विज्ञान संचार की सामाजिक उपयोगिता
एम.एल.मुद्गल
मानव के क्रमिक विकास और उसके बौद्धिक उन्नयन में शब्द और साहित्य की भूमिका अहम रही है। वास्तव में, मनुष्य की ज्ञान वृद्धि की दिशा में ज्ञान-विज्ञान उल्लेखनीय पड़ाव के समान हैं। शब्दों का नियमित समूह ही वाक्यांशों की आधारशिला बनकर किसी संवाद का ठोस रूप धारण करता है। आपसी संवाद मानवीय कल्याण एवं सामाजिक व्यवहार का अति आवश्यक अवयव है। विश्व व्यवहार एवं दैनिक क्रियाओं की सम्पन्नता के लिए आपसी संवाद एक बहुत ही आवश्यक कड़ी है। समुदाय लैटिन भाषा के शब्द communis का रूपांतरण है जिसका व्यापक अर्थ भाईचारा, मैत्री भाव आदि भी हो सकता है और इसी communis शब्द से communication अर्थात संचार बना है अर्थात एक दूसरे को जानने-समझने, संबंध बनाने और सूचनाओं का आदान-प्रदान करने को संचार कहते हैं।
दूसरे अर्थों में, जन समुदाय के परस्पर संवाद के तौर-तरीके संचार कहलाते हैं। चूंकि विज्ञान हमारे चारों ओर व्याप्त है। साथ ही वर्तमान संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि आज हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जुड़े ज्ञान के बिना एक क्षण नहीं रह सकते। इसका सीधा आशय यह है कि हमारा सामाजिक-आर्थिक जीवन विज्ञान और इसके अनुप्रयोगों पर अनेक प्रकार से आश्रित हो चला है। इस दृष्टिकोण में विज्ञान के हमारे जीवन पर होने वाले प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभावों के आंकलन/मूल्यांकन के लिए इससे जुड़े विचारों अथवा सूचनाओं का प्रसार अति आवश्यक है। संचार की इस विशेष धारा को विज्ञान संचार नाम दिया गया है।
संचार का अतीत और विज्ञान संचार की उपयोगिता
संचार के मर्म को समझने के लिए आइए हम इसकी पृष्ठभूमि में झांकने का प्रयत्न करते हैं। भारतीय परंपरा की एक विशेषता रही है कि प्रत्येक विषय के दार्शनिक चिंतन पर सदियों तक चर्चायें होती रही हं। वेदों और उपनिषदों की वाणी श्रुतियां हंै। अर्थात छापेखानों का सुव्यवस्थित आधार बनने से पूर्व ज्ञान एवम् शोध सम्बन्धी सूचनाओं का आदान-प्रदान गुरु शिष्य परम्परागत श्रुतियों द्वारा होता था। इन श्रुतियों का एक से सुन कर किसी दूसरे तक पहुँचाना बहुत ही प्रचलित संचार तन्त्र था। प्राचीन काल में दूतों एवं गुप्तचरों की राजाओं द्वारा समुचित व्यवस्था थी। श्रुतियां संचार का एक महत्वपूर्ण साधन रही हैं।
हिंदी में एक बहुचर्तित पद्यांश है
लाली मेरे लाल की जित देखू तित लाल,
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।
इस पद्यांश में तीन प्रक्रियाएं है, देखना, सुनना और व्यवहार में लाना। ज्ञान प्राप्ति के यही तीन स्रोत हैं। किसी भी कार्य को सकुशल सम्पन्न करना उस कार्य की जानकारी पर निर्भर करता है। समाचार पत्र जानकारी सुलभ कराने का कदापि उपलब्ध साधनों में से एक है। अतः संचार को सुचारू रूप प्रदान करने का एक सशक्त साधन पत्रकारिता है जिसका प्रारंभ मूलतः सन 131 ई.पू। रोम में हुआ बताते है।
मध्य काल के यूरोप में क्रय-विक्रय
