आनुवांशिकी का नव आयाम और रसायन का नोबेल सम्मान
शुकदेव प्रसाद
इस वर्ष का रसायन का नोबेल पुरस्कार तीन विज्ञानियों को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया है। 1938 में स्वीडन में जन्मे, फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट, लंदन के लिंडाल; 1946 में अमेरिका में जन्मे, होआर्ड ह्यूजेज मेडिकल इंस्टीट्यूट और ड्यूक यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन, अमेरिका के विज्ञानी पॉल मॉड्रिक तथा 1946 में तुर्की में जन्मे यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ कैरोलिना के वैज्ञानिक अजीज संकार-अब अमेरिका नागरिकता प्राप्त-को यह पुरस्कार डी.एन.ए.के. एक और रहस्य के अनावरण के लिए प्रदत्त किया गया है। यद्यपि इन तीनों वैज्ञानिकों ने एक ही दिशा में स्वतंत्र रूप से शोधें की लेकिन इसका सुफल एक ही था और वह था कि आखिरकार हमारी कोशिकाएं क्षतिग्रस्त डी.एन.ए. का परिशोधन कैसे कर लेती हैं?
रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज ने पुरस्कार की घोषणा करते हुए अपनी प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि ‘रसायन विज्ञान का नोबेल पाने वाले तीनों विज्ञानियों ने मैपिंग और शोध करके प्रदर्शित किया कि कोशिकाओं में एक टूल बाक्स होता है जिसके द्वारा वे डी.एन.ए. की मरम्मत (परिशोधन) करके आनुवंशिक सूचनाओं की रक्षा करती हैं। इन शोधों की महत्ता और आनुवंशिकी के क्षेत्र में इनके अग्रगामी चरणों और चिकित्सा के क्षेत्र में होने वाली भावी लब्धियों पर प्रकाश डालने से पूर्व हमें थोड़ा अतीत में लौटना होगा और डी.एन.ए. के अनुसंधान पर चर्चा करनी होगी, सभी यह विवृत्ति संपूरण को प्राप्त करेगी।
वैज्ञानिकों ने कोशिका का अध्ययन करते समय देखा कि जब कोशिका विश्रामावस्था में होती है तो उसका केंद्रक एक धूमिल जाल सदृश दिखायी देता है, जिसका नाम ‘क्रोमेटिन रखा गया। कोशिका विभाजन का अध्ययन करते समय देखा गया कि समसूत्री विभाजन द्वारा विभाजन की क्रिया में क्रोमेटिन पदार्थ में कुछ परिवर्तन आ गए। विभाजन की क्रिया में क्रोमेटिन पदार्थ सिकुड़कर ऐसा हो गया मानो धागे का गुच्छा हो। वैज्ञानिकों ने इस गुच्छे को ‘गुणसूत्र’ कहा। विभाजन की क्रिया में प्रत्येक क्रोमोसोम के लंबाई में दो-दो भाग हो गए और अंत में दोनों भाग एक दूसरे से अलग हो गए। इस प्रकार समसूत्री विभाजन द्वारा बनी दोनों नयी कोशिकाओं में से प्रत्येक में उतने ही क्रोमोसोम थे जितने कि मातृ कोशिकाओं में थे। लेकिन अर्धसूत्री विभाजन ;डमपवेपेद्ध का अध्ययन करते समय वैज्ञानिकों ने पाया कि नयी बनने वाली कोशिकाओं में क्रोमोसोम संख्या मातृ कोशिका के क्रोमोसोम संख्या की आधी ही रह जाती है। चूंकि यह विभाजन केवल जनन कोशिकाओं में होता है अतः इस आधार पर एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ कि किसी भी जीवधारी या मनुष्य की उत्पत्ति एक कोशिका के रूप में होती है जो माता-पिता के क्रमशः डिंब और शुक्राणु के मिलने से बनती है।
