विज्ञान


जिन्दगी को दूभर बनाती ये दुर्लभ बीमारियाँ

डॉ.कृष्ण कुमार मिश्र
 
 
शास्त्रों में कहा गया है- शरीरम् व्याधि मंदिरम्। अर्थात शरीर रोगों का निवास स्थान है। यह भी एक शास्त्रीय कथन है- “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। अर्थात, यह शरीर मानव जीवन में धर्मसाधन का माध्यम है। यानी शरीर के बिना जीवन के कार्यकलाप संभव नहीं है। इसलिए स्वस्थ शरीर एक आवश्यकता है। वर्तमान समय में पूरी दुनिया में अनेकानेक बीमारियाँ फैली हुई हैं। इनमें से कुछ बीमारियों का इलाज आसानी से हो जाता है और कुछ बीमारियाँ लाइलाज भी हैं, जिनकी चिकित्सा अभी तक संभव नहीं हो पायी है। अधिकांश बीमारियों की पहचान प्रायः लक्षण और परीक्षण के आधार पर आसानी से हो जाती है। लेकिन कुछ बीमारियाँ ऐसी भी है जिनकी पहचान करना और उनका इलाज करना बहुत मुश्किल है। इन बीमारियों को दुर्लभ बीमारियाँ कहा जाता है। प्रतिवर्ष दुर्लभ बीमारियों के बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से फरवरी महीने के अन्तिम दिन को “अंतर्राष्ट्रीय दुर्लभ रोग दिवस” के रूप में मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय दुर्लभ रोग दिवस 2008 में शुरू किया गया था। दुर्लभ रोग दिवस शुरूआत में एक यूरोपीय अभियान के तौर पर शुरू हुआ था लेकिन 2009 में अमेरिका द्वारा इसका सदस्य बनने के बाद से यह एक वैश्विक अभियान बन गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कोई रोग दुर्लभ तब कहलाता है जब 2000 में से कोई एक व्यक्ति उस रोग से प्रभावित होता है। आज करीब 8000 तक रोग चिन्हित किए गए हैं जिन्हें दुर्लभ रोग की श्रेणी में रखा जा सकता है। इन रोगों में से लगभग 80 प्रतिशत आनुवंशिक होते हैं।
दुर्लभ बीमारियाँ बहुत कम व्यक्तियों में देखी जाती हैं। जब कोई दुर्लभ बीमारी किसी विख्यात व्यक्ति को हो जाती है तो जाहिर है वह रोग भी जाना सुना हो जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग थे। वे 1963 में सिर्फ 21 साल के थे, जब उन्हें एमायोट्रॉफिक लैटरल स्क्लेरोसिस नामक दुर्लभ बीमारी हो गई। इस न्यूरोडिजेनरेटिव स्थिति में दिमाग और मेरूरज्जु के मोटर नर्व सेल्स पर हमला होता है जिससे मांसपेशियों से संवाद और ऐच्छिक गतिविधियों पर नियंत्रण खत्म हो जाता है। ऐसा होने से पूरा शरीर लकवाग्रस्त हो जाता है और शरीर के अधिकतर अंग धीरे-धीरे काम करना बंद कर देते हैं। इस बीमारी से पीडि़त लोग आमतौर पर दो साल से पाँच साल तक ही जिंदा रह पाते हैं। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से स्टीफन हॉकिंग कई दशकों तक जिए। विगत 14 मार्च 2018 को उनका निधन हुआ। उन्होंने 76 वर्ष की उम्र पायी। इस बीमारी के साथ इतने लंबे अरसे तक जिंदा रहने वाले स्टीफन हॉकिंग पहले शख्स थे। यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिणाम था। यद्यपि हॉकिंग का जीवन ह्वील चेयर तक सिमट गया था। लेकिन उनके शोध तथा चिंतन का दायरा विराट ब्रह्माण्ड था। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति तथा विकास पर लिखी उनकी पुस्तक “ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम”, दुनिया की सर्वाधिक बिक्री वाली किताबों में शुमार की जाती है जिसकी अब तक करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। इसके अलावा और भी कई दुर्लभ बीमारियां हैं जैसे कि लायसोसोमल स्टोरेज डिसऑर्डर (एलएसडी), स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी, ऐकलेजि़या कार्डिया, अनॉज्मिया (गंधज्ञानाभाव), डर्मैटोफेजिया, न्यूरोमायोटोनिया (आइजैक सिंड्रोम), ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया, प्रोजेरिया आदि। आंकड़ों के अनुसार भारत में सात करोड़ से भी ज्यादा लोग दुर्लभ बीमारियों से जूझ रहे हैं। इन दुर्लभ बीमारियों में कैंसर की दुर्लभ किस्मों तथा ऑटो इम्यून डिसऑर्डर से लेकर जन्मजात असामान्यता और संक्रमण से होने वाली बीमारियां शामिल हैं। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इनमें से अधिकांश बीमारियों का पता लगाना बहुत मुश्किल है। इन बीमारियों के इलाज भी बहुत महँगे हैं। 
 