मूल्यों का उतार-चढ़ाव लेकिन वैज्ञानिक अन्वेषणों के समक्ष सम्पूर्ण विश्व में एक गैर-वैज्ञानिक समाज खड़ा था। यहां तक कि उसके दैनिक उपयोग की वस्तुओं में निहित वैज्ञानिक नियम एवं सूत्रों से कदापि अनभिज्ञ होकर सामाजिक कुरीतिओ ं और अन्धविश्वासों से अपनी श्रद्धा एवं विश्वासों को संजोया हुआ था। यहां पर विज्ञान से जुड़े संचार ने अहम भूमिका निभाई।
विज्ञान संचार का सामान्य उद्देश्य संचार माध्यमों द्वारा गैर वैज्ञानिक समाज को विज्ञान के विभिन्न पहलुओं और उनकी जानकारी से रूबरू कराना है। दूसरे शब्दों में विज्ञान संचार के माध्यम से विज्ञान सम्बन्धी जानकारी को उन लोगों तक पहुँचाया जाता है जो उन विषयों के या तो विशेषज्ञ नहीं है अथवा उन विषयों के जानकर नहीं हैं। व्यवसायिक वैज्ञानिक इस विधा को विज्ञान का लोकप्रिय- करण या आउटरीच कहते हैं। अतः विज्ञान संचार की इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक निष्कर्षों की अपेक्षा वैज्ञानिक सिद्धांतों के स्पष्टीकरण पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होती है। विज्ञान संचारकों के सामाजिक उत्तरदायित्व पर टिप्पणी करते हुए श्री सराह बून लिखते हैं कि वैज्ञानिक पर अक्सर बाह्य पहुँच और जन विनियोजन जैसे शब्द आडम्बरों का बोझ होता है। अतः उनके दृष्टिकोण में विज्ञान का संचार और विज्ञान को आम आदमी की पहुंच में लाना एक दुस्कर किंतु उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य है।
विज्ञान संचार अथवा लोकप्रियकरण के मायने और कसौटियाँ आज विज्ञान का लोकप्रियकरण विज्ञान संचार का एक व्यवसायिक क्षेत्र बनकर समस्त विश्व मानचित्र पर उपस्थित हुआ है। संस्कृत हमारे देश की बोलचाल की प्राचीन भाषा रही है। इस भाषा की समृद्धि पर हम भारतवासी बहुत गौरवांवित भी होते रहे हैं। संस्कृत इस देश में 1500 ई.पू। से 500 ई.पू। तक एक उज्ज्वल इतिहास लेकर जीती रही है। लेकिन साहित्य सृजन में वैदिक संस्कृत में केवल वैदिक वांग्मय की रचनायें हुई और लौकिक अर्थात क्लासिकल संस्कृत में वाल्मीकि, भास, अश्वघोष, कालिदास, माघ आदि की ही रचनायें श्रवण योग्य हैं। साहित्य सृजन के साथ संस्कृतकालीन सभ्यता शायद विश्व की सर्वोच्च एवं सर्वांग प्रखर सभ्यता थी। जब दुनिया की मानव प्रजातियां कंदराओं से निकल कर झोंपडि़या बनाना सीख रही थीं तब यहां के लोग प्रासादों में रहना सीख गए थे। सिन्धु घाटी की सभ्यता संसार की सर्वोच्च संपन्न सभ्यता थी। लोग गावों व शहरों में समुचित संगठित पूर्ण सुरक्षा अवस्था में जीवनयापन कर रहे थे। यातयात के लिए बैलगाडि़याँ प्रचलन में थीं। अग्नि प्रज्वलन की रीति, कृषियोग्य यंत्रों का प्रयोग आम बात थी। यहाँ के व्यापारी जहाजों से विदेशों में वाणिज्य से जुड़ी यात्राएं करते थे। सोने-चाँदी और बहुमूल्य आभूषण प्रचलन में थे। वस्त्र उद्योग भी बहुत उन्नत था। वैदिक कालीन युग में खगोलीय ज्ञान तो अपनी चरम सीमा पर था। सूर्य सिद्धांत का प्रतिपादन, नव ग्रहों की दैनिक गति, वर्ष, दिन रात दिनमान नक्षत्रों का 27 विभागों में विभाजन, सूर्य एवं चंद्र ग्रहणों की जानकारी और राहू-केतु जैसे छाया ग्रहों का प्राकट्य उस समय की असाधारण उपलब्धि कही जा सकती