भास्कर फिर वजूद में आया
शुकदेव प्रसाद
वर्ष 1974 के आखिरी दिन। ‘आर्यभट’ उपग्रह के उड़ान मॉडल का कार्य लगभग पूरा हो चला था। इसी दौरान वरिष्ठ वैज्ञानिकों के दिमाग में एक विचार कौंधा, हमारा अगला कदम क्या हो?
सभी ने एक मत से स्वीकार किया कि आर्यभट के अतिरिक्त मॉडल में थोड़े से परिवर्तन किए जाये। यथा-
- आर्यभट के हार्ड एक्स-रे प्रयोग को हल्के एक्स-रे प्रयोग में परिवर्तित कर दिया जाये।
- न्यूट्रान गामा-रे एवं आयन मंडल संबंधी प्रयोगों को पुनः किया जाये।
- आर्यभट के उक्त तीनों वैज्ञानिक प्रयोंगों के स्थान पर भू-प्रेक्षण हेतु पेलोडों को लगाया जायें।
आर्यभट के अतिरिक्त मॉडल में किए जाने वाले न्यूनतम परिवर्तनों के विवरण के साथ प्रो.यू.आर.राव ने अपनी संक्षिप्त प्रस्तावना प्रो. सतीश धवन को प्रस्तुत की। प्रो.धवन ने उसे स्वीकार करके प्रो.राव के नेतृत्व में एक अध्ययन टीम का गठन कर दिया। उक्त टीम ने आर्यभट के अतिरिक्त मॉडल में संक्षिप्त परिवर्तन करके उसे प्रायोगिक भू-प्रेक्षण उपग्रह में बदलने संबंधी अपनी रपट फरवरी, 1975 में ‘इसरो’ के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो.सतीश धवन को सौंप दी।
19 अप्रैल 1975 को जब आर्यभट सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में स्थापित हो गया तो रूसी कास्मोड्रोम में उपस्थित वैज्ञानिक प्रो.सतीश धवन, प्रो.यू.आर.राव, अकादमीशियन पेत्रोव व अन्य भारत-सोवियत तकनीशियन बियर्स लेक, मास्को के लिए रवाना हुए, जहाँ आर्यभट से संपर्क स्थापित करने के लिए भू-केंद्र बनाया गया था। यहाँ पर सोवियत और भारतीय विशेषज्ञ पहले से ही मौजूद थे।
आर्यभट की सफलता से भारतीय वैज्ञानिक बहुत उत्साहित थे। साथ ही इसी समय उनके सामने एक प्रश्न और उभर रहा था - ‘आर्यभट के बाद हमारी अगली परियोजना क्या हो?’
प्रो.सतीश धवन, प्रो.यू.आर.राव और अन्य वरिष्ठ विज्ञानियों ने मशविरा किया, क्यों न हम सोवियत संघ से एक और उपग्रह छोड़ने की पेशकश करें? भावी परियोजना की रूपरेखा के बारे में सोचते-विचारते प्रो.धवन, प्रो.राव आदि 20 अप्रैल,1975 को मास्को पहुँचे।
बियर्स लेक, मास्को भू-केंद्र में मिल रहे संकेतों से आर्यभट की स्थिति संतोषजनक थी, अतः हमारे वरिष्ठ वैज्ञानिक दूसरे उपग्रह के निर्माण और प्रक्षेपण की रूपरेखा बनाने लगे। तय पाया गया कि पहले का लिया गया निर्णय ठीक है यानी आर्यभट के अतिरिक्त मॉडल में न्यूनतम परिवर्तन करके उसे भू-प्रेक्षण उपग्रह में तब्दील कर दिया जाये।
