तकनीकी


जैव ईंधन से वायुयान की उड़ान

प्रमोद भार्गव
 
भारत अब उन चुनिंदा देशों की पांत में शामिल हो गया है, जिन्होंने जैव ईंधन से विमान उड़ाने में सफलता पाई है। सस्ती उड़ान सेवा देने वाली कंपनी स्पाइसजेट ने देहरादून से दिल्ली के बीच बॉम्बार्डियर क्यू-400 विमान को जैव ईंधन से लाने का सफल परीक्षण किया है। भारत को जब दूसरे देश जरूरत की तकनीक देने से इनकार कर देते है तब भारत के वैज्ञानिक इसे एक चुनौती के रूप में लेकर आविष्कार में जुट जाते हैं। पेट्रोलियम वैज्ञानिकों के कठिन परिश्रम से आखिरकार रतनजोत (जट्रोफा) के फल से जैव ईंधन बना लिया गया। इस तकनीक को सबसे पहले अमेरिका ने हासिल किया था। इसके बाद आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा ने जैव ईंधन से विमान उड़ाने में कामयाबी हासिल की, लेकिन इन देशों ने भारत से द्विपक्षीय संबंध होने के बावजूद तकनीक देने से इंकार कर दिया था। हालांकि भारत का भारतीय पेट्रोलियम संस्थान (आईआईपी) 2012 में कनाडा की आंशिक मदद से कनाडा में ही जैव ईंधन से विमान उड़ानों का सफल प्रयोग कर चुका था। ऐसा ही रूस और अमेरिका ने तब किया था, जब भारत को मिसाइल छोड़ने के लिए क्रायोजनिक की जरूरत थी। इन देशों के इंकार के बाद देश के अंतरिक्ष विज्ञानियों ने स्वदेशी तकनीक से क्रायोजनिक इंजन बनाने का संकल्प लिया और सफलता प्राप्त की। नतीजतन आज भारत अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में शुमार है। इस विमान को उड़ाने के बाद भारत विकासशील देशों में ऐसा पहला देश बन गया है, जिसने जैव ईंधन से विमान उड़ानों का कीर्तिमान रच दिया है। इस नाते चीन और जापान फिलहाल ऐसा नहीं कर पाए हैं। विमानों में जैव ईंधन के प्रयोग से जहाँ भारत की तेल के आयात पर निर्भरता कम होगी, वहीं कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आएगी। 
संस्कृत में लिखी महर्षि भारद्वाज की पुस्तक ‘वैमानिक शास्त्र’ में विमान उड़ानें, निर्माण करने और जैव ईंधन से चलाने का सबसे प्राचीन उल्लेख मिलता है। इसमें सूरजमुखी के पौधे के फूलों से तेल निकालकर ईंधन बनाकर विमान उड़ाने का वर्णन है। अब रतनजोत के फलों से तेल बनाकर विमान उड़ाने का सिलसिला तेज हो गया है। भारत में जिस विमान को जैव ईंधन से उड़ाया गया है, उस रतनजोत की फसल का उत्पादन छत्तीसगढ़ के पांच सौ किसानों ने किया है। इस उड़ान के लिए इस्तेमाल ईंधन में 75 प्रतिशत एविएशन टर्बाइन फ्यूल (एटीएफ) और 25 प्रतिशत जैव जेट ईंधन का मिश्रण था। रतनजोत से बने इस ईंधन को पेट्रोलियम पदार्थ में बदलने का काम सीएसआईआर भारतीय पेट्रोलियम संस्थान देहरादून ने किया है। इसमें अहम भूमिका पेट्रोलियम वैज्ञानिक अनिल सिन्हा की रही है। उन्होंने 2012 में ही जट्रोफा के बीजों से बायोफ्यूल बनाने की तकनीक का पेंटेट करा लिया था। एक किलो रतनजोत के बीजों में करीब 40 से 30 फीसदी तेल होता है। हालांकि जब इससे ईंधन तैयार किया जाता है तो यह मात्रा बढ़कर 50 प्रतिशत तक हो जाती है। इसके बाद जो अवशेष बचते हैं, उनसे भी 30 फीसदी पेट्रोल और इतना ही डीजल प्राप्त कर लिया जाता है। पाँच फीसदी एलपीजीवी इससे तैयार की जा सकती है। इस तरह से रतनजोत से तेल बनाने की प्रक्रिया में अवशेष व्यर्थ नहीं जाते हैं। 
