आयडिया से बदलती और बनती हमारी दुनिया
डॉ कपूरमल जैन
सोचने के लिए मजबूर कर देने वाली कई समस्याएँ हमें अपने दैनिक क्रिया-कलापों के दौरान मिलती हैं। उदाहरण के लिए पशुओं द्वारा सड़क पर खाद्य पदार्थो से चिपकी अपच्य जिलेटिन की थैलियों का खाते हुए मिलना, वाहनों की सीमा से अधिक बढ़ती गति के कारण सड़क दुर्घटनाओं की वृद्धि का होना, कोहरे के कारण आवागमन का बाधित होना और दुर्घटनाओं का होना, बुजुर्ग लोगों में मेमोरी-लॉस के कारण उनका रास्ता भटक जाना, वर्षा के दिनों में कीटों के घर में प्रवेश के कारण बीमारियों का बढ़ना, रोगियों को लगाई जाने वाली ग्लुकोज के बॉटल के खाली होने की सूचना समय पर न मिलने से रोगी की हालत का बिगड़ना, मरीजों की पैथालॉजिकल जाँच में विलम्ब का होना, गरमी के दिनों में किचन में पंखे के चलने पर गैस चूल्हे का बार-बार बुझना, खेतों में सोयाबीन या गेहूँ की कटाई के बाद डंठलों के जलने से हवा का प्रदूषित होना आदि अनेक ऐसे अनुभव-जन्य स्रोत हो सकते हैं जो हमें विभिन्न समस्याओं से अवगत कराते हैं। लेकिन इनके अलावा भी समस्याओं के अन्य कई स्रोत हो सकते हैं। ये समस्याएं हमें पढ़ते, पढ़ाते, शोध करते समय भी मिल सकती हैं। ये हमें खेतों, कारखानों या कार्यालयों में काम करते हुए भी मिल सकती हैं। इस तरह समस्याएँ हमें कभी भी, कहीं भी और किसी भी रूप में मिल सकती हैं। इनमें से कई समस्याएँ हमसे और हमारे आस-पास बस रहे लोगों, जैसे किसान, दुकानदार, बीमार, डाक्टर, कुम्हार, माली, स्वर्णकार, लोहार, पिंजारे, मिस्त्री, सुतार, तकनीशियन, शिक्षक, विद्यार्थी, बच्चों, युवा, वृद्धों आदि से भी जुड़ी हो सकती हैं। समस्याएं घर या बड़े उद्योग जगत से संबंधित भी हो सकती है। ये लघु और मझोले उद्योगों जैसे रेशम, हाथ करघा, मोमबत्ती, अगरबत्ती, पापड़ आदि से जुड़ी उत्पादन केंद्रों की भी हो सकती हैं। इनका संबंध किसी भी क्षेत्र से हो सकता है। सच में तो समस्याएँ हमारे आस-पास खदबदाती ही रहती हैं। ये शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक या तकनीकी किस्म की हो सकती हैं। बात सिर्फ महसूस करने और ‘मेंटल नेटवर्क’ में आने की होती है।
समस्याओं का मेंटल नेटवर्क में आना
किसी भी समस्या के समाधान के लिए कदम तब उठते हैं जब यह ‘मेंटल नेटवर्क’ में आती है। समस्या के ‘मेंटल नेटवर्क’ में आने पर समाधान हेतु मन-मस्तिष्क सक्रिय होने लगता है। आयडिया तेजी से आते हैं और कई अवसरों पर हमें एक नहीं अनेकों आयडिया आते हैं। इनमें कुछ बेतुके और उलूल-जुलूल किस्म के भी हो सकते हैं। लेकिन हम जानते हैं कि गरम होते हुए जल में जल के अणु बेतरतीब गति से घूमते रहने के बावजूद कुछ देर बाद ‘विक्षुब्ध’ और ‘अक्रमबद्ध’ जल के अणुओं की अवस्था में ‘क्रमबद्धता’ जन्म लेने लगती है और ‘संवाहन धाराएं’ बनने लगती है। अतः उलूल-जुलूल आयडिया को आने से रोकना नहीं चाहिए।
सामने आते हैं कई बार चकित कर देने वाले मार्गदर्शी निष्कर्ष
हमें सिखाने के लिए ‘प्रकृति’ के पास बहुत कुछ होता है। प्रकृति नये-नये आयडिया की उत्पत्ति का केंद्र है। हम जितनी बार इसे देखते हैं, हर बार यह हमें अपने क्रियाकलापों से चकित करती रहती है। यही कारण है कि हमें प्रकृति की गोद में कई आयडिया जन्म लेते हुए दिखाई देते हैं। अतः किसी समस्या के समाधान खोजते समय प्रकृति का सामीप्य और अवलोकन बहुत लाभदायक सिद्ध होता है। सामान्यतः हमें आयडिया तब आते हैं जब हम किसी न किसी समस्या से जूझ रहे होते हैं। अगर हमें गरमी लग रही है और ‘अखबार’ पास में रखा है तो ‘अखबार’ को पंखे के रूप में इस्तेमाल करने का आयडिया हमारे मन में आ सकता है। लेकिन, यही ‘अखबार’ कड़ाके की सर्दी में ओड़ने के रूप में इस्तेमाल किये जाने का आयडिया भी दे सकता है। इस तरह उपयोगिता की दृष्टि से एक ही वस्तु के कई आयाम हो सकते हैं। और, सोचने पर जरूरत या समस्या हमें उस छिपे हुए आयाम को दिखा देती है।