अतः यह स्पष्ट हो गया कि ‘मियासिस‘ के परिणामस्वरूप ही प्रत्येक शिशु को क्रोमोसोम जोड़े का एक सेट माता से और एक सेट पिता से प्राप्त होता है। दोनों के मिलने से संख्या पुनः दूनी अर्थात् पूर्ण हो जाती है जैसे कि मानव शिशु में 23 क्रोमोसोम मां के और 23 क्रोमोसोम पिता के मिलने पर संख्या 46 हो जाती है। हर जीव में क्रोमोसोमों की संख्या निश्चित होती है। यह एक प्रजातिक लक्षण है।
वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि इन धागे सदृश रचनाओं में कुछ ऐसी विशेषताएं अवश्य निहित हैं जो कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में गुणों को ले जाती हैं। चूंकि प्रत्येक जीव हजारों पैतृक गुणों से युक्त होता है अतः महज क्रोमोसोमों की खोज से ही आनुवंशिकी की तमाम समस्याओं का निदान न हो सका। इस विषय पर और शोध किए जाने पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गुण वाहक आनुवंशिक पदार्थ क्रोमोसोम में निहित कुछ अन्य सूक्ष्म रचनाएं हैं। इनको वैज्ञानिकों ने जीन ;ळमदमद्ध की संज्ञा दी जो डी. एन. ए. अणुओं के छोटे-छोटे अंश हैं। डी.एन.ए. वास्तव में संसार का सबसे विलक्षण रसायन है जिसमें स्वयं अपने अणु बनाने (प्रतिलिपि तैयार करने) की क्षमता है। डी.एन.ए. अपनी प्रतिलिपि तो स्वयं बनाता ही है, इसके अतिरिक्त प्रोटीन संश्लेषण की प्रक्रिया आरंभ करता है एवं शरीर की अन्य जैविक क्रियाओं पर निंयत्रण रखता है। क्रोमोसोम पर पाए जाने वाले ‘जीन’ ही पैतृक गुणों के लिए जिम्मेदार हैं। ये जीन ही वंशानुगत गुणों के वाहक हैं। ये जीन ही हैं जो इस बात को निर्धारित करते हैं कि विभाजित होती हुई कोशिकाओं से अंततः एक मनुष्य बनेगा या बंदर या कोई पेड़ और उसमें अपने पूर्वजों के क्या-क्या गुण होंगे?
जीन की प्रकृति समझने के निरंतर प्रयास होते रहे। वर्ष 1928 में ग्रिफिथ नामक एक अंग्रेज वैज्ञानिक के प्रयास से ज्ञात हुआ कि जीन एक रासायनिक पदार्थ है। 1943 में लुरिया और डेलब्रुक के प्रयोगों से ज्ञात हुआ कि जीन स्वयं परिवर्तित भी होते हैं। न्यूयॉर्क के रॉकफेलर इंस्टिट्यूट के एवरी मैकलियोड और मैकार्थी के प्रयोगों से पता चला कि जीन की रासायनिक प्रकृति निश्चित रूप से प्रोटीन एवं न्यूक्लिक अम्ल की है। इधर के वर्षों में हुए अनुसंधानों से पता चला है कि जीन डिऑक्सीराइबोज न्यूक्लिक अम्ल का केवल एक भाग है। डी. एन. ए. आनुवंशिक तत्व है। जीन, डी. एन. ए. के छोटे-छोटे टुकड़े होते हैं और ये गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं। डी. एन. ए. शर्करा, फास्फेट तथा चार नाइट्रोजन बेसों (क्रमशः एडीनीन, गुआनीन, थायमीन और साइटोसीन) से बना होता है। डी.