हालाँकि जैव ईंधन से विमान उड़ानों के प्रयास एक दशक पहले से हो रहे हैं। 2008 से कई उड़ानों में जैव ईंधन का परीक्षण किए जाने का सिलसिला शुरू हुआ। 2011 में अमेरिकन सोसाइटी फॉर टेसि्ंटग एंड मैटेरियल द्वारा बायोफ्यूल को मान्यता देने के बाद से व्यावसायिक उड़ानों में इसका निरंतर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस दृष्टि से पहली उड़ान 30 जून 2011 को अमेरिका के एम्सटर्डम और लंदन की उड़ान भरी थी, इसमें 171 यात्री सवार थे। कम कार्बन उत्सर्जन और बेहतर उड़ान अनुभव कराने वाले जैव ईंधन को हवाई जहाजों के लिए भविष्य का ईंधन माना जा रहा है। इसी ध्येय वाक्य को लेकर भारत ने जैव ईंधन निर्माण की दिशा में अहम पहल शुरू की। डॉ अनिल सिन्हा ने इसी लक्ष्यपूर्ति के लिए ‘एप्लिकेशन ऑफ बायोफ्यूल फॉर एविएशन‘ शीर्षक से शोध को अंजाम दिया और फिर इस कथनी को अथक महनत से करनी में बदल दिया। इस तेल को रतनजोत के अलावा ऐसे अखाद्य तेलों, लकड़ी और उसके उत्पादों, जनवारों की वसा और बायोमास से बनाया जा सकता है। इस तेल के एक हिस्से को पारंपारिक ईंधन पेट्रोल और डीजल में मिलाकर वायुयान चलाए जा सकते हैं। अमेरिका में अनाज को सड़ाकर भी बड़ी मात्रा में जैव ईंधन बनाया जा रहा है। यह ईंधन गेंहू, चावल, मक्का और सोयाबीन का कायांतरण करके ऐथोनॉल के रूप में बनाया जाता है। भारत में एक टन चावल के भूसे से 280 लीटर एथोनॉल का उत्पादन किया जा रहा है। इसका उपयोग वैकल्पिक ईंधन व ईंधन में मिश्रण के रूप में किया जाता है। इसका निर्माण भांग, गन्ना, आलू, मक्का, गेंहू का भूसा और बाँस के छिलकों से भी किया जाता है। फसलों के जो अवशेष मनुष्य के खाने लायक नहीं होते हैं, उससे एथोनॉल का उत्पादन सबसे अधिक होता है। सड़े अनाज से भी एथोनॉल बनाया जाता है।
भारत सरकार ने 2009 से जैव ईंधन के प्रयोग की शुरूआत की थी। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस प्रयोग में और वृद्धि हुई। नतीजतन साल 2017-18 में एथोनॉल के मिश्रण से 597 मिलियन डॉलर की बचत हुई। सरकार का लक्ष्य है कि जैव ईंधन के प्रयोग से 1.74 अरब डॉलर के तेल के आयात में कमी लाई जाए। इस मकसदपूर्ति के लिए 12 जैव ईंधन रिफाइनरियों की स्थापना की जानी है। दक्षिण एशियाई देश जो अपने तेल की 80 प्रतिशत आपूर्ति अरब देशों से तेल आयात करके करते हैं, वे इन रिफाइनरियों में 1.5 अरब डॉलर की पूंजी लगाएंगे। इससे 15000 नए रोजगार सृजित होने की उम्मीद भी की जा रही है। अनिल सिन्हा फिलहाल अपने संस्थान में ऐसा संयंत्र स्थापित करने की तैयारी में हैं, जिससे एक