जब भी हम किसी कार्य को पूरे मनोयोग और ध्यान से कर रहे होते हैं और उसे बेहतर बनाना चाहते हों तब हमारे मन में अचानक कोई आयडिया पैदा हो सकता है। जब शांतिस्वरूप भटनागर विद्यार्थी थे तब अल्कोहल बनाने के लिए प्रयुक्त ‘फरमेंटेशन’ की प्रक्रिया को पढ़ते समय उनके मन में अनार के रस के फरमेंटेशन का आयडिया आया जिसे उन्होंने एक लेख के माध्यम से अभिव्यक्त किया। अपनी बाल्यावस्था में आयजक न्यूटन (प्ेंंब छमूजवद) आकाश में तारे टंगे रहने से चकित थे। वे कक्षा में इससे जुड़े ‘बेतुके’ सवालों को करते रहते थे। शिक्षक समुचित जवाब नहीं दे पाते और कक्षा में बैठे विद्यार्थी हँसते लेकिन वे हतोत्साहित नहीं हुए और अंततः इससे जन्में आयडिया के बल पर ‘गुरूत्वाकर्षण के नियम’ को खोजने में वे सफल हुए।
अलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल (।समगंदकमत ळतंींउ ठमसस) को दुनिया ‘टेलीफोन’ के आविष्कारक के रूप में जानती है। एक बार उनके पिता ने उन्हें गेहूं के दानों से भूसी साफ करने को कहा। उन्होंने काम की प्रक्रिया को जाना और तीन दिनों तक परंपरागत तरीके से करते रहे। इस बीच वे सोचते रहे और फिर उनके मन में एक आयडिया ने आकार लिया जिससे एक विशेष प्रकार के ब्रश का आविष्कार हो गया जो बेहतर और तेज़ गति से सफाई कर सकता था। पिता ने शाबासी दी। और, शाबासी ने उन्हें इसमें सुधार के लिये प्रेरित किया। उनकी कल्पनाएँ उड़नें भरने लगीं। सोचने लगे तो उन्हें काम को तेज गति से निपटाने के लिए आयडिया मिल गया। अब उन्होंने लकड़ी के फ्रेम में 6 ब्रश कस कर एक मशीन बना दी।
एक बार एक कम्पनी तेल के लिए कुँए की खुदाई कर रही थी लेकिन कुछ गहराई के बाद प्रयुक्त किये जा रहे पारम्परिक और प्रचलित ‘लुब्रिकेंट’ का क्षारीय जल से मिल कर चट्टान जैसा बन जाने के कारण ड्रिलिंग नहीं हो पा रही थी। कम्पनी ने पंजाब विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रोफेसर शांतिस्वरूप भटनागर से सम्पर्क कर मदद चाही। भटनागर ने समस्या पर विचार किया तो उन्हें श्यानता से जुड़ी समस्या नज़र आई। समाधान के रूप में उनके मन में एक अपारंपरिक आयडिया आया। उन्होंने कम्पनी को लुब्रिकेंट में ‘इंडियन गम’ मिलाने का सुझाव दिया। जब सुझाव के अनुसार काम किया गया तो इसने श्यानता को कम कर दिया और आयडिया काम कर गया।
सापेक्षता से हमारा परिचय कोई नया नहीं है। ‘चार अंधों और हाथी’ की लोक कथा से हमें अपने जीवन में सापेक्षीय दृष्टि के महत्त्व का पता चलता है। चलती बस से धरती पर उगे पेड़ों का चलते हुए मिलना भी सापेक्षता-जन्य ही होता है। रेल्वे स्टेशन पर खड़े हो कर आती और जाती ट्रेन की सीटी की आवाज का क्रमशः बारीक और मोटा आभासित होना भी सापेक्षीय गति (ट्रेन और श्रोता के बीच) का परिणाम है। इस तरह सापेक्षीय प्रभाव हमें उन गतियों के दौरान मिलते हैं जिनसे हमारा वास्ता दैनिक जीवन में पड़ता है। लेकिन हमारे जीवन में ‘प्रकाश’ से जुड़े अनुभव भी होते हैं। ‘प्रकाश’ को एक स्थान से दूसरे तक जाने में नगण्य समय लगता है जिससे हम ‘ध्वनि’ की तुलना में ‘प्रकाश’ के बहुत अधिक वेग से परिचित होते हैं। लेकिन जब सैद्धांतिक विचार-विमर्श और प्रयोगों के दौरान पता चला कि हमारे सामान्य अनुभवों से सर्वथा अलग ‘प्रकाश का वेग’, ‘स्रोत’ अथवा ‘दर्शक’ की सापेक्षीय गति पर निर्भर न रहते हुए ‘नियत’ रहता है तो हमें आश्चर्य भर होता है। लेकिन, अलबर्ट आईंस्टीन को यहीं से एक आयडिया मिला। उन्होंने इसे प्रकृति का एक सच मानते हुए एक सैद्धांतिक तानाबाना बुन डाला। कई बार अंतःप्रेरणा से अचानक नये आयडिया मन-मस्तिष्क में आ जाते हैं। ऐसे आयडिया सर्वथा नयी दिशा दे सकते हैं। इतिहास ऐसे कई क्रांतिकारी आयडिया से भरा पड़ा है।
क्रांतिकारी आयडिया
अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें कई क्रांतिकारी आयडिया जन्म लेते हुए मिलते हैं। आईये, ऐसे ही कुछ आयडिया से परिचित होते हैं।
