धरती पर गिरते उल्कापिंड
डॉ. विनीता सिंघल
खगोलविज्ञानी प्रतिदिन ही पृथ्वी के निकट से गुजरने वाली न जाने कितनी उल्काओं की खोज करते हैं लेकिन भाग्यवश पृथ्वी हाल में उसके निकट से गुजरने वाले सभी उल्का पिंडों से सुरक्षित रही है। एक सूचना के अनुसार जनवरी में तुंग्स्का जितना विशाल उल्का पिंड पृथ्वी के 110ए000 मील निकट आ गया था जो खगोलिकी मानकों के अनुसार बहुत अधिक दूरी नहीं थी। अनुमान है कि अगस्त 2027 में लगभग आधा मील अर्थात 800 मीटर बड़ा उल्का पिंड 199.।छ10 पृथ्वी के निकट से लगभग 380ए000 किलोमीटर की दूरी से गुजरेगा बल्कि उसके पृथ्वी से टकराने का भी अनुमान है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के निकट से गुजरने वाले उल्का पिंडों का पता लगाने और उन्हें समझने में बहुत महारत हासिल की है। स्पुतनिक न्यूज रिपोर्ट के अनुसार अब 1800 संभावित रूप से खतरनाक पिंडों की खोज की जा चुकी है और न जाने कितनों को ढूंढना बाकी है। यूरोपियन रिसर्च काउंसिल ने एनईओशील्ड-2 परियोजना आरंभ की है जिसका उद्देश्य निकट भविष्य में पृथ्वी के लिए संभावित खतरनाक उल्का पिंडों का पता लगाना और उनकी टक्कर से पृथ्वी को बचाने के उपाय खोजना है। रिपोर्ट के अनुसार अब तक लगभग 2ए000 उल्का पिंडों को मॉनीटर किया जा चुका है।
सौर मंडल में मौजूद हजारों छोटे बड़े पिंडों की बरसात हमारी पृथ्वी पर होती ही रहती है जिनके अनेकों प्रमाण मौजूद हैं। वैज्ञानिक भी इन पिंडों की बात समय समय पर करते रहे हैं। ये पिंड धरती पर गिर कर निशान छोड़ देते हैं जो इसका प्रमाण होते हैं कि उल्का पिंड ऊपर से कितनी तेजी से गिरे और उनका भार कितना था। पश्चिम के इतिहास में लगभग 1000 वर्ष पूर्व उल्का वृष्टि का उल्लेख मिलता है। हमारे यहाँ के प्राचीन साहित्य में भी उल्का वृष्टि का विवरण मिलता है। सिखोरे एलिन पहाड़ पर सैंकड़ों ऐसे गड्ढे हैं जो 70 फुट लंबे और 40 फुट गहरे हैं। ऐसे ही 3000 से भी अधिक छोटे बड़े गड्ढे कैरोलिन प्रदेश में भी देखे गए हैं जो आसमान से गिरे उल्का पिंडों के कारण ही बने थे।
फ्रांस के लॉ एग्ले शहर के पास 26 अप्रैल 1803 कोएक उल्का पिंड गिरा था जिसके गिरने की आवाज और उत्पन्न झटकों को दूर दूर तक महसूस किया गया था। फ्रांस की विज्ञान अकादमी द्वारा बनाए गए वैज्ञानिकों के आयोग के सदस्यों ने घटना स्थल से पिंड के बहुत से सबूत इकट्ठे किए। इन प्रमाणों में पिंड के वे टुकड़े भी थे, जो पत्थरों के रूप में थे लेकिन ये पत्थर पृथ्वी पर पाए जाने वाले पत्थरों से भिन्न थे।
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में तो ये उल्का पिंड काफी जाने पहचाने हो गए। पश्चििमी देशों में तो बहुत से लोगों के घरों की छतों और कारों में इनके टुकड़े धंसे हुए देखे गए। शिकागो में तो बहुत से लोगों ने आज भी इन टुकड़ों को यादगार के रूप में सहेज रखा है। वर्ष 1891 में एरीजोना के कूनब्यूट नामक स्थान पर गिरा उल्का पिंड सीधा पृथ्वी में ही समा गया था। बाद में वहां का दौरा कर रही भूवैज्ञानिकों की टीम ने उस स्थान पर तेजी से बुलबुले निकलते देखे गए जहां वह पिंड धरती में समाया था। अर्जेन्टीना में भी कुछ इसी तरह की घटना देखी गई थी जिसमें आसमान से गिरा उल्का पिंड पृथ्वी में 30 मीटर से भी अधिक गहराई में समा गया था। उस स्थान पर धरती के ऊपर चारों ओर लोहे के छर्रे जैसे फैले हुए देखे गए थे।