एन.ए. के नाइट्रोजन बेसों के स्थित होने का क्रम बड़ा महत्वपूर्ण है। इनके व्यवस्थित होने के विभिन्न क्रमों के कारण ही विश्व में विभिन्न प्रकार के जंतु एवं वनस्पतियों पायी जाती हैं। डी.एन.ए. की संपूर्ण संरचना सीढ़ीनुमा प्रतीत होती है। वास्तव में डी.एन.ए. के अणु में न्यूक्लिओटाडों से बनी दो लड़ियां आपस में सर्पिलाकार सीढ़ियों के रूप में गंुथी हुई होती हैं और न्यूक्ओिटाइड उक्त चारों नाइट्रोजन बेसों के विभिन्न क्रमों से जुड़े होते हैं। इन चार बेसों (क्षारों) में से कोई तीन त्रिक होता है। यह ‘त्रिक’ यानी ‘तीन अक्षर’ एक अमीनो अम्ल के लिए विशेष चिन्ह का काम करते हैं। कम से कम 20 विभिन्न अमीनो अम्ल मिलकर एक प्रोटीन का निर्माण करते हैं जो वास्तव में किसी भी जीवधारी के शरीर के प्रोटीन का निर्माण करते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रोटीनें ही हमारे शरीर की हर क्रिया को नियंत्रित करती है।
प्रोटीन संश्लेषण केंद्रक के बाहर राइबोसोमों पर होता है। राइबोसोम्स छोटी-छोटी दानेदार संरचनाएं होती हैं जो अंतःप्रदव्यीजालिका की सतह पर पायी जाती हैं और कोशिका द्रव्य में भी होती हैं। सामूहिक रूप से इन्हें पालीसोम्स कहते हैं। डी.एन.ए. ही आर.एन.ए. का संश्लेषण करता है। दोनों न्यूक्लिक अम्ल हैं। दोनों में राइबोस शर्करा होती है। डी.एन.ए. में अनाक्सीकृत शर्करा होती है जबकि आर.एन.ए. में आक्सीकृत शर्करा होती है। डी.एन.ए. में दुहरी कुंडली होती है जबकि आर.एन.ए. एकल कुंडली वाली संरचना होती है। डी.एन.ए. में जहाँ पिरीमिडीन थायमीन होती है, वहीं आर.एन.ए. में यूरेसिल होती है। अमीनो अम्लों के परस्पर संयोजन से ही प्रोटीनों का संश्लेषण होता है। ये अमीनो अम्ल कोशिका द्रव्य में पोषण के माध्यम से प्राप्त होते हैं। डी.एन.ए. में जब अनुलिपिकरण की प्रक्रिया आरंभ होती है तो उसी समय आर.एन.ए. का निर्माण हो जाता है। पहले डी.एन.ए. अकुंडलित होता है और दोनों कुंडलियां अपना अनुपूरक बना लेती हैं तो एक डी.एन.ए. अणु से दो डी.एन.ए. बन जाते हैं जो एक दूसरे के प्रतिरूप होते हैं।
यदि डी.एन.ए. को आर.एन.ए. का संश्लेषण करना होता है तो शर्करा आक्सीकृत हो जाती है, दोनों कुंडलियां अलग हो जाती हैं (अपना अनुपूरक नहीं बनाती हैं) और नाइट्रोजन क्षार वही होते हैं, अलबत्ता थायमीन यूरेसिल में परिवर्तित हो जाती है। इसी समय डी.एन.ए. अपनी सूचनाओं को निर्देशों के रूप में आर.एन.ए. में अंकित कर देता है।
यह आर.एन.ए. संदेशवाहक आर.एन.ए. के रूप में केंद्रक को छोड़कर कोशिका द्रव्य में उपस्थित राइबोसोम्स से जाकर चिपक जाता है और अमीनो अम्लों के संयोजन के क्रम को निर्देशानुसार नियंत्रित करता है। राइबोसोम्स में राइबोसोमल आर.एन.ए. पहले से होती है। कोशिका द्रव्य में उपस्थित अमीनो अम्ल राइबोसोम्स तक स्वयं नहीं पहुंच सकते हैं। इसलिए इनको राइबोसोम्स तक पहुंचाने का कार्य कोशिका द्रव्य में स्वतंत्र रूप से उपस्थित स्थांतरक आर.एन.ए. करते हैं।
