विज्ञान लोकप्रियकरण हेतु हमें एक साथ काम करना होगा
डॉ.संदीपन धर से डॉ.मनीष मोहन गोरे की बातचीत
एक शख्स को अपने विद्यार्थी जीवन में विज्ञान लोकप्रियकरण की प्रेरणा मिली और उसके प्रेरणा स्रोत और कोई नहीं बल्कि भारतीय विज्ञान संचार के दो चमकते तारे प्रोफेसर यश पाल तथा डॉ.जयंत विष्णु नार्लीकर रहे। इस शख्स ने वैसे तो खगोल-भौतिकी जैसे गूढ़ वैज्ञानिक क्षेत्र में शोध कार्य किया मगर विज्ञान संचार को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। वे पिछले तीन दशकों से विज्ञान की जन समझ को बच्चों और आमजन में पुख्ता करने में अनवरत जुटे हुए हैं। इनका नाम है डॉ.संदीपन धर। डॉ। धर का सपना है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रोत्साहन के लिए सार्क देशों की सीमा के भीतर एक साइकिल रैली निकाली जाए। हम ‘इलेक्ट्रानिकी आपके लिए’ के पाठकों से डॉ.धर के साथ विज्ञान संचार से जुड़े अनेक समसामयिक मुद्दों पर डॉ.मनीष मोहन गोरे के साथ हुई विशेष बातचीत को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
आप मूलतः एक खगोल-भौतिक विज्ञानी हैं। आपने खगोलिकी और खगोल-भौतिक विज्ञान के अग्रणी राष्ट्रीय केंद्र आयूका से पी-एचडी। की। अपने अध्ययन और शोध क्षेत्र के बारे में ‘इलेक्ट्रानिकी आपके लिए’ के पाठकों को कुछ बताएं।
आपने मेरी पुरानी यादों को ताजा कर दिया। वास्तव में, आयूका में अध्ययन करना मेरे जीवन का यादगार समय रहा है। मेरे मन में वहाँ की इतनी ढेर सारी स्मृतियां हैं कि उन्हें बयां करना बहुत कठिन हो जाता है। जब यह सूचना मिली कि मुझे आयूका के तत्कालीन निदेशक प्रो.जयंत विष्णु नार्लीकर के मार्गदर्शन में पी-एचडी। करने का अवसर प्राप्त हुआ है, तो मैं खुशी से आनंद विभोर हो गया। वहीं दूसरी ओर मुझे यह भय भी सताने लगा कि उस महान विद्वान के मार्गदर्शन में मैं अपना शोध कार्य पूरा भी कर पाऊँगा या नहीं। मेरे लिए ‘आयूका’ उच्च शिक्षा के लिए एक तीर्थ स्थान के समान है! और यहाँ सभी खगोल-भौतिकी प्रेमियों को अवश्य जाना चाहिए। मेरे शोध का विषय था ‘‘कास्मोलॉजी और क्वांटम इलेक्ट्रोडायनामिक्स’’।
आयूका से पी-एचडी। पूरी करने के बाद आपके पास अनुसंधान और अध्यापन के क्षेत्रों में अनेक अच्छे अवसर अवश्य रहे होंगे। क्या उन दिशाओं में जाने के लिए आपने प्रयास नहीं किया? आयूका से अपना शोध पूरा करने के बाद आपने किस ओर कदम बढाए?