तीस जून 1908 को एक ऐसा ही पिंड सबेरा होने से पहले साइबेरिया के तुंगस्का क्षेत्र में फटा था। यह विस्फोट इतना भयंकर था कि हजारों वर्गमील में फैले जंगल जल गए थे। बाद में वैज्ञानिकों ने बताया कि इस उल्का पिंड का भार कई लाख टन था और यह पृथ्वी पर गिरने से पहले लगभग 90ए000 मील प्रतिघंटे की गति से गिरता हुआ वायुमंडल में फटा था। इसी प्रकार 30 अक्तूबर 1937 को एक भयंकर दुर्घटना होते होते बची थी जब पांच लाख टन भार वाला एक उल्का पिंड अपने रास्ते को छोड़ कर पृथ्वी की ओर बढ़ने लगा था किंतु इस पिंड की परिक्रमा की गति में मामूली सा परिवर्तन आ जाने के कारण एक बड़ी दुर्घटना होते होते रह गयी।
साइबेरिया में ही एक उल्का पिंड 1947 में गिरा था जिसे लोगों ने अपनी आंखों से गिरते हुए देखा था। गेंद के आकार के इस पिंड से तेज रोशनी निकल रही थी मानो करोड़ों फुलझड़ियां छूट रही हों। देखते ही देखते लगभग 5-6 सेकेंड में यह पिंड तो लुप्त हो गया लेकिन लगभग 20 मील के क्षेत्र में भूरे रंग का धुआं फैल गया।
अध्ययन बताते हैं कि आज से लगभग 20ए000 साल पहले लोहे और जस्ते का बना लगभग 20 टन भारी एक पिंड आसमान से अमेरिका के एरीजोना रेगिस्तान में गिरा था। जहां यह पिंड गिरा था वहाँ 4150 फुट चौड़ा और 570 फुट गहरा गड्ढा हो गया था। वैज्ञानिकों का कहना था कि इसकी विध्वंस शक्ति 30 मेगाटन के हाइड्रोजन बम या तीन करोड़ टन के टीएनटी बम से भी कहीं ज्यादा थी। और यह उल्का पिंड एक अच्छे बड़े शहर को खत्म करने के लिए काफी था।
ऐसी दुर्घटनाएं पुराने जमाने की बात नहीं हैं। मार्च 1989 में भी एक उल्का पिंड पृथ्वी की ओर बढ़ा था। करोड़ों टन भार वाला यह पिंड 70ए000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से पृथ्वी की ओर चला आ रहा था। अचानक ही समय परिवर्तन हुआ और एक बहुत बड़ा खतरा टल गया। वैज्ञानिकों के अनुसार यदि यह पिंड पृथ्वी पर गिरता तो इसका धमाका 20ए000 मेगाटन के हाइड्रोजन बम के बराबर होता और धरती में कम से कम 16 किलोमीटर गहरा गड्ढा हो जाता। 17-18 नवंबर 1998 की रात भी एशिया महाद्वीप के लाखों लोगों ने सिंह तारामंडल की ओर से आते उल्का पिंडों की आतिशबाजी को देखा था।
आकाश के किसी विशेष बिंदु से होने वाली इस उल्का वृष्टि को सदैव ही कौतुहल से देखा गया है। जिस तारामंडल से यह उल्का वृष्टि होती है, उसी के नाम पर उस उल्का वृष्टि को जाना जाता है। जैसे सूर्य या लियो तारामंडल से होने वाली उल्काओं की बरसात को लियोनिड वृष्टि, ययाति या पर्सेयूस तारामंडल से होने वाली उल्का वृष्टि को पर्सेइड उल्का वृष्टि कहा जाता है। नासा के विमानों ने जापान के आकाश में उल्का वृष्टि की गणना की है। जापान के आकाश से सबसे अधिक उल्काएं गिरी हैं। वर्ष 1965 में एक घंटे में 5000, 1867 में 1500, 1866 में 10ए000, 18133 में एक लाख, 1832 में 20ए000 और 1799 में 10ए000 उल्काएं गिरी थीं।
ये उल्काएं करीब 15 से 40 किलोमीटर की ऊँचाई से ही चमकने लगती हैं और 11 से 72 किलोमीटर प्रति सेकेंड के वेग से गिरती हैं। इनका भार 0ण्01 ग्राम से लाखों टन तक हो सकता है। उल्का कणों की धूल भी पृथ्वी पर ही गिरती है। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार प्रतिदिन लगभग 1000 टन उल्का धूल पृथ्वी पर गिरती है। पृथ्वी पर हर साल करीब 500 उल्का पिंड गिरते हैं जिनमें से केवल एक प्रतिशत का ही पता चल पाता है। पिछली बार जो सबसे बड़ा उल्का पिंड पृथ्वी के निकट आया था वो था पाँच किलोमीटर बड़ा तूतेतिस जो 2004 में पृथ्वी के निकट आया था। रूस के वैज्ञानिकों ने हर तीन साल बाद पृथ्वी के निकट से गुजरने वाले पर्वत के आकार के उल्का पिंड की खोज की है।
