तकनीकी


इण्डिया  2020  के स्वप्नद्रष्टा

प्रेमचंद्र श्रीवास्तव

कुछ वर्षों पूर्व डॉ. ए.पी.जे.कलाम के खींचे गये एक छायाचित्र में उन्हें एक ओर कार्ल सागां की पुस्तक ‘द डेमन हॉन्टेड वर्ल्ड’ और दूसरी ओर श्री अरविन्द की ‘द लाइफ डिवाइन’ के मध्य अत्यन्त शान्त किंतु भविष्य की ओर भेदक दृष्टि से निहारते हुए एक सौम्य तपस्वी की सी मुद्रा में देखा। पृष्ठभूमि में हैं बुद्ध,नटराज और सरस्वती के मूर्ति शिल्प तथा एक वीणा। ऐसा प्रतीत हुआ कि डॉ. कलाम के पूरे व्यक्तित्व को ही यह चित्र रेखांकित कर रहा है। एक पुस्तक अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझाने वाले विज्ञानी की और दूसरी अध्यात्म के ब्रह्मानन्द में डूबे दार्शनिक की, दोनों की ही कृतियाँ डॉ. कलाम के व्यक्तित्व को सँंवारती और प्रेरित करती हैं। सरस्वती से विद्या-बुद्धि, शिव से लोकमंगल की इच्छा और परमशक्ति तथा बुद्ध से अपरिग्रह और मध्यमार्ग का संतुलन पाकर डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ने अपने भारत देश को 2020 तक विश्व का महानतम विकसित देश बनाने का एक अद्भुत स्वप्न देख डाला। ऐसा स्वप्न जो उनके जैसे सादा जीवन जीने वाला और कल्पना की उड़ानों में आकाश और अंतरिक्ष तक उड़ने वाला कर्मठ और प्रतिभावान उच्च कोटि का विज्ञानी ही देख सकता है। जिनके पास कल्पना है, योजनायें हैं, मेधा है, कर्मठ परिश्रम है और अबाध्य लगन है। ऐसे व्यक्ति के लिए स्वप्नों को मूर्त रूप देने में असंभव क्या है ?
भारतीय रॉकेट युग के प्रारंभिक चरण की प्रेरणा और प्रोत्साहन डॉ. कलाम की दृष्टि में प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू तथा डॉ. विक्रम साराभाई जैसे विश्वविख्यात विज्ञानी रहे हैं। तत्कालीन सरकारी नीतियों को इस तरह के कार्यों के लिए सहानुभूतिपूर्ण बनाकर ही देश के विकास की दिशा में एक लंबी छलाँंग संभव हो सकी थी। अंतरिक्ष विज्ञान में व्यापक शोध परियोजनायें बनाई और कार्यान्वित की जाने लगीं। राकेट ईंधन, प्रक्षेपण संयंत्र, एअरोनॉटिक्स, एअरोस्पेस सामग्री, नियंत्रण केंद्रों का विकास आदि इस दिशा से संबंधित अनेक कार्यक्रमों ने गति पकड़ ली। यह सच है कि दूसरे विकसित देशों की ओर से ऐसे कार्यक्रम भारत में विकसित किये जाने का दबा- छिपा विरोध भी हो रहा था और साथ ही देश के राजनीतिक क्षेत्रों से भी रास्ते में आने वाली बाधाओं और असफलताओं के कारण आलोचना झेलनी पड़ती थी पर इन सबकी परवाह न कर डॉ. साराभाई की सहमति और सहयोग डॉ. कलाम को सदैव आगे बढ़ाते रहे। अन्य देश इस कार्यक्रम से संबंधित किसी भी प्रकार की सामग्री एवं तकनीकी सहायता देने में पूरा असहयोग कर रहे थे। इस कार्य को पूर्णतः भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा संपन्न किया जाता था। वास्तविक भारतीय अन्तरिक्ष सफलता का प्रारंभ रोहिणी रॉकेटों के परीक्षणों से हुआ। 