठाने की क्षमता पर भी काम कर रहा है। जीसैट-11 असल में हाई-थ्रूपुट कम्युनिकेशन सैटेलाइट है, जिसका उद्देश्य भारत के मुख्य क्षेत्र और आसपास के इलाक़ों में मल्टी-स्पॉट बीम कवरेज मुहैया कराना है। ये सैटेलाइट इसलिए इतना ख़ास है कि यह एक साथ कई सारे स्पॉट बीम इस्तेमाल करता है, जिससे इंटरनेट स्पीड और कनेक्टिविटी बढ़ जाती है। स्पॉट बीम के मायने सैटेलाइट सिग्नल से हैं, जो एक ख़ास भौगोलिक क्षेत्र में फ़ोकस करती है। बीम जितनी पतली होगी, पावर उतना ही ज़्यादा होगी। ये सैटेलाइट पूरे देश को कवर करने के लिए बीम या सिग्नल को दोबारा इस्तेमाल करता है। इनसैट जैसे पारंपरिक सैटेलाइट ब्रॉड सिग्नल बीम को इस्तेमाल करती है, जो पूरे इलाक़े को कवर करने के लिए काफ़ी नहीं है। इसलिए अब भारत भारी भरकम सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेज रहा है, लेकिन अब यह सौदा बहुत महँगा पड़ रहा है। क्योंकि अगर किसी मिशन में सफलता नहीं मिली तो करोड़ों का नुकसान हो जाता है। इसलिए अब वैज्ञानिक सस्ते रास्ते खोज रहे हैं जिससे हम ऐसे आर्थिक क्षति से बच सकें। अब भविष्य में ऐसे गुब्बारे छोड़े जाएंगे जो हमारे नेटवर्किंग साइटों को चलाने में सहयोगी बनेंगे।

गुब्बारों की स्पेस रेस

सबसे पहले 1958 में रूस ने स्पुतनिक नाम के सैटेलाइट को अंतरिक्ष भेजकर दुनिया में तहलका मचा दिया था। आनन-फ़ानन में अमेरिका ने भी अपनी स्पेस एजेंसी नासा का गठन किया। शीत युद्ध के दौरान चली स्पेस रेस में आखि़रकार अमेरिका ने रूस को मात दे दी। आज की तारीख़ में अंतरिक्ष की बात करें, तो अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त है। स्पुतनिक लॉन्च हुए काफी समय बीत चुके हैं। स्पेस रेस अब अलग ही पैमानों पर हो रही है। अब बड़े से बड़े सैटेलाइट लॉन्च करने के बजाय गुब्बारों से अंतरिक्ष में नई छलांग लगाई जा रही है। दरअसल गुब्बारे, अंतरिक्ष में बहुत काम के हो सकते हैं। धरती से क़रीब तीस किलोमीटर की ऊंचाई पर इन्हें स्थापित कर के संचार और निगरानी के साथ इंटरनेट सेवाएं देने का काम लिया जा सकता है। किसी उपग्रह के मुक़ाबले ये गुब्बारे बहुत सस्ते पड़ते हैं। ज़रूरत पड़ने पर इन्हें आसानी से मरम्मत के लिए वापस धरती पर भी लाया जा सकता है। लेकिन सेटेलाइट के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता है। अंतरिक्ष में गुब्बारे भेजने की शुरुआत नासा ने 50 के दशक में की थी। आज अमेरिकी एजेंसी गुब्बारों का इस्तेमाल वायुमंडलीय रिसर्च में करती है। इससे धरती पर निगाह रखी जाती है और ब्रह्मांड से आने वाली किरणों का अध्ययन किया जाता है। कई गुब्बारे तो मशहूर सेंट पॉल के गिरजाघर से भी सात गुना बड़े हैं। ये प्लास्टिक से बने होते हैं और इनकी मोटाई सैंडविच के बराबर होती है। इन गुब्बारों में हीलियम गैस भरी जाती है। दरअसल गुब्बारों के साथ दिक़्कत ये है कि यह अपनी जगह से उड़कर दूसरी जगह जाने लगते हैं। धरती के ऊपर जो वायुमंडल है उसका सबसे ऊपरी हिस्सा स्ट्रैटोस्फेयर कहलाता है। इसकी वजह ये है कि इसमें कई परतें होती हैं और हवा अलग-अलग दिशाओं में चलती है, जिसके कारण गुब्बारा किसी भी दिशा में उड़कर चला जाता है। लेकिन अब ऐसी तकनीक विकसित की जा रही है कि इन्हें अंतरिक्ष में स्थिर रखा जा सके। इसके लिए गूगल भी सक्रिय है। गूगल की अल्फ़ाबेट कंपनी, अंतरिक्ष में गुब्बारों को भेजने के लिए ‘प्रोजेक्ट लून’ पर काम कर रही है। इसके तहत अल्फ़ाबेट ने अंतरिक्ष में गुब्बारे भेजकर संचार सुविधाएं देने का काम शुरू कर दिया है। गुब्बारों में ऐसी मशीनें लगाई जा रही हैं, जो हवा के रुख़ के हिसाब से इसकी ऊंचाई स्ट्रैटोस्फेयर में घटा या बढ़ा सकती हैं। अभी पिछले साल प्रोजेक्ट लून के तहत प्यूर्टो रिको में क़रीब तीन लाख लोगों को इंटरनेट सुविधा गुब्बारों के ज़रिए मुहैया कराई गई थी। समुद्री तूफ़ान मारिया की वजह से प्यूर्टो रिको में इंटरनेट सेवाएं देने वाले सिस्टम तबाह हो गए थे। इसी मिशन की कामयाबी से उत्साहित होकर अब अल्फ़ाबेट इस प्रोजेक्ट को दुनिया के दूसरे हिस्सों में लागू करने की तैयारी कर रही है। इसी तरह अमेरिका के टक्सन स्थित कंपनी वर्ल्ड व्यू गुब्बारों की मदद से न सिफ़र् इंटरनेट की सुविधा देने, बल्कि निगरानी का काम भी करने की कोशिश कर रही है।
गुब्बारों को अंतरिक्ष में भेजकर हम अनगिनत फ़ायदे उठा सकते हैं। जैसे कि जंगल में लगी आग पर निगरानी रखी जा सकती है। तूफानों का पता लगाया जा सकता है। समंदर में डकैती पर निगरानी रखी जा सकती है। फ़सलों की सेहत पर नज़र रखी जा सकती है। आज से तीन चार साल पहले वर्ल्ड व्यू कंपनी का ये लक्ष्य ख्वाब सरीखे लगते थे। लेकिन एक के बाद एक कई कामयाब टेस्ट फ्लाइट के बाद कंपनी को कई सरकारी ठेके मिल चुके हैं। कई निजी कंपनियों ने भी वर्ल्ड व्यू को काम दिया है। यहाँ तक कि सैन्य अधिकारी भी वर्ल्ड व्यू के गुब्बारों, स्ट्रैटोलाइट के बहुत सारे फ़ायदे गिनाते हैं। इससे दुनिया के तमाम हिस्सों पर निगरानी की जा सकेगी। इसी तकनीक से हम मौसम के बदलावों पर निगाह रख सकते हैं। इसके द्वारा किसी समुद्री तूफ़ान के मूवमेंट पर क़रीबी नज़र रखी जा सकती है।