घंटे में 10 लीटर जैव ईंधन निर्मित किया जा सके। जैव ईंधन से विमानों के उड़ानों का सिलसिला नियमित हो जाता है तो इससे उड़ान खर्च में 20 फीसदी की कमी आएगी और जिस सल्फरडाइ ऑक्साइड से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, उसमें भी बहुत कमी आएगी। दरअसल जेट विमानों से वायुमंडल की ऊपरी परत में 2 प्रतिशत तक कार्बन डाइऑक्साइड पहुचता है। ऊपरी हिस्से का प्रदूषण वायुमंडल के लिए निचले स्तर से अधिक खतरनाक होता है। इसी नाते इंटरनेशनल एविएशन ट्रांसपोर्ट एसोसियशन ने 2017 तक एयरक्रॉफ्ट के सामान्य ईंधन में कम से कम 10 प्रतिशत जैव ईंधन मिलाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस लक्ष्य के लिए 25 फीसदी जैव ईंधन सामान्य ईंधन में मिलाया जाएगा। 
दरअसल देश में अभी भी पेट्रोलियम पदार्थों की उपलब्धता तो पर्याप्त है, लेकिन महंगे होने के कारण आम आदमी के लिए इसका इस्तेमाल मुश्किल हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दामों में लगातार ईजाफा होने के कारण भारत में यातायात के साथ खाद्य पदार्थ भी महंगे हो रहे हैं। नतीजतन जहाँ सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है, वहीं जनता भी गुस्से में है। 2017-18 में 141 करोड़ लीटर तेल भारत को आयात करना पड़ा है। ऐसे में जैव ईंधन का प्रयोग सरकार को राहत पहुँचाने का काम करेगा। वैसे भी देश का नागरिक उड्डयन क्षेत्र दिन दुनी, रात चौगुनी की गति से प्रगति कर रहा है। 2020 तक यह दुनिया का सबसे बड़ा विमानन बाजार बन सकता है। 2030 तक इस क्षेत्र में भारत के सिरमौर हो जाने की उम्मीद है। देश का नागरिक विमानन उद्योग अनुमानित 16 अरब डॉलर का है। इस नाते आयातित कच्चे तेल पर भारत की निर्भरता कम होती है, तो इससे भारत की अर्थव्यस्था मजबूत बनी रहेगी। 
रतनजोत का खेतों में उत्पादन यदि सावधानी पूर्वक नहीं किया गया तो इसके खतरे भी हैं। 2007-08 में मध्य-प्रदेश सरकार ने डीजल पेट्रोल के विकल्प के रूप में रतनजोत के उत्पादन को प्रोत्साहित किया था। जबकि इसके बीज से तेल बनाने के कोई संयंत्र मध्य-प्रदेश में आज भी नहीं है। बहरहाल निःशुल्क बीज देकर रतनजोत का उत्पादन कराया गया, लेकिन खरीददार नहीं मिले। नतीजतन भविष्य में किसानों ने इसका उत्पादन बंद कर दिया। इसके बीज जहरीले होते हैं। इस कारण 2007-08 में यह फसल खेतों में लहलहाई तो सैकड़ों बच्चों ने इसके फल पौष्टिक फल मानते हुए खा लिए। इस कारण अनेक बच्चों को उल्टी-दस्त की शिकायत हुई और इन बच्चों को अस्पतालों में भर्ती करना पड़ा था। चूंकि रतनजोत की फसल की मांग नहीं है, इसलिए इसका उत्पादन भी नहीं हो रहा है। मांग बढ़ेगी तो उत्पादन भी बढ़ेगा। फिलहाल भारत के पास रतनजोत से ही जैव ईंधन बनाने की तकनीक हैं। भविष्य में नाहॉर और सैपियन नामक वनस्पतियों से जैव ईंधन बनाने की कोशिशें की जा रही हैं।
 
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