विज्ञान


वायु प्रदूषण का नया रूप नीलाभ धुंध

डॉ. शुभ्रता मिश्रा

 
अक्सर घने जंगलों में घूमते समय सघन वृक्षावलियों के वितानों (कैनॉपी) के छिद्रों से आता नीला मद्धिम सा धुंधला प्रकाश या फिर हवाईयात्रा के दौरान घने जंगलों के हरे वितान के ऊपर अतिसुंदर आलोकमय मनमोहक नीलाभ धुंध के दर्शन कभी न कभी सभी ने अवश्य किए ही होंगे। यह नीलाभ धुंध जिसे अंग्रेजी में ब्लू हेज़ के नाम से जाना जाता है, एक प्राकृतिक पादप-वातावरणीय प्रक्रिया से बनने वाला धुंध है।
वास्तव में नीलाभ धुंध या ब्लू हेज़ का कोई हानिकारक प्रभाव कभी देखने में नहीं आया, इसलिए अब तक इस पर बहुत अधिक वैज्ञानिक शोध या विचार-विमर्श भी नहीं हुआ था। इसका कारण यह था कि इससे पहले नीलाभ धुंध मानवजनित गतिविधियों से अधिक प्रभावित नहीं था, फलतः इसका प्रभाव बेहद नगण्य था। वर्तमान में धुंध के संदर्भ में लगातार बढ़ रहीं वायु प्रदूषण संबंधी घटनाओं के कारण नीलाभ-धुंध विभिन्न प्रकार के वातावरणीय अध्ययनों हेतु वैज्ञानिकों के लिए पर्यावरणीय शोध का बिल्कुल नया एक विषय बनता जा रहा है। 
पिछले एक दशक के दौरान अनेक प्रतिष्ठित जर्नलों में नीलाभ धुंध में वायु प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा को लेकर कई शोध प्रकाशित हुए हैं। एक अमेरिकी जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस ऑफ द यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका (पीएनएएस) में अक्टूबर 2009 में प्रकाशित हुए एक शोधपत्र से यह बात सामने आई थी कि किस तरह मानवजनित गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाले वायुप्रदूषक धीरे-धीरे नीलाभ धुंधों में भी नैनोकणों के निर्माण को बढ़ावा दे रहे हैं। 
इसी साल 2018 में भी जिओफिजिकल रिसर्च लैटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित जर्मनी के वैज्ञानिकों के एक शोध में पाया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी की सतह से 50 मील ऊपर बनने वाले रात्रि-के-चमकदार बादलों (छपहीज-ेीपदपदह’ बसवनके) का दिखना अब दुर्लभ प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं रह गई है। लगातार बढ़ रहे वायुप्रदूषक कणों के कारण ऐसे चमकदार बादल कहीं भी बन जाते हैं और इनसे एक चकित कर देने वाला नीला धुंध निकलता है। ऐसा वातावरण में उपस्थित उच्च ‘उल्का धूल’ के छोटे कणों के साथ बर्फ के क्रिस्टलों से बने कोलाइड मिश्रण से सूर्य के प्रकाश के परावर्तन के फलस्वरुप होता है। इसी तरह जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में अप्रैल 2018 में चीन के वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, जिसमें बीजिंग में पीएम 2ण्5 विविक्त कणों की सांद्रताओं के कारण जंगलों और शहरों सभी जगह पाए जाने वाले धुंध के वायुप्रदूषण के रुप में परिवर्तित होने के प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं। 
