जयसिंह और उनकी वेधशालाएं
शुकदेव प्रसाद
भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय के बाद प्रायः 200 वर्षों तक भारत में कोई उच्चकोटि का गणितज्ञ नहीं हुआ। ज्योतिष में अलबत्ता कुछ विद्वान हुए। गणित में मध्यकाल में सूर्यदास और गणेश दैवज्ञ का योग उल्लेखनीय है।
गणेश ने अपना गणित ग्रंथ ‘गृहलाघव’ सन् 1521 के आस-पास आरम्भ किया। ग्रह गणित पर गणेश की जितनी कृतियाँ प्रचलित हैं, उतनी अन्य किसी की नहीं। ज्योतिष पर भी गणेश ने कार्य किया है। इन्होंने भास्कर कृत ‘लीलावती’ की टीका लिखी थी। इसी टीका में उन्होंने गुणन की एक विधि का वर्णन किया है जो 8वीं शती या उससे पहले के हिंदुओं को स्मरण थी। जब गणेश ने इसका उल्लेख किया तो वह सहज ही अरब पहुंची और अन्य यूरोपीय देशों में भी। पसियोली के ‘सूमा’ नामक ग्रंथ में भी इसका उल्लेख मिलता है। अन्य गणितज्ञ सूर्यदास 1509 के आस-पास जन्मे थे। इन्होंने लीलावती टीका, बीज टीका, श्रीपति पद्धति गणित, ताजिक ग्रंथ आदि ग्रंथ रचे थे। प्रथम दो ग्रंथ भास्कर की गणित की टीकाएं हैं। सूर्यदास ने गणित पर दो स्वतंत्र्ा ग्रंथों ‘बीजगणित’ और ‘गणित मालती’ की रचना की थी। भास्करकृत ‘लीलावती’ पर भी इन्होेंने ‘गणितामृत कूपिका’ नाम्नी टीका लिखी थी। यह एक विसंगति है कि मध्यकाल में मौलिक अनुसंधान हुए ही नहीं, यदि हुए भी तो न के बराबर। इसी तरह इस काल में मौलिक ग्रंथों के प्रणयन की भी रिक्तता विद्यमान थी। यदि मौलिक ग्रंथ रचे गए तो उतने उच्चकोटि के नहीं थे। अधिकांश मात्र्ाा में पूर्व प्रणेताओं की कृतियों की टीकाएं ही प्रस्तुत की गईं।
भारतीय ज्योतिष के इतिहास में महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय का अवतरण एक महान घटना है। भारतीय विज्ञान के अंधकाल में भारतीय ज्ञान-विज्ञान की बुझती लौ को जयसिंह ने प्रदीप्त ही नहीं किया अपितु खगोल विज्ञान को नई आधारशिला प्रदान की और फलस्वरूप खगोलीय अध्ययन की एक सुसम्बद्ध शृंखला का उत्स हुआ। अतः भारतीय विज्ञान के इतिहास में जयसिंह भारतीय खगोल के एक ज्वाजल्यमान नक्षत्र्ा हैं और उनका स्थान चिर ऐतिहासिक महत्व का है।
जयसिंह द्वितीय (1686-1743) जयपुर के राजा थे। तेरह वर्ष की अल्पावस्था में वह आमेर की गद्दी पर बैठे। औरंगजेब की मृत्योपरांत उन्होंने 1708 में पूरे प्रांत पर अधिकार कर लिया और 1719 में मुहम्मद शाह ने उन्हें आगरा प्रांत का शासक नियुक्त किया। अशांतिकाल में भी उन्होंने बड़े धैर्य से काम लिया और अपनी नयी राजधानी स्थापित की, जिसका नाम पड़ा जयनगर या जयपुर और अल्पावधि में जयसिंह के प्रयासों से यह नगर विद्या का केंद्र बन गया।
जयसिंह की भारतीय ज्योतिष, वेध और गणित में गहन अभिरुचि थी। अपनी अभिरुचि के कारण भारतीय इतिहास के अंधकाल मंे भी जयसिंह ने भारतीय ज्योतिष की बुझती लौ को प्रज्जवलित रखा। उन्होंने देशी-विदेशी विद्वानों की मदद से वेध कराये, सारणियां तैयार करवाई, ग्रंथ तैयार करवाये। जयसिंह की ये देनें आज भी भारतीय ज्योतिष में अपना स्थायी और अमिट प्रभाव रखती हैं तथा हमारे लिए पथ प्रदर्शक हैं।
उन्होंने पहले इंद्रप्रस्थ (दिल्ली), फिर जयपुर, उज्जैन, बनारस और मथुरा में वेधशालाएँ स्थापित की। कुछ विदेशियों (ज्योतिष के जानकार) को अपने यहाँ आमंत्र्ाित किया और कई विद्वानों को विदेशों में भेजा ताकि इनके प्रयास से भारतीय ज्योतिष के पुनरुद्धार का कार्य किया जा सके। कई विदेशी ज्योतिष के ग्रन्थों को एकत्र्ा किया और विद्वानों की मदद से उनका अनुवाद तैयार करवाया।
