निपाह पर क्यों हैं सबकी निगाह...?
डॉ.मनीष मोहन गोरे
बर्ड फ्लू और हाइड्रोफोबिया मानव को पशु संपर्क से होने वाले पशुजनित या जूनोटिक रोग होते हैं, इनमें एक नाम और जुड़ गया है निपाह वायरस। बढ़ती मानव आबादी, द्रुत गति से पनपते शहर, इसके फलस्वरूप पशु-पक्षियों के उजड़ते प्राकृतिक आवास, पर्यावरण प्रदूषण, अपर्याप्त स्वच्छता, बदलती पर्यावरण दशाएं, पशु संबंधी व्यापार और मानव पशु के बीच बढ़ते संपर्क इन बीमारियों के कुछ प्रमुख कारण होते हैं। इसी पृष्ठभूमि में विकासशील देशों में जूनोटिक रोगों की समस्या प्रबल होती जा रही है और इसका बोझ विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में कई गुना अधिक है।
निपाह वायरस (छपट) उभरते हुए जूनोटिक या पशुजनित रोग का एक प्रासंगिक उदाहरण है जिसकी कुछ घटनाएं कोझिकोड (केरल) में पिछले महीने सामने आईं और जनमानस में चर्चा का विषय बनी हैं। वायरस या विषाणु दरअसल जीव और निर्जीव दोनों के ही लक्षण प्रकट करता है और वैज्ञानिकों के लिए आज भी यह एक पहेली बना हुआ है। जब ये किसी जीवधारी की कोशिका में प्रवेश करता है तो उसमें पहुँचकर सजीव के समान प्रजनन आरम्भ कर देता है लेकिन निर्जीव निकाय में कोई प्रजनन या जीवन के लक्षण प्रकट नहीं करता। संभवतः सजीवों के विकास की आरंभिक प्राकृतिक प्रक्रियाओं के दौरान वायरस उनके पूर्वज रहे, इस वजह से वायरस को वैज्ञानिक सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी मानते हैं।
निपाह वायरस का स्यापा
निपाह वायरस पिछले करीब दो दशकों के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में उभरने वाला एक संक्रामक रोग है। इस वायरस को यह विशेष नाम मलेशिया के गांव के कारण दिया गया है जहां इसका प्रकोप सबसे पहले १९९८ में दुनिया के सामने आया था। यह वायरस हेनिपा वायरस वंश का एक सदस्य है। इस वंश में केवल दो वायरसों को वैज्ञानिकों ने खोजा है और निपाह के अलावा दूसरे वायरस का नाम हेंड्रा है। वायरस और बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीव प्रकृति में स्वच्छन्द रूप से रहते हैं या फिर किसी जीव के शरीर में वास करते हैं। निपाह वायरस का प्राकृतिक वास टेरोपस वंश के चमगादड़ होते हैं। अब ये चमगादड़ जिस पर्यावरण में रहते हैं, जो कुछ खाते हैं, जहाँ मल-मूत्र त्याग करते हैं, उनके संपर्क में आने वाले पशु-पक्षी या मनुष्य को निपाह वायरस का संक्रमण हो जाता है। मलेशिया में इन चमगादड़ों के वैज्ञानिक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि जिन फलों का कुछ हिस्सा खाकर उन्होंने छोड़ दिया, उनमें और चमगादड़ के मल-मूत्र के नमूनों में निपाह वायरस पाए गए हैं। जिन मनुष्यों ने जाने अनजाने में उन फलों को खा लिया या संक्रमित चमगादड़, उसके मल-मूत्र के संपर्क में आए, उनके मस्तिष्क और मेरुरज्जू द्रव में यह वायरस मौजूद पाया गया। चमगादड़ों के अलावा सुअर में भी निपाह वायरस पाए जाते हैं। मलेशिया में इस संक्रामक वायरस के प्रकोप में इन दोनों प्राणियों की भूमिका थी। कुत्ते, बिल्ली और घोड़े में भी निपाह वायरस की पुष्टि होना शेष है। वैसे तो चमगादड़ एक स्तनधारी प्राणी है, मगर यह पक्षियों की तरह प्रवास यात्राएँ करता है जिसके कारण निपाह वायरस से संक्रमित चमगादड़ उड़कर जहाँ तक पहुँचता है, वहाँ के पर्यावरण में इस वायरस को पहुँचा देता है। दक्षिण पूर्व एशिया के बांग्लादेश, कंबोडिया, थाइलैंड और भारत जैसे