हर अमीनो अम्ल को राइबोसोम्स तक पहुंचाने के लिए अलग से एक जत्छ। होता है। अतः अगर अमीनो अम्ल 20 हैं ;हमें 23 अमीनो अम्लों की जानकारी हैद्ध तो जत्छ। भी 20 ही होते हैं। जत्छ। द्वारा अमीनो अम्ल एक-एक करके राइबोसोम्स तक पहुंचते रहते हैं जहां डी.एन.ए. से प्राप्त संदेशानुसार इनको एक विशेष क्रम में संयोजित करते रहते हैं और इस तरह नए प्रोटीन अणु का संश्लेषण हो जाता है। जत्छ। अमीनो अम्लों को राइबोसोम्स तक पहुंचाकर स्वतंत्र हो जाते हैं और पुनः फिर से नए अमीनो अम्लों को राइबोसोम्स तक पहुंचाने का कार्य करने लगते हैं। प्रोटीन संश्लेषण के लिए कुछ ऊर्जा की आवश्यकता होती है, वह ए.टी.पी. अणुओं से निरंतर प्राप्त होती रहती है। उल्लेखनीय है कि प्रोटीन ही हमारे शरीर की हर क्रियाविधि को नियंत्रित करती हैं।
प्रायः 1970 तक यह मान्यता थी कि डी.एन.ए. अत्यंत स्थिर अणु है लेकिन यह अवधारणा अब परिवर्तित हो चुकी है। यूं भी पूर्व में भी हमें ज्ञात था कि जब डी.एन.ए. अनुलिपीकरण के समय संदेशवाहक आर.एन.ए. बनाता है तो वह वांछित प्रोटीन के निर्माण हेतु अपने को पुनर्योजित करता है और यदि इस समय किसी कारणवश आनुवंशिक कूट परिवर्तित हो जाता है तो अवांछित प्रोटीन बनने लगती है और हम व्याधिग्रस्त हो जाते हैं। मसलन हम अवसाद में हों, किसी गलत औषधि का सेवन कर लिया हो, जिंदगी से किनारा करने के लिए सल्फास, एल्ड्रिन, डाई एल्ड्रिन या कि किसी कीटनाशक को पी लिया हो अथवा किसी आपरेटर की जरा सी लापरवाही से रेडिएशन का एक्स्ट्रा डोज हमें मिल गया हो (एक्स-रे, सीटी स्कैन, पेट स्कैन आदि) तो डी.एन.ए. में टूट-फूट होना अवश्यंभावी हैे। यदि कोई व्यक्ति काल्सीचीन पी ले या कि उसे जला दिया जाय तो डी.एन.ए. का संश्लेषण रुक जाता है। लेकिन सवाल यह है कि आखिरकार हमारी जेनेटिक सूचनाएं कैसे संरक्षित रह पाती हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी तक उनके प्रवाह का नैरंतर्य जारी है? और मनुष्य नाम्नी प्रजाति अभी भी ‘मानव’ ही है, अन्यथा कब का विनष्ट हो गया होता।
इस रहस्यमय गुत्थी को इस वर्ष के रसायन के नोबेल समादृत विज्ञानियों ने सुलझाने में अपना अप्रतिम योगदान दिया है। एक कोशिका से दूसरी कोशिका, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी, जेनेटिक सूचनाएं बताती हैं कि कैसे मनुष्य के शरीर में हजारों-लाखों वर्षों में विकास हुआ, लेकिन उसकी मूल अभिव्यक्ति नहीं परवर्तित हुई। प्रतिदिन पराबैंगनी विकिरण, मुक्त रेडिकल और अन्य कैंसरकारी तत्व हमारे डी.एन.ए. को क्षति पहुंचाते हैं, लेकिन फिर भी हमारे डी. एन.