वैज्ञानिक भाषा में धुंध अक्सर तब बनता है, जब धूल और धूम्र के कण अपेक्षाकृत शुष्क वायु में इकठ्ठे होते हैं। जब मौसमीय परिस्थितियाँ धूम्र और अन्य प्रदूषकों के फैलाव को अवरुद्ध करती हैं, तब आमतौर पर धुंधनुमा एक ऐसा आवरण बनता है, जिससे दृश्यता कम हो जाती है और ऐसी हवा में साँस लेने से श्वसन संबंधी स्वास्थ्य का खतरा हो सकता है। परंपरागत रूप से धुंध एक वायुमंडलीय घटना है, जिसमें धूल, धुआँ और अन्य शुष्क कण धरती से आकाश के दिखने की स्पष्टता को धुंधला करते हैं। विश्व मौसमविज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) मैनुअल कोड के अनुसार आकाशीय क्षैतिज अस्पष्टता के वर्गीकरण के अन्तर्गत रखी गईं श्रेणियों में क्रमशः कोहरा, बर्फीला कोहरा, वाष्पित कोहरा, आर्द्र धुंध (मिस्ट), शुष्क धुंध (हेज़), धुआँ, ज्वालामुखीय राख, धूल, बालू और हिम शामिल किए गए हैं। सूर्य की दिशा के आधार पर दूर से जैसे कि हवाई जहाज आदि से देखने पर अक्सर शुष्क धुंध, जो सूखी हवा में बनता है, वह भूरा या नीला दिखाई देता है, जबकि आर्द्र धुंध जो नमीवाली हवा में बनता है, दिखने में धूसर नीले रंग का होता है। चूंकि वनों में सभी तरह के पादपों प्रमुखतया वृक्षों की बहुलता होती है और वातावरण मानवजनित प्रक्रियाओं से अपेक्षाकृत कम बाधित होता है, अतः वहां नीलाभ धुंध का पाया जाना एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। 
वनों के ऊपर दिखने वाली नीले रंग की धुंध की इस घटना  को सबसे पहले डच जीवविज्ञानी, फि़्रट्स वारमोल्ट वेंट ने पहचाना था। वनों पर देखे गए नीले रंग की धुंध की प्रकृति के विषय में प्रतिष्ठित जर्नल नैचर में ‘ब्लू हेज़ इन द एटमास्फियर’ नामक वेंट का शोधपत्र सन् 1960 में प्रकाशित हुआ था। वेंट का कहना था कि वनों में नीलाभ धुंध के दिखने के पीछे भौतिकी का वही कारण है, जो ‘आकाश के नीले दिखने’ का है। फ्रि़ट्स वारमोल्ट वेंट के अनुसार वनों में पेड़ों द्वारा उत्सर्जित वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के कणों के कारण सूर्य के प्रकाश का रैले प्रकीर्णन और मी-प्रकीर्णन वनों के ऊपर नीलाभ धुंध की उत्पत्ति का मूल कारण हैं।     
हम सभी जानते हैं कि लॉर्ड रेले ने आकाश के नीलेपन का कारण वायु में पाये जाने वाले नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अणुओं द्वारा सूर्य के प्रकाश की किरणों का प्रकीर्णन माना है, जिसे रेले प्रकीर्णन (त्ंलसमपही ेबंजजमतपदह) कहते हैं। सामान्य भाषा में आकाश नीला इसलिए दिखता है क्योंकि पृथ्वी का वायुमंडल जो अनेक प्रकार के गैसों के मिश्रण से बना है, इसमें न सिर्फ गैस बल्कि धूल के कण, पराग के कण जैसे कई अतिसूक्ष्माकार पदार्थ भी मौजूद होते हैं। गैसें भी कई तरह के अणुओं से मिलकर बनती है, यह अणु अत्यंत सूक्ष्म कण होते हैं। अलग-अलग तरंगदैर्ध्य वाले सात रंगों बैंगनी, आसमानी, नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल से बना सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर प्रवेश करता है तो वह वायुमंडल के इन कणों से टकराकर प्रकीर्णित हो जाता है। जब भी प्रकाश किरणें प्रकीर्ण