- एक बार कक्षा में श्रीनिवास रामानुजन ने अपने अध्यापक से पूछा कि क्या 0ध्0 का मान ‘1’ होता है? उस समय शिक्षक ‘भाग’ देने की प्रक्रिया को समझा रहे थे। शिक्षक का उदाहरण देते हुए यह कहना था कि तीन केले अगर तीन बच्चों में बांटे जाएं तो प्रत्येक को एक-एक केला मिलता है। यानि, 3ध्3 का मान ‘एक’ होता है। इसके बाद रामानुजन ने उपर्युक्त प्रश्न पूछा। शिक्षक के पास इसका कोई जवाब नहीं था। लेकिन, उनके इसी जिज्ञासा भरे प्रश्न ने उनके मन में एक आयडिया को जन्म दिया जिसने उन्हें गणित में इतना रूचिशील बना दिया कि वे ‘अनंंत के ज्ञाता’ बन गये। वे विश्व के इतने बड़े गणितज्ञ बन गये कि तात्कालीन महान गणितज्ञ जी.एच.हार्डी ने एक बार अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि ‘मुझे संतोष है कि मैंने रामानुजन के साथ बराबरी के दर्जे पर काम किया है’।
- रसायनज्ञ विलियम रेमसे दो तरीकों से ‘नाइट्रोजन’ गैस को प्राप्त करने के प्रयोग कर रहे थे। एक तरीके में वे वायुमंडलीय हवा से इसे प्राप्त कर रहे थे तथा दूसरे में रासायनिक विधि से। लेकिन जब उन्होंने इन विधियों से प्राप्त नाइट्रोजन के घनत्व को मापा जो उन्हें हवा से प्राप्त नाइट्रोजन का घनत्व कुछ अधिक मिला। जब बार-बार सावधानी पूर्वक किये गये प्रयोगों के बावजूद उन्हें यही परिणाम मिला तो रेमसे को एक आयडिया आया कि अवश्य ही इसमें नाइट्रोजन से भारी कुछ और भी होना चाहिये। प्रयोग करने पर उन्हें सचमुच ही उसमें ‘निष्क्रिय गैसों’ की उपस्थिति मिली। आगे चल कर वे अपने इसी कार्य के कारण नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए।
- सत्येन्द्रनाथ बोस को पढ़ाते समय ‘कृष्णिका पिण्ड से प्राप्त स्पेक्ट्रम’ को समझाने के लिए खोजे गये ‘प्लांक के सूत्र’ को निग्मित करने का तरीका अच्छा नहीं लगा तो उन्होंने सर्वथा नवाचारी तरीके से इस सूत्र को खोज डाला। उनका कार्य इतना क्रांतिकारी साबित हुआ कि विश्व के वैज्ञानिक समुदाय ने प्रकृति में मिलने वाले दो प्रकार के कणों में से एक का नाम ‘बोसान’ रख दिया।
- ल्यूवेनहॉक कपड़े की एक दुकान पर काम करते थे। वहाँ वे ‘लैंस’ से कपड़े की परख करते थे। इसी से उनके मन में अन्य चीजों को देखने का आयडिया आया। शीघ्र ही वे जीवाणु और रक्त कोशिकाओं को देखने में सफल हो गए और दुनिया को जैव-जगत की आंतरिक संरचना को दिखाने में सफल हो गए।
- एक बार आर्किमिडिज को उनके राजा ने अपने मुकुट के सोने की शुद्धता को जाँचने के लिए कहा। लेकिन यह काम आसान नहीं था। उनके लिए यह अत्यंत कठिन समस्या थी। वे परेशान थे कि इस समस्या को हल करने का आयडिया उन्हें कुण्ड में नहाते समय अचानक मिल गया जब उन्होंने देखा कि जैसे ही वे कुण्ड में प्रवेश करते हैं, उसका जल-स्तर बढ़ने लगता है। अब उन्होंने उसी वजन का शुद्ध सोने का एक मुकुट और बनवाया तथा पानी में डुबा कर ‘आयतन’ में मिलने वाले अंतर से सोने की शुद्धता का पता लगा लिया।
- वायुयान के आविष्कारक राइट बंधु को एक बार उनके पिता ने कॉर्क और बांस में फिट एक खिलौना दिया जो उड़ सकता था। इससे चकित उनकी कल्पना उलांचे मारने लगी। चिडि़या को देख कर सोचने लगे कि क्या इसी तरह आदमी नहीं उड़ सकता है? पक्षियों के विज्ञान पर उस समय की उपलब्ध पुस्तकों का अध्ययन करने से वे समझ गये कि पक्षियों की तरह उड़ना उनके बस में नहीं है। तब जिज्ञासा हुई कि तो फिर कैसे उड़ा जा सकता है? उस समय वे साइकिल की दुकान पर काम करते थे। तभी उनके दिमाग में फ़्लाइंग मशीन बनाने का विचार आया और वे वायुयान का आविष्कार कर सके।
- एक बार जगदीश चंद्र बसु को उनके बचपन में उनकी माँ ने कहा कि पेड़ों को रात में नहीं छेड़ना चाहिए क्योंकि वे सो रहे होते हैं। उनकी माँ ने इस बात को जब कहा था तब वैज्ञानिक दृष्टि से यह माना जाता था कि पेड़ों में प्राण नहीं होते हैं। लेकिन आगे चल कर माँ के इसी कथन से प्रेरित बोस के मन में इसे प्रमाणित करने का आयडिया आया। इसके लिये उन्होने कई उपकरणों का निर्माण किया तथा नवाचारी प्रयोगों के द्वारा वैज्ञानिक जगत को चकित कर दिया।
