विशेष


विज्ञान वार्ता

हिन्दी सशक्त और प्रभावशाली संवाद की भाषा है

प्रो. यष पाल से मनीष मोहन गोरे की बातचीत

इन दिनों विज्ञान में हिन्दी लेखन पर विमर्ष देष व्यापी हो रहा है और उसकी प्रासंगिकता पर बात होती है। हिंदी भाषा भारत की एक विशाल आबादी के द्वारा बोली, पढी, लिखी और समझी जाने वाली आम भाषा है। इस लोकप्रिय भाषा को संचार का एक सशक्त जरिया बनाकर विज्ञान लोकप्रियकरण किया जा सकता है। आपकी क्या राय है?
यह सच है कि हिंदी हमारे देश की सबसे सशक्त और प्रभावशाली संवाद भाषा है और अधिकांश व्यक्तियों एवं संस्थाओं के द्वारा इसका व्यापक प्रयोग किया जा रहा है। इसे अपनाकर विज्ञान को लोकप्रिय बनाया जाना आवश्यक है। विज्ञान लोकप्रियकरण में लगी संस्थाओं को हिन्दी में ज्यादा से ज्यादा प्रेरणाप्रद कार्यक्रम करने चाहिए। दूसरी भाषाओं से हिंदी में विज्ञान लेखन-अनुवाद की चुनौतियों को दूर करने के गंभीर व स्थायी प्रयास करने होंगे। नए लेखकों को आगे लाने और उन्हें प्रोत्साहन देने की योजनाओं का विकास तथा क्रियान्वयन भी करना चाहिए। 

विज्ञान लोकप्रियकरण की आप किस प्रकार व्याख्या करते हैं?
मैं विज्ञान लोकप्रियकरण शब्द के बजाय वैज्ञानिक समझ्ा को अधिक उपयुक्त मानता हूँ। तथ्यों और कोरे ज्ञान को केवल जान भर लेना विद्यार्थी की समझ्ा के लिए पर्याप्त नहीं होता। जानने और समझ्ाने में बड़ा व्यापक अंतर है और जो शिक्षक और संचारक इस अंतर को समझ्ा ले, वहाँ से नई शुरुआत कर सकता है और समाज में परिवर्तन ला सकता है।

आपका इशारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ओर है। शिक्षा व्यवस्था में इस दृष्टिकोण के समावेश को लेकर आपका मत साझ्ाा करें।
इतना हम सभी जानते हैं कि बच्चों के सवाल अनोखे होते हैं और हर बच्चा पैदायशी जिज्ञासु होता है। हमें उनके सवालों के जवाब देने की कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए। अगर अभिभावक या शिक्षक उनके जवाब दे पाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं तो उन्हें उचित स्रोत से सही जवाब ढूंढना चाहिए और जवाब ढूंढना भी वास्तव में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण दरअसल सोचने-सीखने का एक तर्कसंगत तरीका होता है। मनुष्य सोचता है इसलिए वह पृथ्वी के अन्य जंतुओं से अलग है और यह उसकी बहुत बड़ी ताकत है। दूसरी ओर यह सोचना कि यह ठीक है और वह नहीं, ये भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। हम परंपरागत शिक्षा व्यवस्था में एकतरफा शिक्षण का सहारा लेते हैं जिसमें बच्चों के सोचने और स्वयं करके सीखने की प्रवृŸिा का विकास रोक लिया जाता है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसमें बच्चों को सोचने और सीखने की आजादी हो। पाठ्य्ाक्रम का बोझ्ा इतना होता है कि बच्चे चाहकर भी लम्बे-चौड़े पाठ्य्ाक्रम को नियत समय में समझ्ा नहीं पाते। इसके अलावा अलग-अलग प्रतिभा से संपन्न बच्चों को एक जैसे पाठ्य्ाक्रम तथा विषय पढने को विवश किया जाना भी अतार्किक बात है।