होती हैं, तो उनकी तरंगदैर्ध्य परिवर्तित हो जाती है। तरंगदैर्ध्य का यह परिवर्तन उनकी ऊर्जा में परिवर्तन के कारण होता है। उर्जा में वृद्धि हो जाने से तरंगदैर्ध्य कम हो जाती है और ऊर्जा में कमी आने से तरंगदैर्ध्य बढ़ जाती है। जब हम लाल रंग के प्रकाश से बैंगनी की ओर और उससे भी आगे पराबैंगनी की ओर बढ़ते हैं, तो उर्जा बढ़ती है और तरंगदैर्ध्य छोटी होती जाती है। यह ऊर्जा सदैव निश्चित मात्रा में ही घटती-बढ़ती है तथा इसके कारण हुआ तरंगदैर्ध्य का परिवर्तन सदैव निश्चित मात्रा में होता है। सौरप्रकाश के प्रकीर्णन के कारण आकाश के नीलेपन को दर्शाने के लिए लॉर्ड रेले को 1904 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिला था। वहीं जर्मन भौतिक विज्ञानी गुस्ताव एडॉल्फ फीडर विल्हेम लुडविग मी के नाम पर रखा गया मी-प्रकीर्णन (डपम ेबंजजमतपदह) वायुमंडल के निचले हिस्से में पराग, धूल, धुआँ, पानी की बूंदों और अन्य कणों के कारण होता है। ऐसा तब होता है जब प्रकीर्णन करने वाले कण विकिरण के तरंग दैर्ध्य से बड़े होते हैं। मी-प्रकीर्णन को बादलों के सफेद दिखने के लिए उत्तरदायी माना जाता है। 
पृथ्वी के लगभग 9ण्4 प्रतिशत भाग को घेरे हुए विश्व के चार प्रमुख प्रकार के वनों उष्णकटिबंधीय और शीतोष्ण वर्षा वन, टैगा, शीतोष्ण कठोरकाष्ठीय वन और उष्ण कटिबंधीय शुष्क वन में खरबों वृक्ष समाहित हैं। आंकड़ों के अनुसार विश्व में लगभग 13ण्9 खरब वृक्ष (विश्व के करीब 43 प्रतिशत) ऊष्णकटिबंधीय और भारत जैसे अर्धऊष्ण- कटिबंधीय क्षेत्रों में हैं। 7ण्4 खरब वृक्ष (25 प्रतिशत) रूस, स्कैंडिनेविया और उत्तरी अमेरिका के उप-आर्कटिक क्षेत्र के बोरीयल वनों में, और 6ण्1 खरब (या 22 प्रतिशत) वृक्ष शीतोष्ण क्षेत्र में पाए जाते हैं। इन समस्त वनों में प्राकृतिक रुप से नीलाभ धुंध के दर्शन होते हैं, क्योंकि इसके निर्माण में वृक्षों की पत्तियों से उत्सर्जित होने वाली शीघ्रवाष्पशील कार्बनिक गैसें और कार्बनिक यौगिकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 
ये समस्त पादप उत्सर्जित वाष्पशील कार्बनिक यौगिक वायुमंडल में उपस्थित कार्बनिक योगिकों के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं, जो वातावरण की ऑक्सीकरण क्षमता को प्रभावित करके उसके रसायन और भौतिकी पर उल्लेखनीय प्रभाव डालते है। वनस्पति वैज्ञानिकों का मानना है कि पत्तियों की आंटोजेनी अर्थात् उनकी उत्पत्ति से लेकर उनके पूर्ण विकास तक की सम्पूर्ण वृद्धि प्रक्रिया इन उत्सर्जित वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों की गुणवत्ता और मात्रा पर सार्थक नियंत्रण करती है। इसी तरह इन यौगिकों के उत्सर्जन पर मौसमों और पादप प्रजातियों का भी असर देखा गया है। शरद ऋतु के दौरान समशीतोष्ण जंगलों में इनका उच्च उत्सर्जन होता है। इसी तरह सनोबर, ट्यूलिप और लिंडेन जैसी वृक्ष प्रजातियां बहुत कम वाष्पशील कार्बनिक यौगिक उत्सर्जित करती हैं, लेकिन ब्लैकगम, चिनार, बलूत (ओक) और बोड़ (विलो) जैसे वृक्षों से वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन अपेक्षाकृत अधिक होता है। 