- छपाई उद्योग में काम करते हुए विलिस हेविलैंड कैरियर (ॅपससपे भ्ंअपसंदक ब्ंततपमत) ने काम के दौरान देखा कि उनके कारखाने के काफी नमी होने से कागज गीले हो जाते हैं जिससे छपाई की गुणवत्ता प्रभावित होती है। इससे बचने का आयडिया उनके मन में रेल्वे प्लेटफार्म पर घूमते हुए ‘कोहरे’ को देख कर आया। ‘कोहरे’ के बनने की प्रक्रिया को समझने के दौरान उनके मन में एक ऐसी मशीन तैयार करने का आयडिया आया जो हवा को इतना ठंडा रख सके जिससे वातावरण की नमी उस पर संघनित हो कर बैठ जाये और कमरा नमी से मुक्त हो जाए। आगे चल कर कैरियर की यह मशीन छापखाने से निकल कर ‘एअर कंडीशनर’ के रूप में घरों और ऑफिस में पहुँच गई।
- अपनी विदेश यात्रा के दौरान सी.वी। रमन को समुद्र के नीलेपन ने आकृष्ट किया और जल के अणुओं से प्रकाश के प्रकीर्णित होने का आयडिया दिया तो वहीं चंद्रशेखर सुब्रमनियम को आकाश को देखते हुए चिंतन-मनन ने तारों के जन्म की कहानी गढ़ने का आयडिया दिया। रमन और चंद्रशेखर के शोधों की अंतिम परिणति नोबेल पुरस्कार के रूप में हुई।
- मायकल फैराडे ने जब देखा कि ‘विद्युत’ से ‘चुम्बकत्व’ की प्राप्ति हो सकती है तो फिर ‘चुम्कबकत्व’ से ‘विद्युत’ की क्यों नहीं? और जब वे अपने इस आयडिया कोे व्यवहारिक धरातल पर उतारने में सफल हो गये तो दुनिया को बिजली प्राप्त करने का एक नया स्रोत ‘डायनेमो’ के रूप में मिल गया।
- युवा मेघनाद साहा को अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए ‘थर्मोडायनामिक्स’ विषय पर क्लार्क द्वारा लिखित पुस्तक का अध्ययन करते समय एक रहस्यमय उलझन भरी पहेली की जानकारी मिली और उनके मन में परमाणु के आयनन की प्रक्रिया में ‘ताप’ के साथ ‘दाब’ की भूमिका होने का आयडिया आया। इसके बाद उन्होंने जिस ‘साहा समीकरण’ की खोज की उसने ‘आधुनिक एस्ट्रोफिजिक्स’ की नींव रख दी।
- अपनी बाल्यावस्था में अलबर्ट आईंस्टीन को उनके चाचा द्वारा दिए गये कम्पास ने जिज्ञासु बनाया। वे स्वयं से पूछने लगे कि चुम्बक को पास लाने पर कम्पास की सुई आखिर हिलती क्यों है, जबकि उसे छुआ तक नहीं जाता है?आगे चल कर इसी जिज्ञासा ने ‘विद्युत चुंबकत्व’ में उनकी गहरी रूचि जगाई। मैक्सवेल के सिद्धांत का अध्ययन करते समय उन्हें ‘प्रकाश के वेग की निरपेक्षता’ का संज्ञान हुआ। इस संबंध में माइकल्सन और मोर्ली द्वारा किये गये प्रयोगों से भी इसकी पुष्टि हुई। इसतरह उनके मन में पक्का विश्वास हो गया कि यह प्रकृति का एक सत्य है।अब इसे आधार बना कर एक सिद्धांत को विकसित करने का आयडिया उनके मन में आया। इसके बाद उन्होंने जिस ‘सापेक्षता के विशिष्ट सिद्धांत’ को गढ़ा उसने विज्ञान के पारम्परिक आधारों को बदलते हुए नये विज्ञान को खड़ा करने के लिए आधार उपलब्ध कराया। इस सिद्धांत ने आकाश, काल और द्रव्यमान जैसी ‘निरपेक्ष’ मानी जा रही भौतिक राशियों को वेग पर निर्भर रहने वाली ‘सापेक्षीय’ राशि बना दिया। तर्क को विस्तार देते हुए उन्हें ‘ऊर्जा और द्रव्यमान में तुल्यता’ दर्शाने वाला एक समीकरण भी मिल गया जिससे विश्व को परमाणु की असीम शक्ति से परिचय मिला।
- राबर्ट गोडार्ड अमरीका में ‘अंतरिक्ष युग के पिता’ माने जाते हैं। एक बार बचपन में अपनी माँ को खुश करने के लिए उन्होंने कहा कि ‘माँ, मैं तुम्हारे लिए आसमान से तारा तोड़ कर लाना चाहता हूँ’। यह बात उस समय तो आईर् गई हो गई लेकिन, आगे चल कर गोडार्ड के लिए आसमान से तारा तोड़ कर लाने वाला आयडिया उनके जीवन का लक्ष्य बन गया। वे अंतरिक्ष की दूरियों को मापने की क्षमता हासिल करने की तकनीक के लिए आवश्यक ‘रॉकेट’ बनाने के लिए प्रयोग करने लगे तथा लगातार मिल रही असफलताओं से सीखते रहे। अंततः वे ‘द्रव-ईंधन’ से चलने वाले प्रथम राकेट को विकसित करने में सफल हो गये। इसके बाद भी उन्होंने सोचना कभी बंद नहीं किया। उनकी डायरी में उन्होंने अधिक क्षमतावान रॉकेट के लिये भविष्य के ईंधन के रूप में तरल ‘हाइड्रोजन’ और तरल ‘ऑक्सीजन’ के उपयोग का उल्लेख कर रखा था। हालांकि वे स्वयं इसे कार्य रूप में परिणित करने के पूर्व ही चल बसे।
