सामयिक


मरुस्थल : दुश्वारियों के साथ अनोखा भी

डॉ.मनीष मोहन गोरे

 

‘मरुस्थल’ या ‘रेगिस्तान’ का नाम आते ही मन में एक रेतीले, बंजर और उजाड़ मरुभूमि की छवि उभरती है। निस्संदेह, यहां का पर्यावरण प्रतिकूल और जीवन दुरूह होता है परंतु ये हमारी पृथ्वी के अनोखे भौगोलिक क्षेत्र हैं। यहां पाई जाने वाली जैवविविधता अद्भुत होती है। इस आलेख में मरुस्थल की अनोखी दुनिया और यहां के जीवों में पाए जाने वाले प्राकृतिक अनुकूलन तथा पर्यावरण से उनके रिश्तों के बारे में चर्चा की जाएगी। 

गर्म ही नहीं ठंडे भी होते हैं रेगिस्तान

मरुस्थल के संबंध में यह आम धारणा है कि ये एक बंजर और धूप से तपती भूमि होती है, मगर वास्तव में मरुस्थल केवल गर्म नहीं बल्कि ठंडे भी होते हैं। पृथ्वी की भूमध्य रेखा पर आने वाले हिस्सों में गर्म रेगिस्तान पाए जाते हैं। यहां दिन का तापमान 38 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा रहता है जबकि रातें बेहद ठंडी हो जाती हैं। कैलीफोर्निया के मरुस्थल जिसे मौत की घाटी कहते हैं, वहां दिन का अधिकतम तापमान 57 डिग्री सेंटीग्रेड तक दर्ज किया गया है। रेत के टीले बनना यहां की सामान्य विशेषता होती है। दिन और रात के तापमान में भारी अंतर की वजह से पत्थर टूटकर रेत में बदल जाते हैं। भारत में जैसलमेर गर्म मरुस्थल का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। 
वहीं दूसरी तरफ ठंडे मरुस्थल भूमध्य रेखा से दूर पर्वतीय इलाकों में पाए जाते हैं। जाड़े के मौसम में ये इलाके बर्फ से ढंक जाते हैं। अन्टार्कटिका ठंडे मरुस्थल के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। हमारी धरती ही नहीं, सौरमंडल के मंगल ग्रह पर भी मरुस्थल और रेत के टीलों के प्रमाण मिले हैं। मंगल ग्रह के मरुस्थल ठंडे मरुस्थल हैं। इस ग्रह के टोही अंतरिक्ष यान ”रोवर“ से यहां के मरुस्थल की तस्वीर मिली है। वैसे आमतौर पर सूखापन हर एक मरुस्थल की खासियत होती है और इसके पीछे मुख्य वजह बारिश की कमी होती है। प्रति वर्ष सौ मिलीमीटर से कम बारिश से मरुस्थल बनते हैं। अब बारिश कम होने पर यहां की मिट्टी में पानी सरककर बहुत नीचे को चला जाता है और जो कुछ थोड़ा बहुत पानी धरती की सतह पर होता है, वह चिलचिलाती धूप और गर्मी के चलते वाष्पित होकर वायुमंडल में उड़ जाता है। यहां दिन में गर्मी इतनी की रोटी सिंक जाए और रात में ठंड इस कदर कि बर्फ जम जाए। ऐसे विकट हालात में इन मरुस्थल में कोई जीवन की कल्पना भला कैसे कर सकता है? लेकिन यह बात आश्चर्यजनक है कि मरुस्थल की विकट जलवायु और विपरीत पर्यावरण के बावजूद यहां पर अद्भुत जैवविविधता देखने को मिलती है। 