वृक्षों से उत्सर्जित किए जाने वाले कार्बनिक यौगिकों अथवा हाइड्रोकार्बनों में आइसोप्रिन, मोनोटरपीन्स, सेसक्विटरपीन्स, मेथेनॉल, एसीटोन आदि आते हैं। वातावरण के क्षोभमण्डल में एल्फा और बीटा पाइनीन्स नामक दो मोनोटरपीन्स सबसे अधिक पाए गए हैं। ये मोनोटरपीन्स वायुमंडलीय ऑक्सीडेंट्स के साथ प्रतिक्रिया करके कई उत्पाद बनाते हैं, जिनमें से कुछ द्वितीयक एरोसोल में बदल जाते हैं। वनों के ऊपर निर्मित इन द्वितीयक एरोसोलों का वैश्विक एरोसोलों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। ये एरोसोल वनों में प्रवेश करने वाले सौर विकिरण का प्रकीर्णन करके प्रत्यक्ष रूप से और मेघ-संघनन-केंद्रकों (बसवनक.बवदकमदेंजपवद.दनबसमप) के रूप में मेघों के गठन को बदलकर या फिर बहुअवस्थायी वायुमंडलीय रासायनिक प्रक्रियाओं में शामिल होकर अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु को प्रभावित करते हैं। 
इस तरह वनों से उत्सर्जित ये जैवजनित हाइड्रोकार्बन सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन ऑक्साइड के साथ क्रिया करके ओजोन बनाते हैं। साथ ही ये यौगिक बादलों के निर्माण और अवक्षेपण को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक द्वितीयक कार्बनिक एरोसोलों के निर्माण और विकास में भी योगदान देते हैं। ये कई अलग-अलग तरीकों से द्वितीयक एरोसोलों के बनने को बढ़ावा देते हैं। जैवजनित हाइड्रोकार्बनों के प्रकाशरासायनिक ऑक्सीकरण से निम्न-वाष्पशीलता वाले उत्पादों का निर्माण होता है जो संभवतः कण केंद्रकन (चंतजपबसम दनबसमंजपवद) में योगदान देते हैं। पारिभाषिक तौर पर केंद्रकन या न्यूक्लियेशन वह प्रारंभिक प्रक्रिया है, जो किसी विलयन, तरल या वाष्प से कणों के गठन में शामिल होती है, जिसमें बहुत कम संख्या में आयन, परमाणु या अणु एक विशिष्ट क्रिस्टलीय ठोस पैटर्न में व्यवस्थित होकर एक बिन्दु जैसा बना लेते हैं, जिस पर क्रिस्टल के बढ़ने के साथ साथ अतिरिक्त कण जमा होते जाते हैं। उदाहरण के लिए, वनों में पत्तियों से उत्सर्जित एल्फा-पाइनीन के ओजोन के साथ क्रिया करने पर पिनोनिक एसिड जैसा महत्वपूर्ण उत्पाद बनता है, जो वनों के ऊपर मिलने वाले नैनो-आकार के कणों का एक महत्वपूर्ण घटक साबित हुआ है। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने पाया है कि जैवजनित हाइड्रोकार्बनों के ऑक्सीकरण से बनीं ऑक्सीकृत कार्बनिक प्रजातियां एरोसोल वृद्धि में शामिल विषम प्रक्रियाओं से भी संलग्न हो सकती हैं।
वास्तव में एरोसोल से तात्पर्य सूक्ष्म ठोस कणों अथवा तरल बूंदों का वायु या किसी अन्य गैस में बने कोलाइड मिश्रण से होता है। वातावरण में उपस्थित एरोसोल दो प्रकार के प्राकृतिक और मानवजनित होते हैं। वायुमंडलीय धुंध और धूल प्राकृतिक एरोसोल हैं, जबकि विभिन्न वायुप्रदूषक, विविक्त अभिकण और धुआं मानवजनित एरोसोलों के उदाहरण हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि नीलाभ धुंध एक प्राकृतिक एरोसोल है, जो जंगलों में नयनाभिराम नीली आभा फैलाने के लिए उत्तरदायी रहा है। नीलाभ धुंध अपने विशुद्ध प्राकृतिक स्वरूप में कभी भी वातावरण को क्षति नहीं पहुंचाता है, लेकिन मावजनित गतिविधियों के कारण अब नीलाभ धुंध धीरे-धीरे वायुप्रदूषण का एक स्वरूप बनने के लिए बाध्य होता जा रहा है। 
