आज भी खरे हैं तालाब
अनुपम मिश्र
बुरा समय आ गया था।
भोपा होते तो ज़रूर बताते कि तालाबों के लिए बुरा समय आ गया था। जो सरस परंपराएं, मान्यताएँ तालाब बनाती थीं, वे ही सूखने लगी थीं।
दूरी एक छोटा सा शब्द है। लेकिन राज और समाज के बीच में इस शब्द के आने से समाज का कष्ट कितना बढ़ जाता है, इसका कोई हिसाब नहीं। फिर जब यह दूरी एक तालाब की नहीं, सात समंुंदर की हो जाए तो बखान के लिए क्या रह जाता है?
अंग्रेज़ सात समंुदर पार से आए थे और अपने समाज के अनुभव लेकर आए थे। वहाँ वर्गों पर टिका समाज था, जिसमें स्वामी और दास के संबंध थे। वहाँ राज्य ही फैसला करता था कि समाज का हित किस में है। यहाँ जाति का समाज था और राजा ज़रूर थे पर राजा और प्रजा के संबंध अंग्रेज़ों के अपने अनुभवों से बिलकुल भिन्न थे। यहाँ समाज अपना हित स्वयं तय करता था और उसे अपनी शक्ति से, अपने संयोजन से पूरा करता था। राज उसमें सहायक होता था।
पानी का प्रबंध, उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य-बोध के विशाल सागर की एक बूंद थी। सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े थे। बूंदें अलग हो जाएं तो न सागर रहे, न बूंद बचे। सात समुंदर पार से आए अंग्रेज़ों को समाज के कर्तव्य बोध का, न तो विशाल सागर दिख पाया, न उसकी बूंदें। उन्होंने अपने यहाँ के अनुभव और प्रशिक्षण के आधार पर यहाँ के राज में दस्तावेज ज़रूर खोजने की कोशिश की, लेकिन वैसे रिकार्ड राज में रखे नहीं जाते थे। इसलिए उन्होंने मान लिया कि यहाँ सारी व्यवस्था उन्हीं को करनी है। यहाँ तो कुछ है ही नहीं!
देश के अनेक भागों में घूम फिर कर अंग्रेजों ने कुछ या काफी जानकारियाँ ज़रूर एकत्र कीं, लेकिन यह सारा अभ्यास कुतूहल से ज्यादा नहीं था। उसमें कर्तव्य के सागर और उसकी बूंदों को समझने की दृष्टि नहीं थी। इसलिए विपुल मात्रा में जानकारियाँ एकत्र करने के बाद भी जो नीतियाँ बनीं, उन्होंने तो इस सागर ओर बूंद को अलग-अलग ही किया।
उत्कर्ष का दौर भले ही बीत गया था, पर अंग्रेजों के बाद भी पतन का दौर प्रारंभ नहीं हुआ था। उन्नीसवीं सदी के अंत और तो और बीसवीं सदी के प्रारंभ तक अंग्रेज़ यहाँ घूमते-फिरते जो कुछ देख रह थे, लिख रहे थे, जो गजेटियर बना रहे थे, उनमें कई जगहों पर छोटे ही नहीं, बड़े-बड़े तालाबों पर चल रहे काम का उल्लेख मिलता है।
मध्यप्रदेश के दुर्ग और राजनांदगांव जैसे क्षेत्रों में सन १९०७ तक भी ‘‘बहुत से बड़े तालाब बन रहे थे।’’ इनमें तांदुला नामक तालाब ‘‘ग्यारह वर्ष तक लगातार चले काम के बाद बन कर बस अभी तैयार ही हुआ था। इससे सिंचाई के लिए निकली नहरों-नालियों की लंबाई ५१३ मील थी।’’
जो नायक समाज को टिकाए रखने के लिए यह सब काम करते थे, उनमें से कुछ के मन में समाज को डिगाने-हिलाने वाली नई व्यवस्था भला कैसे समा पाती? उनकी तरफ से अंग्रेजों को चुनौतियाँ भी मिलीं। सांसी, भील जैसी स्वाभिमानी जातियों को इसी टकराव के कारण अंग्रेजी राज ने ठग और अपराधी तक कहा। अब जब सब कुछ अंग्रेज़ों को ही करना था तो उनसे पहले के पूरे ढाँचे को टूटना ही था। उस ढाँचे को दुतकारना, उसकी उपेक्षा करना कोई बहुत सोचा-विचारा गया, कुटिल षड्यंत्र नहीं था। वह तो इस नई दृष्टि का सहज परिणाम था और दुर्भाग्य से यह नई दृष्टि हमारे समाज के उन लोगों तक को भा गई थी, जो पूरे मन से अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे और देश को आज़ाद करने के लिए लड़ रहे थे।
पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अब अकुशल कारीगरों में बदल दिए गए थे। ऐसे बहुत से लोग जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गए जनों की सूची में थे, वे अब अनपढ़, असभ्य, अप्रशिक्षित माने जाने लगे। उस नए राज और उसके प्रकाश के कारण चमकी नई सामाजिक संस्थाएं, नए आंदोलन भी अपने ही नायकों के शिक्षण-प्रशिक्षण में अंग्रेज़ों से भी आगे बढ़ गए थे। आज़ादी के बाद की सरकारों, सामाजिक संस्थाओं तथा ज़्यादातर आंदोलनों में भी यही लज्जाजनक प्रवृत्ति जारी रही थी।
उस गुणी समाज के हाथ से पानी का प्रबंध किस तरह छीना गया इसकी एक झलक तब के मैसूर राज में देखने को मिलती है।