1967 के 20 नवंबर को प्रथम रोहिणी-75 रॉकेट छोड़ा गया। ये रॉकेट वायुमंडल के ऊपरी क्षेत्रों सहित पृथ्वी के आस पास के वातावरण का अध्ययन करके सूचनायें भेजते थे। यह रॉकेट किसी ऊँचाई तक कुछ भार ले जाने में तो समर्थ थे पर उसे किसी कक्षा में स्थापित नहीं कर सकते थे। रोहिणी-75 के 1967 में छोड़े जाने के कुछ समय बाद 1968 में भारतीय रॉकेट सोसाइटी का गठन हुआ। अब तक भारत के स्वदेशी उपग्रह छोड़ने की योजना बन चुकी थी। इसके लिए चेन्नई से 100 कि.मी. दूर पूर्वी तट पर श्रीहरिकोटा नामक द्वीप को प्रक्षेपण स्थल के रूप में चुना गया। इससे पूर्व 1962 और 1965 के युद्धों के अनुभव से भारत को रक्षा प्रणाली में आत्मनिर्भर होने की कड़वी सीख मिल चुकी थी । इस संबंध में रॉटो परियोजना (रॉकेट असिस्टेड टेक ऑफ सिस्टम) पर तेज़ी से कार्य हो रहा था । 1972 में बरेली के एयर फोर्स स्टेशन पर इस प्रणाली का सफलतापूर्वक परीक्षण हुआ । इस परीक्षण में रूसी सुखोई विमान की भी सहायता ली गई। इस बीच रक्षा मंत्रालय ने मिसाइल कार्यक्रम को अनुमति दे दी थी। जब रक्षा अनुसंधान विभाग ने ज़मीन से हवा में मार करने वाली स्वदेशी मिसाइल को विकसित करने की ‘डेविल’ नामक परियोजना प्रारंभ की तब कलाम भी उसके अंग थे यद्यपि आगे चलकर इस परियोजना में उनका सहयोग कार्य व्यस्तताओं के कारण कम होता गया। 1975 से 1978 के मध्य भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के विकास की दिशा में तीव्रता से क़दम बढ़ाये। जैसा कि पहले ही कहा गया कि एस एल वी परियोजना का प्रमुख बनाया जाना डॉ. अब्दुल कलाम की एक बड़ी उपलब्धि थी। रोहिणी रॉकेट प्रमुखतः अध्ययन रॉकेट होने के कारण एस एल वी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अनेक वर्षों के कड़े परिश्रम और प्रयासों के बाद जब 10 अगस्त 1979 को एस एल वी-3 को श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपित किया गया तो प्रारंभिक चरण के सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने के बाद भी सारा रॉकेट द्वितीय चरण में मात्र 317 सेकेंड की उड़ान भर कर श्रीहरिकोटा से कुछ सौ किमी. दूर समुद्र में समा गया। यह असफलता बहुत कष्टदायक थी किंतु असफलता की पीड़ा को परे हटाकर और गलतियों से सीख लेकर डॉ. कलाम आगे बढ़ गये। अंततः अपने लक्ष्य में सफल हो एस एल वी-3 ने 18 जुलाई 1980 को पहली असफलता के लगभग एक वर्ष पश्चात् श्रीहरिकोटा से सफल उड़ान भरी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्वयं उन्हें बुला कर उनसे भेंट की। इसके बाद शीघ्र ही उसी वर्ष रोहिणी उपग्रह पृथ्वी का चक्कर लगाने लगा । उपग्रह प्रक्षेपण की क्षमता ने देश की शक्ति को पुष्ट कर उसे विशिष्ट देशों की श्रेणी में ला खड़ा किया था। 31 मई 1981 को एस एल वी-3 ने पुनः सफल उड़ान भरी । 