दुनिया में लगभग पिछली आधी सदी से जहाँ प्राकृतिक एरोसोलों की वृद्धि के लिए सतत् ज्वालामुखी, मेघ गर्जना के दौरान विद्युत निर्वहन, धूल के तूफान, जंगलों की आग और समुद्र स्प्रे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वहीं मनुष्यों द्वारा कोयला और पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधन के दहन, वाहनों से निकलने वाले धुओं, बिजली संयंत्रों, एयर कंडीशनरों, रेफ्रिजरेटरों, एयरोसोल स्प्रे आदि से उत्पन्न होने वाली गैसें और लगातार बढ़ते जा रहे विभिन्न प्रकार के औद्योगिकीकरण के कारण उत्पादित मानवजनित एरोसोलों विशेषकर प्रमुख प्राथमिक प्रदूषकों जैसे सल्फर डाइऑक्साइड (ैव्2), नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (छव्2), कार्बन मोनोआक्साइड (ब्व्), मीथेन (ब्भ्4), विविक्त कणों (पार्टिकुलेट मैटर, पीएम) की मात्रा वायु में बढ़ रही है, जो जंगलों में नीलाभ धुंध को वायुप्रदूषण की दिशा में ले जाने के लिए काफी हद तक जिम्मेदार कहे जा सकते है।   
वायुमण्डल में विविक्त कणों (पीएम) यानि वायु में निलंबित कणिकीय पदार्थों की मात्रा सड़कों और भवन निर्माण से निकलने वाली धूल, वाहनों के धुंओं, ईंधन जैसे कोयला, लकड़ी तथा खेतों व कूड़ों को जलाने एवम् औद्योगिक प्रदूषण के कारण लगातार बढ़ रही है। विविक्त कणों को उनके कणों के व्यास क्रमशः 10 और 2ण्5 माइक्रोमीटर के आधार पर दो समूहों पीएम 10 और पीएम 2ण्5 में बांटा गया है। पीएम 10 में सांस ली जा सकती है, परन्तु पीएम 2ण्5 साँस द्वारा फेफड़ों और रक्त प्रवाह में पहुँचकर बीमारियों का कारण बनते हैं। इन विविक्त कणों सहित अन्य सभी प्रकार के वायुप्रदूषक भी अब जंगलों में पेड़ों से उत्सर्जित होने वाले वाष्पशील कार्बनिक योगिकों के साथ नीलाभ धुंध के निर्माण में भाग लेने लगे हैं। अतः वनों को नीली खूबसूरती देने वाला नीलाभ धुंध नीला विष बनता जा रहा है।  
आंकड़ों के अनुसार सन् 1991 से धुंध विशेष रूप से दक्षिणपूर्व एशिया में गंभीर समस्या बनकर उभरा है। इस धुंध का मुख्य स्रोत सुमात्रा और ब्रुनेई के जंगलों में लगने वाली आग को माना जाता है। इस धुंध प्रदूषण ने नियमित रूप से कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर और ब्रुनेई, भारत, चीन और कुछ हद तक थाईलैंड, वियतनाम और फिलीपींस को बुरी तरह प्रभावित किया हुआ है। निःसंदेह इन देशों की वनसम्पदाओं में बिखरी नीलाभ धुंध की प्राकृतिक सुषमा पर वायुप्रदूषकों ने दाग लगाने शुरु कर दिए हैं। आज वैज्ञानिकों के लिए दुनिया भर में सघन वन्य क्षेत्रों पर बनने वाले नीलाभ धुंध में नैनोकणों के गठन से संबंधित बदल रहीं जटिल प्रक्रियाओं