तकनीकी


हिंदी में विज्ञान संचार और रक्षा विज्ञान

डॉ. सुभाषचंद्र लखेड़ा

राष्ट्र की प्रगति के लिए विज्ञान का सृजन और उसका संचार, दोनों ही बेहद जरूरी हैं। बहरहाल, भारत में विज्ञान संचार सरकारी हाथों में है। यहाँ निजी क्षेत्र की भागेदारी नहीं के बराबर है। कुछ निजी क्षेत्र के उद्योग धंधों में अनुसंधान के नाम पर कुछ काम अवश्य होता है किन्तु उसका संबंध विज्ञान संचार से नहीं है। अब सवाल उठता है कि सरकारी क्षेत्र विज्ञान संचार में कितना प्रभावी है? विशेषकर, आजादी के बाद इस क्षेत्र में कितना कार्य हुआ और उसका हमारे समाज की दशा और दिशा को सुधारने में क्या भूमिका रही है? इन सवालों का जवाब खोजने के लिए जरूरी है कि हम ऐसे सभी सरकारी विभागों के बारे में पहले संक्षेप में चर्चा कर लें जिनसे विज्ञान संचार की अपेक्षा की जाती है। इनमें सर्वाेपरी स्थान भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय का है। यूं देश में कोई ऐसा मंत्रालय या विभाग नहीं है जिसका रिश्ता कहीं न कहीं विज्ञान के संचार और प्रचार-प्रसार से न हो किन्तु ऐसे मंत्रालयों की संख्या भी कम नहीं है जिनका संबंध सीधे तौर पर विज्ञान के सृजन और उसके संचार से है। नवीन एवं अक्षय ऊर्जा मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय, मानव संसाधन विकास और दूरसंचार एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय, भू विज्ञान मंत्रालय, जल संसाधन मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, खेल एवं युवा मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस सूची में शामिल कर सकते है। इसके अलावा परमाणु ऊर्जा विभाग एवं अंतरिक्ष विभाग का संबंध भी विज्ञान संचार से है। इन सभी मंत्रालयों एवं विभागों के तहत अनेक ऐसी संस्थाएं एवं प्रयोगशालाएं हैं जिनका कार्य विज्ञान का सृजन एवं संचार करना है। उदहारण के लिए रक्षा मंत्रालय का ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन’, कृषि मंत्रालय का ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्’, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से संबंधित ‘भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान  परिषद्’, और भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा पोषित ‘वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद्’ ऐसे प्रमुख वैज्ञानिक संगठन हैं जिनसे यह अपेक्षा की जाती है की वे सतत रूप से विज्ञान संचार करते रहेंगे।
यद्यपि ऐसे सभी संगठन आजादी से पहले भी हमारे यहाँ किसी न किसी रूप में मौजूद थे किन्तु आजादी के बाद देश की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इन सभी में व्यापक रद्दोबदल किये गए ताकि ये भारत को वैज्ञानक और प्रौद्योगिकी दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने में मददगार हो सकें। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की स्थापना वर्ष 1958 में हुई। सम्प्रति इसके अंतर्गत 51 प्रयोगशालाओं का एक नेटवर्क है जो देश की रक्षा जरूरतों के मुताबिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जुड़े विभिन्न विषयों पर अनुसंधान एवं विकास के कार्यों  में लगी हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के अंतर्गत 97 संस्थान और 53 कृषि विष्वविद्यालय हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद् की स्थापना वर्ष 1949 में हुई और इस समय इसके तहत 21 स्थाई