ए. के अणु मूल रूप से अस्थिर ही रहते हैं। कोशिकाओं के डी.एन.ए. में प्रतिदिन हजारों बदलाव आते हैं। साथ ही कोशिकाओं के विभाजन के दौरान डी.एन.ए. की प्रतिकृति तैयार होने के समय भी उसे क्षति पहुंचती है, यह प्रक्रिया भी मानव शरीर में प्रतिदिन लाखों बार होती है। लेकिन कोशिकाओं में एक आणविक प्रणाली लगातार डी.एन.ए. की निगरानी और मरम्मत करती रहती है और इस कारण से आनुवंशिक पदार्थ विखंडित नहीं होता। इन वैज्ञानिकों ने डी.एन.ए. की मरम्मत के विभिन्न तरीकों का मैपिंग किया। लिंडाल ने सिद्ध किया कि डी.एन.ए. का क्षय भी होता है और उसकी मरम्मत भी होती रहती है। उन्होंने यह बताया कि डी.एन.ए. के अंदर एक आण्विक मशीनरी डी.एन.ए. को नष्ट होने से बचाने का काम लगातार करती रहती है। संकार ने पराबैंगनी किरणों से डी.एन.ए. को होने वाले क्षति के परिशोधन की प्रक्रिया की मैपिंग की। यही कारण है कि डी.एन.ए. की परिशोधन प्रणाली में गड़बड़ी वाले लोगों को धूप में रहने के कारण त्वचीय कैंसर होने की आशंका कहीं अधिक होती है। मॉड्रिच ने प्रदर्शित किया कि कोशिकाओं के विभाजन के दौरान जब डी.एन.ए. की प्रतिकृति तैयार होती है तो कोशिकाएं कैसे डी.एन.ए. में आई त्रुटियों को कितनी तीव्रता से दूर करती हैं। इससे जन्मजात रोगों के उपचार में हमें सहायती मिली है। पर्यावरण और अन्य बाह्य प्रभावों के बावजूद मनुष्य की मूल पहचान कायम रह सकी है।
डी.एन.ए. और आनुवंशिक कूट
जेम्स वाटसन और क्रिक ने डी.एन.ए. का दुहरी कुंडली वाला मॉडल प्रस्तुत किया। मारिस विलकिंस ने एक्स-रे विवर्तन पद्धति से 1953 में DNA का चित्रण किया था, जिसके आधार पर वाटसन और क्रिक ने डी.एन.ए. का अद्भुत संसार सृजित कर दिखाया। उनकी इस महत्त्वपूर्ण लब्धि के लिए 1962 में वाटसन, क्रिक और मारिस विलकिंस को संयुक्त रूप से चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। प्यूरीन और पिरीमिडीन मिलकर डी.एन.ए. की संरचना में विशिष्ट योग देती हैं। प्यूरीन दो होती हैं-एडीनीन और गुआनीन। इसी तरह पिरीमिडीन भी दो होती है- साइटोसीन और थायमीन। एडीनीन हमेशा थायमीन से और गुआनीन हमेशा साइटोसीन से संयुक्त होती है और इनको जोड़ने का कार्य हाइड्रोजन बंध करते हैं।
एडीनीन और थायमीन के बीच हाइड्रोजन के दो बंध और गुआनीन तथा साइटोसीन के बीच हाइड्रोजन के तीन बंध होते हैं जो अत्यंत दुर्बल होते हैं। जब डी.एन.ए. को अपनी प्रतिलिपि बनानी होती है तो सबसे पहले हाइड्रोजन के बंध टूट जाते हैं और डी.एन.ए. अकुंडलित होकर दो स्वतंत्र लड़ियों में बदल जाता है। फिर दोनों लड़ियां अपनी-अपनी प्रतिलिपियां बना लेती हैं और इस प्रकार एक डी.एन.ए. से दो डी.एन.ए. अणुओं की संरचना हो जाती है। डी.एन.