प्रो.धवन और प्रो.राव ने सोवियत संघ के अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के प्रमुख अकादमीशियन केलीडिस से बात की। सोवियत संघ ने फिर वही दोस्ती भरा हाथ आगे बढाया। सोवियत संघ ने भारत के दूसरे उपग्रह को अपने राकेट से छोड़ने के प्रस्ताव का गर्मजोशी से स्वागत किया और इस प्रकार 22 अप्रैल 1975 को ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ और ‘सोवियत संघ की विज्ञान अकादमी’ के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुआ जिसके अनुसार सोवियत राकेट द्वारा सोवियत भूमि से भारत के प्रायोगिक भू-प्रेक्षण उपग्रह का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण तय पाया गया।
इस प्रकार वजूद में आया हमारा अगला उपग्रह ‘भास्कर’ जो वास्तव में भारत का प्रथम प्रायोगिक भू-प्रेक्षण उपग्रह (म्गचमतपउमदजंस मंतजी वइेमतअंजपवद ेंजमससपजम) था।
भास्कर का निर्माण एवं प्रक्षेपण
देश के पहले उपग्रह का निर्माण जिस तरह हुआ था, कमोबेश उस समूची प्रक्रिया से देश के दूसरे उपग्रह ‘भास्कर-1’ को भी गुजरना पड़ा। उपग्रह डिजाइन पर विचार विमर्श के लिए ‘इसरो’ उपग्रह अनुप्रयोग केंद्र (प्ै।ब्), बंगलौर में देश की विभिन्न प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिकों, इंजीनियरों की एक मीटिंग बुलाई गयी। मीटिंग में उपग्रह के सभी तकनीकी प्रणालियों की समीक्षा की गई और उसे अंतिम स्वीकृति मिल गई।
दिसंबर 1975 में उपग्रह के ब्रेड बोर्ड मॉडल का निर्माण हुआ। इसके बाद नंबर आया मैकेनिकल मॉडल के निर्माण का। उपग्रह के ढांचे की डिजाइन बनायी इसरो उपग्रह केंद्र के संरचना विभाग ने और इसको तैयार किया हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड (भ्।स्), बंगलौर ने। फिर उसकी डेक प्लेट पर फ्रेम लगाया गया। इस फ्रेम में सभी इलेक्ट्रॉनिक प्रणालियों के डमी डिब्बे व मैकेनिकल उपकरण फिट किए गए। मॉडल को काले सफेद पेंट से पोता गया और फिर उसमे एंटेना लगाया गया तथा फीडर प्रणाली उसमें फिट की गई। मैकेनिकल मॉडल में आखिर में सौर सेलों के पैनल लगाए गए। फिर इस मॉडल को कई कठिन परीक्षणों (गुरुत्व एवं जड़त्व मापन, परिभ्रमण परीक्षण, कंपन परीक्षण, स्थैतिक परीक्षण, रोड यातायात परीक्षण, राकेट संबंध एवं विच्छेद परीक्षण) से गुजरना पड़ा। इस मॉडल को ट्रक में लादकर बंगलौर से 60-70 किलोमीटर दूर ले जाया गया और विभिन्न सड़कों पर विभिन्न गति से चलाकर देखा गया। परीक्षण के बाद जब कंटेनर से उपग्रह के मॉडल को निकाला गया तब उसमें कोई टूट-फूट नहीं पाई गई। मैकेनिकल मॉडल के सही सलामत पाए जाने के बाद इसके इलेक्ट्रॉनिक मॉडल का निर्माण कार्य हाथ में लिया गया यानी मैकेनिकल मॉडल की डेक पर लगे हुए सभी डिब्बे इलेक्ट्रॉनिक सर्किट के बनाए जाने थे। जब सभी इलेक्ट्रॉनिक प्रणालियों के डिब्बों का अलग-अलग परीक्षण कर लिया गया तो उन्हें डेक प्लेट पर निश्चित स्थानों पर फिट कर दिया गया। फिर इसका परीक्षण किया गया।
