चढ़ अग्निपंख उड़ गये राष्ट्रऋषि कलाम
पं. देवनारायण भारद्वाज
सर्व दिशा-दिशान्तर से सीमावरत कोई भूभाग देश कहलाता है। जब इस पर किसी पालन-अनुरक्षण कर्ता राजा या शासक का प्रकाश परिव्याप्त होता है, तो वही भूभाग एक राज्य के रूप में परिणत हो जाता है, और इसमें जब प्रकृष्ट रूपेण संस्कारों से जन्म लेने वाली प्रजा की पदचाप होती है, तभी इसे राष्ट्र का अमिधान मिलता है, क्योंकि निरन्तर दान करने वाले को ‘रा’ कहा जाता है, जहाँ ये स्थित हों वहीं राष्ट्र कहलाता है। ‘राती’ अर्थात दानकर्ता परोपकारी तथा ‘अराती’ कृपण स्वार्थी कहलाते हैं। ‘अग्निभीले पुरोहितम’ (ऋग्वेद 1ण्1ण्1) अर्थात सर्वाग्र हितकारी अग्नि की उपासना करने से ही कोई व्यक्ति मननकर्ता ऋषि बनता है। ‘अग्निः पूर्वैभिर्ऋषिरीडयो नूतनैरुत’ (ऋग्वेद1ण्1ण्2) अर्थात प्राचीन और अर्वाचीन सभी ऋषि अथवा चेतना सम्पन्न मानव अग्नि की उपासना करते चले आये हैं। विकास के सोपान दर-सोपान चढ़ने के लिए आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों की अग्नियाँ मनुष्य का मार्ग प्रशस्त करती हैं। इस सम्पूर्ण चित्रण के अन्तर्गत वर्तमान में कोई चित्र उभर कर नयनाभिराम बनता है, तो वह डॉ. अब्दुल कलाम का ही विचित्र व्यक्तित्व प्रत्यक्ष होता है।
जो मनुष्य सब विद्याओं को पढ़ के औरों को पढ़ाते हैं तथा अपने उपदेश से सबका उपकार करने वाले हैं वा हुए हैं वे पूर्व शब्द से, और जो कि अब पढ़ने वाले, विद्याग्रहण के लिए अभ्यास करते हैं, वे नूतन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं और वे सब पूर्ण विद्वान शुभगुण सहित होने पर ऋषि कहलाते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रस्तुत इस परिभाषा के अन्तर्गत एक डॉ.कलाम ही क्या, डॉ.होमी जहाँगीर भाभा तथा डॉ.विक्रम साराभाई प्रभृति अनेक राष्ट्रचेता ऋषि आ जाते हैं। रामायण काल की बात ही क्या! महाभारत काल से पूर्व तक आर्यावर्त के अतिरिक्त विश्व में अन्यत्र कोई इतिहास नहीं मिलता। इन दोनों युगों में विश्वामित्र-परशुराम प्रभृति अनेक महान ऋषियों का वर्णनमिलता है, जिनसे योद्धा राजकुमार अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा ग्रहण करते थे, उनमें प्रमुख आयुध प्रक्षेपणास्त्र ही हुआ करते थे। ‘कर्मयोगी कलाम’ ग्रन्थ से प्रो. अविज्ञात की यह पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं- ‘यदि भारत विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा पछाड़ा गया और इसलिए जीवन की दौड़ में पिछड़ गया तो इसका एकमेव कारण प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हमारी उपेक्षापूर्ण दृष्टि थी। यह नहीं कि प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हम अक्षम थे परंतु हमारी दृष्टि कहीं और थी। वह सामरिक प्रौद्योगिकी, युद्धक प्रौद्योगिकी, लड़ाकू प्रौद्योगिकी पर नहीं थी। आधुनिक प्रौद्योगिकी का इतिहास हमें बताता है कि यह युद्ध-आधारित है। यह ठीक है कि प्रौद्योगिकी