अद्भुत जैवविविधता 

मरुस्थल में रहने वाले पौधे और जंतु अपने जीवन के लिए शुष्क पर्यावरण के साथ जद्दोजहद करते हैं। यहां के धुरंधर जीवों ने मरुस्थल के पर्यावरण के मुताबिक अपने शरीर, व्यवहार और जैविक क्रियाओं को ढाल लिया है। विज्ञान की भाषा में इसे अनुकूलन कहते हैं। मरुस्थली पौधों के बीज उचित बारिश होने तक गर्मी और सूखे को झेलते हैं। कभी-कभी तो ये बीज कई साल तक बारिश का इन्तजार करते रहते हैं और अनुकूल पर्यावरण और बारिश के होने पर ही अंकुरित होते और पनपते हैं। मरुस्थल में बीज अंकुरण और उसके बाद पौधे का विकास छह से आठ सप्ताह के अंदर हो जाता है। अब चूंकि मरुस्थल में सूरज की रोशनी तो जरूरत से ज्यादा होती है लेकिन पानी की भारी किल्लत रहती है। हरे पौधों को प्रकाश संश्लेषण संपन्न करने के लिए सूरज की रोशनी के साथ पानी की जरूरत होती है ताकि वे ऊर्जा और भोजन निर्माण कर सकें। अब मरुस्थली पौधों को तो कम पानी में जीवित रहने की आदत होती है इसलिए इनकी जड़ें पानी की तलाश में मिट्टी में बहुत गहरे चली जाती हैं। अब इतनी मुश्किल के बाद पानी मिल तो जाता है लेकिन इसे पौधे अगर सहेज कर न रख पाए तो जीना दूभर हो जाता है। इसके लिए प्रकृति ने इन्हें दो विशेष व्यवस्थाएं दी हैं। एक तो इनकी पत्तियों की सतह पर छोटे आकार वाले और कम संख्या में रंध्र (स्टोमेटा) पाए जाते हैं। ये स्टोमेटा पत्तियों पर मौजूद सूक्ष्म छिद्र होते हैं जिनसे होकर पानी, आक्सीजन और कार्बन डाईआक्साइड का आवागमन होता रहता है। जिस पर्यावरण में पानी प्रचुर मात्रा में होता है, वहां के पेड़-पौधों में ये स्टोमेटा बड़े आकार के और बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। लेकिन मरुस्थल में पानी की ज्यादा हानि न हो इसके लिए पौधों की पत्तियों में ये कम संख्या में और भीतर की ओर धँसे हुए होते हैं। अनेक मरुस्थली पौधों ने पत्तियों को काँटों में रूपांतरित कर डाला है जैसे कि नागफनी। कई पौधे पानी की क्षति को रोकने के लिए गर्मी के मौसम में निष्क्रिय रहते हैं और उनकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं। बारिश का मौसम आने पर वे तेजी से पनपते हैं। उनमें पत्तियां और फल-फूल आते हैं।
 नागफनी और दूसरी प्रजातियों के मरुस्थली पौधे अपने शरीर में पानी को संचित रखते हैं और यह व्यवहार पानी की किल्लत से निपटने में उनकी मदद करता है। कुछ मरुस्थली पौधे दिखने में इतने बेजान और पथरीले होते हैं कि देखकर कोई नहीं कह सकता कि इनमें जीवन है। लिथोप्स ऐसा ही एक मरुस्थली पौधा है जो पत्थर की तरह दिखता है। इसमें एक जोड़ी गोलाकार पत्तियां होती हैं जिनमें पानी संचित रहता है। इनकी पत्तियां पत्थर की तरह दिखती हैं जिससे जानवर भ्रम में पड़ जाते हैं और इन्हें नहीं खाते हैं। नामिब के रेगिस्तान में वेल्विशिया (ॅमसूपजेबीपं) नामक एक मरुस्थली पौधा पाया जाता है। इसकी तीन हजार प्रजातियों की पहचान वनस्पति वैज्ञानिकों ने की है। ये पौधे बहुत लम्बे समय तक जीवित रहते हैं और इनमें अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण औषधीय गुण पाए जाते हैं। इन पौधों में पानी संचित करने की अद्भुत प्राकृतिक क्षमता होती है। वर्तमान समय में यह मरुस्थली पौधा दुर्लभ हो चला है। अगर हम ठंडे मरुस्थल को देखें तो वहां के हालात भी कुछ ज्यादा बेहतर नहीं होते। ठंडे मरुस्थल की मिट्टी में लवण की उच्च सांद्रता पाई जाती है। घास और छोटी झाडि़यां यहां पाए जाने वाले मुख्य पौधे होते हैं। इन मरुस्थल की धरती रंग बिरंगे लाइकेन से ढंकी रहती है। अधिकतर झाडि़यों की पत्तियां कंटीली होती हैं।