कुछ प्रमुख दुर्लभ बीमारियाँ 
प्रोजेरिया : प्रोजेरिया एक ऐसा रोग है जिसमें कम उम्र के बच्चों में भी बुढ़ापे के लक्षण दिखने लगते हैं। यह अत्यन्त दुर्लभ  आनुवंशिक रोग है। इसे ‘हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम या हचिंसन- गिलफोर्ड सिंड्रोम’ भी कहते हैं। यह बीमारी जीनों और कोशिकाओं में उत्परिवर्तन की स्थिति के चलते होती है। इस रोग का कारण अधिकांश लोग हॉर्मोन की गड़बड़ी मानते हैं। लेकिन नवीनतम शोध में इसके लिए लैमिन-ए जीन को जि़म्मेदार बताया गया है। इस बीमारी से ग्रसित 90 फ़ीसदी बच्चों में इसका कारण लैमिन-ए जीन में आकस्मिक बदलाव का होना माना गया है। यह गड़बड़ी अचानक ही हो जाती है। यदि जीन में उत्परिवर्तन होने से लैमिन-ए प्रोटीन अस्थिर हो जाए तो कोशिका के केंद्रक का आकार बिगड़ जाता है। इस वजह से कोशिकाओं का आकार भी विरूपित हो जाता है और रोगी के जीन की सक्रियता समाप्त हो जाती है। नतीजतन प्रोटीन का स्थायित्व प्रभावित हो जाता है। यही वजह है कि रोगी का शारीरिक विकास नहीं हो पाता और रोगग्रस्त बच्चे अपनी वास्तविक उम्र के हिसाब से पांच-छह गुना बड़े दिखाई देने लगते हैं। प्रोजेरिया की बीमारी अचानक हो जाती है और 100 में से एक मामले में ही यह बीमारी अगली पीढ़ी तक जाती है। यह बहुत दुर्लभ बीमारी है जो क़रीब 80 लाख में से किसी एक व्यक्ति में पायी जाती है। आज तक चिकित्सा जगत में प्रोजेरिया के क़रीब 100 मामले सामने आए हैं। इस बीमारी में ज़्यादातर बदलाव त्वचा, धमनी और माँसपेशियों में ही देखे जाते  हैं। इससे पीडि़त बच्चा आम बच्चों के मुक़ाबले तीन गुना तेजी से बुढ़ापे की ओर बढ़ता है। जन्म के समय से ही बच्चों में इस बीमारी की पहचान सम्भव है। जन्म के वक़्त इसका मरीज बिल्कुल सामान्य होता है, मगर उसकी नाक तराशी हुई होती है, चमड़ी के अंदर त्वचा जगह-जगह से मोटी तथा खुरदरी होती है। लेकिन डेढ़-दो साल की उम्र में इसके लक्षण नजर आने लगते हैं। दो साल की उम्र पूरी करने के बाद प्रोजेरिया के रोगी के शरीर से वसा का क्षय होने से त्वचा पारदर्शी हो जाती है तथा बड़ी उम्र की बीमारियां जैसे- नजर की कमज़ोरी, मोतियाबिंद, सांस के रोग, किशोरावस्था में ही होने लगते हैं। शारीरिक अंगों का विकास रुक जाता है। शरीर ढीला पड़ जाता है और नसें उभरकर त्वचा पर साफ़ दिखाई देने लगती हैं। रक्त वाहिनियों में कड़ापन (ऐथेरोस्क्लीरोसिस) आ जाता है, साथ ही बच्चे की त्वचा का रंग पीला पड़ जाता है।   