को नागरिक सुविधाओं तथा शान्तिपूर्ण विकास के लिए भी प्रयोग किया जाता है, परन्तु पहल युद्ध से होती है। पहले पत्थर मिसाइल की भांति आत्मरक्षा अथवा शिकार के लिए फेंके गये, चकमक पत्थर से आग की ईजाद बाद में हुई। पहले तीर-कमान बना, कमान की टंकार से इकतारे का संगीत बाद में सुना गया। पहले मिलिटरी इंजीनियरी बनी, सिविल इंजीनियरी बाद में आई और फिर मैकेनिकल विद्युत इलेक्ट्रॉनिकी इसी क्रम में आई। चाहे यह बाबर का तोपखाना रहा हो या अल्फ्रेड नोबल की बारूद हो या आज की परमाणु शक्ति तथा उपग्रह प्रक्षेपण- ये सभी प्रौद्योगिकियाँ युद्ध के लिए पहले विकसित हुई, व्यापार तथा विकास के लिए उनका उपयोग बाद में हुआ। यही कहानी दूरभाष तथा सूचना प्रौद्योगिकी की है। भारत शान्तिमय जीवन की अभिलाषा से ग्रस्त इन युद्ध तकनीकों के प्रति उदासीन रहा यही उसके गुलाम हो जाने तथा गुलाम ही बने रहने का कारण बना। अतः आत्म रक्षा के लिए नवीनतम प्रौद्योगिकी और शांतिपूर्ण विकास के लिए उसे परिस्थितियों के अनुकूल ढालकर विकसित की गई नवप्रवर्तनशील प्रौद्योगिकी को ही कलाम साहब इस महालक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपरिहार्य मानते हैं।’
प्रो. अविज्ञान लेखक के समक्ष दिन-प्रतिदिन विज्ञात रहे हैं और मेरे चिन्तन को नितप्रति परिमार्जित करते रहने के कारण मेरी प्रेरणा के संवाहक बने रहे हैं। डॉ. कलाम की उक्तानुसार क्रांति दृष्टि ही उन्हें राष्ट्र ऋषि की महनीयता प्रदान करती है। कोई भी वैज्ञानिक या क्रान्तिदृष्टा शोध संवाहक अपनी प्रयोगशाला की परिधि में छिपा रहता है, राष्ट्र में उसके आविष्कार के प्रचार होने पर ही उसका परिचय हो पाता है। अपनी उपलब्धियों के अनेक राष्ट्रीय उपहार-अलंकरण प्राप्त करने के बाद भी सर्वांश में उनके विख्यात होने का श्रेय अलीगढ़ के पक्ष में जाना चाहिए, क्योंकि यह प्रक्रिया यहीं के एक प्रबुद्ध नागरिक श्री लक्ष्मण प्रसाद ने सन 2000 ई. में राष्ट्रीय स्तरीय नवाचार समारोह का भव्य आयोजन कर प्रारम्भ की। तबसे 2014 तक अनवरत यह दिवस अलीगढ़, लखनऊ एवं विदेश में भी उनके मित्र शिक्षाविद् डॉ. जगदीश गांधी के सौजन्य से अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप धारण कर चुका है। जैसे डॉ. कलाम पद्म भूषण, पद्म विभूषण एवं भारत रत्न के अलंकरण से आलोकित होते रहे हैं, वैसे ही प्रसाद जी भी वयस्वी भूषण, वयस्वी गौरव से लेकर प्रान्तीय व राष्ट्रीय सम्मान विज्ञानरत्न आदि से विभूषित होते रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है- ‘मेंहदी बाटनबारे को लगे मैंदही को रंग।’ प्रसाद जी के प्रेरणा-प्रभाव में अलीगढ़ के अनेक शिक्षा केन्द्र संचालित हो रहे हैं। जहाँ सीबी गुप्ता सरस्वती विद्यापीठ की स्थापना के दूसरे वर्ष में ही डॉ. कलाम का पदार्पण होता है और ग्रामीण क्षेत्र में वे इसकी प्रगति व स्तर को देखकर प्रफुल्लित हो उठते हैं, वहीं दूसरी शिक्षण संस्था-विजडम पब्लिक स्कूल प्रतिवर्ष डॉ. कलाम के जन्मदिवस 15 अक्टूबर को ‘नवाचार दिवस’ के रूप में वृहत भव्यता के साथ मनाता चला आ रहा है। विद्यालय-प्रबन्धन की जागरूकता प्रशंसनीय है। जब तक पूरे भारत को ठीक से पता भी नहीं चल पाया था कि डॉ.