सन १८०० में मैसूर राज दीवान पूर्णया देखते थे। तब राज्य भर में ३९,००० तालाब थे। कहा जाता था कि वहाँ किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे, आधी इस तरफ और आधी उस तरफ बहे तो दोनों तरफ इसे सहेज कर रखने वाले तालाब वहाँ मौजूद थे। समाज के अलावा राज भी इन उम्दा तालाबों की देख-रेख के लिए हर साल कुछ लाख रुपए लगाता था।
राज बदला। अंग्रेज आए। सबसे पहले उन्होंने इस ‘फिजूल खर्ची’ को रोका और सन १८३१ में राज की ओर से तालाबों के लिए दी जाने वाली राशि को काट कर एकदम आधा कर दिया। अगले ३२ बरस तक लोगों के थे, सो राज से मिलने वाली मदद के कम हो जाने, कहीं-कहीं बंद हो जाने क बाद भी समाज तालाबों को संभाले रहा। बरसों पुरानी स्मृति ऐसे ही नहीं मिट जाती। लेकिन फिर ३२ बरस बाद यानी सन १८६३ में वहाँ पहली बार पी.डब्ल्यू.डी। बना और सारे तालाब लोगों से छीन कर उसे सौंप दिए गए।
प्रतिष्ठा पहले ही हर ली थी। फिर धन, साधन छीने और अब स्वामित्व भी ले लिया गया था। सम्मान, सुविधा और अधिकारों के बिना समाज लाचार होने लगा था। ऐसे में उससे सिर्फ अपने कर्तव्य निभाने की उम्मीद कैसे की जाती?
मैसूर के ३९,००० तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। पी.डब्ल्यू.डी। से काम नहीं चला तो फिर पहली बार सिंचाई विभाग बना। उसे तालाब सौंपे गए। वह भी कुछ नहीं कर पाया तो वापस पी.डब्ल्यू.डी। को। अंग्रेज़ विभागोंं की अदला-बदली के बीच तालाबों से मिलने वाला राज्स्व बढ़ाते गए और रख-रखाव की राशि छाँटते-काटते गये। अंग्रेज़ इस काम के लिए चंदा तक मांगने लगे जो फिर जबरन वसूली तक चला गया। इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेज़ों के आने से पहले तक यहाँ ३५० तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ के पलड़े से बाहर फेंक दिया गया।
उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की-सी सुरीली आवाज़ सन १९०० के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली ‘गारियों’, विवाह-गीतों मेंं दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियाँ ‘फिरंगी नल मत लगवाय दियो’ गीत गातीं। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएँ और बावडि़यों के बदले अंग्रेज़ द्वारा नियंत्रित ‘वाटर वर्क्स’ से पानी आने लगा। पहले सभी बड़े शहरों में और फिर धीरे-धीरे छोटे शहरों में भी यही स्वप्न साकार किया जाने लगा। पर केवल पाईप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। यह बात उस समय नहीं लेकिन आजादी के कुछ समय बाद धीरे-धीरे समझ में आने लगी थी। सन १९७० के बाद तो यह डरावने सपने में बदलने लगी थी तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और उन पर नए मोहल्ले, बाजार, स्टेडियम खड़े हो चुके थे।
पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गए नए मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और फिर वर्षा बीती नहीं कि इन शहरों में जल संकट के बादल छाने लगते हैं।
जिन शहरों के पास फिलहाल थोड़ा पैसा है, थोड़ी ताकत है, वे किसी और के पानी को छीन कर अपने नलों को किसी तरह चला रह हैं पर बाकी की हालत तो हर साल बिगड़ती ही जा रही है। कई शहरों के कलेक्टर फरवरी माह में आसपास के गाँवों के बड़े तालाबों का पानी सिंचाई क कामों से रोक कर शहरों के लिए सुरक्षित कर लेते हैं।
शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवैल से ही मिल सकता है पर इसके लिए बिजली, डीज़ल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। मद्रास जैसे कई शहरों का दुखद अनुभव यही बताता है कि लगातार गिरता जल-स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। लेकिन ऐसी नगर पालिकाओं पर करोड़ों रुपये के बिजली के बिल भी चढ़ चुके हैं।