हमारे कर्मठ वैज्ञानिकों ने जब उपग्रह के मैकेनिकल और इलेक्ट्रॉनिक मॉडलों का सफलतापूर्वक निर्माण कर लिया तब फिर देश के चोटी के वैज्ञानिकों की मीटिंग बुलायी गयी और उनके समक्ष विगत अनुभवों को प्रस्तुत किया गया। उनसे जो सुझाव मिले, उनको ध्यान में रखकर उपग्रह के उड़ान मॉडल की तैयारी आरंभ हुई।
निर्मात्री सहयोगी संस्थाएं
देश के विभिन्न संस्थाओं के सहयोग से देश के प्रायोगिक भू-प्रेक्षण उपग्रह का निर्माण संभव हुआ। प्रमुख निर्मात्री एवं सहयोगी संस्थाएं इस प्रकार हैं :
- इसरो उपग्रह अनुप्रयोग केंद्र (प्ै।ब्), बंगलौर
- अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (ै।ब्), अहमदाबाद
- शार केंद्र, श्रीहरिकोटा
- विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, त्रिवेंद्रम
- इसरो मुख्यालय, बंगलौर
- सोवियत विज्ञान अकादमी, मास्को
- हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड (भ्।स्), बंगलौर
- नेशनल एरोनाटिकल प्रयोगशाला (छ।स्), बंगलौर
- भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (ठ।त्ब्), मुंबई
- सी.आई.एल.(ब्प्स्), बंगलौर
- आई.टी.आई.(प्ज्प्), बंगलौर
- आई.बी.पी.(प्ठच्), मुंबई
- ई.सी.आई.एल.(म्ब्प्स्), हैदराबाद
- टाटा आधारभूत अनुसंधान संस्थान (ज्प्थ्त्), मुंबई
- जी.टी.आर.ई. (ळज्त्म्), बंगलौर
उड़ान मॉडल की मास्को रवानगी
चूंकि उपग्रह को मास्को से छोड़ना तय हो चुका था, अतः उपग्रह के मॉडल को हवाई जहाज द्वारा मास्को भेजना था। कंटेनर से निकालने के बाद उपग्रह को तीन भागों में अलग करके उसकी बड़ी बारीकी से जांच करनी पड़ती है, अतः जांच उपकरण भी साथ ही भेजे जाने जरूरी होते हैं। जांच संबंधी उपकरणों को भी प्लाईवुड की पेटियों में पैक किया गया और लगभग 40 टन वजन की 100 पेटियों को बंगलौर से मास्को एयरोफ्लोट के ।छ.12 भार वाहक हवाई जहाज द्वारा 3 मई, 1979 को भेजा गया। साथ में दो इंजीनियर भी भेजे गए थे।
लगभग 45 इंजीनियरों और वैज्ञानिकों की एक टीम प्रक्षेपण से एक माह पूर्व ही मास्को जा चुकी थी। जब उपग्रह का उड़ान मॉडल मास्को में उतारा गया तो कंटेनर से निकाल कर उसका परीक्षण किया गया। सौभाग्यवश उसमें कोई टूट-फूट नहीं हुई थी। फिर उपग्रह को तीन भागों (उपरी कवच, आधार कवच व डेक प्लेट) में अलग किया गया। सौर सेलों को निकाल कर उनका परीक्षण किया गया। परिभ्रमण बोतलों में निर्धारित दाब (225 वायुमंडल) पर हवा भर कर उसकी जाँच की गई। इतना ही नहीं, डेक प्लेट के फ्रेम, फीडर प्रणाली, अन्य मैकेनिकल पुर्जों की जाँच की गई। जब सभी प्रणालियाँ संतोषजनक पाई गईं तब च्ैच्-11 कम्प्यूटर की मदद से उसकी अंतिम जाँच की गई और तय पाया गया कि उपग्रह अब प्रक्षेपण हेतु एकदम तैयार है।
5 जून 1979 को सोवियत राकेट ‘इंटर-कास्मास’ एक रेलगाड़ी में टेक्नॉलॉजि- कल पोजीशन में लाया गया। राकेट की बारीकी से जांच की गई और उसे उपग्रह से जोड़कर प्रक्षेपण टॉवर पर खड़ा कर दिया गया। फिर उसमें ईधन का भरा जाना आरंभ हुआ।