बच्चों की जिज्ञासा और उनके सीखने की प्रक्रिया में विज्ञान संचार की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं?
बच्चे जब अपने आस-पास की चीजों को समझ्ाने लगते हैं तो वे सहज और अनोखे सवाल पूछने लग जाते हैं। शिक्षक का यह दायित्व होता है, यह सुनिश्चित करना कि बच्चों की यह नैसर्गिक प्रवृŸिा नष्ट न होने पाए और सीखने-समझ्ाने की उनकी प्रक्रिया अबाध चलती रहे। विज्ञान संचारक श्रव्य-दृश्य कार्यक्रम, हैंड्स आन प्रयोगों, लेखन और अन्य गतिविधि आधारित विधाओं के माध्यम से बच्चों के सीखने को गति और उचित दिशा दे सकते हैं। किसी सिद्धांत को स्वयं समझ्ाना सबसे महत्वपूर्ण होता है और मैं इसे समझ्ाने का आनंद नाम देता हूं। इस आधार पर मैं कोचिंग क्लास की आलोचना करता हूँ क्योंकि वहां बच्चों के समझ्ाने पर नहीं, उन्हें सूचनाओं के भण्डार रटने पर जोर दिया जाता है। मेरी नजर में शिक्षा और सीखने का यह उचित तरीका नहीं है। मेधावी व्यक्तियों ने इस तरह की प्रक्रिया से गुजरकर ज्ञान-विज्ञान आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में दुनिया में महान योगदान नहीं दिए हैं। अगर बीसवीं शताब्दी के तीन महान वैज्ञानिकों एडीसन, आइंस्टाइन और रामानुजन के उदाहरण लें तो हम पायेंगे कि इन्होंने अपने आकादमिक जीवन में 99ण्9 प्रतिशत अंक हासिल नहीं किये मगर विज्ञान के क्षेत्र में इनके योगदान सौ प्रतिशत से भी कहीं ज्यादा थे। ये कैसे हुआ? इन वैज्ञानिकों ने प्रति के गूढ़ रहस्यों को स्वयं समझ्ाा और अध्ययन - चिंतन - प्रयोग - परीक्षण से मिले नतीजों को कसौटी पर कसके अपने सिद्धांत दुनिया के सामने रखे।

आपका झ्ाुकाव कास्मिक किरणों और कण भौतिकी में अनुसंधान से विज्ञान संचार की तरफ कैसे हो गया?
हमारे आस-पास हर तरफ विज्ञान की घटनाएं हर समय घटित हो रही हैं। इसे आम जन को एकदम सटीक न सही, सटीक के बहुत नजदीक की जानकारी हलके-फुल्के ढंग से देने में आनंद आने लगा। इस तरह विज्ञान समझ्ााने के आरम्भिक प्रयास मैंने सबसे पहले स्पेश एप्लीकेशंस सेंटर, अहमदाबाद में किये और वहां लोग मुझ्ो ‘स्काईलैब अंकल’ कहकर पुकारने लगे। विज्ञान को लेकर मेरी कही बात लोगों के समझ्ा आ रही थी, यह देखकर मुझ्ो आनन्द आता था और इस तरह मेरा रुझ्ाान विज्ञान संचार की तरफ हो गया।

आप विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के सचिव रहे जिसके अधीन एन.सी.एस.टी.सी. और विज्ञान प्रसार की स्थापना विज्ञान संचार के उद्देश्य से की गई। पिछले 25-30 वर्षों के दौरान इन संस्थाओं ने देश में जो कार्य किये, उन्हें आप किस तरह देखते हैं?
इन्होंने जिन संसाधनों के साथ बड़ी सोच को लेकर दूरदर्शी कार्य किये, वे अत्यंत सराहनीय हैं। हां, आज के बदलते समय-समाज और इसकी चुनौतियों के मद्देनजर इन जैसी संस्थाओं को और भी अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की जरुरत है क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जरुरत कल से ज्यादा आज है।

आपने वैज्ञानिक अनुसंधान, शिक्षा और विज्ञान संचार इन तीन क्षेत्रों में काम किये हैं। इन तीनों को जोड़कर भारत को आगे कैसे लेकर बढ़ सकते हैं?
अलबर्ट आइंस्टाइन ने ‘सिद्धांतों के तरन्नुम या संगीतात्मकता (डनेपबंसपजल व िजीमवतपमे) की बात कही थी और इसके माध्यम से वह विज्ञान में उच्च स्तर के सौंदर्य की तरफ इशारा करना चाहते थे। वास्तव में, विज्ञान, शिक्षा और समाज के बीच एक सकारात्मक तालमेल बनाने के बाद किसी भी देश में सच्चे अर्थों में प्रगति लाई जा सकती है।