वैज्ञानिक समुदाय इन सफलताओं से उत्साहित था । इस क्षेत्र में डॉ. विक्रम साराभाई के उत्तराधिकारी डॉ. राजा रामण्णा ने डॉ. कलाम को रक्षा अनुसंधान की दिशा में आमंत्रित कर गाइडेड मिसाइल निर्माण करने का कार्यभार सौंपा। डॉ. कलाम इसरो से रक्षा अनुुसंधान विभाग में डॉ. सतीश धवन की सहायता से स्थानान्तरित हो गये। अब वे रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान ;क्त्क्व्द्ध में एकीकृत निर्दिष्ट प्रक्षेपास्त्र विकास परियोजना ;ळडक्च्द्ध में नियोजित किये गये। यह पाँच अस्त्र प्रणालियों को विकसित करने की परियोजना थी। इसमें धरती से धरती पर मार करने वाला ‘पृथ्वी’ नामक प्रक्षेपास्त्र,धरती से हवा में मार करने वाला ‘आकाश’ नामक प्रक्षेपास्त्र, टैंकभेदी ‘नाग’ नामक प्रक्षेपास्त्र, पुनः प्रवेश प्रयोगी ‘अग्नि’ नामक प्रक्षेपास्त्र और टेक्निकल कोर व्हीलर ‘त्रिशूल’ की योजना सम्मिलित थी । औपचारिक स्तर पर 27 जुलाई 1983 को इन योजनाओं पर कार्य प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत् हर प्रक्षेपास्त्र की योजना के लिए एक अलग व्यक्ति को कार्यभार सौंपा गया । केवल यही नहीं, जहाँ ‘पृथ्वी’ के लिए कर्नल सुंदरम, ‘त्रिशूल’ के लिए कमांडर मोहन,‘अग्नि’ के लिए आर एन अग्रवाल,‘आकाश’ के लिए श्री प्रहलाद और ‘नाग, के लिए एम आर अय्यर की नियुक्ति की गई वहीं देश के विभिन्न शिक्षण संस्थानों के युवा अभियन्ताओं की प्रतिभा का उपयोग भी इस कार्यक्रम में किया गया। ‘पृथ्वी’ के निर्माण में जादवपुर विश्वविद्यालय के डॉ0 घोषाल और सहयोगी,‘आकाश’ के लिए बंगलौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस के सॉफ़्टवेयर निर्माता,‘अग्नि’ के लिए आई. आई.टी. मद्रास के युवा अभियन्ता और ‘नाग’ के लिए हैदराबाद स्थित उस्मानिया विश्वविद्यालय के विज्ञानियों ने दिन रात जुटकर अपना पूर्ण सहयोग दिया। इन सभी कार्यदलों के कार्यों का सतत निरीक्षण करते रहना डॉ. अब्दुल कलाम का दायित्व भी था और चुनौती भी। ‘आकाश’ नामक प्रक्षेपास्त्र मंे प्रयुक्त होने वाले फे़राइट फे़ज शिफ़्टर का निर्माण करके आई.आई.टी. दिल्ली की प्रो. भारती भट्ट ने तो इस तकनीक पर अब तक के विदेशी एकाधिकार को ही समाप्त कर दिया। सारे देश की लगभग 30 प्रयोगशालायें और 12 शैक्षिक संस्थायें इस कार्य में सहयोग देकर भारत को आत्मनिभर््ारता और आत्मगौरव से परिपूर्ण करने को कटिबद्ध थीं। इसी बीच पुराने ‘डेविल’ नामक प्रक्षेपास्त्र के परिवर्तित रूप को 26 जून 1984 को छोड़ा गया। इस कदम की सफलता प्रक्षेपास्त्रों की परियोजना के लिए बहुत उत्साहवर्द्धक थी। इस परियोजना के प्रथम अस्त्र -‘त्रिशूल’ का प्रथम परीक्षण भी एक वर्ष कुछ माह बाद 16 सितंबर 1985 को किया गया । इस बीच इस योजना को श्रीमती इंदिरा गांधी की असामयिक मृत्यु के रूप में गहरा आघात लगा किंतु डॉ. कलाम के नेतृत्व में योजना आगे चलती रही। 1985 में ‘लक्ष्य’ नामक पायलटरहित विमान की उड़ान का भी सफल परीक्षण हुआ। ‘पृथ्वी’ के रूप में इस क्रम के अगले परीक्षण ने देश को तो गौरवान्वित किया किंतु विदेशों में हलचल मचा दी। 