हिंदी में विज्ञान साहित्य का विहंगावलोकन
षुकदेव प्रसाद
हिंदी में विज्ञान साहित्य के निर्माण की एक गौरवशाली और सुदीर्घ परंपरा रही है जिसकी अब स्वर्णिम स्मृतियां ही शेष हैं। भाग्यवश हमारे बीच अब कुछेक लोग ही बचे हैं जिन्होंने उस काल खंड को जिया और उससे प्रेरित होकर उनमें भी ऐसी प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने अपनी ज्ञान की सीमाओं में और स्वाध्याय से इस परंपरा को पुष्पित और पल्लवित किया। इस सुदीर्घ यात्रा के विहंगावलोकन के लिए हमें अतीत में जाना होगा। हिंदी और हिंदीतर भाषाओं में विज्ञान साहित्य के निर्माण के प्रयास 19वीं शताब्दी के अवसान और 20वीं शती के उन्मेष काल से ही आरंभ हो चुके थे और 20वीं शती के साठादि-सत्तरादि तक इस दिशा में अभूतपूर्व प्रयास हुए लेकिन अस्सी आदि तक आते-आते यह परंपरा शनैः शनैः अवसान को प्राप्त होने लगी। ऐसा क्यों कर हुआ, उसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
हिंदी में विज्ञान साहित्य के पुरोधा स्वामी डॉ.सत्य प्रकाश सरस्वती एक स्थल (अगस्त,1937) पर 1855 में आगरे से छपी पंडित कुंज बिहारी लाल की किताब ‘लघु त्रिकोणमिति’ को आधुनिक विज्ञान का प्रथम ग्रंथ सूचित करते हैं लेकिन इसके पूर्व ओंकार भट्ट ‘ज्योतिष चंद्रिका’ 1840 में ही प्रस्तुत कर चुके थे। बहरहाल, इसके बाद वापूदेव शास्त्री कृत संस्कृत में लिखी ‘त्रिकोणमिति’ का वेणीशंकर झा कृत हिंदी अनुवाद 1859 में प्रकाशित हुआ। फिर 1860 में आरा से बलदेव झा ने अंग्रेजी पुस्तक ‘पापुलर नेचुरल फिलासफी’ का ‘सरल विज्ञान विटप’ नाम से हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया। 1859-60 में पादरी शोरिंग द्वारा संपादित ‘विद्यासागर’ नामक विज्ञान पुस्तक माला मिर्जापुर से प्रकाशित हुई। सरकार की ओर से 1861 में ‘मैन’ से लेसन्स इन जनरल केमिस्ट्री’ का मथुरा प्रसाद मिश्र कृत हिंदी अनुवाद छपा। नाम था- ‘बाह्य प्रपंच दर्पण’। 1860 में वंशीधर, मोहनलाल और कृष्ण दत्त द्वारा अनुवादित ग्रंथ ‘सिद्ध पदार्थ विज्ञान’ (यंत्र शास्त्र का ग्रंथ) प्रकाशित हुआ। 1860 में ही प्रयाग से बाल कृष्ण शास्त्री खंडरकर की ज्योतिष का ‘खगोल’ नाम से हिंदी अनुवाद हुआ।
1867 में जयपुर के राजवैद्य कालिन एस. वैलेन्टाइन ने ‘वायु की उत्पत्ति’ और रसायन विद्या की ‘संक्षेप पाठ’ नामक किताब छपवायी। आगरा निवासी बद्री लाल ने एक अंग्रेजी किताब का अनुवाद किया ‘रसायन प्रकाश’ नाम से, जो कलकत्ते के बैपटिस्ट मिशन प्रेस ने छापा। इसी किताब का दूसरा संस्करण 1883 में लखनऊ के नवल किशोर प्रेस ने छापा। 1887 में वंशीधर की पुस्तक ‘चित्रकारी सार’ छपी।