ट्रेवलर बैलून से होगी सैर

वर्ल्ड व्यू के मौजूदा स्ट्रैटोलाइट गुब्बारे क़रीब पचास किलो वज़नी मशीनें अपने साथ ले जा सकते हैं। इनमें सोलर सेल लगी होती हैं, जिससे ये अनंत काल तक काम कर सकते हैं। अब तो इनसे भी बड़े गुब्बारे बनाने की तैयारी है। बड़े गुब्बारों की मदद से अंतरिक्ष में सैलानियों को भी सैर के लिए भेजा जा सकेगा। इसी तकनीक से दूर-दराज़ के इलाक़ों तक किसी आपदा के दौरान मदद भी पहुंचाई जा सकती है। अमरीकी कंपनियों को इस सेक्टर में चीन से कड़ी टक्कर मिल रही है। चीन भी अंतरिक्ष में गुब्बारे भेजकर जासूसी करता है। चीन की कंपनी कुआंगशी साइंस  की स्थापना 2010 मे शेनजान में हुई थी। ये गुब्बारों से बनी एयरशिप को अंतरिक्ष में भेजकर संचार सुविधाएं मुहैया कराती है। आजकल ये कंपनी ट्रैवेलर बैलून विकसित कर रही है। इसके ज़रिए अंतरिक्ष में टूरिस्ट भेजने की योजना है। पिछले साल अक्टूबर में कंपनी ने एक गुब्बारा अंतरिक्ष में भेजा था जिसमें एक कछुआ था। इसे अंतरिक्ष में भेजकर भविष्य में मानव भेजने की तैयारी की जा रही है। ऐसे गुब्बारे रिमोट सेंसिंग तकनीक और दूरसंचार सुविधाओं से सुसज्जित होंगें। किसी सैटेलाइट के मुक़ाबले ऐसे संचार गुब्बारे दस से सौ गुने तक सस्ते पड़ते हैं। ऐसी आशा है कि 2021 तक एक लाख डॉलर के टिकट पर लोगों को अंतरिक्ष की सैर करने को मिलेगा। इसके अलावा ट्रैवेलर बैलून की मदद से भविष्य में लॉन्च पैड विकसित करने में मदद मिलेगी। मतलब ये कि इन गुब्बारों से अंतरिक्ष में छोटे रॉकेट और छोटे-छोटे रिसर्च सैटेलाइट भी लॉन्च किए जा सकेंगे। इनकी मदद से भविष्य में ड्रोन भी लॉन्च किए जा सकेंगे। ऐसे प्रोजेक्ट में चीन की सेना भी दिलचस्पी ले रही है। चीन की सेना को लगता है कि ये सैन्य निगरानी का बेहद सस्ता ज़रिया हो सकता है। यानी अंतरिक्ष में कम ऊंचाई वाली रेस बहुत तेज़ हो चुकी है। फिलहाल तो अमेरिका इस में सब से आगे है। मगर, चीन भी ज़्यादा पीछे नहीं। भारत को भी इस दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए, क्योंकि चीन की नजर भारत पर कुछ ज्यादा ही रहती है।