प्रभावित देशों में यह इसी तरीके से अपने पाँव पसार रहा है। समग्रता में देखा जाए तो १९९८ से लेकर अभी तक इस वायरस ने ६०० से अधिक लोगों को अपनी चपेट में लिया है और इस वायरस के संक्रमण से मरने वाले व्यक्तियों की संख्या २६० से अधिक दर्ज की गई है। साथ ही इस वायरस के प्रकोप में जंतु से मनुष्य और मनुष्य से मनुष्य दोनों ही प्रकार के संक्रमण की पुष्टि हुई है। इस वायरस संबंधी संक्रमण के मनुष्यों में जो प्रमुख लक्षण प्रकट होते हैं, वे हैं बुखार, चक्कर आना, सिर दर्द और उल्टी। इस संक्रमण में इंसेफेलाइटीस के समान लक्षण भी प्रकट होते हैं।
मलेशिया, बांग्लादेश से होता हुआ भारत पहुँचा निपाह वायरस
विश्व में निपाह वायरस के संक्रमण की पहली घटना १९९८ में मलेशिया में दर्ज की गई थी। वहाँ सितंबर १९९८ से लेकर मई १९९९ तक ९ महीनों की अवधि के दौरान असंख्य मनुष्य इस वायरस की चपेट में आए। उसी दौरान मलेशिया जापानी इंसेफेलाइटीस का प्रकोप झेल रहा था और चूंकि निपाह वायरस के संक्रमण में भी इंसेफेलाइटीस जैसे लक्षण प्रकट होते हैं, इसलिए आरंभ में इस निपाह संक्रमण को भूलवश जापानी इंसेफेलाइटीस ही मान लिया गया। उस ९ महीने की अवधि में निपाह संक्रमण से प्रभावित कुल २६५ लोगों में से १०५ लोगों की अकाल मृत्यु हो गई। उत्तरी कुआलालंपुर से लगभग २०० किलोमीटर दूर किन्ता जिले के ईपोह इलाके के सुअर पालकों में निपाह का प्रकोप शुरू हुआ। यहाँ से इसका संक्रमण आस पास के सुअर पालन क्षेत्रों में तेजी से फैल गया। मलेशिया के कामपुंग सुगई निपाह गाँव से जब इस वायरस को पहली बार पृथक किया गया तो इसका नाम इस गाँव के नाम पर निपाह वायरस रख दिया गया।
जैसा पहले चर्चा की गई है कि मलेशिया की सुअर आबादी में संक्रामक रोगों का मुख्य जिम्मेदार यह निपाह वायरस था परंतु क्लिनिकल लक्षण अन्य वायरसजनित संक्रामक रोगों से अलग नहीं थे। इसलिए यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि वास्तव में कौन सा वायरस जिम्मेदार है। साल १९९९ में सिंगापुर के बूचड़खाने में काम करने वाले लोगों को उन सूअरों से एक संक्रामक रोग हुआ जिन्हें मलेशिया से लाया गया था। वहीं दूसरी तरफ भारत में निपाह वायरस का मनुष्यों में संक्रमण दो बार दर्ज किया गया और ये दोनों मामले पश्चिम बंगाल के थे। पहला २००१ में सिलीगुड़ी में और दूसरा २००७ में नादिया में। इन दोनों मामलों में निपाह वायरस का संक्रमण सुअर से मनुष्यों को नहीं हुआ था। २००७ के प्रकोप में एक पीडि़त मरीज के घर के ठीक सामने मौजूद पेड़ों पर चमगादड़ों का झुण्ड रहता था। इन दोनों मामलों से कुल ७१ व्यक्ति प्रभावित हुए और उनमें से ५० लोगों की मृत्यु हो गई। इस तरह पाया गया कि मलेशिया में तो निपाह वायरस मनुष्यों में सुअरों से पहुँचा मगर बांग्लादेश और भारत में यह वायरस चमगादड़ों के माध्यम से दाखिल हुआ। मलेशिया में १९९९ के बाद इस वायरस के संक्रमण में एक तरह से ठहराव सा आ गया। लेकिन भारत में इसका संक्रमण २००१ और २००७ के बाद इस वर्ष २०१८ में तीसरी बार हुआ है परंतु बांग्लादेश में २००१ से २०१३ के दौरान इसका संक्रमण अनगिनत बार हुआ है। हालांकि मलेशिया में निपाह संक्रमण के वाहक सुअर और चमगादड़ ही थे। मगर बांग्लादेश में इसका वाहक केवल चमगादड़ ही था। इसलिए वैज्ञानिकों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि बांग्लादेश में निपाह का मनुष्यों में संक्रमण चमगादड़ के सीधे संपर्क या चमगादड़ से संदूषित पदार्थों के संपर्क में आने से हुआ। २००४ में बांग्लादेश में इस संक्रमण के दौरान मनुष्य से मनुष्य के बीच संक्रमण ने भी अहम भूमिका निभाई थी। चूंकि पश्चिम बंगाल की भौगोलिक विशेषताएं बांग्लादेश के समान हैं इसलिए यहाँ पर निपाह के संक्रमण में पर्यावरणीय परिस्थितियों की समानता जिम्मेदार रहीं। यही वजह है कि २००१ में सिलीगुड़ी में निपाह संक्रमण की महामारी संबंधी विशेषताएं बांग्लादेश के पिछले वर्षों के संक्रमण से मेल खाती हैं। निपाह वायरस के आनुवंशिक पदार्थों और वायरस स्ट्रेनों के विश्लेषण से इस बात का खुलासा हुआ है कि बांग्लादेश के निपाह वायरस मलेशिया प्रकोप से पृथक किये गए वायरस से निकट समानता प्रकट कर रहे थे। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि इन विषाणुओं के स्ट्रेन प्रकृति में साथ-साथ विकसित हुए हैं।
चांग और उनके सहयोगी शोधकर्ताओं ने निपाह वायरस के संबंध में शोध के बाद पाया कि यह वायरस चमगादड़ से मनुष्यों और संक्रमित मनुष्य से अन्य मनुष्यों के बीच संचरित हो सकता है। एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्सों में चमगादड़ों के १० वंश तथा २३ प्रजातियों में इस वायरस की मौजूदगी पाई गई। दरअसल चमगादड़ उड़कर दूर-दूर तक चले जाते हैं और इनका व्यापक समाज होता है, इसलिए इनमें किसी रोगाणु का संचरण तेजी से हो जाता है।
निपाह वायरस का संक्रमण
निपाह पैरामिक्सोविरीडी वायरस कुल के उपकुल पैरामिक्सोविरिनी से संबंधित होता है जिसके पाँच वंश अभी तक पहचाने गए हैं रेस्पाइरो, मोर्बिलाई, रुबुला, एवुला और हेनिपावायरस। हेनिपावायरस वंश में दो प्रमुख रोगकारक वायरस पाए जाते हैं हेंड्रा और निपाह जो कि मनुष्यों में रोग को जन्म देते हैं। हेंड्रा वायरस का १९९४ में और निपाह को १९९८ (मलेशिया) में पता लगाया गया था।
स्वास्थ्यकर्मियों के द्वारा अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि मनुष्यों में निपाह वायरस के संक्रमण के लिए मुख्य जिम्मेदार सुअर या सुअर उत्पादों से सीधा संपर्क था। मलेशिया में संक्रमित सुअरों के मूत्र, लार जैसे उत्सर्जनों के संपर्क में आने से स्वस्थ सुअर भी निपाह वायरस की चपेट में आ गए थे। ऐसे संक्रमित सुअरों की पहचान कर उन्हें स्वस्थ आबादी से दूर करके निपाह संक्रमण को समाप्त किया जा सकता है। हमने देखा कि भारत में चमगादड़ निपाह के संचरण में वाहक की भूमिका निभाते हैं। चमगादड़ अक्सर खजूर के वृक्ष (डेट पाम) का रस पीते हैं और जो चमगादड़ निपाह वायरस से संक्रमित हो जाते हैं, वे यह रस पीते या इसका फल खाते समय अपने लार में मौजूद वायरस को खजूर के फल या उसके रस में छोड़ देते हैं। अब ये खजूर जब बाजार में पहुँचते हैं और जो व्यक्ति इसे खाता है, उस तक यह वायरस पहुँच जाता है।
निदान और नियंत्रण
सुअर में सांस से संबंधित परेशानी और लक्षण उनके निपाह वायरस से संक्रमित होने के लक्षण के रूप में सामने आते हैं। इसे पोर्सिन रेस्पिरेटरी और न्यूरोलाजिक सिंड्रोम या बार्किंग पिग सिंड्रोम के नामों से भी जाना जाता है। मनुष्य में यदि निपाह का संक्रमण है तो उसमें बुखार और मांसपेशियों में दर्द होता है जो कि इंफ्लुएंजा के लक्षणों से समानता प्रकट करता है। कुछ मामलों में तो मस्तिष्क में गर्मी के लक्षण भी सामने आते हैं। कुछ मरीज कोमा में भी चले जाते हैं। इन तमाम लक्षणों के दरम्यान पीडि़त व्यक्ति में इंसेफेलाइटीस के लक्षण भी प्रकट होते हैं।