1870 से 1880 के बीच रूड़की इंजीनियरिंग कॉलेज के अध्यापक जगमोहन लाल ने कई पुस्तकें कॉलेज के छात्रों के लिए लिखीं। इसी समय 1875 में काशी के मिश्र बंधुओं- लक्ष्मीशंकर, प्रभाशंकर और रमाशंकर ने ‘पदार्थ विज्ञान विटप’, ‘त्रिकोणमिति’, ‘प्रकृति विज्ञान विटप’, ‘गति विद्या’, ‘स्थिति विद्या’ और ‘गणित कौमुदी’ पुस्तकें लिखीं। 1882 में लाहौर के नवीन चंद्र राय ने पंजाब विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए ‘स्थिति तत्व’ और ‘गणित तत्व’ पुस्तकें छपवायीं। इसी वर्ष लखनऊ के नवल किशोर प्रेस ने ‘सृष्टि का वर्णन’ पुस्तक छापी।
1883 में इलाहाबाद जिले के निवासी काशी नाथ खत्री द्वारा अनुवादित कृषि की पहली पुस्तक ‘खेती की विद्या के मुख्य सिद्धांत’ शाहजहाँपुर के आर्य दर्पण प्रेस में छपी। 1885 में काशी के पंडित सुधाकर द्विवेदी ने गणित की उच्चकोटि की किताबें ‘चलन कलन’ और ‘चल राशि कलन’ प्रकाशित कीं। पंडित सुधाकर द्विवेदी ने वराहमिहिर कृत ‘पंच सिद्धांतिका’ की टीका 1889 में प्रकाशित की और 1902 में ‘गणतरंगिणी’ लिखी। प्रायः इसी समय उदय नारायण सिंह ने ‘सूर्य सिद्धांत’ की टीका प्रस्तुत की (1903) और बलदेव प्रसाद मिश्र ने 1906 में इसी ग्रंथ की टीका लिखी। उदयनारायण सिंह वर्मा ने प्रख्यात गणितज्ञ आर्यभट (5वीं शती) के ‘आर्यभटीयम्’ नामक ग्रंथ का हिंदी अनुवाद 1906 में प्रकशित किया। पंडित सुधाकर द्विवेदी ने ‘गणित का इतिहास’ (1910) लिखकर इसका पूर्ण परिपाक कर दिया। डॉ. विभूति भूषण दत्त और अवधेश नारायण सिंह प्रणीत ‘हिस्ट्री ऑफ हिंदू मैथेमेटिक्स’ का हिंदी अनुवाद ‘हिंदू गणित शास्त्र का इतिहास’ (भाग 1, अनु. डॉ. कृपा शंकर शुक्ल, हिंदी समिति, लखनऊ,1954) भी इस विधा का गंभीर और प्रामाणिक अध्ययन है। इसी परंपरा में डॉ. ब्रज मोहन कृत ‘गणित का इतिहास’ (हिंदी समिति, लखनऊ, 1965) , डॉ. गोरख प्रसाद कृत ‘भारतीय ज्योतिष का इतिहास’, ‘नीहारिकाएं’, ‘सौर परिवार’ और ‘चंद्र सारिणी’ आदि ज्योतिष और खगोल के अप्रतिम ग्रंथ हैं। डॉ. गोरख प्रसाद ने मेधावी खगोलज्ञ फ्रेड हॉयल की ‘फ्रंटियर्स ऑफ एस्ट्रोनॉमी’ का ‘ज्योतिष की पहंुच’ शीर्षक से उत्कृष्ट हिंदी अनुवाद भी किया। इसी तरह पैट्रिक मूर कृत ‘दि प्लेनेट्स’ का ‘ग्रह और उपग्रह’ शीर्षक से (अनु. पवन कुमार जैन, सी.एस.टी.टी., 1968) और वी. फेडिंस्की कृत ‘मीटिऑर्स’ का हिंदी अनुवाद ‘उल्काएं (अनु. पवन कुमार जैन, सी.एस.टी.टी., 1964) शीर्षक से प्रायः उसी काल में पाठकों की जिज्ञासाओं के शमन के लिए सामने आयीं। इसके पहले ही ‘सूर्य सिद्धांत’ का विज्ञान भाष्य (दो खंडों में, भाष्यकार महावीर प्रसाद श्रीवास्तव) विज्ञान परिषद, प्रयाग ने दिसंबर 1940 में ही प्रकाशित करके ज्योतिष (सिद्धांत) में अभिरुचि रखने वाले पाठकों की उत्कंठाओं का शमन कर दिया था। आगे चलकर पांचवीं सदी के प्रख्यात खगोलज्ञ आर्यभट के अपूर्व ग्रंथ ‘आर्यभटीयम्’ (रचना काल ई. सन् 499) का हिंदी अनुवाद ‘इन्सा’ ने भी आर्यभट की पंद्रहवीं जन्मशती के अवसर पर 1976 में प्रस्तुत किया। अनुवाद राम निवास राय ने किया था।