अंतरिक्ष में सेल्फी का दौर

सेल्फी अंतरिक्ष में भी ली जाएगी ऐसा पहले किसी ने सोचा भी नहीं था। लेकिन ऐसा हो चुका है। अंतरिक्ष में सेल्फी भी खींची गई है और उसकी निलामी भी हुई है। अंतरिक्ष में खींची पहली सेल्फी लगभग 6 लाख रुपये में नीलाम हुई है। 1966 में नासा के ‘जेमिनी-12’ मिशन के तहत स्पेस यात्रा पर गए अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री बज एल्ड्रिन ने इसे कैमरे में कैद किया था। दरअसल स्पेस वाक वाले बैलून विशेष प्रकार से बनाए जाते हैं। ऐसे बैलून को गर्म हवा के द्वारा ऊपर आसमान में ले जाया जाता है। गर्म हवा का गुब्बारा एक बहुत हल्का हवाई यात्रा का साधन है, बहुत जगह पर्यटकों को घुमाने के लिये हॉट एयर बैलून का इस्तेमाल किया जाता है। हॉट एयर बैलून में एक बड़ा सा गुब्बारा होता है जिसमें नीचे एक लकड़ी की बास्केट होती है। इसमें कुछ उपकरण लगे होते हैं। इन उपकरणों की सहायता से आग लगाकर इनके अंदर की हवा को गर्म किया जाता है, जब यह हवा गर्म हो जाती है तो यह गुब्बारा टोकरी में बैठे यात्रियों को सैर कराने निकल जाता है। लेकिन प्रश्न यहाँ ये है कि केवल गर्म हवा कैसे इस गुब्बारे को इतने वजन के साथ ऊपर ले जाती है। दरअसल गर्म हवा का घनत्व, ठंडी हवा के मुकाबले कम होता है। जब हवा को गर्म किया जाता है तब वह फैलती है और घनत्व कम होने के कारण हल्की हो जाती है, जिससे वह ऊपर उठने लगती है। आजकल के गुब्बारे नायलॉन से बने होते हैं जिसके कारण यह हवा उनमें निकलती नहीं है। यह गुब्बारा हवा में होता है तो प्रोपेन बर्नर द्वारा लगातार जरूरत के हिसाब से हवा को गर्म किया जाता है और इस प्रकार यह गर्म हवा का गुब्बारा ऊपर उठता है। इसकी ऊंचाई को भी इसी के द्वारा कंट्रोल किया जाता है। लेकिन इस गर्म हवा का असर सैर करने वालों पर कुछ नहीं होता। वे अंतरिक्ष का आनंद इन गुब्बारों के द्वारा खूब उठाते हैं।

अंतरिक्ष में मोर्चा संभालेंगे सैनिक

ऐसा लगता है कि जल्द ही सैनिक भी अब अंतरिक्ष में रहेंगे। वहीं से दुश्मन देशों पर नज़र रखेंगे। सैनिक अभ्यास भी वे अंतरिक्ष में ही करेंगे। लेकिन यह अन्य कमजोर देशों के लिए खतरे की घंटी है। दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप एक स्पेस फ़ोर्स बनाना चाहते हैं। ट्रंप ने एक ऐसी सेना बनाने के लिए कहा है जो अब तक किसी भी देश ने इसके बारे में नहीं सोचा होगा। ट्रंप ने अपने रक्षा मुख्यालय पेंटागन को दुनिया की पहली और नई अमेरिकी स्पेस सेना तैयार करने का आदेश दिया है। इससे पहले अमेरिका में 5 प्रकार की सेना काम कर रही है लेकिन अब अमेरिकी सेना के पास ऐसी सेना होगी जो धरती पर नहीं अंतरिक्ष में अमेरिकी दबदबे को कायम करेगी। ऐसा पहली बार हुआ है की कोई देश अंतरिक्ष के लिए सेना का निर्माण कर रहा है। ट्रंप ने ऐसी सेना को तैयार करने के निर्देश जारी कर दिए हैं। ट्रंप का मानना है कि अंतरिक्ष में हमारी मौजूदगी के साथ अंतरिक्ष में हमारा दबदबा भी होना चाहिए। खबरों के अनुसार अमेरिका की नई स्पेशल फोर्स अंतरिक्ष में लड़ी जाने वाली जंग के लिए तैयार की जा रही है। ट्रंप इस सेना को बनाने के बारे में जरूर कहा है लेकिन इसे किस तरह से तैयार किया जाएगा इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी है। वैसे भी इस प्रकार की सेना का निर्माण करना बहुत बड़ी चुनौती का काम होगा। इस सेना को अगर बनाया जाता है तो अमेरिका के पास छठी ऐसी सेना होगी जो दुनिया को अंतरिक्ष में भी चुनौती देगी।

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