को समय रहते पूरी तरह से पहचानने और समझने की महती आवश्यकता है। अब तक के शोधों से वैज्ञानिक इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि वायु में बढ़ रही सल्फरडाइऑक्साइड गैस और जैवजनित कार्बनिक यौगिकों के कारण बनने वाले सल्फ्यूरिक अम्ल और जैवजनित कार्बनिक अम्ल के बीच होने वाली प्रतिक्रिया केंद्रकन प्रक्रिया और नैनोकणों की प्रारंभिक वृद्धि को बढ़ाती है। इस प्रकार के प्रदूषित होते जा रहे प्राकृतिक नीलाभ धुंध का न केवल स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है बल्कि वे अम्ल वर्षा, यूट्रोफिकेशन, फसलों की उपज और वन्यजीवन आबादी में कमी आदि जैसे विभिन्न प्रकार की घटनाओं में भी योगदान दे सकते हैं। दक्षिणपूर्व एशियाई धुंध की बढ़ रही घटनाओं को दृष्टिगत रखते हुए आसियान देश एक क्षेत्रीय धुंध कार्य योजना (त्महपवदंस भ्ं्रम ।बजपवद च्संद-1997) पर सहमत हुए थे। फिर सन् 2002 में, सभी एशियान देशों ने मिलकर परासीमाई धुंध प्रदूषण समझौते (।हतममउमदज वद ज्तंदेइवनदकंतल भ्ं्रम च्वससनजपवद) पर हस्ताक्षर किए, लेकिन धुंध प्रदूषण आज भी एक समस्या बना हुआ है। इसी तरह की समस्या से निपटने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में, राष्ट्रीय उद्यानों में नीलाभ धुंध के रासायनिक संघटन का निर्धारण करने के लिए यूएस ईपीए और राष्ट्रीय उद्यान सेवा के बीच एक सहयोगी प्रयास के रूप में इंटरैजेंसी मॉनिटरिंग ऑफ प्रोटेक्टेड विज़ुअल एन्वायरांमेंट्स (इम्प्रूव) कार्यक्रम बनाया गया है। 
मानव की वैज्ञानिक उपलब्धियों ने जीवन को भले ही आरामदायक बना दिया हो, लेकिन यह आराम प्रकृति की अनगिनत शहादतों की नींव पर खड़ा हुआ है। जंगलों की नीलाभ धुंध ऐसी ही किसी शहादत की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। इससे पहले कि नीलाभ धुंध या ब्लू हेज अपने प्राकृतिक सौंदर्य के अधिकार से वंचित हो, दो समानांतर दृष्टिकोणों को रखते हुए शोध व विचार करना अत्यावश्यक हो गया है। पहला वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जिसके तहत नीलाभ धुंध को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से प्रदूषित कर रहे कारकों का विस्तृत पता लगाना होगा। इसमें यह जानना बहुत जरुरी होगा कि क्या विविक्त कणों की बढ़ती मात्रा के कारण वन वितानों से उत्सर्जित वाष्पशील गैसों और यौगिकों की मात्रा बढ़ रही है अथवा उत्सर्जित गैसें वायुप्रदूषकों के साथ मिलकर नीलाभ धुंध को प्रदूषित करने के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे बहुत से शोध करने होंगे। दूसरा दृष्टिकोण सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर मानवीय जागरुकताओं को लेकर होना चाहिए, नहीं तो वह समय दूर नहीं जब भावी पीढि़यों को विशुद्ध नीलाभ धुंध की छटाओं से सराबोर वनों के नयनाभिराम दर्शन भी दुर्लभ हो जाएंगे और परिशुद्ध हवा को सांसों में लेने का एकमात्र सघन वनों का स्थान भी हमसे छिन जाएगा।
 
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