शोध संस्थान और 6 क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र हैं। जहां तक वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् का सवाल है, इसकी 39 प्रयोगशालाएं एवं 50 फील्ड स्टेशन हैं। इसको विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों में अनुप्रयुक्त अनुसंधान तथा उसके परिणामों के उपयोग पर बल देते हुए अनुसंधान एवं विकास परियोजनाएं शुरू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इन संस्थानों /संगठनों के अलावा हमारी  सरकार ने अलग से भी कुछ संस्थान बनाये हैं जिनका कार्य प्रत्यक्ष रूप से विज्ञान का संचार करना तो नहीं है किन्तु इस कार्य में सहायता पहुंचना है। हम सभी जानते हैं कि आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी को आत्मसात किए बिना कोई भी भाषा राष्ट्र की संपूर्ण जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती है। केंद्र सरकार ने इस बात को समझते हुए हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्द मुहैय्या करवाने के लिए ‘वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग’ का गठन किया। आज आयोग द्वारा किए गए परिश्रम के  बदौलत हिंदी में  ऐसे शब्दों का विपुल भंडार उपलब्ध है। सभी जानते हैं कि इन शब्दों का उपयोग वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन में होना है ताकि विज्ञान का प्रसार आमजन तक किया जा सके। इतना ही नहीं, हमारे सरकारी वैज्ञानिक  संगठनों ने कुछ ऐसे स्वतंत्र संस्थान भी बनाये हैं जिनका कार्य सिर्फ और सिर्फ विज्ञान संचार करना है। ऐसी प्रमुख संस्थाओं में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद्, विज्ञान प्रसार, राष्ट्रीय विज्ञान संचार एवं सूचना संसाधन संस्थान, राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद् और नेहरू तारामंडल जैसे संस्थान/इकाइयां शामिल हैं। जहां तक रक्षा विज्ञान के संचार का सवाल है, भारत में रक्षा विज्ञान से संबंधित अनुसंधान कार्य ‘रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन’ यानी डीआरडीओ द्वारा किया जाता है। इस संगठन की स्थापना सन् 1958 में हुई। तब इस संगठन के अंतर्गत 10 प्रयोगशालाएं थी। आज डीआरडीओ 51 सुदृढ़ प्रयोगशालाओं एवं स्थापनाओं का एक ऐसा संगठन है जो वैमानिकी, समाघात प्रणालियों, प्रक्षेपास्त्र प्रणालियों, युद्धक वाहन, अभियांत्रिकी, उन्नत संगणन, इलेक्ट्रॉनिक्स, जैव विज्ञान तथा नौसैनिक प्रणालियों से सम्बंधित अनुसंधान तथा विकास में संलग्न है।
संगठन ने अपने गठन के साथ ही वैज्ञानिक सूचनाओं के एकीकृत स्रोत हेतु ‘साइंटिफिक इंफॉर्मेशन ब्यूरो’ की स्थापना की। सन् 1967 में इस ब्यूरो के द्वारा किये जाने वाले कार्यों में बढ़ोतरी करते हुए इसे ‘डिफेंस साइंटिफिक इनफार्मेशन एंड डॉक्यूमेंटेशन सेंटर’ (डेसीडॉक) यानी ‘रक्षा वैज्ञानिक सूचना तथा प्रलेखन केंद्र’ नाम दिया गया। सन् 1970 से यह केंद्र एक प्रयोगशाला में तब्दील हुआ। यह प्रयोगशाला अपने पुस्तकालय की सहायता से विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित सूचनाएं उपलब्ध कराने में तत्पर है। डेसीडॉक डीआरडीओ संबंधी सूचनाओं के लिए उत्तरदायी है। इसके नियमित प्रकाशनों के नाम हैं रूडिफेंस साइंस जर्नल (द्वय मासिक अनुसंधान पत्रिका), टेक्नॉलॉजी फोकस (डीआरडीओ संबंधित प्रौद्योगिकिओं, उत्पादों, प्रक्रमों और प्रणालियों के ऊपर केंद्रित एक द्वय मासिक प्रकाशन), डीआरडीओ न्यूज़ लेटर (डीआरडीओ के क्रियाकलापों से संबंधित मासिक प्रकाशन), डीआरडीओ समाचार पत्र (न्यूज़ लैटर का हिंदी संस्करण) और डेसीडॉक बुलेटिन ऑफ़ इंफॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी (पुस्तकालय और सूचना प्रौद्योगिकी में हो रहे विकास संबंधी एक द्वय मासिक प्रकाशन)।
रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन राष्ट्र की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विभिन्न उच्च प्रौद्योगिकी और उच्च प्राथमिकताओं वाली परियोजनाओं को कार्यान्वित करता है। इन परियोजनाओं के सफल कार्यान्वयन हेतु परियोजना में कार्यरत वैज्ञानिकों को संबंधित परियोजना के लिए वांछित सूचनाओं को समय पर उपलब्ध कराना नितांत आवश्यक है। इसके लिए रक्षा वैज्ञानिक सूचना तथा प्रलेखन केंद्र (डेसीडॉक), दिल्ली ने ‘सामरिक सूचना सेवा’ नामक सेवा शुरू की है। इसके अंतर्गत रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन की विभिन्न प्रयोगशालाओं में चल रही उच्च प्राथमिकता वाली परियोजनाओं के लिए सूचना उपलब्ध कराने हेतु एक प्रणाली/तंत्र का रूपांकन, संरचना एवं विकास किया गया है। इस प्रणाली के अंतर्गत वैज्ञानिकों की सूचना आवश्यकताओं को समझते हुए उन्हें उपयुक्त सूचना उपलब्ध कराई जाती है। जहां तक रक्षा अनुसंधान एवं युद्ध विज्ञान से संबंधित विज्ञान लेखन का सवाल है, रक्षा मंत्रालय से जुड़े विभिन्न संगठन इस कार्य से लंबे समय से जुड़े हुए हैं। यह हर्ष का विषय है कि पिछले पैंतीस वर्षों में इस कार्य में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। उल्लेखनीय है कि डेसीडॉक अपने संसधानों से  विभिन्न वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में पुस्तकें भी प्रकाशित करता है। 
मैं यहां अपनी बात सिर्फ हिंदी में किये जाने वाले लोकप्रिय विज्ञान लेखन तक सीमित रखना चाहूंगा क्योंकि उन प्रमुख पक्षों में से एक है जो देश में वैज्ञानिक वातावरण तैयार करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं । रक्षा मंत्रालय का प्रारंभ से यह प्रयास रहा है कि रक्षा अनुसंधान एवं युद्ध विज्ञान से संबंधित विज्ञान लेखन को बढ़ावा दिया जाए। इसके लिए सन् 1982 में ‘रक्षा मंत्रालय पुरस्कार योजना’ शुरू की गयी। इस योजना के परिणाम आशाजनक रहे और रक्षा अनुसंधान एवं युद्ध विज्ञान से संबंधित अनेक पुस्तकें सामने आईं। सन् 1985 से डीआरडीओ के ‘राजभाषा और संगठन पद्धति निदेशालय’ ने हिंदी में विज्ञान लेखन को बढ़ावा देने के लिए ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास राजभाषा पुरस्कार’ प्रारंभ किया। यह पुरस्कार प्रति वर्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दो शाखाओं नामतरू अनुप्रयुक्त विज्ञान तथा मूल विज्ञान (जिसमें इंजीनियरी और मैनेजमेंट शामिल हैं) में अलग-अलग दिए जाते हैं। कोई भी भारतीय लेखक इस योजना में भाग ले सकता है। इस योजना के अंतर्गत विज्ञान के कई लेखकों की पुस्तकें पुरस्कृत हुई।