भावी वैज्ञानिकों और विज्ञान संचारकों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?
देश के सभी कर्णधारों को मेरा विनम्र सुझ्ााव है कि वे शिक्षा को किताब के पन्नों में छपी स्याही की तरह नहीं बल्कि उसे दुनिया के महान लोगों और उनकी संस्तियों का मूल्यवान खजाना समझ्ों। आप सभी अद्वितीय हो और आप सबको अलग-अलग क्षेत्रों में महान कार्य करने हैं। आपकी विशेषज्ञता के क्षेत्रों में, आपके सच्चे मन से किये गये योगदान से एक देश या समाज ही नहीं बल्कि समूची मानव जाति को लाभ मिलेगा, ऐसी सोच के साथ काम करें।
आपसे इस महत्वपूर्ण बातचीत और बहुमूल्य विचारों के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।
आपको और ‘इलेक्ट्रानिकी आपके लिए’ परिवार को भी मेरी ओर से अनेक शुभकामनाएं। 

 

प्रो. यश पाल का जीवन

मनीष मोहन गोरे

कंधों पर लहराते बड़े-बड़े सफेद बाल, रंगीन कुर्ता, उस पर हॉफ जैकट और होंठों पर सुखद मुस्कान लिए हुए एक वयोवृद्ध भारतीय वैज्ञानिक के बारे में आज हम बात करने जा रहे हैं। क्या आपने अंदाजा लगाया कि यह व्यक्ति कौन है? जी हां! हम बात कर रहे हैं प्रोफेसर यश पाल की। भारत के कोने-कोने में लोग इन्हें अच्छी तरह जानते हैं। उनकी लोकप्रियता बेवजह नहीं है। प्रोफेसर यश पाल वैज्ञानिक, विज्ञान संचारक, शिक्षाविद और संस्थान निर्माता जैसे व्यक्तित्वों का एक सम्मिश्रण है। भारत में ऐसे कम वैज्ञानिक हुए हैं जिन्होंने यश के समान इतने सारे क्षेत्रों में उत्कृष्टता और अदम्य उत्साह के साथ काम किया हो। इन्होंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की एक उत्कृष्ट इकाई स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (अहमदाबाद) को संजोकर निर्मित किया और 1975.76 के दौरान सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरिमेंट (एसआईटीई) को रूपायित तथा क्रियांवित किया। साइट के क्रियांवयन के बाद भारत में शैक्षिक संचार के पंख लगे जिसका समूचा श्रेय यश पाल को जाता है। मूलभूत विज्ञान में अनेक महत्वपूर्ण योगदान देने के बाद यश पाल 1990 के दशक में ‘भारत जन ज्ञान विज्ञान जत्था’ से जुड़े और आम जन को उसकी भाषा में विज्ञान की बातें सरलता से समझाने वाले एक विज्ञान संचारक के रूप में लोकप्रिय हुए। उसी दौरान टीवी पर आने वाले विज्ञान धारावाहिक ‘टर्निंग प्वाइंट’ में दर्शकों के ज्ञान-विज्ञान से जुड़े सवालों के वे रोचक जवाब देते थे। इस कार्यक्रम की लोकप्रियता ने यश पाल की एक राष्ट्रीय छवि का निर्माण किया। बच्चे और युवा उनसे व्यापक रूप से प्रेरित-प्रभावित हुए।