यद्यपि मैं इस बात का उल्लेख हमेशा करता हूँ कि अध्यापन एक अत्यंत गरिमापूर्ण व्यवसाय होता है, परंतु मेरी स्नातकोत्तर उपाधि मिलने के बाद मैंने सरकारी सेवा शुरू कर दी। इसलिए मेरी पी-एचडी। पूरी करने के बाद मैंने अनुंसधान या अध्यापन को अपना पेशा बनाने के बारे में कभी नहीं सोचा। हालांकि सेंट स्टीफेंस (नई दिल्ली) में पढाई करने के दौरान अपने कॉलेज के दिनों से ही मैं विज्ञान संचार गतिविधियों में शामिल होने लगा था। लेकिन आयूका पहुँचने और महान भारतीय खगोल-भौतिकविद नार्लीकर के सानिध्य में आने के बाद विज्ञान संचार की ओर मेरा रुझान पहले से ज्यादा बढ गया। आयूका की आउटरीच गतिविधियों में भी मैं बढ-चढ़कर हिस्सा लेता था।
आपका झुकाव विज्ञान संचार की ओर कैसे हुआ? यह बात सर्वज्ञात है कि प्रो.जे.वी। नार्लीकर, जिनके मार्गदर्शन में आपने अपना शोध कार्य किया, वे देश के एक जाने-माने विज्ञान संचारक हैं। नार्लीकर भी अपने गुरु हायल के विज्ञान लोकप्रियकरण गतिविधियों से प्रभावित हुए थे। आप अपने अनुभव हमारे पाठकों से कृपया साझा करें।
यह कहानी आज से 32 साल पहले साल 1985 की है जब मैं दिल्ली स्थित सेंट स्टीफेंस कॉलेज के विज्ञान क्लब का सदस्य था और हमने देश के प्रख्यात वैज्ञानिक और विज्ञान संचारक प्रो। यश पाल को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस कार्यक्रम में व्याख्यान हेतु आमंत्रित किया था। वह तब विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के सचिव थे। व्याख्यान के दौरान उनकी बातों ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने विज्ञान संचार को अपने जीवन का मिशन बना लिया। निश्चित रूप से आयूका में मेरे शोध के दौरान प्रो। नार्लीकर के सानिध्य ने भी विज्ञान संचार के प्रति मुझमें नई प्रेरणा तथा ऊर्जा भरने का काम किया। उन्होंने मुझे ज्योतिषशास्त्र की गलत अवधारणाओं को लेकर जागरूक भी बनाया।
विज्ञान संचार के इस विरल और विशिष्ट क्षेत्र में आपके प्रेरणा स्रोत कौन रहे हैं?
जैसा मैंने पहले बताया कि प्रो। यश पाल विज्ञान संचार के क्षेत्र में मेरे प्रेरणा स्रोत रहे हैं और मैं तो उन्हें अपना गुरु कहता हूँ। लेकिन मैं इस दिशा में अपने कुछ और मार्गदर्शकों और शिक्षकों का नामोल्लेख करना चाहूँगा। इनमें प्रो.जे.वी.नार्लीकर, डॉ.नरेंद्र कुमार सहगल (पूर्व प्रमुख एनसीएसटीसी, डीएसटी, भारत सरकार), डॉ। मधु फुल्ल (पूर्व वैज्ञानिक-जी, एनसीएसटीसी, डीएसटी, भारत सरकार) और डॉ। विनय बी.कांबले (पूर्व वैज्ञानिक, एनसीएसटीसी, डीएसटी, भारत सरकार एवं पूर्व निदेशक, विज्ञान प्रसार) प्रमुख हैं।
प्रो. यश पाल और प्रो। नार्लीकर की प्रेरणा के अलावा विज्ञान जत्था जैसे विज्ञान संचार आन्दोलनों का आपके व्यक्तित्व और सोच पर क्या कुछ असर हुआ? आपके विचार से इन विज्ञान जत्थों के क्या नतीजे सामने आये?
प्रो। यश पाल एक ऐसा व्यक्तित्व था जिसने राष्ट्र के निर्माण में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। मुझे याद है कि साल 1987 में एनसीएसटीसी द्वारा आयोजित भारत जन विज्ञान जत्था के एक विचार मंथन में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। 2 अक्टूबर को आरंभ हुआ यह जत्था 7 नवंबर को सर सी.वी। रामन के जन्मदिवस के दिन पूरा हुआ था। इस जत्था में हमने 25000 किलोमीटर की यात्रा की और करीब 525 नगरों और गाँवों का भ्रमण किया था। इस अभियान ने लोगों के सोचने समझने के तरीके में क्रांतिकारी बदलाव लाये और सदियों पुराने अंधविश्वासों से संघर्ष करने की ताकत उन्हें मिली। 1980 के आरंभ में जब भारत के उत्तरी हिस्से में पूर्ण सूर्य ग्रहण की घटना हुई तब दूरदर्शन को बार-बार यह चेतावनी प्रसारित करनी पड़ी कि लोगों को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। इस दिन अधिकांश शहरों और गांवों में कर्फ्यू जैसी स्थिति हो गई थी। लेकिन 1995 के पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान बहुत कुछ बदलाव आ गया था। इसके पीछे जन विज्ञान जत्था आंदोलन की अहम भूमिका रही थी। 1987 और 1991 के विज्ञान जत्थों का इस दिशा में बड़ा योगदान था।
विज्ञान जत्था के एक सदस्य रहते हुए क्या विशेष सबक आपको सीखने को मिले?
