भारत निर्माण यात्रा में विज्ञान और परंपरा
राग तेलंग
भारत में वैज्ञानिक अध्ययन एवं चिंतन की अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली परंपरा रही है। विश्व को शून्य से हमने ही परिचित कराया। वैदिक काल से ही भारतीय मेधा ने सृष्टि और जीवन के हर विषय पर मूल अवधारणाओं और वैज्ञानिक परिकल्पनाओं पर विशद् काम किया और उसका शीर्षस्थ विकास किया जिन्हें पश्चिमी जगत 16-17वीं शताब्दी के बाद ही खोज पाया। सातवीं-आठवी शताब्दी का भारतीय विज्ञान अपने शीर्ष स्वरूप में था। बाद में मध्यकाल में बाहरी आक्रमणों और लंबी दासता के दौर में हमारी विज्ञान की विकास यात्रा ज़रूर अवरुद्ध हुई। लेकिन आज़ाद भारत की प्रगति और विकास को उसकी विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में हुई तरक्की के आधार के साथ-साथ उसकी चिंतन और दर्शन की सुदीर्घ परम्परा को भी देखा जाना चाहिए।
पहले बात करें कि इतनी भौतिक तरक्की के बावजूद हमारा नज़रिया दिन-प्रतिदिन प्रतिगामी क्यों होता जा रहा है। रोज़ाना हम जिन चीज़ों और ख़बरों से दो-चार होते हैं वे अवैज्ञानिकता की चाशनी में लिपटी हुईं हमारे सामने आतीं हैं। उनका यही आकर्षण हमें दूसरे पक्ष की ओर से अनभिज्ञ रखता है। दरअसल अंधविश्वास से जकड़े हमारे समाज में अंधविश्वासों को बरकरार रखने के लिए अक्सर विज्ञान का सहारा लिया जाता रहा है और हम अपने दैनंदिन जीवन में इतने रहस्यवादी होते जा रहे हैं कि जानकारी बांटना तो दूर जानकारी पर रहस्य का ताला लगाने में हमें ज्यादा मजा आता है। हमारा मानस इतना वैयक्तिकतावादी है कि हमें रहस्यों के आवरण में लिपटी चीज़ें संभालकर रखने की आदत-सी पड़ी हुई है। इससे हमें लगता है कि हमारे व्यक्तित्व में चार चाँद लग जाएंगे और हम विशिष्ट हो जाएंगे। यह विशिष्टताबोध विज्ञान के लिए और विज्ञान प्रसार के लिए घातक है। आम जन और विज्ञान पसंद करने वालों से हम संकोच भरी नैतिक उम्मीद करते हैं कि विज्ञान को रहस्यलोक की ओर ले जाने वाला वाहन न मानकर रहस्यों से पर्दा उठाने वाला सेवक मान कर जीवन में आगे बढ़ें। दरअसरल सारे रहस्यों का रहस्य यह है कि कहीं कोई रहस्य नहीं है। चीजों- घटनाओं को हम ही बंद आंखों से, बंद दिमाग से, बंद दिल से देखते हैं। प्रकृति के साथ एकाकार हो जाने के बाद आप पाएंगे आपके भीतर से प्रकृति बोलने लगी है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों और आविष्कारकों की रचना प्रक्रिया ऐसी ही रही है। देखा जाए तो दैनिक जीवन में हम जो गणित अपनाते हैं उसमें हमें यह ध्यान ही नहीं रह पाता कि हम अत्यल्प संभावना वाली चीज़ों और घटनाओं को बहुत अधिक तूल दे देते हैं और उसी तथ्य या घटना से जुड़ी अधिकाधिक संभावनाओं की उपेक्षा कर देते हैं। ज़रा सोचिये ऐसा क्यों है? हमारे मस्तिष्क की बनावट कहें या बुनावट कुछ ऐसी है कि यह नई चीजों के लिए एकदम से तैयार नहीं होता। प्रतिरोध करता है। यह हिचक निश्चित ही उसकी रिफ्लेक्स एक्शन/प्रतिरक्षा प्रणाली से जुड़ी हो सकती है लेकिन मनुष्य के विकास में इसे बाधक के रूप में भी दर्ज किया जा सकता है। आप गौर करें तो यह हिचक तोड़ने के कारण ही चकमक पत्थर से दुनिया चमकीली हुई, आग को काबू में करना सीखा गया, पहिए का आविष्कार हुआ, मशीनी पंख बने और अंततः आज राकेट बनने तक की यात्रा पर हम आ पहुँचे। जिन्होंने हिचक-भय पर काबू पाया उन्होंने नायकों का दर्जा हासिल किया,इतिहास बनाया। ऐसा मानस जब एक बड़े समूह या समाज का हिस्सा बन जाता है तो निकृष्टतम परंपराओं,कर्मकांडों, रीतियों का पहिया उलट जाता है और नवोन्मेषी समाज की संरचना प्रारंभ होती है।