कास्मोड्रोम में उपस्थित सोवियत और भारतीय विशेषज्ञों ने समस्त परीक्षणों के विश्लेषण से निष्कर्ष निकाला कि उपग्रह को अब प्रक्षेपित किया जा सकता है।
उपग्रह का प्रक्षेपण
उपग्रह ‘भास्कर-1’ उसी रूसी प्रक्षेपण केंद्र से 7 जून, 1979 को सोवियत और भारतीय विशेषज्ञों की उपस्थिति में अंतरिक्ष में छोड़ा गया। भारतीय समयानुसार शाम को ठीक 4 बजे आग उगलती लपटों और भयंकर शोर शराबे के साथ रूसी राकेट इंटर कास्मास उपग्रह को अंतरिक्ष की ओर लेकर उड़ चला। उस समय सोवियत कास्मोड्रोम में भरतीय राजदूत श्री इंद्र कुमार गुजराल, प्रो. सतीश धवन, अकादमीशियन पेत्रोव व अन्य भारतीय सोवियत विशेषज्ञ राकेट को उड़ता देख रहे थे।
थोड़ी ही देर में ‘भास्कर-1’ ने इंडोनेशिया के ऊपर पृथ्वी की परिक्रमा हेतु अपनी कक्षा में प्रवेश किया। राकेट से संबंध विच्छेद होते ही राकेट ने उपग्रह को अपने कक्ष पर परिभ्रमित करने का आदेश दिया और फलस्वरूप 444 किलोग्राम भार वाला उपग्रह 525 किलोमीटर की ऊंचाई पर अपनी कक्षा में स्थापित हो गया। भरतीय समयानुसार लगभग 5 बजकर 20 मिनट पर भारतीय विज्ञानियों ने रूसी कास्मोड्रोम पर उपग्रह के संकेतों को टेलीमीटर रिसीवर पर देखा। यह भारत की दूसरी बड़ी सफलता थी।
भास्कर : उद्देश्य और उपयोग
हमारा पहला उपग्रह ‘आर्यभट’ प्रयोगात्मक वैज्ञानिक उपग्रह था जब कि ‘भास्कर’ प्रायोगिक भू-प्रेक्षण उपग्रह था। दोनों उपग्रहों में कुछ मूलभूत अंतर भी थे। भास्कर की अभिवृत्ति प्रणाली संरचना आर्यभट के मुकाबले कहीं जटिल थी और विशेषज्ञों की दृष्टि में भारतीय वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की यह एक उपलब्धि मानी जाती है। भार में भी ‘भास्कर’, ‘आर्यभट’ से 45 किलोग्राम अधिक था।
भास्कर की दूर आदेश प्रणाली भी काफी आधुनिक तथा जटिल थी। इस प्रणाली द्वारा लगभग 250 प्रकार के आदेश किए जा सकते थे जब की आर्यभट को मात्र 35 प्रकार के ही आदेश किए जा सकते थे।
वास्तव में ‘वैज्ञानिक उपग्रह’ (जैसे आर्यभट) वैज्ञानिकों द्वारा अपने प्रयोगों से सम्बद्ध आंकड़ों के एकत्र करने में प्रयुक्त होते हैं यथा एक्स-रे अध्ययन, खगोल आदि जब कि भू-प्रेक्षण उपग्रहों में लगे यंत्र भू-संपदा, वन, फसल तथा जल आदि की प्रामाणिक तथा विस्तृत जानकारी एकत्र करते हैं। इस कार्य के लिए जो प्रमुख संवेदक यंत्र इनमें प्रयुक्त किये जाते हैं, वे हैं-टेलीविजन कैमरे, बहु स्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक, रैखिक प्रतिबिम्ब स्वतः क्रमवीक्षक (स्पदमंत प्उंहम ैमसि ैबंददमत) तथा माइक्रोवेव रेडियो मीटर संवेदक।
‘इसरो’ ने प्रायोगिक भू-प्रेक्षण उपग्रह के प्रेक्षण की आधारशिला निम्न उद्देश्यों की पूर्ति को लेकर रखी थी :