ग्रह गणनाओं के लिए जयसिंह ने कई नवीन यंत्र्ाों की परिकल्पना की और उन्हें बनवाया भी। धातुओं के यंत्र्ा छोटे होते हैं और घिसते हैं अतः उन्होंने वेध के लिए पत्थर और चूने से निर्मित बड़े-बड़े मजबूत यंत्र्ाों का निर्माण करवाया। सम्राट यंत्र्ा, जय प्रकाश, राम यंत्र्ा, दिगंश यंत्र्ा, नाडीवलय यंत्र्ा, दक्षिणोदग्भिति यंत्र्ा, षष्ठांश यंत्र्ा और मिश्र यंत्र्ा आदि जयसिंह निर्मित वेध यंत्र्ा हैं जो उनकी वेधशालाओं में लगाये गए थे और आज भी अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में देखे जा सकते हैं। बाल्यकाल से ही जयसिंह की ज्योतिष में गहन अभिरुचि थी। उन्होंने स्वयं लिखा है कि सदा अनुशीलन करते रहने से इसके सिद्धांतों और नियमों का प्रगाढ़ ज्ञान उन्होंने अर्जित किया। उन्होंने अनुभव किया कि आकाशीय पिंडों की वेध प्राप्त और गणना प्राप्त स्थितियों में अंतर रहता है, अतः उन्होंने स्वयं नवीन सारणियां निर्मित करने का संकल्प किया।
टालेमी प्रणीत ‘सिनटैक्सिस’ नामक ग्रंथ ने यूरोप में प्रायः एक हजार वर्षों तक विद्वत समाज में राज किया और अरबी में अनुवाद के बाद भी प्रायः इतनी ही कालावधि तक इस ग्रंथ का प्रभुत्व बना रहा। जयसिंह भी इस ग्रंथ के प्रभाव से मुक्त न थे। अतः उन्होंने अरबी पाठ (अल् मजिस्ती) से इसका अनुवाद कराया। जयसिंह के ज्योतिषियों के प्रधान पंडित जगन्नाथ इसके अनुवाद कर्त्ता थे। पं. जगन्नाथ ने इस ग्रंथ का नाम ‘सम्राट सिद्धांत’ रखा। जयसिंह को नवीन यंत्र्ा बनाने और नवीन रीतियां निकालने का बड़ा शौक था और वह इसमें बहुत प्रवीण थे। ऐसा पंडित जगन्नाथ ने स्वयं लिखा है।
जयसिंह के आदेश से ‘ज़िज मुहम्मदशाही’ नामक सारणी समूह बनाया गया जिसका नामकरण उस समय के सम्राट मुहम्मद शाह के नाम पर किया गया। इस ग्रंथ की एक अपूर्ण प्रति जयपुर में है और एक सम्पूर्ण फारसी अनुवाद ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित है। यह सारणी उलूग बेग की सारणी को परिशोधित करके बनाई गई थी। उलूग बेग (1394-1449) अपने काल के संसार के महान ज्योतिषी थे। उन्होंने समरकंद में एक अच्छी वेधशाला बनवायी थी। उनकी ज्योतिष सारणियों का समूचे विश्व में स्वागत हुआ। जयसिंह ने भी अपनी वेधशालाओं (जंतर-मंतरों) के निर्माण में समरकंद की वेधशाला की काफी सहायता ली थी। पुस्तक की भूमिका के अनुसार ‘जयसिंह ने देखा कि तारों की स्थितियां प्रचलित सारणियों से अशुद्ध निकलती हैं और वेध प्राप्त स्थितियों में बहुत अंतर पड़ता है विशेषकर अमावस्या के बाद चांद दिखाई पड़ने में गणना और आँख से देखी बात में मेल नहीं है। परंतु इन बातों पर धर्म-कर्म और राज्य की बातें आश्रित हैं। फिर, ग्रहों के उदय-अस्त में भी वेध और गणना में अंतर रहता है, सौर तथा चन्द्र ग्रहणों में, और उन कई बातों में भी, बहुत अंतर पड़ता है तो उन्होंने सम्राट (मुहम्मद शाह) से चर्चा की। उन्होंने प्रसन्न होकर उत्तर दिया कि आप ज्योतिष के सब भेदों को जानते हैं, आपने इस्लाम के ज्योतिषियों और गणितज्ञों को, ब्राह्मणों और पंडितों को तथा यूरोप के ज्योतिषियों को एकत्र्ा किया है और वेधशाला बनवायी है तो आप ही इस प्रश्न को हल करने का कष्ट उठायें, जिससे गणना से मिले समय और घटना के वस्तुतः होने के समय का अंतर मिट जाय।’