विज्ञान जत्था के सदस्य के रूप में और डॉ। विनोद रैना, डॉ.एम.पी। परमेश्वरन जैसे महान विज्ञान संचारकों के साथ काम करते हुए तथा प्रोफेसर यश पाल एवं डॉ.नरेंद्र सहगल के समान अद्भुत विज्ञान संचारकों का मार्गदर्शन मिलने से मुझे दरअसल समाज में एक विज्ञान संचारक की भूमिका समझ में आई। इसके अलावा मुझे देश के विभिन्न हिस्सों की जलवायु दशाओं में परिवर्तन के कारण अलग-अलग स्थान की खाद्य संबंधी आदतों से भी मेरा परिचय हुआ।
बच्चों और आमजन को विज्ञान समझाते हुए आपकी खगोल-भौतिकी की पढ़ाई किस तरह काम आती है?
अपने देश के बच्चों और आमजन के बीच विज्ञान संचार करते समय मैं ग्रहण और ज्योतिषशास्त्र को लेकर उनकी निर्मूल धारणाओं का खंडन करने की कोशिश करता हूँ। ऐसा करना मेरे लिए आसान होता है क्योंकि मैं एक खगोल-भौतिकी का विद्यार्थी रहा हूँ। बाल विज्ञान कांग्रेस (सीएससी) के साथ आपका गहरा जुड़ाव रहा है।
2007 से लेकर 2011 के दौरान आप सीएससी के राष्ट्रीय समन्वयक भी रहे हैं। इस मोर्चे पर आपके क्या अनुभव रहे?
मैं पुनः डॉ.नरेंद्र कुमार सहगल का आभारी हूँ कि उन्होंने बाल विज्ञान कांग्रेस की 1993 में स्थापना के समय से मुझे इस कार्यक्रम से जुड़ने का अवसर दिया। अगर मैं अपने मन की बात और अपने अनुभव को साझा करूं तो यह कार्यक्रम ना सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए अनोखा है, जिसके अंतर्गत 10 से 17 वर्ष की उम्र के बच्चों को अपनी सृजनशीलता अभिव्यक्त करने का स्वतंत्र अवसर प्रदान किया जाता है।
सीएससी की अवधारणा और लक्ष्यों के बारे में कुछ बताएं।
बाल विज्ञान कांग्रेस (सीएससी) का प्राथमिक उद्देश्य 10 से 17 वर्ष की उम्र के स्कूली और स्कूल के बाहर वाले बच्चों को सृजनात्मकता तथा नवाचार प्रदर्शित करने का एक मंच उपलब्ध कराना है। सीएससी बच्चों को सामाजिक समस्याओं के कारण ढूंढने और उनके समाधान के लिए प्रेरित करता है। संक्षेप में अगर कहें तो सीएससी बच्चों में खोज की भावना को प्रोत्साहित करता है। यह आयोजन बच्चों को विकास के अनेक पहलुओं पर सवाल करने और अपने विचारोंध्निष्कर्षों को अपने क्षेत्रीय भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करता है।
अगर विज्ञान शिक्षकों को विज्ञान संचार का औपचारिक प्रशिक्षण दिया जाए तो आपकी दृष्टि में इसके क्या निष्कर्ष होंगे?