25 फरवरी 1988 को ‘पृथ्वी’ को सफलतापूर्वक छोड़ा गया । इसकी विशेषता थी 1000 किलो तक के बमों को वहन करने की क्षमता और साथ ही 150 किमी तक मार कर सकने की अद्भुत् सामर्थ्य। यह ज़मीन से जमीन की मार के लिए तो उपयोगी था ही इसे जमीन से हवा में मार  तथा पानी के जहाज़ से मार के उपयुक्त भी पाया गया। जैसा कि पहले ही कहा गया है कि इस सफलता से विकसित देशों का दबाव बढ़ने लगा। इस कार्यक्रम को स्थगित करने के लिए कई प्रकार के असहयोग द्वारा हमको विमुख करने के प्रयास किये गये किंतु भारत को तो इससे भी आगे बढ़कर अब ‘अग्नि’ का परीक्षण करना था। ‘अग्नि’ के प्रक्षेपण के लिए 20 अप्रैल 1989 की तिथि नियत की गई। किंतु उड़ान का समय निकट आने पर कुछ-कुछ अड़चनें आने लगीं। नियंत्रण करने वाले कम्प्यूटर ने गड़बड़ियों के संकेत देना प्रारंभ कर दिया। कलाम और उनका दल निराश तो हुआ पर हतोत्साहित नहीं। 1 मई की निश्चित की गई दूसरी तिथि भी व्यर्थ चली गई। इस बार समुद्री मौसम ने रंग बदल लिये। सारा देश और स्वयं रक्षामंत्री इस देर से बहुत व्यग्र थे यह डॉ.कलाम के भी धैर्य और संयम के परीक्षण की घड़ी थी। पर सफलता तो पहले ही उनकी जीवनसंगिनी बन चुकी थी। 22 मई 1989 को ‘अग्नि’ नामक कलाम द्वारा अभिकल्पित प्रक्षेपास्त्र ने सफलतापूर्वक उड़ान भरी। देश की सुरक्षा शृंखला की यह एक और शक्तिशाली कड़ी थी। देश ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए 1990 के गणतंत्र दिवस पर डॉ. कलाम को पद्मविभूषण के सर्वोच्च पद्म सम्मान से अलंकृत किया। सम्मानों से अविचलित डॉ. कलाम अपनी दूसरी योजनाओं के कार्य में दुगनी उमंग से जुट गये। 1990 में टैंक भेदी ‘‘नाग’’ प्रक्षेपास्त्र का सफल परीक्षण करके ‘मिसाइल मैन’ डॉ. कलाम ने अपने उपनाम को सार्थक किया । 1991 के खाड़ी युद्ध के पश्चात् यह भी अनुभव किया गया कि हमारे ये देशी ‘पृथ्वी’ और ‘आकाश’ नामक प्रक्षेपास्त्र विदेशी ‘पेट्रियट’ और ‘स्कड’ प्रक्षेपास्त्रों की तुलना में बेहतर हैं। ‘अग्नि’ के संशोधित रूप का परीक्षण पुनः 1994 फरवरी में किया गया। इसकी मार की अधिकतम सीमा 2500 किमी तक थी। एक अन्य विशेषता इसके साथ यह जुड़ गई कि इसे आवश्यकतानुसार अन्तरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र ;प्ब्ठडद्ध में परिवर्तित किया जा सकता था । आज ‘पृथ्वी’ सफलतापूर्वक भारतीय सैन्य शक्ति को संपुष्ट कर रहा है।
 1998 में पोखरण में किये गये परमाणु बम परीक्षणों की सफलता तो सर्वविदित है । एक के बाद एक पाँच बड़े परमाणु बम परीक्षणों की संपूर्ण योजना डॉ.अब्दुल कलाम के निर्देशन में रूप ले रही थी। अत्यंत गुप्त रूप से किये गये इन परीक्षणों ने सारे विश्व को स्तंभित कर दिया था। डॉ. कलाम ने समय समय पर निजी उद्योग जगत् को भी अपने महत्वपूर्ण परामर्शों और तकनीकी सहायता से लाभान्वित किया। यह उनकी इस मान्यता का सुफल है कि अंतरिक्ष विज्ञान की तकनीकी का लाभ सामान्य मनुष्यों तक भी पहुँचना चाहिए। ‘सोसाइटी फॉर बायोमेडिकल टेक्नॉलॉजी’ की सहायता से बना हृदय रोगियों को लगाया जाने वाला ‘कलाम-राजू स्टेंट’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। विकलांग बच्चों के लिए उन्होंने वजन में हल्के ‘फ़रो कैलिपर्स’ (फ्लोर रिएक्शन आर्थोसिस ;थ्ण्त्ण्व्ण्द्ध का भी निर्माण करवाया। ये प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकीकी देन और चिकित्सा के क्षेत्र की बड़ी सफलतायें हैं। 