प्रयोगशालाओं के स्तर पर विज्ञान लेखन को बढ़ावा देने के लिए भी  डीआरडीओ ने सक्रिय भूमिका निभायी है। सम्प्रति डीआरडीओ प्रयोगशालाओं से 45 गृह पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। इन पत्रिकाओं में संबंधित प्रयोगशालाओं में हो रहे वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विषयक कार्यों संबंधी लेख पर्याप्त संख्या में छपते हैं। इसके अतिरिक्त सशस्त्र सेना चिकित्सा सेवा महानिदेशालय, गुणता आश्वासन महानिदेशालय, नौसेना तथा वायु सेना के अंतर्गत कार्य कर रहे विभिन्न संस्थाओं और प्रतिष्ठानों से प्रकाशित होने वाली गृह पत्रिकाओं में विज्ञान संबंधी रचनाएं प्रकाशित होती हैं। रक्षा मंत्रालय की विभिन्न आयुध इकाइयों से भी जो गृह पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, उनमें भी ऐसी रचनाओं का समावेश रहता है। इन गृह पत्रिकाओं को पल्लवित-पुष्पित करने हेतु रक्षा मंत्रालय ने सन् 1989 में ‘रक्षा मंत्रालय गृह पत्रिका पुरस्कार योजना’ को आरंभ किया। यह योजना रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सभी विभागों से जुड़े संस्थानों, स्थापनाओं और प्रतिष्ठानों के लिए है।
रक्षा मंत्रालय से जुड़े वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीविद् राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर छापने वाली पत्र-पत्रिकाओं में विगत कई दशकों से विज्ञान लेखन कर रहे हैं। विज्ञान, विज्ञान प्रगति, विज्ञान गरिमा सिंधु, आविष्कार, इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए, वैज्ञानिक और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिकाओं के साथ-साथ हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी, दैनिक ट्रिब्यून, अमर उजाला, दैनिक भास्कर आदि अखबारों में जब तब रक्षा अनुसंधान एवं युद्ध विज्ञान से संबंधित लेख पढ़ने में आते हैं। कुल मिलाकर, यह एक शोध का विषय है कि अब तक रक्षा अनुसंधान एवं युद्ध विज्ञान से संबंधित कितना विज्ञान लेखन हुआ है और क्या वह हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप है? यदि नहीं तो फिर हमें इस स्थिति में बदलाव लाने के लिए क्या कुछ करना होगा? खोजी प्रवृति रखने वाले विज्ञान लेखकों और पत्रकारों के लिए इस संपूर्ण परिदृश्य का ऑकलन करना एक रोचक और उपयोगी विषय होगा।    
बहरहाल, यह भी सच है कि सारे तामझाम के बावजूद हम आमजन में  विज्ञान का उतना संचार नहीं कर पाए हैं जितना किया जाना चाहिए था। यहां मैं विज्ञान परिषद् प्रयाग, इलाहाबाद की चर्चा करना चाहूंगा। वर्ष 1913 में स्थापित इस संस्था ने विज्ञान की जानकारी को आमजन तक पहुंचाने के लिए अब तक जितना कार्य किया है, वह सरकारी विभागों और मंत्रालयों के लिए सबक हो सकता है। सरकारी विभागों ने विज्ञान संचार के कार्य को उसी तरह से किया जैसे कोई सरकारी बाबू पानी अथवा बिजली के बिल जमा करता है। दरअसल, विज्ञान सृजन की तरह विज्ञान संचार का काम भी एक मिशन के रूप में लिया जाना चाहिए। हमारे सरकारी संस्थानों ने विज्ञान प्रसार संबंधी पुस्तकें छापी तो हैं किन्तु वे छपने के बाद आम जनता को नहीं पहुंचाई गयी। सरकारी क्षेत्र में आज तक जो लोकप्रिय विज्ञान पत्रिकाएं छप रही हैं, उनका वितरण किसी ऐसे अधिकारी के हाथ में होता है जिसका पत्रिका के प्रकाशन से कोई तालुक नहीं होता है। फलस्वरूप, पत्रिकाएं छपने के बाद गोदामों में पड़ी रहती हैं । विभिन्न मंत्रालयों से जुड़े वैज्ञानिक संगठनों के तहत आने वाली सभी प्रयोगशालाएं जो गृह पत्रिकाएं छापती हैं, उनमें विज्ञान संबंधी सामग्री अपेक्षा से कम होती है। जो थोड़ी बहुत विज्ञान संबंधी सामग्री उनमें मौजूद रहती है, अक्सर उसे देखकर यही लगता है कि लिखने वाले ने उसे शायद मजबूरी में या किसी दबाव में लिखा है। यदि कोई उत्कृष्ट विज्ञान लेख उसमें छपा भी हो तो उसके लेखक को कहीं से कोई ऐसा प्रोत्साहन नहीं मिलता है जिससे उसमें वह भावना बलवती हो जो किसी वैज्ञानिक को लोकप्रिय विज्ञान लेखन के लिए प्रेरित करती है।