कलाम का हृदयाघात से निधन हो गया है, इस विद्यालय ने एएमयू सहित महानगर के शिक्षाविद्, उपकुलपतियों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, समाजसेवियों की एक बड़ी सभा आयोजित कर श्रद्धांजलि प्रदान की। संस्था के अध्यक्ष श्री पीके गुप्ता ने अपने अश्रुपूरित नेत्रों से नया बना विशाल सभागार डॉ. कलाम के नाम समर्पित कर दिया।
सब जानते हैं कि डॉ.कलाम का जन्म तमिलनाडु के रामेश्वरम - धनुषकोडी के परिवेश में एक निर्धन किन्तु स्वाभिमानी धर्मनिष्ठ परिवार में हुआ था। उन्हें कुरान एवं गीता दोनों ही प्रिय थे। वे तमिल, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषाओं में दक्ष थे। स्वाभाविक है कि उन्होंने कुरान तमिल में पढ़ी होगी और गीता को उसकी मौलिक भाषा में पढ़ते होंगे। उनके उदारमना पिता जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम को नमाज पढ़ते समय ब्रह्माण्ड का एक हिस्सा बन जाते हो जिसमें दौलत, आयु, जाति या धर्म-पन्थ का भेदभाव नहीं रहता।’ कृष्ण की गीता का वाचक उनके पांचजन्य घोष के साथ-साथ उनके चक्रसुदर्शन एवं बांसुरी वादन पर विमोहित हुए बिना, भला कैसे रह सकता है! इसीलिए तो उन्हें प्रक्षेपणास्त्र के साथ-साथ रुद्रवीणा सदैव आकर्षित करती रही है।
उपसंहार पर आते हुए ‘अग्निपंख’ का स्पष्टीकरण समुचित प्रतीत होता है। डॉ.कलाम ने स्वयं ही अपने आत्मकथा को ॅपदहे व िथ्पतम तथा प्हदपजमक डपदक (अग्नि की उड़ान तथा तेजस्वी मन) नामक ग्रन्थों के रूप में प्रकट किया है। अग्नि जो अग्रणी होती है, ज्ञान, गमन एवं प्राप्ति उसकी फलश्रुति होती है। रामेश्वरम की गहनताम सिन्धु की जलराशि की पावन पंक से उपजता है- एक अति पुनीत पंकज अर्थात कमल जो सदैव सूर्य मुखी होता है और उसे मिलते हैं ज्ञान विज्ञान के पंख जो उसकी सूर्य की ओर उड़ान में सहायक होते हैं। जैसे सागर जल से मेघ बनते हैं और उसके गहरे तट से हजारों फीट ऊपर उड़कर मेघालय की रचना कर देते हैं, वहाँ शीतल श्वेत सुदृढ़ शिलांग के प्रौद्योगिक उच्च शिक्षण संस्थान में विद्यमान सुसज्जित छात्र एवं शिक्षकगण स्वागत ही कर पाते हैं कि धरतीमाता अपने वर्चस्वी पुत्र को अपनी गोद में समेट लेती है और वेदमाता कह उठती है- ‘माता भूमिः पृत्रोऽहं पृथिव्यां।’ इस सूर्यास्त की बेला में पंकज सूर्य का समर्थन किये बिना नहीं रह सकता है। ढाका बांग्लादेश में कभी उन्होंने छात्रों को यही सीख दी थी ‘अगर तुम सूरज की तरह चमकना चाहते हो, तो सबसे पहले तुम सूरज की तरह जलो, सपना वह नहीं, जो तुम सोते हुए देखते हो, सपना वह है, जो तुम्हें सोने न दे। महाप्रयाण की बेला में प्रक्षेपणास्त्र पुरुष, राष्ट्रपति, भारत रत्न, राष्ट्रऋषि डॉ. कलाम तुमको प्रणाम! प्रणाम! प्रणाम’!
अलीगढ़-202001