द्वितीय पोखरण परीक्षण के पूर्व 1997 में ही देश ने अपने इस प्रिय सपूत को ‘भारतरत्न’ से अलंकृत कर अपना गौरव बढ़ाया था । लगभग 25 विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों से मानद डी.एस-सी, नेशनल नेहरू पुरस्कार, नेशनल डिज़ाइन पुरस्कार,वाई नायुडम्मा स्मृति स्वर्ण पदक, जी.एम.मोदी विज्ञान पुरस्कार, राष्ट्रीय एकीकरण के लिए इंदिरा गाँंधी पुरस्कार तथा वीर सावरकर पुरस्कार जैसे डॉ. कलाम के सम्मानों की एक लंबी सूची है। किंतु सर्वोच्च सम्मान है देश के उच्चतम पद पर उनको पदारूढ़ किया जाना। पहली बार देश ने राजनीति नहीं प्रतिभा का सम्मान करके एक उच्च कोटि के वैज्ञानिक को देश का राष्ट्रपति बनाया। उनकी लोकप्रियता इसी से स्पष्ट है कि एक को छोड़ कर देश की सभी पार्टियाँ उनके पक्ष थीं। 
राष्ट्रपति काल में शिक्षा, तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में उनके कार्यों के फलस्वरूप आज वे देश के सर्वाधिक सफल राष्ट्रपति के रूप में सराहे जाते हैं। प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रमों के बाद 1991 में उनकी अवकाश प्राप्ति के समय कलाम को सरकार ने अवकाश नहीं लेने दिया। वे अगले दस वर्षों तक रक्षामंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार और रक्षा अनुसंधान विभाग में सचिव के रूप में कार्यरत रहे। इसी बीच वे टेक्नॉलॉजी इन्फार्मेशन फोरकास्टिंग एण्ड एसेसमेंट काउंसिल के भी अध्यक्ष रहे जिसमें उन्हें ‘टेक्नॉलॉजी विज़न-2020’ नामक महत्वपूर्ण रिपोर्ट को तैयार करने का अवसर मिला। यह रिपोर्ट निकट भविष्य के भारत के विकास की प्रगतिशील और महत्वाकांक्षी योजनाओं का दस्तावेज़ है। 2001 से 2002 के मध्य अवकाशग्रहण कर डॉ. कलाम ने चेन्नई के एक विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी शुरू कर दिया था। किंतु 2001 में राष्ट्रपति के पद पर बैठकर डॉ. कलाम का कार्यक्षेत्र दूसरी दिशाओं की ओर केन्द्रित हो गया। राष्ट्रपति के रूप में उनकी सक्रियता का अनुमान इन्हीं तथ्यों से लगाया जा सकता है कि अपने कार्यकाल के प्रथम वर्ष में ही डॉ. अब्दुल कलाम ने जितने प्रान्तों और स्थानेां का भ्रमण किया उतना उनके पूर्व राष्ट्रपति पाँच वर्षों में भी नहीं कर सके। डॉ. कलाम ने अपनी 75 वर्ष की आयु की थकान को नकारते हुए जिस ऊर्जा और स्फूर्ति का प्रदर्शन किया है उससे बड़े बड़े आश्चर्यचकित रह जाते हैं। देश के प्रति प्रेम, उसके भविष्य के प्रति जागरूकता और देशवासियों के प्रति अटूट निष्ठा ही उनकी अमानवीय कार्यक्षमता का अंतहीन स्रोत रहे हैं। बच्चों को सच्चे अर्थों में देश का भविष्य मानते हुए उन्होंने कई लाख बच्चों से मिल कर विचारों का आदान-प्रदान किया। इनसे उन्हें सचमुच नये विचारों और कल्पनाओं के सूत्र तो मिलते ही थे उन बालकों की बातों को वे कितनी गंभीरता से लेते थे इसका प्रमाण यही है कि वे रोज स्वयं 