रोगी के चेहरे पर झुर्रियाँ पड़नी शुरू हो जाती हैं। झुर्रियाँ इस क़दर बढ़ती हैं कि रोगी की शक्ल  चिडि़यों जैसी दीखने लगती है। त्वचा सम्बन्धी रोग (स्क्लेरोडर्मा) हो जाता है। शरीर में मोटे तौर पर हड्डियाँ और चमड़ी ही शेष रह जाती हैं। चेहरा और जबड़ा भी छोटा होता जाता है। सिर, शरीर के अनुपात में काफ़ी बड़ा हो जाता है और बाल झड़ जाते हैं। रोगी वृद्ध और एलियन (पराये ग्रह के प्राणी) जैसा दिखने लगता है। दाँत मुंह के बाहर आ जाते हैं तथा आंखों के आसपास गड्ढे हो जाते हैं। लैंगिक विकास नहीं होना, जोड़ों में दर्द, हड्डियों का विकास रुक जाना और हिप डिस्लोकेशन जैसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। इतना ही नहीं जिस हृदय रोग को 35 वर्ष के बाद की व्याधि माना जाता है उसके दौरे अल्पायु में ही शुरू हो जाते हैं। अक्सर हृदयाघात की ही वजह से प्रोजेरिया पीडि़त की मौत होती है। कुछ साल पहले बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘पा’ आयी थी जिसमें उन्होंने 12 वर्ष के बच्चे का किरदार निभाया था जो प्रोजेरिया से पीडि़त था। मानसिक रूप से वह 12 वर्ष का बहुत ही सामान्य था, लेकिन शारीरिक रूप से अपनी आयु से पाँच गुना अधिक उम्र का दिखाई देता था। यह प्रोजोरिया से पीडि़त बच्चे के जीवन की चुनौतियों को दर्शाने वाली बड़ी रोचक फिल्म थी।
लायसोसोमल स्टोरेज डिस्ऑर्डर
लायसोसोमल स्टोरेज डिस्आर्डर यह एक ऐसी दुर्लभ बीमारी है जिसमें मरीज का शरीर कई तरह की बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। मरीज का दिमाग काम नहीं करता है, सिर और पेट बड़े होने लगते हैं। एलएसडी से पीडि़त रोगी अक्सर बहुत मुश्किलभरी जिंदगी बिताते हैं और उनके लिए रोजमर्रा के काम करना तक दूभर हो जाता है। इसमें सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि एलएसडी के ज्यादातर रोगी बच्चे होते हैं। इसलिए उपचार के तंत्र को मजबूत करने के ठोस उपाय करने की जरूरत है। अधिक जोखिम वाले रोगियों की जेनेटिक काउंसिलिंग से बीमारी की पहचान तथा इलाज की चुनौतियों को दूर करने में मदद मिलती है।
 