2014.श्र25 नामक उल्का पिंड की खोज एरीजोना, टक्सन के निकट कैटालिना स्काई सर्वे के खगोलविज्ञानियों ने मई 2014 में की थी। इसके विशाल आकार के अतिरिक्त, वैज्ञानिकों ने बताया था कि उसकी सतह चांद की सतह की अपेक्षा दोगुनी परावर्ती थी। आखिरी बार 2014.श्र25 हमारे पड़ोस में 400 वर्ष पूर्व आया था और अगली बार इसके 2600 के बाद ही पृथ्वी के निकट आने की संभावना है। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि इस पर लगातार नजर रखने की आवश्यकता है अन्यथा छोटी सी भी गल्ती के परिणाम भयानक हो सकते हैं। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार 19 अप्रैल को भी च्ंदैज्।त्त्ै नामक धूमकेतू पृथ्वी के 175 मिलियन किलोमीटर की सुरक्षित दूरी के अंदर आया था।
आमतौर से उल्काएं तीन प्रकार की होती हैं। कुछ उल्काओं में 90 प्रतिशत लोहा और 10 प्रतिशत निकिल पाया जाता है। कुछ उल्काएं पत्थरों जैसी दिखायी देती हैं। इनमें सिलिकेट की अधिकता होती है और निकिल एवं लोहा मात्र 10 प्रतिशत होता है। तीसरे प्रकार की उल्काओं में लोहा और सिलिकेट लगभग बराबर मात्रा में पाया जाता है लेकिन ऐसी उल्काएं बहुत कम गिरती देखी गई हैं। सबसे ज्यादा पत्थरों जैसी उल्काएं गिरती हैं जिन्हें पत्थरों से अलग पहचान पाना कठिन होता है। यही कारण है कि पहचानी गई उल्काओं में लोहे का अंश ही अधिक पाया गया है। पत्थर जैसी उल्काओं में 50 तरह के खनिज देखे गए हैं। कुछ दुर्लभ प्रकार की उल्काओं में अमीनो अम्ल या कार्बनिक पदार्थ भी देखे गए हैं। यह कार्बनिक अंश पुथ्वी पर पाए जाने वाले कार्बनिक अंश जैसे नहीं होते इसीलिए कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पर जीवन उल्का कणों के साथ किसी अन्य ग्रह से आया होगा। उल्काओं की सचना कुछ कुछ ग्रहों जैसी होती है।
वर्ष 1929 में पहली बार अमेरिकी वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में उल्का पिंड के मिले अवशेषों का विश्लेषण किया और देखा कि ये टुकड़े मुख्य रूप से धातु रेत, पत्थरों, गैस और कार्बन के विभिन्न रूपों के बने होते हैं। इनमें से बहुत से पदार्थ घर्षण के कारण समाप्त हो जाते हैं लेकिन जो बचते हैं वे भी कुछ कम खतरनाक नहीं होते। कई बार इन उल्का पिंडों में वैज्ञानिकों ने हीरे भी ढंूढ निकाले हैं। उल्का पिंडों के टूटने के बाद जब वैज्ञानिकों ने उनकी राख को कुरेदा तो उसमें उन्हें हीरे मिले। वैज्ञानिकों के अनुसार इनके गिरने से जो आवाज उत्पन्न होती है, उतनी भयंकर आवाज पृथ्वी पर उत्पन्न करना संभव नहीं है। इसी प्रकार इनसे उत्पन्न होने वाली ऊर्जा मानव द्वारा उत्पन्न परमाणु ऊर्जा से लाख गुना से भी अधिक होती है। इनकी तेज गति के कारण प्रभावित क्षेत्र में एक हजार सात सौ डिग्री सेल्सियस का तापमान पैदा हो जाता है। इन पिंडों में मौजूद गैस घर्षण के कारण वायुमंडल की गैसों से मिलकर भयंकर विस्फोट करती है और धुआं ही धुआं छोड़ती है। यह धुआं अत्यंत हानिकारक होता है। यदि यह किसी जीवधारी तक सीधा ही पहुंच जाए तो बस उसकी उसकी तो खैर नहीं।
आधुनिक तकनीकों की मदद से वैज्ञानिक अब इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि गिरने वाले उल्का पिंड अपनी कक्षा से भटक कर ही पृथ्वी की ओर आते हैं और अगर ये पृथ्वी से टकरा जाएं तो उसे नष्ट कर सकते हैं। आमतौर पर वृहस्पति और मंगल ग्रहों के बीच ये उल्का पिंड अपने मार्ग से भटक जाते हैं। वैज्ञानिक अब इन्हें सौर परिवार से आए प्रतिनिधियों के रूप में जानने लगे हैं।