100 से अधिक बच्चों की ई-मेल का उत्तर देते थे। बच्चों के प्रति इस लगाव के कारण ही उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इण्डिया 2020’ और ‘इग्नाइटेड माइण्ड्स’ स्नेह ठक्कर नामक एक ऐसी बच्ची के नाम समर्पित की है जिसने बच्चों की एक बैठक में देश का सबसे बड़ा दुश्मन ‘गरीबी’ को और अपनी ‘सर्वोच्च इच्छा’- ‘एक विकसित भारत’ में रहना बताया था । देश ही नहीं विदेशों में भी डॉ. कलाम आज अत्यंत सम्मानीय नाम है । स्विट्ज़रलैंड सरकार ने तो राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के सम्मान में 26.05.2005 को विज्ञान दिवस घोषित किया ।
सन 2003 के स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या को दिये गये अपने राष्ट्र के नाम संदेश में उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि-‘‘हे ईश्वर,मेरे देशवासियों पर कृपा करें कि वे मेहनती बनें और मेरे देश को एक दशक में समृद्ध राष्ट्र में परिवर्तित कर दें।’’ देश की प्रगति के प्रति मन, वचन और कर्म से समर्पित व्यक्ति ही इस प्रकार की निर्लिप्त प्रार्थना कर सकता है। ऐसे महान वैज्ञानिक का संपूर्ण जीवन ऋषितुल्य तेजस्विता, आत्मसंयम और सादगी से भरा रहा है। नैतिकता, आध्यात्मिकता, षालीनता और कर्मयोग उनके जीवनयज्ञ के संचालक मंत्र रहे हैं । अपनी आत्मकथा-‘अग्नि की उड़ान’- में उन्होंने अत्यंत विनम्रता भरे शब्दों में स्वयं को ईश्वर की सृष्टि का एक कण बताया है जिसमें ‘‘प्रत्येक (कण) को कुछ न कुछ करने के लिए ही परवरदिगार ने बनाया है,उन्हीं में से मैं भी हॅूँ। उसकी मदद से मैंने जो कुछ भी हासिल किया है, वह उसकी इच्छा की अभिव्यक्ति ही तो है। जब 27 जुलाई 2015 की रात को अचानक दूरदर्शन पर उनके हृदयाघात से आकस्मिक निधन का समाचार प्रसारित हुआ तो समस्त देश स्तब्ध और हतवाक् रह गया। जीवन में एक पल भी व्यर्थ न गँवाने वाले अपने निरंतर कर्मठ जीवन के अनुरूप ही भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम साहब ने शिलांग के भारतीय प्रबंधन संस्थान में भाषण देते हुए भीषण हृदयाघात के कारण अपने प्राण त्याग दिए। 27 जुलाई की शाम 7ः45 पर हुई इस हृदय विदारक घटना से संपूर्ण देश एक कभी न मिट सकने वाली अपूरणीय क्षति के शोक में डूब गया। उनके स्वर्गवास को देश के लिए एक महाविपत्ति की संज्ञा दी जा सकती है। कलाम जैसे यशस्वी,मेधावी और फिर भी सरलतम से भी सरल व्यक्ति सदियों में एक बार जन्म लेते हैं । कलाम साहब के अंतिम डेढ़ दशकों तक उनके निरंतर सहयोगी और निजी सहायक रहे युवा श्री सृजनपाल सिंह ने उनकी मृत्योपरान्त अपने हृदयोद्गारों को व्यक्त करते हुए उनके सान्निध्य के कुछ अमूल्य क्षणों के विषय में एक संस्मरण में लिखा है- एक बार हवाई जहाज से यात्रा करते समय उनसे कलाम साहब ने पूछा कि ‘तुम क्या बनना चाहते हो?’ सृजनपाल सिंह उनके प्रश्न का कोई उत्तर न देकर उलटे उनसे ही कह बैठे कि पहले आप मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए कि ‘आप अपने जाने के बाद अपने आप को क्या कहलाना पसंद करेंगे? राष्ट्रपति, मिसाइल मैन, वैज्ञानिक या दार्शनिक?’ सृजनपाल सिंह ने उन्हें यह विकल्प इसलिए सुझाए थे कि कलाम साहब को उत्तर देना आसान हो जाए। परन्तु कलाम साहब ने जो उत्तर दिया वह बिल्कुल अनपेक्षित था। उनका जवाब था-‘एक शिक्षक’। शिक्षण के संबंध में आज की हमारी सोच के अनुसार तो कलाम साहब ने अवकाश ग्रहण के बाद बहुत ही थोड़े समय तक विश्वविद्यालय शिक्षण का कार्य किया था किंतु सच्चे अर्थों में वे पूरे जीवन भर एक अत्यंत संवेदनशील और सफल शिक्षक की भूमिका में बने रहे, जिसने सदैव अपने कार्यस्थल पर अपने सहयोगियों और उनके अतिरिक्त निरंतर देश के लाखों बालक बालिकाओं के ग्रहणशील मनों को प्रेरित और प्रदीप्त करने का अद्भुत और अतुलनीय कार्य किया ।
वर्ष 2013 में विज्ञान परिषद् प्रयाग के शताब्दी वर्ष के उद्घाटन के अवसर पर कृपा कर पधारे डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने एक बहुत सारगर्भित और प्रेरणास्पद व्याख्यान दिया था। इस दुर्लभ अवसर पर उन्होंने परिषद् के कुछ लेखकों की जिन पुस्तकों का विमोचन किया था उनमें मेरी (प्रेमचन्द्र श्रीवास्तव) ‘वनस्पति विज्ञानी: डॉ. जगदीश चन्द्र बोस’ नामक पुस्तक भी थी। विमोचन के पश्चात् सहृदय डॉ. कलाम तथा तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. चिदंबरम ने उस पुस्तक पर जो अपने अमूल्य हस्ताक्षर प्रदान किए वे मेरे लेखकीय जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार हैं । 
डॉ. कलाम को भारत के भविष्य के प्रति जितनी चिंता और जितनी उत्कंठा थी उसी अनुपात में वे देश के युवाओं और बच्चांे से मानसिक स्तर पर जुड़े हुए थे। उन्होंने स्वयं लिखा है-‘एक महत्वपूर्ण फै़सला लेते हुए मैंने तय किया कि मैं भारत की सच्ची तस्वीर को यहाँ के बच्चों में तलाशँूगा। निर्णय के उस क्षण में मेरा अपना कार्य और स्वयं मैं मानो पृष्ठभूमि में चले गए। मेरा वैज्ञानिक कैरियर, मेरी टीम, मेरा पुरस्कार- सबके सब गौण हो गए। मैंने उस शाश्वत मेधा का अंश बनने की ठानी जो स्वयं भारत है।’ युवाओं के प्रति उनकी सोच को अपनी पूर्णता में व्यक्त करने वाली उनकी पुस्तक ‘तेजस्वी मन’ (अंग्रेजी की मूल पुस्तक ‘द इग्नाइटेड माइण्ड्स’ का हिन्दी अनुवाद) ‘ज्ञान का दीपक’ जलाए रखने के उनके शाश्वत स्वप्न का एक सार्थक दस्तावेज़ है। 
डॉ. कलाम अपने जीवन भर यह मानते रहे कि कठिनाइयों और संकटों के माध्यम से ईश्वर हमें आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करता है। डॉ. कलाम जैसे लोगों के केवल नश्वर शरीर समाप्त होते हैं उनके सत्कर्मों की स्मृति सदियों-सदियों तक अक्षुण्ण रहती है। सन् 2020 तक देश को एक संपूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने का स्वप्न देखने वाले और कर्मयोगी संत का जीवन जीने वाले वैज्ञानिक, दार्शनिक महामानव डॉ. कलाम का जीवन देश की भावी पीढ़ी के लिए सदैव एक प्रेरक ज्योति स्तंभ बना रहेगा । 

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