इंदौर का ऐसा ही उदाहरण आंख खोल सकता है। यहाँ दूर बह रही नर्मदा का पानी लाया गया था। योजना का पहला चरण छोटा पड़ा, तो एक स्वर से दूसरे चरण की माँग भी उठी और अब सन १९९३ में तीसरे चरण के लिए भी आंदोलन चल रहा है। इसमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, साम्यवादी दलों के अलावा शहर के पहलवान अनोखीलाल भी एक पैर पर एक ही जगह ३४ दिन तक खड़े रह कर ‘सत्याग्रह’ कर चुके हैं। इस इंदौर में अभी कुछ ही पहले तक बिलावली जैसा तालाब था, जिसमें फ्लाइंग क्लब के जहाज़ के गिर जाने पर नौसेना के गोताखोर उतारे गए थे पर वे डूबे जहाज़ को आसानी से खोज नहीं पाए थे। आज बिलावली एक सूखा मैदान है और इसमें फ्लाइंग क्लब के जहाज़ उड़ाए जा सकते हैं।
इंदौर के पड़ोस में बसे देवास शहर का किस्सा तो और भी विचित्र है। पिछले ३० वर्ष में यहाँ के सभी छोटे-बड़े तालाब भर दिए गए और उन पर मकान और कारखाने खुल गए। लेकिन फिर ‘पता’ चला कि इन्हें पानी देने का कोई स्रोत ही नहीं बचा है। शहर के खाली होने तक की खबरें छपने लगी थीं। शहर के लिए पानी जुटाना था पर पानी कहां से लाएं? देवास के तालाबों, कुओं के बदले रेलवे स्टेशन पर दस दिन तक दिन-रात काम चलता रहा।
२५ अप्रेल, १९९० को इंदौर से ५० टैंकर पानी लेकर रेलगाड़ी देवास आई। स्थानी शासन मंत्री की उपस्थिति में ढोल नगाड़े बजा कर पानी की रेल का स्वागत हुआ। मंत्रीजी ने इंदौर स्टेशन आई ‘नर्मदा’ का पानी पीकर इस योजना का उद्घाटन किया। संकट के समय इससे पहले भी गुजरात और तमिलनाडु के कुछ शहरों में रेल से पानी पहुँचाया गया है पर देवास में तो अब हर सुबह पानी की रेल आती है, टैंकरों का पानी पंपों के सहारे टंकियों में चढ़ता है और तब शहर में बंटता है।
रेल का भाड़ा हर रोज़ चालीस हज़ार रुपया है। बिजली से पानी ऊपर चढ़ाने का खर्च अलग और इंदौर से मिलने वाले पानी का दाम भी लग जाए तो पूरी योजना दूध के भाव पड़ेगी। लेकिन अभी मध्यप्रदेश शासन केंद्र शासन से रेल भाड़ा माफ़ करवाता जा रहा है। दिल्ली के लिए दूर गंगा का पानी उठा कर लाने वाला केंद्र शासन अभी मध्यप्रदेश के प्रति उदारता बरत रहा है। मनमोहन सिंह की नई ‘उदारवादी’ नीति रेल और बिजली के दाम चुकाने को कह बैठी तो देवास को नरक सा बनने में कितनी देरी लगेगी?
पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मध्यप्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई ६०० बरस पहले लाखा बंजारे द्वारा बनाए गए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहाँ नए समाज की चार बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाएँ हैं। पुलिस प्रशिक्षण केंद्र है, सेना के महार रेजिमेंट का मुख्यालय है, नगर पालिका है और सर हरिसिंह गौर के नाम पर बना विश्वविद्यालय है। एक बंजारा यहाँ आया और विशाल सागर बना कर चला गया लेकिन नए समाज की चार साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाई! आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं, डिग्रियाँ बंट चुकी हैं पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।
उपेक्षा की इस आंधी में कई तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों में भी बांट रहे हैं। उनकी मज़बूत बनकर इसका एक कारण है पर एकमात्र कारण नहीं। तब तो मज़बूत पत्थर के बने पुराने किले खंडहरों में नहीं बदलते। कई तरफ से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है। स्मृति की यह मज़बूती पत्थर की मज़बूती से ज़्यादा मज़बूत है।
छत्तीगढ़ के गांवों में आज भी छेर-छेरा के गीत गाए जाते हैं और उससे मिले अनाज से अपने तालाबों की टूट-फूट ठीक की जाती है। आज भी बुंदेलखंड में कजलियों के गीत में उसके आठों अंग डूब सकें- ऐसी कामना की जाती है। हरियाणा के नारनौल में जात उतारने के बाद माता-पिता तालाब की मिट्टी काटते हैं और पाल पर चढ़ाते हैं। न जाने कितने शहर, कितने सारे गांव इन्हीं तालाबों के कारण टिके हुए हैं। बहुत-सी नगर पालिकाएं आज भी इन्हीं तालाबों के कारण पल रही हैं और सिंचाई विभाग इन्हीं के दम पर खेतों को पानी दे पा रहे हैं। बीजा की डाह जैसे गांवों में आज भी सागरों के वही नायक नए तालाब भी खोद रहे हैं। उधर रोज़ सुबह-शाम घड़सीसर में आज भी सूरज मन भर सोना उंडेलता है।
कुछ कानों में आज भी यह स्वर गूँजता है :
‘‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना।’’
‘आज भी खरे हैं तालाब’ से साभार
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