उपग्रह दो टेलीविजन कैमरों और तीन माइक्रोवेव रेडियो मीटरों (ै।डप्त्) के द्वारा भारत भूमि का अवलोकन करेगा, जिससे निम्न जानकारियां हासिल होंगी।
- मौसमी ज्ञान
- नदियों की बाढ़
- हिमालय के बर्फ आच्छादन का अध्ययन
- वन संबंधी आंकड़े
- रेगिस्तान का फैलाव
- कृषि संबंधी जानकारी
मूल आयोजना के अनुसार उपग्रह के टेलीविजन कैमरों द्वारा लिये गए चित्रों एवं माइक्रोवेव रेडियो मीटरों द्वारा समुद्र संबंधी क्रमबद्ध अध्ययन किया जाएगा। उपग्रह भू-केंद्रो को किस प्रकार ये आंकड़े देगा, फिर भू-केंद्र उन्हें किस प्रकार उपभोक्ताओं तक पहुँचाएंगे और उपभोक्ता किस तरह इस ज्ञान का लाभ उठा पाएंगे, इन तक्नीकी पक्षों का अनुभव प्राप्त करके उन्हें व्यवहार में लाया जायेगा। प्रारंभ में तो ऐसा लगा मानो इतनी बड़ी महत्वाकांक्षी योजना निष्फल हो जाएगी क्योंकि उच्च वोल्टेज कोरोना समस्याओं के कारण जून-जुलाई 1979 में ‘भास्कर-1’ की टेलीविजन कैमरा प्रणाली ने कार्य ही आरंभ नहीं किया। लेकिन जब 16 मई, 1980 को इसने कार्य करना शुरू कर दिया तो लगा कि सारी योजना आशानुरूप पूरी हो जाएगी। और कमोबेश ऐसा हुआ भी।
इसकी माइक्रोवेव रेडियोमीटर प्रणाली तथा अन्य शेष प्रौद्योगिक नीतभार (पेलोड) प्रारंभ से ही संतोषजनक ढंग से कार्य कर रहे थे। ‘समीर’ से प्राप्त आंकड़ों से समुद्री सतह के ताप, समुद्री हवाएं, वायुमंडलीय आर्द्रता जैसी मौसम संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त हुई हैं।
इन्ही आंकड़ों के आधार पर बाढ़ मुक्त तथा बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों के मानचित्र तैयार किए जा सके। 6 मास की अवधि में उपग्रह की परिक्रमाओं के दौरान उपग्रह की टेलीविजन कैमरा प्रणाली ने देश के विभिन्न भागों के 400 फोटो उतारे जिनसे प्राप्त सूचनाओं के आधार पर हिमाच्छादन, हिमगलन, वन विज्ञान, जल विज्ञान, जल और भू-संरचनाओं के अध्ययन में सहायता मिली।
उपग्रह के ‘समीर’ यंत्रों का उपयोग राजस्थान में लूनी नदी में आयी बाढ़ के अध्ययन के लिए किया गया। इसके अतिरिक्त अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी के ऊपर जल वाष्प के मापन संबंधी कुछ नवीन तथ्यों का उद्घाटन संभव हुआ ।
भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र तथा ठोस प्रावस्था भौतिकी प्रयोगशाला के द्वारा प्रेषित स्वदेशी सौर सेलों का कार्य निष्पादन अत्यंत संतोषजनक पाया गया। पाँच गौण परीक्षणों में से एक्स-रे मानीटर ने आशानुरूप एक माह के लिए उपयोगी आंकड़े प्रेषित किए।
कुल मिलाकर ‘भास्कर-1’ द्वारा लिए गए भारतीय भू-भाग के विस्तृत अध्ययन और अन्य प्रयोग अति लाभदायक रहे। इससे लगभग दो वर्ष तक महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती रहीं, जिससे आगे के लिए नई राह खुल गई और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान का काफिला आगे बढ़ चला।