है। भारत में विज्ञान की जड़ें बहुत गहरी हैं। इस भूमि में आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन और कणाद जैसे वैज्ञानिकों की एक लम्बी कतार है जिन्होंने विज्ञान को एक सुव्यवस्थित रूप दिया। पूजा-अर्चना में काम आने वाला संकल्प पूर्ण रूपेण वैज्ञानिक है। इसमें शब्द परार्द्धे (1012) के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। यहाँ का आयुर्विज्ञान जिसमें शल्य चिकित्सा का भी उल्लेख है जो शायद संसार का सबसे बड़ा चिकित्सा शास्त्र है। इसमें सम्पूर्ण शरीर-विज्ञान कफ-पित्त एवं स्नायु-तंत्र पर विभिन्न शोधों पर आधारित अनुभवी वैद्यों द्वारा रोगों का उपचार उपलब्ध था। इसके अतिरिक्त कपड़े रंगने की सम्पूर्ण तकनीकी सुचारू रूप से काम कर रही थी। लेकिन 10वीं और 11वीं शताब्दी के आते-आते विदेशी आक्रमणों और अंग्रेजों के आगमन से इस देश की वैज्ञानिक यात्रा जैसे रुक सी गई थी। उस समय जबकि छापेखानों का आविष्कार नहीं हुआ तो भी उपरोक्त वैज्ञानिक विषयों के पठन-पाठन विस्तृत जानकारी हेतु गुरुकुल पद्धति द्वारा ज्ञानवर्धन एवं संचार की व्यवस्थाएं प्रायः उपलब्ध थीं।
आधुनिक भारत भी वैज्ञानिक उन्नति में संसार से कदमताल मिला कर चल रहा है। यह देश कृषि प्रधान देश है। कृषि यहां की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए 1905 में इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना से लेकर वर्तमान में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् की स्थापना सार्थक पहल रहे हैं। कृषि के क्षेत्र में उपलब्धियों का श्रेय डॉ। बी। पीपाल, एम.एस। स्वामीनाथन और डॉ। नार्मन बोरलाग जैसे महान वैज्ञानिकों को जाता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की आधुनिक विकास यात्रा 1942 में सर स्वामी मुदालियर और डॉ। शांति स्वरुप भटनागर के अथक प्रयासों से प्रारंभ हुई। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने इस देश के विकास के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अर्थात साइंटिफिक टेम्पर जगाने का संकल्प लिया। इस पुनीत संकल्प की संपन्नता के लिए पंडित नेहरु ने डॉ। शांति स्वरुप भटनागर से हाथ मिलाकर इस देश में 15 प्रयोगशालायें स्थापना कीं। आज कृषि, चिकित्सा, परमाणु उर्जा, इलेक्ट्रोनिकी, संचार अन्तरिक्ष, परिवहन एवं रक्षा विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में भारत के वैज्ञानिकों के सार्थक योगदान सर्वत्र चिन्हित हैं। डॉ। होमी जहागीर भाभा के प्रयासों से परमाणु उर्जा के क्षेत्र में यह देश विकसित श्रेणी में खड़ा दिखाई देता है। कम्प्यूटर, डिजिटल, प्रौद्योगिकी पर आधारित मोबाइल, इंटरनेट ने सूचना एवं संचार में व्यापक प्रगति की है। भारत की अब तक की वैज्ञानिक सफलता के पीछे जगदीश चन्द्र बोस, सी.वी.रामन, मेघनाद साहा, प्रफुल्ल चंद्र राय, हरगोविंद खुराना आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं।
