विकास को नयी दिशा देगी नोबेल खोज
डॉ.विनीता सिंघल
एशिया के लिए गौरव की बात है कि चिकित्सा शास्त्र का नोबेल अकेले जापान के डॉ. योशीमोरी ओहसूमी को मिला है। 1945 में फुकुओका में जन्मे ओहसूमी टोकियो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं। उनका कार्यक्षेत्र ऑटोफैगी है, यानी वह प्रक्रिया, जिसके जरिए शरीर लगातार खुद को नया करता रहता है और इस क्रम में अपने पुराने हिस्से को रिसाइकिल करता जाता है। डॉ.ओहसूमी ने इसका समूचा जेनेटिक और मेटाबॉलिक मेकेनिज्म खोज निकाला है और भविष्य में इसका उपयोग बुढ़ापा आने, पार्किंसन रोग, मधुमेह और कुछ खास प्रकार के कैंसरों के इलाज में किया जा सकता है। ओहसूमी ने खुद को खा जाने वाली कोशिकाओं की प्रक्रिया ऑटोफैगी में गड़बड़ी आने और उससे होने वाली बीमारियों के बीच रिश्ता खोजा है। ऑटोफैगी, कोशिका के नष्ट होने और उसके पुनर्निर्माण होने बल्कि रिसाइक्लिंग की प्रक्रिया को कहते हैं। यह जिंदा रहने में हमारी मदद करती है। यह कोशिका शरीर विज्ञान की एक मौलिक प्रक्रिया है, जिसका मानव स्वास्थ्य और बीमारियों से निकट संबंध है। अगर ऑटोफैगी जीन में खराबी आ जाती है तो कई घातक रोगों का खतरा बढ़ जाता है। कोशिकाएँ नष्ट होती हैं और फिर अपने हिस्सों का पुनर्निर्माण कर लेती हैं। इससे व्यक्ति को भूख और तनाव का अहसास होता है। यह संक्रमण के दौरान बैक्टीरिया और वाइरस को नष्ट करने का काम भी करती है।
हालांकि ऑटोफैगी के बारे में काफी पहले से जानकारी थी लेकिन इसकी क्रियाविधि और कायिकी का बहुत कम ज्ञान था। अनेक संकेतों के बावजूद कि ऑटोफैगी एक महत्वपूर्ण कोशिकीय प्रक्रिया हो सकती है, इसकी क्रियाविधि और नियमनों को समझने के कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए। विश्व भर में केवल कुछ ही प्रयोगशालाओं में इस पर काम हो रहा था जो ऑटोफैगी की अंतिम अवस्थाओं अर्थात लाइसोसोम से जुड़ने के बिल्कुल पहले या बाद वाली अवस्थाओं से संबंधित था। योशीनोरी ओहसूमी के काम ने इस प्रमुख कोशिकीय प्रक्रिया को समझने में नाटकीय मोड़ ला दिया। वर्ष 1993 में, ओहसूमी ने यीस्ट में ऑटोफैगी के लिए आवश्यक 15 जीनों की अपनी खोज को प्रकाशित किया। आगे किए गए अपने अध्ययनों में उन्होंने इन जीनों में से कई को यीस्ट और मैमेलियन कोशिकाओं में क्लोन किया और एनकोडित प्रोटीनों की क्रिया के बारे में बताया। ओहसूमी द्वारा की गयी खोजों के आधार पर मानवीय कायिकी और रोगों में ऑटोफैगी के महत्व को समझा गया। अन्य कोशिकीय क्रियाओं के विपरीत, ऑटोफैगी लंबे समय तक रहने वाली प्रोटीनों, क्षतिग्रस्त हो गए बड़े मैक्रोमॉलिक्युलर कम्प्लेक्स और क्षतिग्रस्त कोशिकांगों को हटाती है। इसके अतिरिक्त ऑटोफैगी, अनाधिकार प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीवों एवं विषैली प्रोटीनों की सफाई करने में सक्षम कोशिकीय प्रक्रिया होती है इसलिए संक्रमण, वृद्धावस्था और अनेक मानवीय रोगों की पैथोजेनेसिस में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
ओहसूमी की इन खोजों के बाद, अपक्षयित की गयी कोशिकाओं के आधार पर ऑटोफैगी के विभिन्न उपप्रारूप भी विकसित किए जा सकेगें। ऑटोफैगी के जिस प्रारूप का सबसे अधिक अध्ययन किया गया है, वह है मैक्रोऑटोफैगी जिसमें साइटोप्लाज्म और कोशिकीय उपांगों को अपक्षयित किया जाता है। अचयनित ऑटोफैगी निरंतर चलती रहती है लेकिन किसी प्रकार के तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप और अधिक प्रेरित हो जाती है जैसे कि निराहार अवस्था में। ऑटोफैगी के अन्य प्रारूपों में मैक्रोऑटोफैगी 40 शामिल है जिसमें लाइसोमल भित्ति के भीतरी वलय सीधे ही साइटोप्लाज्मिक पदार्थों को पचा लेते हैं। कभी कभी ऑटोफैगी में गड़बड़ी से कोशिका के कई हिस्से निरंतर नष्ट होने लगते हैं, लेकिन नष्ट हो गए हिस्सों का पुनर्निर्माण नहीं होता। इससे बुढ़ापे की प्रक्रिया तेजी से बढ़ने लगती है। ऑटोफैगी से कोशिकाओं को ऊर्जा भी मिलती है, जिससे नयी कोशिकाओं का निर्माण होता है। ओहसूमी की खोज के जरिए कैंसर और बुढ़ापे जैसी बीमारियों के लिए तमाम दवाएं विकसित की जा रही हैं। ओहसूमी को ऑटोफैगी के रहस्य पर से पर्दा उठाने में 16 वर्षों का समय लगा।