भास्कर का सुधरा हुआ मॉडल
‘भास्कर-1’ के सफल प्रक्षेपण के तत्काल बाद ही इस बात का आभास मिल गया था कि शीघ्र ही ‘भास्कर’ के जुड़वां को भी रूसी राकेट से अंतरिक्ष में छोड़ा जायेगा।
‘भास्कर-2’ की उड़ान पक्की हो जाने पर इसकी निर्माण प्रक्रिया आरम्भ हुई। इसे भी उन्हीं तमाम सारी जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ा जिनसे ‘आर्यभट’ और ‘भास्कर-1’ को गुजरना पड़ा था। वस्तुतः ‘भास्कर-2’ का तकनीकी स्वरूप ‘भास्कर-1’ ही जैसा था। ‘भास्कर-2’ को 20 नवंबर, 1981 को रूसी प्रक्षेपण केंद्र से रूसी राकेट द्वारा अंतरिक्ष में छोड़ा गया। 440 किलोग्राम भार वाला यह उपग्रह 525 किमी. की ऊँचाई पर धरती की परिक्रमाएं करता रहा। वस्तुतः ‘भास्कर-2’ अपने जुड़वां भाई का ही प्रतिरूप था, उसी क्रम में भू-प्रेक्षण उपग्रह भी। इसका आकार, नीतभार तथा सभी प्रणालियां लगभग ‘भास्कर-1’ ही जैसी थीं। अलबता ‘भास्कर-1’ की त्रुटियों से इस बार सबक लिया गया था। ज्ञातव्य है कि ‘भास्कर’ के पूर्व मॉडल में कुछ तकनीकी गड़बड़ियों के नाते उसके कैमरे तत्काल चालू नहीं हो सके थे। लगभग 11 मास बाद भी एक ही कैमरे ने काम करना आरंभ किया और फिर उसने भारतीय भू-भागों के अनेक चित्र उतारे। अतः भास्कर के सुधरे हुए अगले मॉडल में इस बात का ध्यान रखा गया था कि इसमें पहले जैसी गड़बड़ियां न आने पाएं।
‘भास्कर-2’ में दो टेलीविजन कैमरे तथा तीन माइक्रोवेव रेडियो मीटर संवेदक लगाये गए थे। इसके टी.वी. कैमरे एक साथ 340 वर्ग किमी. के भू-भाग का चित्र लेने में समर्थ थे। ‘सैटेलाइट माइक्रोवेव रेडियोमीटर’ (समीर) हर ऋतु में तथा हर वक्त काम करने की क्षमता से युक्त है। धरती पर स्थित प्रत्येक वस्तु, यहां तक कि जल और वाष्प भी अपने गुण धर्म के अनुसार सूक्ष्म तरंग उर्जा विकरित करते हैं, जिसे द्युति ताप (ठतपहीजदमे ज्मउचमतंजनतम) कहते हैं। ‘समीर’ के यंत्र इस उर्जा के मापन के सिद्धांत पर काम करते हैं। ‘समीर’ एक बार में 340 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का मापन करता है और 100 वर्ग मीटर की वस्तुओं की अलग-अगल पहचान कर सकता है। इसके यंत्रों से समुद्री सतह का ताप, बाढ़ों का आना व उतरना, बर्फ के गिरने और पिघलने जैसी घटनाओं का व्यापक अध्ययन किया जाना संभव हुआ। उल्लेखनीय है की ‘भास्कर-2’ के सभी यंत्रों ने प्रायोगिक स्तर पर ठीक से कार्य किया। इस उपग्रह के द्वारा भारतीय भू-भाग के अच्छे चित्र खींचे गए और उन्हें उपभोक्ताओं तक पहुँचाया गया और इस तरह भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम का कारवां धीरे-धीरे अपनी मंजिल की ओर बढ़ता चला गया।
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