लेकिन सुदीर्घ यात्रा के दोनों ओर भ्रांतियों एवं कुरीतियों के समूह भी अपनी बाहें फैलाये खड़े रहे इस सुदीर्घ यात्रा के दोनों ओर भ्रांतियों एवं कुरीति हैं। यहाँ टोनों-टोटकों, भूत-प्रेत, डायन-प्रथा, बलि-प्रथा, सती-प्रथा, नजर लगना, मौसम का बनना बिगड़ना, प्राकृतिक आपदाओं का आना तथा इन सब को देवताओं की मर्जी के अधीन होने का अंधविश्वास, रोगी का झाड़-फूंक से निवारण, बिल्ली के द्वारा रास्ता काटना, छिपकली का गिरना और पितरों का रूठना इत्यादि कुरीतियों से भारतीय समाज भरा पड़ा था। स्थिति आज भी कमोबेश वैसी ही है। अतः इस भ्रमित समाज को अज्ञान से विज्ञान की ओर ले जाने का चुनौतीपूर्ण उत्तरदायित्व विज्ञान प्रसारकों को है। यह कार्य इतना साधारण भी नहीं है। इसमें विज्ञान संचारकों के साथ वैज्ञानिकों को भी कदम मिलाना पड़ेगा, तब कहीं तस्वीर बदलेगी। वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ विज्ञान संचारकों का कार्य क्षेत्र दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इस चुनौतीपूर्ण कार्य को संपन्न करने की दिशा में भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, राष्ट्रीय विज्ञान संचार और सूचना स्रोत संस्थान, विज्ञान प्रसार और राष्ट्रीय विज्ञान ईवा, प्रौद्योगिकी संचार परिषद तथा राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद जैसी प्रमुख संस्थाओं ने इस उद्देश्य हेतु सार्थक प्रयास किए हैं। लेकिन विज्ञान संचारकों को इस पुनीत अभियान को अबाध रूप से गतिमान बनाए रखने के लिए निम्न बातों को भी अमल में लाना होगा।
संचार की भाषा सरल और सुबोध होनी चाहिए क्योंकि भाषा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम विचारों का समाज में आदान प्रदान करते हैं।
- इस प्रश्न की व्यवहारिकता से कदापि इंकार नहीं किया जा सकता कि विज्ञान पर जो लिखा जाता है, वह क्या आम आदमी तक पहुंच पाता है। और जो पहुंच पाता है वह क्या उसके लिए रुचिकर है।
- संस्थागत एवं व्यक्तिगत प्रयास एक दूसरे के पूरक हैं। इनमें सामंजस्य एवं समन्वय विज्ञान के प्रसार के मार्ग में एक सार्थक एवं निर्णायक सम्बल बन सकता है।
- सृजनात्मक साहित्य की भांति विज्ञान साहित्य भी हमारी परम्परा का अंग हो सकता है। इस क्षेत्र में सम्मेलनों एवं संगोष्ठियों का चलन अपेक्षाकृत तृणमूल (ग्रासरूट) स्तर पर होना चाहिए जिनमें अलंकृत वैज्ञानिक भी अपनी भूमिका निर्वाह करें।
- अनुवाद और तकनीकी शब्दावली की दुर्लभता को सहज बनाने की दिशा में एक बड़े प्रयास की आवश्यकता को भी महसूस किया जाता है। इसके अतिरिक्त विज्ञान संचारक को अपने विषय की प्रभावशीलता एवं स्पष्टता की ओर भी विचार मंथन करना चाहिए। प्रख्यात बाल विज्ञान लेखिका श्रीमती (डॉ.) मधु पंत का सरल संकेत भी समझिये। वे लिखती हैं कि जिज्ञासा, कौतुहल और कल्पनाओं से भरे बालमन के लिए विज्ञान लेखन चुनौती है। विज्ञान संचारक इस चुनौती को सहर्ष स्वीकारें।
अंत में विज्ञान संचारकों से अनुरोध है कि वे संचार भाषाओं में पारदर्शिता, सरलता और बोधगम्यता का समावेश करें तभी जाकर उनका सम्प्रेषण प्रभावशाली और स्थायी होगा तथा जन सामान्य में एक वैज्ञानिक (तर्कसंगत) दृष्टि का विकास हो सकेगा।
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