अब बनेंगी आणविक मशीनें
रसायन शास्त्र का नोबेल भी एक तरह से चिकित्सा शास्त्र के लिए अत्यंत उपयोगी क्षेत्र के लिए दिया गया है। यह क्षेत्र है आणविक मशीनों का, जिनमें से एक, पिछले साल तैयार रसायन कॉम्बर स्टैटिन ए-4 को कैंसर के इलाज में आजमाया जा रहा है। इस वर्ष रसायन के नोबेल पुरस्कार विजेताओं स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय में काम करने वाले फ्रांसीसी ज्यां पिएर सावेज, रॉयल नीदरलैंड्स एकेडमी ऑफ साइंसेज के डच वैज्ञानिक बर्नार्ड फेरिंग और अमेरिका के नार्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय में कार्यरत जेम्स फ्रेजर स्टोडार्ट को प्रदान किया गया है। इन्होंने अपनी तीस साल की तपस्या से इतनी सूक्ष्म केमिकल मशीनें तैयार करने का हुनर विकसित कर दिया है, जो इलेक्ट्रॉनिक माइक्रोस्कोप से भी धुंध जैसी दिखती हैं।
मानव के विकास के दौर में, लोगों के जीवन को सरल और बेहतर बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की मशीनों का विकास तकनीकी प्रगति का मुख्य केंद्र रहा है। मशीनें ही औद्योगिक क्रांति का मूल थीं जिनसे हमारे जीवन में अनेक परिवर्तन आए। पिछले दशकों में वैज्ञानिकों का उद्देश्य मशीन निर्माण के कार्य को और आगे बढ़ाना था। जिसके अंतर्गत ऐसी मशीनें बनाने के प्रयास भी किए गए जो अब तक बनी मशीनों की अपेक्षा अतिसूक्ष्म हों। इस वर्ष के रसायन के नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने सुविकसित प्रयोगों की सहायता से दिखाया कि आणविक स्तर की मशीनें बनाना संभव है। प्रत्येक सूक्ष्म, किंतु जटिल आणविक संरचना विश्व की सबसे छोटी मशीन है और ऊर्जा मिलने पर नियंत्रित रूप से गति करती हैं और कोई भी काम कर सकती हैं। सावेज को वास्तविक सफलता 1983 में मिली जब वो दो छल्लों के आकार के अणुओं को जोड़कर केटेनेन नामक चेन बनाने में सफल हुए। इन अणुओं को यांत्रिक बंधों द्वारा जोड़ा गया था जिससे विभिन्न अणु एक साथ मिल कर एक मशीन की तरह काम करने लगे। वर्ष 1991 में फ्रेजर स्टोडार्ट ने आणविक मशीन बनाने की दिशा में दूसरा महत्वपूर्ण कदम उठाया। उन्होंने रोटाजेन नामक आणविक संरचना विकसित की। दूसरे शब्दों में, उन्होंने एक पतले आणविक अक्ष पर आणविक छल्ले को स्थापित किया और दिखाया कि छल्ला, अक्ष के सापेक्ष घूमने में सक्षम था। इस काम के आधार पर, बाद में उन्होंनेे एक मॉलिक्यूलर निफ्ट, मॉलिक्यूलर पेशी और अणु आधारित कम्प्यूटर चिप बनायी। फेरिंगा 1999 में आणविक मोटर विकसित करने वाले पहले व्यक्ति थे। वास्तव में, उन्हें एक आणविक रोटर ब्लेड बनाने में सफलता मिली जो लगातार एक दिशा में घूम सकता था। इस खोज से उन्होंने मोटर से 10,000 गुना बड़े ग्लास सिलिंडर को घुमा कर दिखाया। उन्होंने एक नैनोकार भी डिजाइन की।
रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वालों ने मशीनों को अत्यंत सूक्ष्म बनाकर, रसायन विज्ञान को एक नया आयाम दिया है। ये वैज्ञानिक आणविक तंत्रों को संतुलन के गतिरोध से बाहर ऊर्जा पूरित अवस्था में ले गए जहाँ उनकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है। विकास के संदर्भ में, आणविक मोटर उसी अवस्था में हैं, जहाँ 1830 के दशक में विद्युत मोटर थी, जब वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशाला में उसके घूमते हुए क्रैन्क्स और व्हील दिखाए थे तब उन्हें पता नहीं था कि इसके आधार पर आगे चल कर इलेक्ट्रिक ट्रेन, वाशिंग मशीन, पंखे और फूड प्रोसेसर बनाए जाएंगे। आणविक मशीनों का उपयोग संभवतः निकट भविष्य में वे नए पदार्थ, सेंसर्स और ऊर्जा स्टोरेज तंत्र बनाने के लिए कर सकेंगे। रसायन विज्ञान ने एक नयी दुनिया में कदम रखा है। समय ने अतिलघुकृत कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के क्रांतिकारी प्रभाव को दिखा दिया है जबकि हमने केवल मशीनों के सूक्ष्मीकरण की आरंभिक अवस्थाओं को देखा है। आज इस बात का जबाव हमारे पास है कि मशीन कितनी छोटी हो सकती है? जी हाँ, एक बाल से लगभग 1000 गुना पतली।
क्वांटम कम्प्यूटर की राह हुई आसान
भौतिकी का नोबेल प्राइज इस बार ग्रैविटेशनल वेव्ज की पहचान करने वाली लीगो टीम को मिलने की उम्मीद थी लेकिन चयनकर्ताओं की समिति ने शायद इस उदीयमान क्षेत्र के और ज्यादा विकसित होने का इंतजार करना बेहतर समझा है। इसीलिए इसके बजाय उन्होंने सुपरकंडक्टिविटी और सुपरलिक्विडिटी जैसी विचित्र परिघटनाओं के सिद्धांत पक्ष पर काम करने वाली डेविड थूलेस, डंकन हाल्डेन और माइकल कोस्टरलिट्ज की ब्रिटिश मूल के वैज्ञानिकों की टीम को पुरस्कृत किया है। इन तीनों वैज्ञानिकों को टोपोलॉजी का विशेषज्ञ माना जाता है, यह भौतिकी की वह शाखा है, जिसमें पदार्थों को तोड़ने मरोड़ने पर भी उनके गुणों में बदलाव नहीं आता। इन लोगों का मानना है कि आम जिंदगी में भौतिकी के असली चमत्कार अभी आने बाकी है, उनकी उम्मीदें सबसे ज्यादा इनकी सुपर डुपर भौतिकी पर टिकी हुयी है।
इन तीनों वैज्ञानिकों ने उन दुर्लभ पदार्थों की खोज की जो असामान्य गुण या स्थिति प्रदर्शित करते हैं, जैसे सुपरकंडक्टर या सुपर फ्लुइड्स। इससे नयी पीढ़ी के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, क्वांटम कम्प्यूटर के विकास की राह प्रशस्त हुई है। रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज ने कहा है कि इन वैज्ञानिकों ने एक अज्ञात दुनिया के रहस्यों को उजागर किया, जहाँ पदार्थ असामान्य गतिविधियाँ और गुण प्रदर्शित करते हैं और पदार्थ की अनूठी अवस्थाओं के अध्ययन से भविष्य में सुपरफास्ट और छोटे कम्प्यूटर बनाने में मदद मिल सकती है।
1970 के दशक के आरंभ में कोस्टरलिट्ज और थूलेस ने उस समय मौजूद सिद्धांत को पलट दिया जिसके अनुसार सुपरकंडक्टीविटी और सुपरफ्लुइडिटी पतली परतों में संभव नहीं होती। इन्होंने दिखाया कि सुपरकंडक्टिविटी कम तापमान पर भी संभव है और प्रावस्था परिवर्तन की उस क्रियाविधि की भी व्याख्या की जिसके कारण उच्च तापमान पर अतिचालकता का यह गुण नष्ट हो जाता है। लगभग उसी समय 1980 के दशक में हाल्देन ने खोज की कि किस प्रकार टोपोलॉजिकल संकल्पनाओं का उपयोग कुछ पदार्थों में पाए जाने वाले छोटी चुंबकीय शृंखलाओं के गुणों को समझने में किया जा सकता है।
नोबेल विजेता इन वैज्ञानिकों ने ऐसे दुर्लभ पदार्थों में विभिन्न चरणों में आए आंतरिक बदलावों की खोज की और इससे जुड़े सिद्धांतों को प्रतिपादित किया। इन्होंने सुपरकंडक्टर, सुपर फ्लुइड या पतली चुबंकीय फिल्म के असामान्य गुणों एवं चरणों का अध्ययन कर आधुनिक गणितीय सिद्धांत प्रस्तुत किया। अब हमें न केवल पतली परतों और धागों में बल्कि साधारण त्रिआयामी पदार्थों में अनेक टोपोलॉजिकल प्रावस्थाओं का ज्ञान है। पिछले दशक में कन्डेन्स्ड मैटर फिजिक्स के क्षेत्र में अनुसंधान में इस आशा से बहुत तेजी आयी है कि टोपोलॉजिकल पदार्थों का उपयोग भविष्य में नयी पीढ़ी के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और सुपरकंडक्टर या क्वांटम कम्प्यूटर्स में किया जा सकेगा।
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