उथल-पुथल भरा आरंभ

यश पाल का जन्म 26 नवंबर 1926 को पंजाब में चेनाब नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित झंग (अब पाकिस्तान) में एक अत्यंत सांस्कृतिक मूल्यों वाले परिवार में हुआ था। क्वेटा (बलूचिस्तान) में उनका आरंभिक बचपन व्यतीत हुआ और यहीं उन्हें प्राथमिक शिक्षा भी मिली। दरअसल इस जगह उनके पिता ब्रिटिश शासन में भारत सरकार के लिए नौकरी करते थे।
सन् 1935 में यश जब 9 वर्ष के बालक थे, तो वहां पर 7ण्7 क्षमता का विनाशकारी भूकंप आया था और जिसके परिणामस्वरूप क्वेटा में अनुमानित तौर पर 60ए000 लोगों की जानें गईं। इस प्राकृतिक आपदा ने क्वेटा को लगभग बर्बाद कर दिया। सौभाग्य से यश और उनके भाई-बहन ध्वस्त मकान के मलबे से सुरक्षित निकाले गए। उन्हें नाना के घर कोट-इसा-शाह भेजा गया। भारतीय सेना ने अगले एक साल में क्वेटा में मलबों को साफ कर गांव-कस्बों की पुर्नस्थापना कर दी और यश व उसके भाई-बहन अपने माता-पिता के पास आ गए। कुछ वर्ष बाद यश के पिता का तबादला जबलपुर हो गया, जहां यश ने स्वाध्याय आरंभ किया और उनकी मुलाकात एक महान शिक्षक पवार से हुई जो लीक से हटकर अध्यापन करते थे। वह अध्यायों को परंपरागत व्याख्यान शैली में न बताकर विद्यार्थियों से चर्चा करके उन्हें अवधारणाओं को समझाते थे। यश के बाल मन पर इस शिक्षण शैली का गहरा असर हुआ। अपने बचपन के दिनों में यश दूसरे विश्व युद्ध, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में सुना करते थे। उस दौर के अधिकांश लोगों की तरह तब यश भी गांधी और उनके विचारों से प्रभावित हुए।
वर्ष 1942 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद वह बी.एस-सी. भौतिकी की पढ़ाई के लिए पंजाब विश्वविद्यालय आ गए। भाग्य ने यहां भी उनके साथ एक खिलवाड़ किया-वह लंबे समय तक बीमार पड़ गए। मगर इस बीमारी के कारण एक अच्छी बात हुई, वो ये कि उन्हें दुनिया भर की अनेक महत्वपूर्ण किताबों को पढ़ने का मौका मिल गया और पाठ्यक्रम से अलग इस प्रकार के अध्ययन ने उनके व्यक्तित्व में नए आयाम जोड़े। भौतिकी में एम. एस-सी. का अध्ययन भी उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय में जारी रखा। इसी दरम्यान उनके पिता का तबादला दिल्ली हो गया और वह अपनी गर्मी की छुट्टियां बिताने अपने पिता के साथ दिल्ली आ गए। यह साल 1947 का समय था जब भारत को आजादी मिलने ही वाली थी। आजादी की उद्घोषणा के बाद देश का विभाजन भारत और पाकिस्तान में हो गया। इस विभाजन के फलस्वरूप यश वापस लाहौर नहीं लौट पाए। 1949 में पंजाब विश्वविद्यालय के दिल्ली विश्वविद्यालय स्थित फीजिक्स ऑनर्स स्कूल से उन्होंनं एम. एस-सी. की पढ़ाई पूरी की।

कॉस्मिक किरण और कण भौतिकी में अनुसंधान

यश जब एम.एस-सी. अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रहे थे, उसी दौरान टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (टीआईएफआर) में अनुसंधान सहायक की नौकरी से जुड़ा विज्ञापन अखबार में छपा। हालांकि उस समय यश के एम. एस-सी. के परिणाम नहीं आए थे मगर उन्होंने वहां आवेदन कर दिया और साक्षात्कार के लिए उन्हें बुलावा भी आ गया। संयोगवश उन्हें वह नौकरी मिल गई और वह टीआईएफआर, बांबे (अब मुंबई) को चल दिए, जहां पर उन्होंने अपने जीवन का दो दशक से भी लंबा समय वैज्ञानिक अनुसंधान में बिताया। यश पाल के अनुसंधान क्षेत्र कॉस्मिक किरण और कण भौतिकी थे। टीआईएफआर में यश पाल को देवेंद्र लाल और बर्नार्ड पीटर्स जैसे दो अनुसंधान साथी मिल गए और इस तिकड़ी (लाल, पाल और पीटर्स) ने महत्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किए। 1954 में यश पाल अपनी मित्र निर्मल से विवाह के सूत्र में बंध गए। आगे चलकर इनके दो बेटे राहुल और अनिल हुए।