हम रेडियो-टीवी, स्मार्ट फोन, कंप्यूटर से चौबीसों घंटे घिरे हुए हैं। लेकिन अगर रेडियो तरंगों के आसमान पर विहंगम नज़र डालें तो साफ़ होगा कि संवाद के लिए ईजाद की गई तकनीकी ने अपने व्यावसायिक हितों की खातिर मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृत्ति का दोहन करना शुरू कर दिया है और अपना एक विशाल बाज़ार निर्मित कर लिया है। आपने गौर किया होगा कि संसार के मीडिया के विशाल साम्राज्य पर पश्चिम का ज़बरदस्त नियंत्रण है, इसी का सहारा लेकर पश्चिम से सोच-समझकर अवैज्ञानिक कंटेंट की जो हवा बहाई जाती है जिसे आप आधुनिक अंधविश्वास की संक्रामक हवा भी कह सकते हैं, तीसरी दुनिया की मौलिक खोज और वैज्ञानिक सोच की प्रगति में सोची-समझी बाधाएं खड़ी करती है और यही उस हवा का एक उद्देश्य भी है जो पश्चिम की विज्ञान और तकनीक की तरक्की की रफ़्तार बढाती है।
प्राचीन भारत में ऋषियों,मुनियों, मनीषियों की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। वेद-पुराण उन्हीं की देन है, जिन्होंने ब्रह्मांड और प्रकृति का सूक्ष्म अध्ययन किया। तक्षशिला, नालंदा, पाटलीपुत्र, उज्ज्यनी, काशी आदि नगर प्राचीन भारत के विश्व प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र रहे। जिसमें चरक, धन्वन्तरि, सुश्रुत, अग्निवेश, नागार्जुन जैसे वैज्ञानिक ऋषियों ने ग्रहों, नक्षत्रों,ज्योतिष, गणित से लेकर वनस्पति, चिकित्सा, शल्य, औषधि, रसायन, खगोल आदि विभिन्न विषयों में अनुसंधान की सुव्यवस्थित और सुदृढ़ वैज्ञानिक प्रणाली को जन्म दिया। मेघातिथि ने जहाँ अंक गणना को विकसित किया, वहीं बोधायन ने ज्यामिति के प्रमेयों की परिकल्पना दी, चरक, सुश्रुत, धन्वन्तरि भारतीय चिकित्सा एवं शल्य पद्धति के जन्मदाता थे वहीं भारद्वाज आत्रेय, पुनर्वसु आदि का विमानन ,वनस्पति शास्त्र, मेडीसिन में महत्वपूर्ण योगदान था। इसी तरह नागार्जुन और कणाद ने पदार्थों की रचना के संबंध में अपनी मौलिक अवधारणाएं दीं। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, महावीराचार्य, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, श्रीधराचार्य आदि ने गणित व खगोलशास्त्र के रहस्य खोले।
हमारी भारतीय मेधा परंपरा को हम ही उपेक्षा की नज़र से देखते हैं। इस पर चिंता के साथ सोचने की जरूरत है। एक वरिष्ठ लेखक ने कहीं एक रोचक टिप्पणी की कि हमारी परंपरा में बहुतेरे वैज्ञानिक ग्रंथ संस्कृत में हैं। इनको डिकोड करने वाले विद्वानों की आज कमी है। आज स्थिति यह है कि जिन्हें संस्कृत का ज्ञान है, वे विज्ञान नहीं जानते और जिन्हें विज्ञान का ज्ञान है वे संस्कृत नहीं जानते। महर्षि अरविंद ने कहा है- हमारे वेदों में अनेक मंत्र हैं, पूरे के पूरे ऐसे सूक्त हैं जो रहस्यवादी अर्थ लिए हैं ताकि उसे योग्य व सक्षम ही समझ सके, डिकोड कर सके। पश्चिमी विज्ञान जगत शुरू से ही भारतीय दर्शन का ऋणी रहा है। वहाँ के शीर्षस्थ वैज्ञानिक हाइजनबर्ग, बोहर, श्रोडिंगर जैसी हस्तियों ने अपने वैज्ञानिक सिद्धांतों को मूर्त रूप देने में भारतीय विज्ञान दर्शन के प्रभावों को स्वीकारा है। भारतीय विज्ञान के उज्ज्वल अतीत और परंपरा को हमें पुनर्जीवित-पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है। अन्तरिक्ष में सौ से अधिक उपग्रहों को स्थापित करना, मंगल पर सबसे कम खर्च पर यान योजना, नैनो सेटेलाईट स्थापित करना, संचार क्रांति के लाभ आम जन तक पहुँचना आदि क्या इस बात की गवाही नहीं देते कि भारतीय विज्ञान अब एक नई करवट ले चुका है और यह अब उसके पुनर्जागरण का दौर है। आईये हम सब एक विज्ञान अभिमुख समाज के निर्माण के संकल्प के साथ इस अभियान में शामिल हों।
raagtelang@gmail.com