यहाँ पर मैं विश्व के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन की कही बात को उद्धृत करना चाहूँगा ‘‘अध्यापक के पास यह एक अद्भुत कला होती है जिसके द्वारा वह विद्यार्थियों को ज्ञान बांटते हुए रचनात्मक अभिव्यक्ति में आनंद उत्पन्न करता है’’। इसलिए मेरा मानना है कि अगर स्कूली स्तर के विज्ञान अध्यापकों को विज्ञान संचार का प्रशिक्षण दिया जाए तो वे बच्चों को भविष्य का वैज्ञानिक और विज्ञान सम्मत नागरिक बनाने में सफल होंगे। इसके फलस्वरूप समाज को भी लाभ मिलेगा।
वैज्ञानिक और शिक्षक विज्ञान की जनसमझ और जनग्राह्यता को बढ़ाने के लिए विज्ञान लोकप्रियकरण या विज्ञान के संचार में रुचि नहीं लेते। यह प्रवृत्ति केवल हमारे देश में नहीं अपितु दुनिया के अनेक देशों की है। अगर वैज्ञानिक शोध और अध्ययन अच्छे काम माने जाते हैं तो कैसे विज्ञान संचार को बेकार और मामूली करार दिया जा सकता है? इस बारे में आपके क्या ख्याल हैं?
सच कहें तो विज्ञान संचार को अकादमिक जगत ने कभी तवज्जो नहीं दिया है, लेकिन धीरे-धीरे बदलाव आने लगा है और शिक्षाविद, वैज्ञानिक तथा नीति-निर्माता इसके महत्व को महसूस करने लगे हैं। मेरा मानना है कि हमें एक साथ काम करना चाहिए ताकि विज्ञान संचार को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जा सके। ऐसा होने के बाद ही इसके महत्व को हर कोई महसूस करेगा। पूर्व में जब नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 में विज्ञान संचार को अहमियत देते हुए पर्यावरण अध्ययन को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया गया तो इस दिशा में यह एक बड़ा कदम था। इससे बच्चे पर्यावरण को लेकर संजीदा बनते हैं।
साई-कनेक्ट विज्ञान प्रसार द्वारा शुरू किया गया एक महत्वपूर्ण विज्ञान संचार कार्यक्रम है। आप इस कार्यक्रम के आरंभ से इसका एक अभिन्न हिस्सा रहे हैं। इस कार्यक्रम के मूल विचार और उद्देश्यों के बारे में आप हमारे पाठकों को बताएं। साई-कनेक्ट के उत्तर पूर्वी भारत के बच्चों पर किस तरह के प्रभाव की आप कल्पना करते हैं?
साई-कनेक्ट भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के 8 और 9 कक्षा के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर बनाया गया एक अनोखा कार्यक्रम है। यह तीन चरणों का एक विशेष कार्यक्रम है जिसके पहले चरण में लिखित परीक्षा होती है। दूसरा चरण अलग-अलग राज्यों में तीन दिनों तक चलता है जिसमें पहले चरण में चयनित बच्चे अपने-अपने राज्यों से आते हैं और उन्हें भौतिकी, रसायन, भूकंप, जैवविविधता विषयों में हैंड्स ऑन गतिविधियाँ कराई जाती हैं। इसी चरण में लाइव क्विज भी कराया जाता है। तीसरे चरण में प्रख्यात वैज्ञानिकों के साथ संवाद के साथ क्षेत्रीय स्तर पर लाइव क्विज प्रतियोगिता कराई जाती है। इस कार्यक्रम का मुख्य मकसद उत्तर पूर्व की बाल प्रतिभाओं को विज्ञान की ओर बढने के लिए परवरिश करना है। इसके अंतर्गत उच्च प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक के बच्चों को दैनिक जीवन में विज्ञान की उपयोगिता के प्रति संवेदनशील बनाना है। इस प्रक्रिया से बच्चे बचपन से विज्ञान विधि को अपने जीवन में उतारने लगते हैं। सुदूर अंचलों के बच्चों की प्रतिभाओं और नवाचारी विचारों को भी यह कार्यक्रम एक मंच प्रदान करता है। इस कार्यक्रम के पूरा होने के बाद प्रतिभागी बच्चे निश्चित रूप से विज्ञान में पहले से ज्यादा दिलचस्पी लेंगे और अपने दैनिक जीवन में विज्ञान के नियमों को उपयोग में लाने के लिए प्रेरित होंगे।
विज्ञान संचार के क्षेत्र में आपका व्यापक अनुभव है। ज्ञान की इस धारा को अनेक संस्थाओं और व्यक्तियों ने अपने योगदान से समृद्ध बनाया है। क्या आपके मन में विज्ञान संचार को लेकर कोई ऐसा खास विचार है जो भारतीय परिश्य में उपयुक्त और सुगम्य हो?