यद्यपि यह कार्य कठिन था फिर भी जयसिंह ने बड़े श्रम से दिल्ली में वेधशाला के योग्य कई यंत्र्ा बनवाए जैसे कि समरकंद में बने थे। यह युग यंत्र्ा राजों (ऐस्ट्रोलैबों) का युग था। अरबवासी बहुत पहले से यंत्र्ा राज बनाने लगे थे। वेध के लिए 17वीं शती तक यह
प्रधान यंत्र्ा था। जयपुर में यंत्र्ा राजों का अच्छा संग्रह है। जयसिंह ने जिन यंत्र्ाों को अपने ढंग से बनवाया, वे थे सम्राट यंत्र्ा, जय प्रकाश और राम यंत्र्ा। जय प्रकाश का नाम जयसिंह के नाम पर पड़ा। राम यंत्र्ा का नाम जयसिंह के एक पूर्वज रामसिंह के नाम पर रखा गया। सम्राट यंत्र्ा एक प्रकार की विशाल धूप घड़ी (ग्नोमोन) है। मिश्र यंत्र्ा में कई ज्योतिष ग्रंथों का मिश्रण है।
दिल्ली की वेधशाला में एक सम्राट यंत्र, एक जोड़ी जय प्रकाश, एक जोड़ी राम यंत्र और एक मिश्र यंत्र है। यह वेधशाला काफी कुछ टूट-फूट गई थी किन्तु 1852 में जयपुर के राजा ने यंत्र्ाों की मरम्मत करवायी और 1910 में जयपुर के महाराजा ने वेधशाला का पुनरुद्धार कराया। कुछ यंत्र्ा फिर से बनवाये गए और प्रायः सभी अशांकनों को फिर से अंकित किया गया। जयपुर की वेधशाला सुरक्षित अवस्था में है। संग्रहालय में जयसिंह द्वारा संग्रहीत कई यंत्र्ा यहाँ सुरक्षित हैं। यहाँ पर सम्राट यंत्र्ा, षष्ठांश यंत्र्ा, राशिवलय यंत्र्ा, जयप्रकाश, कपाल, राम यंत्र्ा, दिगंश यंत्र्ा, नाड़ीवलय यंत्र्ा, दक्षिणोदग्भित्ति यंत्र्ा, दो बड़े यंत्र्ा राज आदि हैं।
काशी में जयसिंह निर्मित वेधशाला मान मंदिर की छत पर है। आमेर के राजा मानसिंह ने मान मंदिर बनवाया था। वेधशाला दशाश्वमेध घाट के पास है और अब लोग वेधशाला को ही मान मंदिर कहते हैं। यहां पर सम्राट यंत्र्ा, नाड़ी वलय यंत्र्ा, दिगंश यंत्र्ा और चक्रयंत्र्ा हैं। इस वेधशाला का निर्माण 1737 में हुआ था। 19वीं शती के मध्य में इसकी एक बार मरम्मत हुई थी। 1912 में जयपुर के महाराजा ने इस वेधशाला का पुनरुद्धार कराया था।
जयसिंह की वेधशालाओं के ज्योतिष यंत्र्ा विशाल होने के बावजूद सूक्ष्मता का ध्यान रखकर बनवाए गए हैं। यह सहज जिज्ञासा की बात है कि आधुनिक यंत्र्ाों की तुलना में जयसिंह के यंत्र्ा किस कोटि के हैं। वस्तुतः ये सारे यंत्र्ा स्थिति मापक और काल मापक हैं। प्रायः इसी कालावधि में यूरोप में आकाशीय ज्योतियों के भौतिक गुणधर्मों के अध्ययन का आरम्भ हो चुका था और कालमापक तथा स्थितिमापक सूक्ष्म तथा हल्के यंत्र्ाों का द्रुत गति से विकास होने लगा था। जयसिंह ने यद्यपि विदेशी ज्योतिषियों का संपर्क लाभ उठाया और अपने संसाधनों से भारतीय ज्योतिष के पुनरुत्थान में प्रभूत योग दिया लेकिन उन्हें दूरदर्शी जैसे महत्वपूर्ण यंत्र्ा की जानकारी न हो सकी जो आधुनिक ज्योतिष का एक महत्वपूर्ण उपादान है। अतः जयसिंह की वेधशालाओं के विशाल यंत्र्ाों से कुछ विशेष खोज असंभव थी, उन यंत्र्ाों की अपनी सीमाएं हैं जो काल विशेष के लिए महत्वपूर्ण एवं उपादेय थीं, आज वे मात्र्ा ऐतिहासिक महत्व की रह गयी हैं। खेद की बाद है कि भारतीय ज्योतिष विद्या के पुनरुत्थान के लिए जयसिंह ने जो कुछ भी किया, वे सारे उद्यम उनकी मृत्योपरांत ठप हो गए। उनकी वेधशालाएं और उनमें स्थापित यंत्र्ा उपेक्षित से पड़े मात्र्ा शोभा की वस्तुएं हैं। भारतीय ज्योतिष की ये अमूल्य निधियां मात्र्ा देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण की चीजें रह गयी हैं। उनके ग्रंथों का भी यही हश्र हुआ। फिर भी भारतीय ज्योतिष के इस काल खंड में जयसिंह का पदार्पण एक गौरवमयी घटना है।
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