अकलेजि़या कार्डिया
इस बीमारी में मरीज की आहारनली अवरूद्ध हो जाती है, जिससे भोजन पेट में न जाकर आहार नली में ही पड़ा रहता है। इससे ना सिर्फ मरीज के शरीर में पोषण की कमी होने लगती है बल्कि एक समय बाद यह भोजन आहार नली से निकल कर श्वास नली में भी पहुँचने लगता है जिससे मरीज को सांस लेने में तकलीफ होती है और खांसी की समस्या होने लगती है। यह एक डिजेनेरेटिव डिसीज है जिसमें मरीज की आहार नली के मुंह को खोलने वाली नसें काम करना बंद कर देती हैं। पहले इसका ऑपरेशन चीरा लगाकर किया जाता था। लेकिन अब तकनीकी विकास के चलते एंडोस्कोपी द्वारा इलाज किया जाता है। इसमें चीरा लगाने की जरूरत नहीं होती है।
 
अनॉज्मिया
घ्राणशक्ति का नाश अर्थात् नाक से कोई गंध नहीं पता लगने को चिकित्सा विज्ञान की भाषा में अनॉज्मिया कहते हैं। अनॉज्मिया आमतौर तौर पर गंभीर नहीं होता है। लेकिन यह व्यक्ति की जीवन-शैली पर बुरा प्रभाव डालता है। यह अवसाद का कारण बन सकता है क्योंकि व्यक्ति की खाद्य पदार्थों के स्वाभाविक गंध तथा स्वाद लेने की क्षमता को प्रभावित करता है। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सेंसेज, लंदन के सहनिदेशक प्रोफेसर बैरी सी। स्मिथ कहते हैं, “अध्ययनों से पता चला है कि जो लोग सूँघने की क्षमता खो देते हैं, वह अन्धे हो गए लोगों से भी ज्यादा अवसाद का शिकार हो जाते हैं और लंबे समय तक इस स्थिति में बने रहते हैं। “अनॉज्मिया को ठीक किया जा सकता है या नहीं, यह इस बीमारी के होने की वजह पर निर्भर करता है। कुछ लोगों की गंध लेने की क्षमता में सुधार होता है तो कुछ लोग जीवन भर के लिए इससे वंचित रह जाते हैं। 
 
डर्मैटोफेजिया
सुनने में यह बड़ा अजीब लग सकता है लेकिन चमड़ी को चबाना एक तरह का मनोविकार है। इसे डर्मैटोफेजिया कहते हैं। इससे पीडि़त रोगी सिर्फ किसी परेशानी या तनाव के कारण ही नहीं बल्कि अकारण भी अपनी त्वचा को चबाता रहता है। डर्मैटोफेजिया, ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसआर्डर  की वजह से होता है। इस बीमारी से पीडि़त व्यक्ति हमेशा अपने शरीर को लेकर बेचैन और चिंतित रहता है जिसकी वजह से वह धीरे-धीरे अपने शरीर की त्वचा को चबाना शुरू कर देता है। कई बार यह भी पाया गया है कि जिन माता-पिता को यह बीमारी है उनके बच्चों में भी इसके लक्षण दिखाई देते है। यानी यह एक आनुवंशिक बीमारी है। इसके अलावा जरूरत से ज्यादा तनाव और अकेलापन भी डर्मैटोफेजिया की वजह हो सकता है।
 
न्यूरोमायोटोनिया (आइजैक सिंड्रोम)
न्यूरोमायोटोनिया (आइजैक सिंड्रोम) एक दुर्लभ बीमारी है। दुनिया भर में 150 से भी ज्यादा लोगों के इसकी चपेट में होने के रिकार्ड मिलते हैं। मांसपेशियों की कठोरता, लगातार मांसपेशियों में ऐंठन, अधिक पसीना आना, असहनीय दर्द, मांसपेशियों में कमजोरी, उठने-बैठने में दिक्कत, कमजोरी महसूस करना, सांस लेने में दिक्कत आदि इस बीमारी के मुख्य लक्षण हैं। इस रोग से पीडि़त मरीज का चलना-फिरना मुश्किल होने की वजह से वह बिस्तर तक सीमित हो जाता है। जीन में अचानक आए बदलाव को इस बीमारी की वजह बताया जाता है। आमतौर पर 15 वर्ष से 60 वर्ष की उम्र तक यह बीमारी होती है। लेकिन 30 से 40 वर्ष की उम्र के बीच इसके लक्षण तेजी से उभरते हैं। 
त्रिपृष्ठी तंत्रिकाशूल
(ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया)
त्रिपृष्ठी तंत्रिकाशूल (ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया) एक दुर्लभ बीमारी है। इस बीमारी का चेहरे पर खासा प्रभाव पड़ता है। इसमें मांसपेशियों में गंभीर दर्द होता है। यह बीमारी तंत्रिका विकार के कारण उत्पन्न होती है। इसमें शरीर के नसों में जबरदस्त दर्द और ऐंठन होती है। ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया का सबसे ज्यादा प्रभाव सिर, जबड़ों और गालों पर होता है। ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया नसों को प्रभावित करने वाली ऐसी बीमारी है जो लगभग 15000 में से एक व्यक्ति को होती है। इसकी चपेट में उम्रदराज लोग ज्यादा आते हैं। ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया में पीडि़त व्यक्ति चेहरे के उस स्थान को आराम से चिन्हित कर सकता है जहां दर्द हो रहा है। ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया के दौरान हवा के तेज झोंके या फिर किसी के अचानक छू जाने से भी चेहरे के उस हिस्से में भीषण दर्द होने लगता है। खाते-पीते, बात करते, शेव करते समय भी दर्द परेशान कर सकता है। इस समस्या का एक कारण ट्यूमर या मल्टिपल स्क्लेरोसिस भी हो सकता है। कई बार इस रोग के कारणों का पता लगाना असंभव हो जाता है। ऐसे में इस स्थिति को ‘इडियोपैथिक’ कहा जाता है। इस बीमारी का इलाज दवाओं और सर्जरी, दोनों तरीकों से संभव है। लेकिन जितना ज्यादा दिन तक रोगी ट्राईजेमिनल न्यूराल्जिया से पीडि़त रहता है, दर्द से जुड़े तंत्रिका मार्गों को बदलना उतना ही मुश्किल हो सकता है। बॉलीवुड के सुप्रसिद्ध अभिनेता सलमान खान भी कथित तौर पर इस दुर्लभ बीमारी से पीडि़त हैं।
दुर्लभ बीमारी का निदान करने में कई साल लग सकते हैं। कई दुर्लभ बीमारियों में असहनीय दर्द, कमजोरी और चक्कर आना जैसे अनपेक्षित लक्षण होते हैं। इससे उनका इलाज करने में दिक्कत आती है। जेनेटिक परीक्षण कई दुर्लभ बीमारियों का निदान करने में मदद कर सकता है, लेकिन सभी मामलों में नहीं। जेनेटिक परीक्षण अनुमानतः 25-30 प्रतिशत मामलों में ही आनुवंशिक कारणों की पहचान कर पाता है। दुर्लभ बीमारियाँ किसी को भी हो सकती हैं, इसीलिए इन बीमारियों से ग्रस्त लोगों को इनका मुकाबला दृढ़ता से करना चाहिए। उन्हें कहीं न कहीं स्टीफन हॉकिंग जैसे व्यक्ति से प्रेरणा लेनी चाहिए, जो दुर्लभ बीमारी से पीडि़त होने पर भी अपनी जिजीविषा तथा जीवटता के चलते न केवल लंबे समय तक जीये, बल्कि विज्ञान जगत में उच्चतम सफलता पायी। असाध्य बीमारी से ग्रस्त होने के बावजूद अपनी अद्वितीय मेधा के चलते वे अपने जीवनकाल में एक जीवित किंवदंती बन गये थे। अतः बीमारी कोई भी हो, जरूरत इस बात की होती है कि उसका सामना साहस तथा दृढ़ इच्छाशक्ति से किया जाए। आत्मबल हमेशा विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने में बहुत मददगार होता है। जाहिर है, बीमारियाँ भी इसका अपवाद नहीं हैं।   
 
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