ए. के नाइट्रोजन क्षारों के स्थित होने का क्रम बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इनके व्यवस्थित होने के विभिन्न क्रमों के कारण ही विश्व में विभिन्न प्रकार के जंतु एवं वनस्पतियां पायी जाती हैं। डी.एन.ए. की संपूर्ण संरचना सीढ़ीनुमा प्रतीत होती है। वास्तव में डी.एन.ए. के अणु में न्यूक्लिओटाइडों से बनी दो लड़ियां आपस में सर्पिलाकार सीढ़ियों के रूप में ;क्वनइसम भ्मसपगद्ध गुंथी होती हैं और न्यूक्लिओटाइड उक्त चारों नाइट्रोजन क्षारों के विभिन्न क्रमों से जुडे़ होते है। डी.एन.ए. की दोनों लड़ियों को ही न्यूक्लिओटाइड कहते हैं। हर न्यूक्लियोटाइड तीन विभिन्न भागों से निर्मित होता है।
1. नाइट्रोजन क्षार। इनके दो वर्ग हैं- प्यूरीन और पिरीमिडीन। प्यूरीन्स दो होती हैं- एडीनीन और गुआनीन। पिरीमिडीन्स भी दो होती हैं- साइटोसीन और थायमीन।
2. शर्करा। डी.एन.ए. में डी आक्सीराइबोस और आर.एन.ए. में राइबोज शर्करा होती है।दोनों पेंटोज शर्कराएं हैं।
3. फास्फोरिक एसिड अणु अथवा फास्फेट। भिन्न न्यूक्लिओटाइड इस प्रकार फास्फेट से संयुक्त होते है।
नाइट्रोजन क्षार- शर्करा
फास्फोरिक अम्ल
नाइट्रोजन क्षार- शर्करा
फास्फोरिक अम्ल
नाइट्रोजन क्षार- शर्करा
फास्फोरिक अम्ल
उक्त चारों क्षार ही जीवन पुस्तिका के अक्षर हैं। इनमें से किन्हीं तीन अक्षरों का समूह ‘त्रिक’ होता है। यह त्रिक यानी ‘तीन अक्षर’ एक अमीनो अम्ल के लिए विशेष चिह्न का काम करते हैं। उक्त तीन-तीन अक्षरों का समूह ही जीवन की भाषा है जिसे आनुवंशिक कूट या कूट कहते हैं। यथा-
TGC ATC TTA CAT CTT ACC TAG AAT GTA AGAAATआदि।
यहां
T = Thymine थायमीन
A = Adenine एडीनीन
G = Guanine गुआनीन
C = Cytosine साइटोसीन
प्रोटीन का संश्लेषण इन्हीं तीन-तीन अक्षरों की भाषा ;ब्वकमद्ध का अनुपालन करते हुए होता है। अतः यह कूट अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इन अक्षरों की भाषा पढ़ ली जाय तो किसी भी जीवधारी की जीवनकुंडली बांची जा सकती है। उसके सद्गुणों, विकृतियों, भविष्यत् की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। मानव जीनोम परियोजना इसका अग्रगामी चरण है। मानव कोशिका में पाए जाने वाले समस्त गुणसूत्र समुच्च या संपूर्ण जीन समुच्चय को ही जीनोम कहते हैं।
मानव जीनोम में क्षार युग्मों की अनुमानित संख्या 3.1 अरब है जो डी.एन.ए. निर्मित करते हैं और प्रकारांतर से हमारी जीवन पुस्तिका भी। यह जीवन पुस्तिका अब प्रस्तुत है। उनकी इबारतों को मिलाकर वाक्य, वाक्यों को मिलाकर पैराग्राफ, अध्याय और अंत में जो पुस्तिका निर्मित होगी, उसके गूढ़ार्थ पढ़ना बाकी है। इसमें 10.20 वर्ष या 100 वर्ष भी लग सकते हैं। यदि ऐसा सब कुछ संभव हुआ तो मानव प्रजाति के अनेक गोपन रहस्य उजागर होंगे और अनेक लाइलाज बीमारियां लाइलाज नहीं रह पायेंगी।
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