यश पाल और स्पेश एप्लीकेशन सेंटर

भारत के अंतरिक्ष वास्तुकार विक्रम साराभाई के असामयिक निधन के बाद सतीश धवन ने 1972 में अंतरिक्ष आयोग का अध्यक्ष पद संभाला। उनका स्पष्ट तौर पर मानना था कि अंतरिक्ष कार्यक्रम के अनुप्रयोगों से भारत की आम जनता को लाभ मिलना चाहिए। साराभाई इस सोच को साकार करने की पृष्ठभूमि तैयार कर चुके थे और सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरिमेंट (एसआईटीई) की शुरूआत कर दिया था जो एक वर्ष की अवधि के लिए भारत के गांवों में टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण करने वाला था।
1972 में स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) की स्थापना उपरोक्त उद्देश्य के साथ अहमदाबाद में की गई। टीआईएफआर छोड़कर एसएसी का निदेशक पद ग्रहण करने और एसआईटीई कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए सतीश धवन ने यश पाल को राजी कर लिया। यश पाल ने इस नई जिम्मेदारी का सफल निर्वहन किया और दिन-रात जी-तोड़ मेहनत कर विक्रम साराभाई तथा सतीश धवन के भरोसे का निर्वाह किया। एसआईटीई के जरिए देश में बच्चों की शिक्षा, कृषि, पशुपालन, स्वास्थ्य, स्वच्छता और परिवार नियोजन जैसे मुद्दों पर टीवी कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। यह अपने जैसा एक बहुत बड़ा जन संचार प्रयोग था जिसे मूर्त रूप देने में स्पेश एप्लीकेशंस सेंटर के 1500 लोगों की टीम ने काम किया था और इसके लीडर थे यश पाल। यश पाल इस प्रयोग को एक गहन मानवीय अनुभव की संज्ञा देते हुए कहते हैं ‘एसआईटीई ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को एक अनोखी प्रेरणा दी जिसके कारण आने वाले वर्षों मेें अनेक स्थलीय प्रसारण केंद्रों और ट्रांसमीटरों को परस्पर जोड़ने के लिए एक संचार उपग्रह के उपयोग द्वारा राष्ट्रीय टेलीविजन नेटवर्क की स्थापना हुई। विश्व के पहले प्रत्यक्ष प्रसारण उपग्रह टेलीविजन प्रणाली के रूप में एसआईटीई ने विकासशील देशों में शिक्षा के लिए उपग्रहों के प्रयोग के महत्व को साबित करके दिखाया। इस प्रयोग से यह प्रमाणित हुआ कि उपग्रहों का उपयोग शिक्षा संचार और विकास के लिए किया जा सकता है तथा दुनिया को यह संदेश भी संचारित हुआ कि इस तरह की वैज्ञानिक क्षमता भारत के पास है।’
विज्ञान और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में यश पाल के योगदान को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार ने 1976 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया। भारत के ग्रामीणों की आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग करने में बुद्धिमत्तापूर्ण और मानवीय नेतृत्व के लिए 1980 में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ‘मारकोनी फेलोशिप’ से यश पाल को नवाजा गया।
एसआईटीई की सफलता के बाद यश पाल का यश अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया में फैल गया। 1982 में संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव जेवियर पेरेज डे कूएलर ने यश पाल को बाह्य अंतरिक्ष के अन्वेषण एवं शांतिपूर्ण प्रयोगों पर केंद्रित द्वितीय सुंयक्त राष्ट्र सम्मेलन ;न्छप्ैच्।ब्म्.प्प्द्ध का महासचिव बनने का आमंत्रण भेजा। यश पाल ने विएना (आस्ट्रिया) में आयोजित इस सम्मेलन में हिस्सा लिया और इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यश पाल की प्रतिभा से भारतीय समाज को व्यापक लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने 1983 में उन्हें योजना आयोग का मुख्य सलाहकार बनाया और 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें विज्ञान एंव प्रौद्योगिकी विभाग का सचिव बनाया। इस पद पर वे 1986 तक रहे। 1984 में इंदिरा गांधी की असामयिक मौत के बाद बनी नई सरकार में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किए जाने के उद्देश्य से उन्हें 1986 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का चेयरमैन नियुक्त किया।
शिक्षा पद्धति में सुधार लाना यश पाल के जीवन का मुख्य सरोकार था और वह शिक्षा तथा सीखने-समझने के नए तौर-तरीकों में हमेशा रूचि लेते रहे इसलिए यूजीसी में मिली जिम्मेदारी को उन्होंने एक चुनौती की तरह लिया। वह किताबी शिक्षा के बजाय मानवीय संपर्क और सामाजिक परस्पर क्रिया पर बल देेते रहे हैं। उन्हें हमेशा यह महसूस होता था कि हमारी शिक्षा पद्धति में कोई गंभीर कमी है जिसे दूर करने से ही मौजूदा स्थिति में सुधार लाया जा सकता है।
अपने अनुभव के आधार पर यश पाल ने यह महसूस किया कि शिक्षा का अर्थ केवल ज्ञान प्रदान करना नहीं है और यह एक-तरफा प्रक्रिया भी नहीं होती बल्कि इसका आशय व्यर्थ की ढेर सारी सूचनाओं के बोझ को कम करके बच्चों के अवगाहन तथा समझने की क्षमता में बढ़ोतरी करना है। यश पाल जोर डालकर यह बात कहते हैं कि समझना वो है जिसके बाद मजा आता है।
यूजीसी चेयरमैन बनने के बाद यश पाल ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने की पहल के रूप में चार महत्वपूर्ण कदम उठाए। पहला इंटर-यूनिवर्सिटी एक्सेलेरेटर सेंटर (आईयूएसी), नई दिल्ली; दूसरा इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनामी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (आइयूका), पुणे; तीसरा इंफार्मेशन एंड लायब्रेरी नेटवर्क (इंफ्लिबनेट) की स्थापनाएं कीं। पहला सेंटर आईयूएसी नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के रूप में कार्य कर रहा है, दूसरा आइयूका खगोलिकी, खगोल-भौतिकी अनुसंधान एवं खगोलिकी लोकप्रियकरण जैसे अहम दायित्व निर्वहन कुशलतापूर्वक कर रहा है और तीसरा इंफ्लिबनेट ;प्छथ्स्प्ठछम्ज्द्ध भारत में विशाल संख्या में विश्वविद्यालय पुस्तकालयों को जोड़कर विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों के बीच ज्ञान के एक महासेतु का काम कर रहा है। चौथा महत्वपूर्ण कदम यश पाल ने उठाया कि अनेक राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और संस्थानों को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया जिसके परिणामस्वरूप यहां के विद्यार्थी, शिक्षक और वैज्ञानिक अध्ययन-अनुसंधान के लिए खुलकर एक-दूसरे से संवाद बनाते हैं तथा ज्ञान का प्रसार बेरोक-टोक होता है।