मैं अपने दीर्घकालिक अनुभव के आधार पर यह निस्संकोच कह सकता हूं कि हमारे देश में मौजूद सैकड़ों प्रयोगशालाओं में अपवाद स्वरूप एक या दो ऐसी प्रयोगशालाएं हो सकती हैं जहां इस बात पर गंभीरता से विचार होता हो कि विज्ञान का संचार कैसे किया जाये? घड़ी देख कर नौकरी करने वाले लोगों से इस तरह की आशा रखना व्यर्थ है। यूं आपको इन वैज्ञानिकों के बीच कुछ ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो घड़ी देख कर नौकरी नहीं करते हैं किन्तु ऐसा वे विज्ञान के सृजन या संचार के लिए नहीं अपितु अपने प्रचार- प्रसार के लिए करते हैं ताकि वे समय से पहले प्रोन्नति पाते रहे। ऐसे लोग देश और समाज का अपेक्षाकृत अधिक नुकसान करते हैं। ये अक्सर समाज को गलत जानकारी परोसते हैं; आंकड़ों से खिलवाड़ कर अपने वरिष्ठ अधिकारियों को गुमराह करते हैं और कई बार तो पूरे देश को गुमराह करते हैं। गौरतलब है कि हमारे सभी नेता जिस वैज्ञानिक चेतना की बात करते हैं, वह तभी संभव है जब सरकारी और गैर सरकारी, दोनों स्तरों पर विज्ञान की जानकारी उस आम आदमी तक पहुंचे जिसके आंसू पोंछने का स्वप्न बापू ने देखा था। दरअसल, विज्ञान की मदद से हम गरीबी से निज़ात पा सकते हैं और एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जिसकी सोच आधुनिक और प्रगतिशील हो। यह खेद की बात है की हमारे वैज्ञानिक जिस भाषा में बात करते हैं, वह आम भारतीयों की भाषा नहीं होती और वे स्वदेश के बजाए विदेशी जर्नलों में अपने कार्यों का विवरण छपवाना चाहते हैं। वे सिर्फ एक ही बात दोहराते मिलेंगे, ‘हमारे जर्नल अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं।’
ऐसे लोग क्या यह बताने की कृपा करेंगे कि हमारे जर्नलों का स्तर कैसे बेहतर हो सकता है? अगर हमारे देश को तरक्की करनी है तो उसके लिए किसी विदेशी को नहीं अपितु हमें ही कठिन परिश्रम करना होगा। अगर हमें अपने जर्नलों को बेहतर बनाना है तो हमें अपने अच्छे शोध पत्र और रिव्यू आलेख उनमें छापने होंगे। हम इस तथ्य से परिचित हैं कि विदेशी जर्नल महंगे होने के कारण हमारे विद्यालयों के पुस्तकालयों तक नहीं पहुँच पाते हैं। फलस्वरूप, हमारे छात्र विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे नवीनतम कार्यों से परिचित नहीं हो पाते हैं। सरकार को अब अविलम्ब ऐसे सभी कदम उठाने होंगे जो विज्ञान संचार और उसके प्रसार के कार्य को वह गति प्रदान कर सकें जो वर्ष 2020 में न सही, वर्ष 2030 तक हमें एक विकसित राष्ट्र का दर्जा दिलाने में सहायक हो सकते हैं।
अंत में यहां यह जरूर कहना चाहूंगा की अगर हमें विज्ञान संचार करना है तो उसमें हमारे मीडिया की भूमिका भी सकारात्मक होनी चाहिए। हमारा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विज्ञान संचार के बजाए अंधविश्वासों पर आधारित सामग्री को परोसने में रूचि रखता है। वे वैज्ञानिकों के बजाए पोंगा पंडितों और कठमुल्लाओं को वरीयता देते हैं। कुछ पाखंडी बाबाओं और माताओं की चर्चा से समाज और देश का कोई भला नहीं होने वाला है। हमारे मीडिया में जादू-टोने के विज्ञापन जिस बेशर्मी से छापे और दिखाए जाते है ,उसे देखकर यह कतई महसूस नहीं होता है कि हम इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के पांचवे वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं !

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