- कोंस्टनटिन सिओल्कोवस्की (ज्ञवदेजंदजपद ज्ेपवसावअेाल) को उनकी माँ ने गुब्बारा दिया और कहा कि इसे ध्यान से पकड़ना। अगर यह छूट गया तो यह आसमान में चला जायेगा। यह सुनते ही उनके मन में आयडिया आया कि क्या गुब्बारे की तरह आसमान में जाया नहीं जा सकता? उन्होंने जेट प्रोपुल्शन (नोदन) का आयडिया दिया। उन्हें और भी कई आयडिया आते रहते थे। वे अपने आयडिया को शोधपत्रों के माध्यम से वैज्ञानिक जगत को परिचित कराते रहते। यह वह समय था जब अंतरिक्ष के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। ऐसे समय में वे अपने तर्क के बल पर यह बताते रहे कि 56-64 किलोमीटर की ऊँचाई के बाद निर्वात है, जहाँ रिएक्शन रॉकेट या इंजन के बिना काम नहीं चल सकेगा। उन्होंने तर्क के आधार पर यह भी बताया कि रॉकेट का धरती पर लौटना अत्यधिक जोखिम भरा कार्य होगा। उनके द्वारा तैयार किये गये ‘ब्लूप्रिंट’ के आधार पर अंतरिक्ष परियोजना पर सोवियत रूस में कार्य आरंभ हुआ। और सोवियत रूस ने पृथ्वी की कक्षा में अपने पहले उपग्रह ‘स्पूतनिक’को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।
- अलबर्ट आईंस्टीन जब परमाणु द्वारा किये जाने वाले अवशोषण व उत्सर्जन की प्रक्रिया का अध्ययन कर रहे थे तब उनके संज्ञान में आया कि परमाणु उत्तेजित अवस्था में अत्यल्प समय तक ही ठहरता है तथा अपनी मूल अवस्था में लौट आता है। इसीलिए किसी भी गैसीय नमूने में परमाणुओं की ‘पापुलेशन’ अपनी मूल अवस्था ही अधिकतम रहती है। तभी उनके मन में आयडिया आया कि अगर किसी नमूने में परमाणु अपनी किसी उत्तेजित अवस्था में अधिक देर तक ठहरें तो क्या इसका उलटा नहीं हो सकता यानि उत्तेजित परमाणुओं की पापुलेशन मूल अवस्था में रहने वाले परमाणुओं से अधिक नहीं हो सकती? इसे आधार बना कर उन्होंने ‘उद््दीपित उत्सर्जन’ की जो कल्पना की उसने ‘लेसर’ की संभावना को जन्म दे दिया।
- जब एडविन हबल के प्रयोगों से ब्रह्याण्ड के लगातार फूलते रहने की जानकारी मिली तब जार्ज गैमो को बिंदुवत ब्रह्याण्ड के अस्तित्व में होने का आयडिया मिला और उन्होंने ब्रह्याण्ड के जन्म के लिए ‘बिग बैंग सिद्धांत’को गढ़ दिया, जो आज मान्यता प्राप्त सिद्धांत है।
- सी.टी.आर। विल्सन को ‘मेघ’ बनने की प्रक्रिया से आयडिया मिला और उन्होंने मूल कणों को डिटेक्ट करने के लिए ‘क्लाउड चैम्बर’ का आविष्कार कर डाला। इसी तरह डोनाल्ड ए. ग्लेसर को ‘बुलबुला’ बनने की प्रक्रिया को देख कर ‘बबल चैम्बर’ बनाने का आयडिया आया। इनसे खोजे गये कणों ने ‘कण भौतिकी’ को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई।
- जब आईंस्टीन ने देखा कि ‘व्यतिकरण’ और ‘विवर्तन’ जैसी परिघटनाओं को प्रकाश की ‘तरंग प्रकृति’ के आधार पर और ‘प्रकाश विद्युत प्रभाव’ को उसकी ‘कण प्रकृति’ के आधार पर ही समझाया जा सकता है, तब उन्होंने प्रकाश की ‘दोहारी प्रकृति’ होने का आयडिया दिया। आगे चल कर डिब्रॉगली के मन में ‘प्रकाश’ की ही तरह ‘पदार्थ’ की भी दोहरी प्रकृति होने का आयडिया आया जिसने ‘क्वांटम मेकेनिक्स’ की नींव रखी।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जो हमें आयडिया के जन्म लेने के स्रोतों से परिचित करवाते हैं। सच तो यह है कि इतिहास ऐसे अनेक क्रांतिकारी आयडिया से भरा है। इन आयडिया ने न सिर्फ अपने वर्तमान को ही प्रभावित किया वरन् भविष्य में विकास के लिए मार्गदर्शन भी दिया।
आयडिया का व्यवहारिक धरातल पर उतरना
वैसे तो कुछ न कुछ आयडिया सबको आते हैं। एक व्यक्ति को सैंकड़ों आयडिया भी आ सकते हैं। थॉमस अल्वा एडिसन इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। उनके नाम सैंकड़ों ‘पेटेंट’ दर्ज हैं। लेकिन, आयडिया का आना कोई खास बात नहीं है। खास बात तो तब होती है जब वह आयडिया व्यवहारिक धरातल पर उतर कर अपने लोक कल्याणकारी स्वरूप में सामने आता है। अतः जब कोई आयडिया मिल जाए तब असली समस्या इसको व्यवहारिक धरातल पर उतारने और क्रियांवित करने की होती है।
आयडिया को विकसित करने के लिए क्या है जरूरी?