विज्ञान की जनसमझ में यश पाल की भूमिका

यश पाल ने विज्ञान के लोकप्रियकरण और भारतीय समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास हेतु नैसर्गिक तौर पर जो भी योगदान दिया, वे सब उनके मन से निकले सरोकार थे और उन बातों को उन्होंने स्वयं महसूस किया था। एक वरिष्ठ वैज्ञानिक, निदेशक, सचिव और नीति निर्माता जैसे दायित्वपूर्ण पदों पर रहते हुए उन्हें स्कूली बच्चों, ग्रामीणों, वैज्ञानिकों तथा राजनेताओं से मिलकर जो भी ज्ञान हुआ, उनके आधार पर उन्होंने ज्ञान-विज्ञान को समझने के लिए अपने सुझाव दिए। सबसे पहले यश पाल प्रत्यक्ष रूप से ‘भारत जन ज्ञान-विज्ञान जत्था’ से जुड़े और फिर एनसीएसटीसी-नेटवर्क के महत्वपूर्ण कार्यक्रम राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेस में प्रेरणा-सूत्र बन कर उभरे।
टेलीविजन पर अपनी एक अनोखी और प्रभावोत्पादक शैली में विज्ञान की गूढ़ बातों को सरलता से अंग्रेजी व हिंदी में समझाने के कारण उनकी लोकप्रियता को पंख लगे। टीवी धारावाहिक ‘टर्निंग प्वाइंट; में देश भर से आए विज्ञान प्रश्नों के सीधे-सरल जवाब देने वाले इस यशस्वी विज्ञान संचारक ने विज्ञान से जुड़े कार्यक्रम की लोकप्रियता को एक नया आयाम प्रदान किया तो वहीं ‘मानव की विकास’ जैसे धारावाहिक में उनकी कमेंट्री ने श्रोताओं को चमत्कृत कर दिया।
टर्निंग प्वाइंट के लगभग 150 धारावाहिकों में यश पाल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इसके बाद वह ‘भारत की छाप’, ‘तर-रम-तू’ और ‘रेस टू सेव दि प्लैनेट’ जैसे लोकप्रिय टीवी धारावाहिकों में भी वे नजर आए। सूर्य ग्रहण (1995 और 1999) और शुक्र पारगमन (2004) जैसी आकाशीय घटनाओं के समय यश पाल टीवी पर अपने अनोखे अंदाज में दर्शकों को वैज्ञानिक जानकारी प्रस्तुत करते रहे।
विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्म भूषण (1976) और पद्म विभूषण (2013) जैसे महत्वपूर्ण नागरिक सम्मानों से विभूषित किया और नेशनल रिसर्च प्रोफेसर भी बनाया। विज्ञान लोकप्रिकरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यों के लिए विश्व का सर्वश्रेष्ठ यूनेस्को कलिंग पुरस्कार से भी वर्ष 2009 में यश पाल को सम्मानित किया जा चुका है। 89 वर्षीय यश पाल आज भी विज्ञान के बारे में बच्चों में रूचि उत्पन्न करने को लेकर उत्साहित हैं जो उनके लगन व समर्पण को प्रकट करता है। हम उनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं।

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