अब विज्ञानेतिहास पर दृष्टिपातः प्राचीन भारतीय विज्ञानों पर गवेषणापरक गं्रथों की रचना की परंपरा आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय प्रणीत ‘हिस्ट्री ऑफ हिंदू केमिस्ट्री’ (दो खंड, प्रकाशन क्रमशः 1902, 1908) से आरंभ होती है। इन गं्रथों के अवलोकन से, प्राचीन भारत में रसायन की महनीय परंपराओं से परिचित होकर पाश्चात्य जगत विस्मित और विमूढ़ रह गया। इस परंपरा को आगे बढ़ाया इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रसायन विभाग के आचार्य डॉ. सत्य प्रकाश (आगे चलकर स्वामी डॉ. सत्य प्रकाश सरस्वती) ने। डॉ. सत्य प्रकाश प्रणीत ‘प्राचीन भारत में रसायन का विकास’ (प्रकाशन शाखा, सूचना विभाग, उ.प्र.,1960) आचार्य राय की ही परंपरा का गौरव वर्धन है। डॉ. सत्य प्रकाश प्रणीत ‘वैज्ञानिक विकास की भरतीय परंपरा’ (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1959) और ‘फाउंडर्स ऑफ साइंसेज इन एन्शेंट इंडिया’ (1965) प्राचीन भारत की गौरवमयी विज्ञानीय परंपराओं के गहन अनुशीलन और अध्ययन की परिणतियां हैं। उक्त ग्रंथ का ‘भारतीय विज्ञान के कर्णधार’ नामक शीर्षक से हिंदी अनुवाद मूल प्रकाशक रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ एन्शंेट साइंटिफिक स्टडीज, नई दिल्ली ने 1967 में प्रकाशित किया जो आज भी उपलब्ध है। इसी क्रम में उनका एक और ग्रंथ ‘क्वायनेज एन एन्शेंट इंडिया’ भी उल्लेखनीय है। वैदिक ज्यामिति (वैदिक काल में गणित की उद्भावना नहीं हुई थी) और प्राचीन भारतीय गणित पर उन्होंने दो और गं्रथों -‘द शुल्ब सूत्राज’ (1979) और ‘द भक्षाली मैनुस्क्रिप्ट’ (1979) की रचना की है। प्रथम ग्रंथ में इस तथ्य का रहस्योद्घाटन है कि कथित पाइथोगोरस प्रमेय पाइथागोरस की न होकर बौधायन, आपस्तंब और कात्यायन आदि भारतीय ऋषियों के ‘शुल्ब सूत्र’ की परिणति है जबकि दूसरे ग्रंथ में प्राचीन भारत में ‘शून्य’ के आविष्कार पर प्रकाश डाला गया है।
विगत शती के आरंभ में पेशावर के भक्षाली गांव में शारदा लिपि में भोज पत्र पर लिखी हुई पुरानी गणित की एक पुस्तक मिली जिसको पढ़ने से ज्ञात हुआ कि यह लिपि दसवीं शती की है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि उक्त पांडुलिपि (भक्षाली हस्तलिपि) तीसरी-चौथी शती की मूल कृति की प्रतिलिपि है। इस हस्तलिपि में 1 से 10 तक के अंक संकेत स्पष्टतः अंकित हैं, जिसमें शून्य ने बिंदी का आकार ग्रहण किया है। इन साक्ष्यों का यही निष्कर्ष है कि शून्य प्रणाली का आविष्कार प्राचीन भारत में पहली शती में ही हो चुका था जिसे जन-मानस की पद्धति बनने में कम से कम 10 शतियां व्यतीत हो गईं।
ऊपर हमने जो विवृति प्रस्तुति की, उसका मंतव्य यही है कि अनेक विद्वानों, विज्ञानाचार्यों और विज्ञान के अनुरागियों ने भारत की महनीय विज्ञान परपंराओं की सुसम्बद्ध विचार सारणियां निर्मित की फलस्वरूप भावी पीढ़ियों के लेखकों के लिए एक उर्वर भाव भूमि निर्मित हुई और आजादी के बाद ही हिंदी-विज्ञान की ऐसी धूम मची कि लगा कि हिंदी अब आई कि तब आई। केंद्रीय हिंदी निदेशालय और वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना और लाखों तकनीकी शब्दों का निर्माण, प्रादेशिक हिंदी ग्रथ अकादमियों की स्थापनाएं, विज्ञान के मौलिक गं्रथों की रचना और प्रख्यात कृतियों के हिंदी अनुवाद की प्रक्रिया जिस उत्साह और उमंग के आरंभ हुई, उसकी धार अस्सी आदि तक आते-आते मंद पड़ चुकी थी। आइए, इन कारणों की पड़ताल करें।