प्रयोगशाला में निपाह वायरस संक्रमण की जाँच के लिए सीरोलाजी, हिस्टोपैथोलाजी, पीसीआर और वायरस आइसोलेशन की प्रक्रियाएं की जाती हैं तथा संक्रमण की पुष्टि के लिए सीरम न्यूट्रलाइजेशन परीक्षण, एलिजा, आरटी-पीसीआर जैसी वैज्ञानिक प्रक्रियाएं पूरी की जाती हैं। दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश देशों में निपाह वायरस की पहचान और निदान के लिए पर्याप्त सुविधाएं मौजूद नहीं हैं। बांग्लादेश, भारत और थाइलैंड में इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक प्रयोगशाला सामर्थ्य का विकास किया गया है। भारत में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन कार्यरत भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने निपाह वायरस के प्रकोप संबंधी रोग निदान हेतु आवश्यक अनुसंधान किए हैं।
निपाह वायरस को अंतर्राष्ट्रीय तौर पर जैव सुरक्षा के चौथे स्तर (बीएसएल ४) के एजेंट के रूप में वर्गीकृत किया गया है। निपाह वायरस के नमूनों को एकत्र करने के दौरान अगर जैव सुरक्षा के दूसरे स्तर (बीएसएल २) की सुविधाएं मौजूद हों तो इस वायरस को निष्क्रिय किया जाना संभव है। वैसे वर्तमान समय में निपाह वायरस संक्रमण के लिए कोई कारगर और प्रभावशाली उपचार नहीं है। रिबावारिन एक एंटी वायरल ड्रग है जो निपाह वायरस संक्रमण में उपचार के लिए प्रयोग की जाती है। केरल सरकार ने निपाह के संकट से निपटने के लिए रिबावारिन के दो हजार टैबलेट खरीदे हैं और आगे के लिए इसके मरीजों में वितरण हेतु आठ हजार टैबलेट खरीदने की प्रक्रिया अभी जारी है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि यह दवा चूंकि एक शेड्यूल्ड दवा है। मिचली, उल्टी और पेट में मरोड़ जैसी सामान्य शारीरिक परेशानियों के अलावा यह दवा गुर्दे और हृदय जैसे महत्वपूर्ण अंगों पर अनेक साइड इफेक्ट उत्पन्न करती है। इसलिए इसका सेवन चिकित्सकीय परामर्श और गहन मेडिकल परीक्षण के बाद ही किया जाना श्रेयस्कर है। निपाह संक्रमण से पीडि़त व्यक्ति के उपचार के दौरान चिकित्सकों के द्वारा अधिकांश तौर पर बुखार और तंत्रिका संबंधी लक्षणों के प्रबंधन पर जोर दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति इस संक्रमण से बुरी तरह पीडि़त है तो उसे तत्काल अस्पताल में भर्ती कर अनुभवी चिकित्सक की देख-रेख में इलाज कराना उचित होता है।
निपाह वायरस के संक्रमण और प्रकोपों में अक्सर देखने में आता है कि पीडि़त व्यक्ति की स्वास्थ्य देखभाल के दौरान स्वास्थ्यकर्मी को इस वायरस का संक्रमण हो जाता है। यह संक्रमण लार, खून, मूत्र और दूसरे किसी ऊतक के सम्पर्क से होता है। इसलिए ऐसे में उपचार और स्वास्थ्य देखभाल के मानक दिशा निर्देशों और सावधानियों का पालन किया जाना बेहद जरूरी हो जाता है। निपाह वायरस संक्रमण और इसके प्रकोप की नियंत्रण युक्तियों को शीघ्रता से अपनाकर इससे होने वाली रुग्णता व रोग से होने वाली मृत्यु पर काबू पाया जाना संभव है। संक्रमण फैलाने वाले जंतुओं पर निगरानी रखकर, नियंत्रणकारी अनुसन्धान को प्रोत्साहन देकर और प्रभावित देशों के बीच संस्थागत सहयोग को बढ़ावा देकर इस संक्रमण पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इन प्रयासों के साथ-साथ आम आदमी को खानपान और व्यक्तिगत स्वच्छता को लेकर शिक्षित करना निपाह वायरस के बारे में जागरूकता लाना भी आवश्यक है।
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