वर्ष 1980 के दौरान कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था जिसके अनुसार ये उल्का पिंड विकास की एक कड़ी है। आज से 660 लाख वर्ष पहले डायनासोरों के विलुप्त होने का कारण भी इस उल्का वृष्टि को ही माना जाता है। वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार उस समय उल्का पिंडों के अवशेष ऐसी महत्वपूर्ण धातुओं को लेकर पृथ्वी पर गिरे थे जो आज तक इस पृथ्वी पर कभी नहीं देखी गयीं। इसे पृथ्वी का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि अब तक जितने भी उल्का पिंड गिरे, वे या तो घर्षण के कारण रास्ते में ही समाप्त हो गए या फिर रेगिस्तान या सागर में जा गिरे।
आकाश से गिरते रहने वाले इन उल्का पिंडों ने वैज्ञानिकों को चिंता में डाल रखा है क्योंकि उनके अनुसार उल्काओं की धूल या कंकड़ों से मानव जीवन को तो कोई खतरा नहीं है लेकिन इनकी बरसात अंतरिक्ष में घूम रहे मानव निर्मित उपग्रहों को अवश्य नुकसान पहुंच सकता है। तेज गति से आने वाले ये उल्का पिंड उपग्रहों से टकरा कर उनमें छेद कर सकते हैं। उनके सौर पैनलों को नष्ट कर सकते हैं और उपग्रहों में लगे कीमती वैज्ञानिक उपकरणों को भी हानि पहुंचा सकते हैं। यही कारण है कि इन पर कड़ी निगरानी रखने का निर्णय लिया गया है जिससे जरूरत पड़ने पर इनकी स्थिति बदल कर इन्हें उल्काओं की मार से बचाया जा सके।
नवंबर 1998 में उल्का वृष्टि की संभावना को देखते हुए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने भी देश में उपग्रह संचार प्रणाली के खराब होने की चेतावनी दी थी और उपग्रह संचार से जुड़े संगठनों जैसे स्टॉक सक्सचेंज, बैंको, तथा अन्य सेवाओं को सतर्क रहने को कहा था। इतना ही नहीं, स्वयं इसरो ने भी उपग्रहों की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाए थे।
उल्का कणों से उपग्रहों को क्षति पहुंचने का संदेह सबसे पहली बार 1993 में उस समय हुआ था जब उपग्रह ओलिंप ने अचानक ही काम करना बंद कर दिया था। उसी वर्ष हब्बल दूरबीन की मरम्मत कर रहे अंतरिक्ष यात्रियों को उसके एक उपकरण के डिश एंटेना में छेद मिला था। तब वैज्ञानिकों ने यह संदेह व्यक्त किया कि संभवतः यह छेद उल्का पिंडों की देन थे लेकिन इस संबंध में वैज्ञानिक एक मत नहीं हो सके। इसी प्रकार मई 1998 में गैलेक्सी-4 में हुयी गड़बड़ी के कारण अमेरिका में पूरे एक दिन पेजर व्यवस्था अस्त-व्यस्त रही। लेकिन इस बार भी पूरी तरह उल्का पिंडों को ही दोषी नहीं माना जा सका। वास्तव में वैज्ञानिकों को इतना खतरा बडे़ उल्का पिंडों से नहीं मालूम हो रहा जितना कि उनके धूल कणों से। क्योंकि जब ये सूक्ष्म कण तीव्र गति से उपग्रह से टकराएंगें तो बेहद गर्म गैस में बदल जाएंगे। इस गैस के विद्युत आवेशित होने के कारण चिंगारियां भड़क सकती हैं और शार्ट सर्किट हो सकता है जिससे उपग्रह में लगे कम्प्यूटर चिप और सर्किटों को क्षति पहुँच सकती है। लेकिन अब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि इन पर बराबर नजर रखी जा सके और जैसे ही कोई उल्का पिंड अपनी राह से भटके तो उसे सही राह पर लाया जा सके।
आप स्वयं भी इन उल्का पिंडों को गिरते हुए देख सकते हैं। शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने रात को आसमान से उल्काओं को टूटते न देखा होगा लेकिन लोग इसे तारा टूटना मानते हैं। और तारे के टूटते ही किसी अनिष्ट की आशंका से कांप उठते हैं। ये टूटते तारे आकाश में यहाँ वहाँण् से नहीं बल्कि एक निश्चित दिशा से आते हैं। यदि आपने कभी टूटते तारे नहीं देखे हों तो रात को धैर्य से आकाश को देखिए, चंद टूटते तारे आपको जरूर दिखाई देंगे।
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