आयडिया को विकसित करने की शुरूआत वास्तविक परिस्थितियों तथा ज्ञात तथ्यों को ध्यान में रख कर होती है। फिर तर्क का तानाबाना बुनने लगता है और ‘सिद्धांत’ खड़ा होने लगता है। वह ‘सिद्धांत’ समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत करता है और नयी भविष्यवाणियाँ भी करता है।
आयडिया दो प्रकार के होते हैं। एक वे जिनसे ‘रोशनी’ मिलती है और विज्ञान को आगे बढ़ने के लिए दिशा मिलती है और, दूसरे वे जिनसे ‘फल या सिद्धि’ मिलती है तथा टेक्नॉलॉजी की राह प्रशस्त होती है। लेकिन किसी भी प्रकार के आयडिया को विकसित करने और उसके क्रियांवयन के दौरान लगातार विश्लेषण करते रहना जरूरी होता है ताकि अपने कदमों का लगातार मूल्यांकन हो सके तथा जरूरी हो तो समय रहते आवश्यक बदलाव किये जा सकें। इसके लिए गोडार्ड से सबक लिया जा सकता है। गोडार्ड अपने कार्यों के ब्यौरों को अपनी व्यक्तिगत डायरी में नियमित रूप से लिखते और उनका विश्लेषण करते रहते थे। एक बार वे अपनी ‘रॉकेट’ की कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए एल्यूमीनियम की शीट से गुब्बारा बनाने के प्रयास कर रहे थे। ‘रॉकेट्री’ पर उनका यह प्रयास अपने घर की ही वर्कशाप में हो रहा था। वे करीब पाँच सप्ताह तक काम में जुटे रहे लेकिन, उन्हें सफलता नहीं मिल पा रही थी। अब उन्होंने अपनी डायरी के पन्नों को पलटा तथा अपने कार्यों का विश्लेषण किया तब उन्हें महसूस हुआ कि इस तरह काम करते हुए आगे बढ़ने से सफलता की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। इसके बाद उन्होंने बिना समय गंवाये अपनी रणनीति में बदलाव किया और नये तरीके से पुनः विचार करना आरंभ किया। इस तरह नियमित डायरी-लेखन और दस्तावेजीकरण की इस आदत के कारण असफलता से निराश होने की बजाय और अधिक विश्वास व दृढ़ निश्चय के साथ अन्य विकल्पों पर विचार करते हुए वे पुनः अपने काम में जुट जाते।
जब आयडिया व्यवहारिक धरातल पर उतारना बनता है लक्ष्य
सच तो यह है कि अपनी हर समस्या का समाधान भी अपने आसपास ही मौजूद रहता है। बस अपने दिमाग में बल्ब जलने भर की देर होती है। जब कोई क्रांतिकारी आयडिया मन में आता है तब सब चीजें गौण हो जाती हैं। एडिसन अपने घर के ‘बेसमेंट’ में बनी प्रयोगशाला में घंटों बैठे रहते थे। उन्हें न खाने की सुध रहती थी और न सोने की चिंता। कहते हैं कि ‘विद्युत बल्ब’ के व्यवहारिक मॉडल को विकसित करने के लिए उन्होंने करीब दस हजार आयडिया को परखा।
जब नील्स बोहर को परमाणु मॉडल को विकसित करने का आयडिया आया तब विश्व में ‘औद्योगिक क्रांति’ को लाने वाले ‘स्टीम इंजन’ की क्षमता को बढ़ाने पर कार्य चल रहा था। लेकिन इससे प्रभावित हुए बिना बोहर सब कुछ छोड़ कर ‘परमाणु के मॉडल’ को गढ़ने में जुट गये। और, जब इस मॉडल ने ‘हाइड्रोजन के स्पेक्ट्रम’ को समझाने में सफलता प्राप्त कर ली तो वैज्ञानिक-जगत चकित रह गया। आगे चल कर उनके इसी आयडिया ने उन्हें नोबेल पुरस्कार विजेता बनाया।
जब जगदीश चंद्र बसु ने पेड़-पौधों में जीवन होने संबंधी आयडिया पर काम करना आरंभ किया तब भौतिकी करवट बदल रही थी और नित नयी खोजें हो रही थी। वे स्वयं ‘बेतार के तार’ की खोज के कारण एक लब्ध प्रतिष्ठित भौतिकविद् के रूप में विश्व में विख्यात थे। लेकिन उन्होंने पेड़-पौधों पर जिस तरह से वैज्ञानिक तरीकों को अपनाते हुए काम किया उसने न सिर्फ भारतीय प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को सही साबित कर विश्व को नया मार्गदर्शन दिया वरन् पेड़-पौधों को जैव-दुनिया का सम्मानित सदस्य भी बना दिया। उनके गहन शोध का ही परिणाम रहा कि ‘इलेक्ट्रोफिजियोलॉजी’ नामक एक सर्वथा नया क्षेत्र उभर कर सामने आया।