मरुस्थल में जीवन की जद्दोेजहद

यह सवाल हमेशा लोगों के मन में उभरता है कि मरुस्थल के प्रतिकूल पर्यावरण में छोटे-बड़े जंतु कैसे अपना गुजर-बसर करते हैं। यहां पर जीवित रहने के लिए इन्हें भोजन और पानी के अलावा गर्मी का प्रकोप भी झेलना पड़ता है। एक बात तो स्पष्ट है कि मरुस्थल के भीषण तापमान का असर पौधों से ज्यादा जन्तुओं पर होता है क्योंकि इनके शरीर की कोशिकाएं उचित तापमान पर ही ठीक प्रकार से काम कर पाती हैं। अगर तापमान अधिक हो जाता है तो इन जन्तुओं की मौत तक हो सकती है। इसलिए मरुस्थल के अधिक तापमान और सूखेपन से बचने के लिए यहां रहने वाले जंतु अनेक प्रकार के अनुकूलन उपाय अपनाते हैं।
मरुस्थल में पाए जाने वाले छोटे अकशेरुकी जंतु जैसे कि मक्खी, भृंग, चींटी, दीमक, टिड्डे, बिच्छू और मकडि़यां अपने शरीर की बाहरी त्वचा यानी कि क्यूटिकल पर एक मोम जैसा पदार्थ उत्सर्जित करते हैं। यह पदार्थ शरीर के अंदर मौजूद पानी को बाहर वाष्पित होने से रोकता है। इस उपाय से इन जंतुओं के शरीर से पानी की क्षति रुक जाती है। ये अपने अंडे भी भूमि के नीचे गड्ढों में देते हैं, जहां का तापमान बाहरी तापमान से काफी कम रहता है। कुछ स्तनधारी जंतु जैसे कि रेगिस्तानी गिलहरी यहां की गर्मी से बचने के लिए ग्रीष्म सुप्तावस्था में चले जाते हैं। इसमें वे भूमि के अंदर जाकर निष्क्रिय हो जाते हैं। इस प्राकृतिक व्यवहार से उनके दिल की धड़कन, श्वसन और दूसरी जैविक क्रियाएं मंद पड़ जाती हैं, जिसके नतीजे के रूप में उनकी पानी की खपत घट जाती है। सांप और चूहे जैसे प्राणी रात्रिचर होते हैं। मरुस्थल में ये दिन के समय ठंडे और नम सुरंगों में सुस्त पड़े रहते हैं और रात के समय जब तापमान कम हो जाता है तो अपने आहार की तलाश में सुरंगों से बाहर निकलते हैं। रेत के टीले अनेक प्रजाति की मकडि़यों, बिच्छुओं, छिपकलियों, और छोटे स्तनधारी जीवों के प्राकृतिक आवास होते हैं। कुछ छिपकलियों की त्वचा का रंग अलग-अलग तापमान पर बदलता रहता है। कुछ छिपकलियां और सांप गर्म रेत में एक विशेष तरह की ग्लाइडिंग करते हुए आगे बढ़ते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि इस कलाबाजी से इनके शरीर का ज्यादातर हिस्सा गर्म रेत के संपर्क में आने से बच जाता है।

रेगिस्तान का जहाज ‘ऊंट’

मरुस्थल की बात चले और ऊंट की बात न हो, ऐसा नहीं हो सकता। ऊंट एक स्तनधारी प्राणी है और इसने मरुस्थली पर्यावरण के मुताबिक अपने शरीर और आदतों को अच्छी तरह ढाल रखा है। यह जानवर सान्द्र मूत्र और शुष्क मल के उत्सर्जन से पानी की क्षति होने से रोकता है। इसको लेकर एक गलत धारणा है कि यह अपने कूबड़ में पानी जमा करके रखता है और जरूरत होने पर उसे इस्तेमाल करता रहता है। हां, वैज्ञानिक तौर पर यह सच है कि ऊंट लंबे समय तक बिना पानी के जीवित रह सकते हैं क्योंकि इनके शरीर की कोशिकाओं में तापमान और पानी की कमी को कुछ हद तक सहन करने की प्राकृतिक क्षमता होती है। इस जंतु के कूबड़ में चर्बी जमा होती है जिसकी उपापचयी क्रिया (मेटाबोलिक एक्शन) से शरीर में पानी की कमी पूरी होती है। इनकी टांगें लंबी होती हैं जिससे इनका शरीर गर्म रेत के संपर्क में नहीं आता और रेगिस्तान के जहाज कहलाने वाले ये विशाल स्तनधारी शान से गर्म रेत में घंटों बिना रुके चलते रहते हैं। मरुस्थली पक्षी भी इस प्रतिकूल वातावरण में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कई तरह के प्रयास करते हैं। आमतौर पर ये पक्षी शरीर में जल संतुलन को बनाए रखने के लिए एक लवण ग्रंथि का उपयोग करते हैं। समय समय पर ये पक्षी ओस या अन्य स्रोतों से पानी ग्रहण करते रहते हैं। मरुस्थल की कष्टदायक परिस्थितियों से बचने के लिए तुलनात्मक रूप से कम गर्म इलाकों में भी ये उड़कर चले जाते हैं।


रेगिस्तान का विस्तारः खतरे की घंटी 

रेगिस्तान की जैवविविधता आज खतरे में है। शिकार और पर्यटन जैसी मानवीय गतिविधियां इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। मरुस्थल के आस-पास खनिज हासिल करने के उद्देश्य से यहां पर खनन की गतिविधियां भी चलाई जाती हैं। जिनसे यहां की वनस्पतियों और जंतुओं के जीवन पर बुरा असर होता है। रेगिस्तान को नष्ट करने से पहले हमें यह जरूर सोचना चाहिए कि ये हमारी पृथ्वी के एक अद्भुत प्राकृतिक आवास हैं, जहां अनेक प्रकार के जीव पाए जाते हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि रेगिस्तान आसानी से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और फिर यहां रहने वाले जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है।

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