स्वाधीनता के उपरांत विज्ञान साहित्य के नाम पर हिंदी में जो कुछ लिखा गया, उसका अधिकांश अनुवाद की बैसाखियों पर निर्मित हुआ है, मौलिक और आधिकारिक लेखन तो अल्पांश है और यही वह मूल कारण है कि कुछ अंगुलिगण्य लोगों केे तमाम व्यक्ति निष्ठ प्रयासों के बाद भी हिंदी-विज्ञान लेखन को वह त्वरा नहीं मिल सकी जो वांछनीय थी।
वैज्ञानिक विषयों के पठन-पाठन या लेखन में माध्यम उतनी बड़ी बाधा नहीं है जितनी कि तकनीकी शब्दों की जटिलता। तकनीकी शब्दों की जटिलता में विद्यार्थी उलझ कर रह जाता है और पाठ्य सामग्री उसकी समझ के परे हो जाती है। एक अरसे तक डॉ. रघुवीर का कोश ही तकनीकी पुस्तकों के अनुवाद और हिंदी में मौलिक लेखन का आधार रहा है। डॉ. रघुवीर के कोश के आधार पर जो किताबें लिखी गईं, उनकी भाषा इतनी गरिष्ठ होती थी कि वे कभी बोधगम्य बन ही नहीं सकीं। उस समय की शब्दावली की एक झलक आपको निम्नलिखित उदाहरणों से मिलेगीः
प्रलंब जिह्वा शुकपरी (माउंटेन केमेलियन)
छद्म मूर्च्छालु (ओपोसम)
मक्षिका-बंधनी (वीनस फ्लाई ट्रैप)
प्याली-पाशीय (बटरवर्ट)
ओषजन (ऑक्सीजन)
नत्रजन (नाइट्रोजन)
मत्स्यगोधिका या मीन सरट (इक्थ्योसॉर)
सिंधुगोधिका या सिंधु सरट (प्लेसियोसॉर)
महागोधिका या दानव सरट (डाइनोसॉर)
पृष्ठ-कंटकी (डिमेट्रोड्रोन)
इन उदाहरणों से आप समझ सकते हैं कि प्रारंभिक शब्दावली में लोकप्रियता के कितने आसार थे। ऐसी जटिल शब्दावली न तो चल सकती थी और न चली ही।
शब्दावली निर्माण की भी अपनी विसंगतियां हैं। शब्दों में बोधगम्यता, सहजता के साथ ही अर्थ-बोध भी होना चाहिए जिससे कि वे प्रचलन में आ सकें। तकनीकी शब्दों की जटिलता इस मार्ग में भारी अवरोध है। जिन लेखकों ने डिग्री स्तर की विज्ञान-विषयक पुस्तकें लिखी हैं, उन्हीं को फिर से पढ़ने को वही पुस्तकें दी जाएं तो उन्हें अपना ही लिखा हुआ समझने के लिए पारिभाषिक शब्दों के मूल अंग्रेजी शब्द देखने होंगे। वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग ने आयुर्विज्ञान, भौतिकी, रसायन, प्राणिविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, कम्प्यूटर विज्ञान विषयक शब्दावलियों का निर्माण कर लिया है। फिर भी इनमें भी परिष्कार की व्यापक संभावनाएं हैं। कुछेक हिंदी पुस्तकों से, जो इन्हीं के आधार पर लिखी गई हैं अथवा अनूदित हुई हैं, कुछ अंश उद्धृत हैं, जो इस धारणा की पुष्टि करते हैं: ‘प्रकाश-संश्लेषी पटलिकाओं के सतह पर फाइकोइरिथ्रिन युक्त गोलाकार तथा फाइकोसियानिन युक्त चकती आकार फाइको बीलीसोम अनुरेखीय रूप से व्यवस्थित होते हैं। हरिताणु परिवर्धन की प्रारंभिक अवस्थाओं में प्रथम थाइलेक्वायड हरिताणु के अतिरिक्त घटक के अंतर्वेशन के रूप में उत्पन्न होता है, जबकि अनुगामी थाइलेक्वायड प्रथम निर्मित थाइलेक्वायडों के अंतर्वेशन से निर्मित प्रतीत होते हैं।’ (शैवाल परिचय, उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ, 1974 पृ.92) एक अन्य पुस्तक (अनूदित) का अंश देखिए (यह अंश पेंटोक्सिलेलिज अध्याय के परिचय के रूप में दिया गया है): ‘जीवश्म पौधे, वृद्धिज प्रकृति अज्ञात, किंतु संभवतः क्षुप अथवा अत्यंत छोटे वृक्ष। प्ररोह लंबे अथवा छोटे, छोटे प्ररोहों पर, सर्पिल विन्यास में पर्ण, तथा शीर्ष पर जननांग स्थित। स्तंभ बहुरंगी। काष्ठ अरें एक-प्रतिबद्ध। पर्ण मोटे, सरल एवं मालाकार। शिराविन्यास मुक्तांत (शाखा-मिलन बहुत विरल)। मादा अंग सवृंत शहतूत-सम, बीज अवृंत, अध्यावरण के बाहरी गूदेदार परत से लग्न। नर अंग एक चक्र में स्थित, अनेक शाखित बीजाणुधानीधर, जो आधार पर संयोजित होकर चक्रिका बनाते थे।’ (अनावृतबीजी की आकारिकी, ले. स्पोर्न, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, पृष्ठ 75)।
स्वाभाविक है कि ऐसी बोझिल पुस्तकों को विद्यार्थी नकार देगा। परिणाम है कि हिंदी में मौलिक/अनूदित प्रभूत रचनाओं के बाद भी आज महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों में हिंदी माध्यम से पठन-पाठन का वातावरण नहीं निर्मित हो सका। शोधपत्रों के लेखन की बात तो न के बराबर है।
खेद है कि हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी ने जो संपदा हमें अर्पित की थी, उस गौरवशाली सुदीर्घ परपंरा को हम अक्षुण्ण नहीं रख सके। तमाम सारे सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद भी उसको हम संवेग और दिशा-बोध नहीं दे सके। कमोवेश ऐसी ही प्रवृत्ति लोक विज्ञान साहित्य की भी है। लोक विज्ञान (पापुलर साइंस) के नाम पर जो परोसा जा रहा है, उसमें गुणवत्ता, गांभीर्य, गवेषणा की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव है। रातों रात सितारा बन जाने और मीडिया पर छा जाने की उमंग तो है, लेकिन उसकी तैयारी अधकचरी है, विषय की पारंगतता नहीं है, विज्ञान बोध तो कतई नहीं है। लोक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे तमाम सारे लोग प्रवृत्त हैं जिन्होंने विज्ञान की किसी भी विधा का अध्ययन ही नहीं किया है। छपास की व्याधि से ग्रस्त लोग छप भी रहे हैं लेकिन उनकी नकेल कसने वाली आचार्य परपंरा का ही लोप हो गया है। जो अवशेष भी हैं, वे समय से भी तेज भागती दुनिया में कदाचित अप्रासंगिक हो चले हैं, उनकी भला सुनता ही कौन है? अपनी ढपली, अपना राग। और हिंदी में विज्ञान साहित्य के अधोपतन के यही मूल कारण भी हैं। हिंदी-विज्ञान की प्रगति के मार्ग में एक बार पुनः संक्रमणकालीन बेला आसन्न है, इस पर गंभीरता से विमर्श आरंभ हो जाना चाहिए और निष्ठ प्रयास भी तभी इसका मार्ग प्रशस्त होगा, अन्यथा हम इसकी शोकांतिका ही पढ़ते रहेंगे।
sdprasad24oct@gmail.com