समाधान में वे रहते हैं आगे जिनमें ‘बच्चा’ व ‘युवा’ जीवित रहता है
किसी भी समस्या के समाधान में ‘बाल-सुलभ मस्तिष्क’ और ‘युवकोचित उत्साह’ आवश्यक होता है। इसलिए समाधान खोजने वालों के अंदर एक ‘बच्चा’ और ‘युवा’ सदैव जीवित रहना चाहिए। समाधान हेतु ‘उत्साह’ के साथ ‘समग्र दृष्टि’ से सोचना जरूरी होता है। यह याद रखना पड़ता है कि कोई भी समस्या अकेले किसी एक विषय से संबंध नहीं रखती है और वह कई विषयों से जुड़ी भी हो सकती है। इसलिए इसमें ‘पूर्वाग्रह’ काम नहीं आता। बच्चे ‘रेखा गणित’ के एक ‘बिंदु’ की तरह होते हैं। ‘बिंदु’ से चाहे जितनी ‘रेखाएं’ चाहे जिस दिशा में खींची जा सकती हैं। बच्चों में बिना किसी बंदिश के ज्ञान का ‘क्षैतिज-विस्तार’ होता है। बच्चे ‘बिगिनर्स माइण्ड’ वाले होते हैं। इसलिए प्रकृति उन्हें नये रूप में दिखती है। वह उनके मन में कौतुहल जगाती है तथा आश्चर्य से भर देती है। इससे उनके मन में नये-नये विचार पैदा होने लगते हैं। उनके मन-मस्तिष्क में कई जिज्ञासा भरे प्रश्न उठने लगते हैं और फिर धीरे-धीरे उन्हें उत्तर मिलने लगते हैं जो अपने-अपने अंदाज मेंअभिव्यक्त होने लगते हैं। उनके मन-मस्तिष्क मेंं विभिन्न समस्याओं के तकनीकी समाधान हेतु व्यवहारिक आयडिया की शृंखला उभरने लगती है। अगर कोई समस्या उनके दिमाग में पहले से ही मौजूद है या वे जिज्ञासु है तो उन्हें समाधान हेतु कई ‘क्लू’ मिलने लगते हैं। प्रकृति के रहस्यों को जानने के आकांक्षी ऐसे ही वैज्ञानिकों नेअपने आसपास फैले ‘प्रकाश’ को भी एक ‘क्लू’ के रूप में देखा और चिंतन-मनन के दौरान उनके मन में एक के बाद एक आयडिया आते चले गये जिन्हें विकसित करते हुए वे ‘पदार्थ’ और ‘ब्रह्माण्ड’ के रहस्यों को उद्घाटित करने में सफल हो गये।
उपलब्धियों के बाद भी वैज्ञानिक रूके नहीं
हमारे पूर्वज-वैज्ञानिकों को मालूम था कि सामान्य पत्थर को रगड़ने पर वे गरम होते हैं। अब जरा सोचिए, अगर इस खोज के बाद वे रूक गये होते तो? उन्होंने खोज जारी रखी तब उन्हें विशिष्ट प्रकार के पत्थर ‘चकमक’ मिले जिन्हें रगड़ने पर चिनगारी निकलते हुए मिली। बस क्या था, इससे उन्हें ‘आग’ लगाने का आयडिया मिल गया। यहाँ भी वे रूके नहीं। उन्होंने ‘आग’ से ‘पानी’ को ‘भाप’ बनतेे हुए देखा। और, ‘भाप’ की शक्ति से उन्हें ‘इंजन’ चलाने का आयडिया मिला। और, जब जैम्स वाट ने इसे व्यवहारिक रूप दिया तब इसी ‘इंजन’ ने दुनिया में ‘औद्योगिक क्रांति’ की शुरूआत कर दी। ‘इंजन’ बनाने का आयडिया उन्हें ‘पहिये’ से मिला और ‘पहिये’ का आयडिया उन्हें ‘लुढ़कते पत्थर’ से मिला। अगर इतना मिलने और अपनी दुनिया को आरामदायक बनाने के पश्चात वैज्ञानिकगण रूक गये होते तो? लेकिन, वे रूके नहीं। वे नये आयडिया को खोजते रहे और उन पर पर काम करते रहेतथा पुराने आयडिया को परिष्कृत करते रहे।
इस तरह वैज्ञानिकों ने ‘स्थूल’ दुनिया को देखा-समझा। कई उपलब्धियाँ हाँसिल की और अपने जीवन को सहज व आरामदायक बनाया। लेकिन अगर वे फिर यहीं रूक गये होते तो? वे नहीं रूके। पदार्थ को जानने की चाह में वैज्ञानिक और दार्शनिक उसे छोटा और छोटा करते चले गये। वे ‘परमाणु’ तक पहुँच गये। और, अब अगर यहाँ वे सोचने लगते कि ‘परमाणु’ तो बहुत छोटा होता है जिसे देख पाना संभव नहीं है, तो क्या होता? लेकिन ऐसा हुआ नहीं और वे प्रयास करते रहे। उनकी कोशिशों का परिणाम रहा कि उन्हें ‘परमाणु’ में ‘इलेक्ट्रॉन’ मिल गया। अब अगर यहाँ वैज्ञानिक रूक गये होते तो? वे रुके नहीं। इसीलिये उन्हें तीन अलग-अलग दुनियाओं में प्रवेश के लिए रास्ते मिले। एक रास्ता तो उन्हें ‘परमाणु’ की भीतरी दुनिया में ले गया जहाँ उन्हें अत्यल्प सूक्ष्म ‘नाभिक’ मिला और ‘नाभिक’ में उन्हें ‘प्रोटॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ के साथ ‘क्वार्क’ के रूप में उनकी आंतरिक संरचना के प्रमाण भी मिले। दूसरा रास्ता उन्हें वहाँ ले गया जहाँ ‘पदार्थ और प्रकाश के बीच होने वाली अंतःक्रिया’ को समझना संभव हो सका। और, तीसरा रास्ता उन्हें ‘इलेक्ट्रॉनिकी’ की दुनिया में ले गया जहाँ ‘इलेक्ट्रॉन’ की गति और दिशा को नियंत्रित कर तकनीकी दुनिया में प्रवेश संभव हो सका। देखते ही देखते ‘इलेक्ट्रॉनिकी’ ने हमारे जीवन में प्रवेश कर ‘जीवन-शैली’ में आमूलचूल बदलाव ला दिया। लेकिन इस सफलता के बाद वैज्ञानिक रूके नहीं। उनकी शोध-यात्रा जारी रही और उनके मन में नये-नये विचार आते रहे। यही कारण रहा कि ‘निर्वात नलिकाओं’ पर आधारित बनी भारी-भरकम और पॉवर की दृष्टि से अत्यंत खर्चीली टेक्नॉलॉजी के स्थान पर ‘ठोस अवस्था’ पर आधारित हल्की और सस्ती टेक्नॉलॉजी विकसित हो सकी।
वैज्ञानिकों को आयडिया आते रहे और नित नये नवाचार होते गये। ‘इलेक्ट्रॉनिकी’ के क्षेत्र में कार्य करे वैज्ञानिकों का एक स्रोत ‘संख्यात्मक ज्ञान’ के लिए विकसित ‘नम्बर सिस्टम’ भी रहा। ‘0’ तथा ‘1’ से ‘बायनरी सिस्टम’ बनता है। इसमें प्रत्येक संख्या को इन्हीं ‘दो’ अंकों से अभिव्यक्त किया जाता है। जब जार्ज बुल के मन में जब यह आयडिया आया कि ‘0’ को ‘ना’ से और ‘1’ को ‘हाँ’ माना जा सकता है तो तर्क की गणितीय अवधारणा सामने आ गई। इसने ‘बुलियन एलजेब्रा’ को जन्म दिया। इसके अनुप्रयोग का आयडिया ‘इलेक्ट्रानिकी’ के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकोंं को आया जिसने ‘डिजिटल इलेक्ट्रॉनिकी’ को जन्म दिया। अगर वैज्ञानिक ‘बुलियन एलजेब्रा’ पर ही पर रूक गये होते तो क्या ‘डिजिटल इलेक्ट्रॉनिकी’ आती? और, क्या आज ‘डिजिटल क्रांति’ होती? क्या हम ई-दुनिया में प्रवेश कर पाते? क्या हमारे हाथों में ‘स्मार्ट फोन’ होते? क्या आज दुनिया में ‘ई-बैंकिंग’ या ‘केशलेस ट्रांजेक्शन’ की बात होती?
इस तरह हम देखते हैं कि एक सफलता मिलने के बाद वैज्ञानिकों और तकनीशियन अपने प्रयासों को कभी बंद नहीं करतेे। हमें भी अपने प्रयासों को कभी बंद नहीं करना चाहिए। अगर हमारे पास कोई तकनीकी आयडिया है तो इसे व्यवहारिक बनायें और सोचें कि आज के ‘डिजिटल युग’ में हम इसका कैसे ‘मोबाइल एप’ बना सकते हैं जो डिजिटल तकनीक के माध्यम से लोगों के जीवन को सहज बनाने के लिए आवश्यक भौतिक क्रियाओं को संचालित करने में सहायक बन सके। यह भी सोचें कि अपने आयडिया को और ‘ग्रीनर’ (पर्यावरण हितैषी) कैसे बनायें? हो सकता है कि हमारा आयडिया पहले से ही सस्ता और ‘यूजर और ईको फ्रेंडली’ हो, लेकिन फिर भी सोचें कि क्या इसे और अधिक सस्ता एवं यूजर और ईको फ्रेंडली बनाया जा सकता है?अगरकिसी समस्या का हल हमने खोज लिया हो तो भी सोचें कि क्या कोई और भी तरीके हो सकते हैं जिन्हें विकल्प के तौर पर आजमाया जा सकता है?
आज हमारा देश नयी उड़ानें भर रहा है। देश में ‘मेक इन इन इंडिया’ और ‘स्टार्ट-अप’ जैसी योजनाएँ चल रही हैं। कई समस्याओं के समाधान खोजे जा रहे हैं। ऐसे में नवाचारी आयडिया की बहुत जरूरत है। देश में प्रतिभा की कमी नहीं है और उनसे इन योजनाओं के लिये ‘इनपुट मिलने की बहुत आशा है।
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