हालांकि विज्ञान संचार के क्षेत्र में हमारे देश में बहुत कुछ किया गया है लेकिन अभी भी गुणवत्ता और परिमाण दोनों लिहाज से विज्ञान संचार गतिविधियों को और अधिक प्रभावशाली बनाये जाने की जरूरत है। हमें अपने समाज और देश से अंधविश्वास को जड़ से मिटाने के लिए अभी अनेक प्रयास करना शेष है। आज भी जनजातियों में जहाँ पर साक्षरता स्तर नगण्य है और इसलिए वे अंधविश्वास को अपने जीवन का मार्गदर्शक मानते हैं। इसके अलावा आमजन भी व्यापक तौर पर आज विज्ञान के सामान्य सिद्धांतों से अनभिज्ञ है। जैसे इस वैज्ञानिक सत्य कि पृथ्वी सहित हमारे सौरमंडल के बाकी 7 ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं, को नहीं जानते। पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति के आगाज़ के बाद विज्ञान संचार गतिविधियों में इजाफा देखने को मिला। कुछ हद तक आज का भारत उसी प्रकार की दशाओं से गुजर रहा है। जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी का विकास होता है, वैसे-वैसे वैज्ञानिक जानकारी में वृद्धि होती है। इसी आधार पर आज का औद्योगिक भारत बहुत जल्द विज्ञान संचार और लोकप्रियकरण (विज्ञान की जनग्राह्यता) में इजाफे का गवाह बनेगा। वास्तव में, सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग की कामयाबी भारत में बढती वैज्ञानिक जागरूकता का प्रमाण है। हमें इसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।
विज्ञान संचारक का अपने जीवन के दौरान और जीवन के अंतिम दिन तक क्या भूमिका होनी चाहिए? इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
मेरा मानना है कि हर किसी को दूसरों से हमेशा सीखना चाहिए और यही गुण एक अच्छे विज्ञान संचारक होने के लिए जरूरी होता है। दूसरी बात जिसे मैं हमेशा दोहराता हूँ हर एक विज्ञान संचारक या विज्ञान लेखक को अपना जीवन विज्ञान संचार के लिए समर्पित कर देना चाहिए। इसके आगे जीवन के बाद विज्ञान शिक्षा अध्ययन में बेहतरी के खातिर स्वयं को समर्पित कर देने में भी कोई बुराई नहीं है। इसकी प्रेरणा मुझे मेरे माता-पिता से मिली है जिन्होंने मृत्यु के बाद अपने शरीर चिकित्सीय शिक्षण उपयोग हेतु दे दिया था।
भारत के नवांकुर विज्ञान संचारकों और लेखकों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
नये उभरते हुए विज्ञान संचारकों से मैं यही कहूँगा कि जितना हो सके वे अध्ययन करें और उसके बाद या उसके साथ-साथ अपने मन के विचारों को अभिव्यक्त करना शुरू कर दें। ये विचार इन स्वरूपों में हो सकते हैं-
- आमजन में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लोकप्रिय बनाना।
- मिथकों और अंधविशावासों के विपरीत आमजन की राय बनाना।
- साथी संचारकों और लेखकों का एक नेटवर्क स्थापित करना।
- विज्ञान पत्रकारिता, विज्ञान लेखन और विज्ञान संचार जैसे क्षेत्रों में शिक्षा को बढ़ावा देना तथा उसका समन्वय करना।
इस सार्थक संवाद के लिए आपको ‘इलेक्ट्रानिकी आपके लिए’ परिवार और मेरी तरफ से हार्दिक धन्यवाद !
आपको और ‘इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए’ परिवार को भी मेरी ओर से धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।
mmgore1981@gmail.com
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