विशेष


मै एक गहरा कुआँ हूँ इस जमीन पर

मैं शहर रामेश्वरम के एक मिडिल क्लास तमिल खानदान में पैदा हुआ। मेरे अब्बा जैनुल आब्दीन के पास न तालीम थी, न दौलत। लेकिन इन मजबूरियों के बावजूद एक दानाई थी उनके पास, और हौसला था और मेरी माँ जैसी मददगार थी, अशिअम्मा। उनकी कई औलादों में एक मैं भी था...
... एक छोटे से कद वाला मामूली शक्लों-सूरत का लड़का। अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे हम, जो कभी 19वीं सदी में बना था। काफी वशी व पक्का मकान था, रामेश्वरम की मस्जिद स्ट्रीट में। मेरे अब्बा हर तरह के ऐशो आराम से दूर रहते थे, मगर जरूरियात की तमाम चीजें मुइअसत थीं। सच तो ये है कि मेरा बचपन कड़ा महफूज था, माद्दी तौर पर भी और ज्ज्बाती तौर पर भी, मटेरियली एंड इमोशनली। ...रामेश्वरम का मशहूर शिव मंदिर हमारे घर से सिर्फ 10 मिनट की दूरी पर था। हमारे इलाके में ज्यादा आबादी मुसलमानों की थी फिर भी काफी हिंदू घराने थे, जो बड़े इत्तफाक से पड़ोस में रहते थे। हमारे इलाके में एक बड़ी पुरानी मस्जिद थी, जहाँ के बड़े पुरोहित पक्षी लक्ष्मण शास्त्री, मेरे अब्बा के पक्के दोस्त थे। मेरे बचपन की यादों में आंकी हुई एक याद यह भी थी कि अपने-अपने खयती लिबास में बैठे हुए वो दोनों कैसे रुहानी मसलों पर देर-देर तक बातें करते रहते थे। मेरे अब्बा मुश्किल से मुश्किल रूहानी मामलों को तमिल की आम जुबान में बयान कर दिया करते थे। एक बार मुझसे कहा था- जब आफत आए तो आफत की वजह समझने की कोशिश करो, मुश्किलें हमेशा खुद को परखने का मौका देती हैं।... मैंने हमेशा अपनी साइंस और टेक्नॉलॉजी में अब्बा के उसूलों पर चलने की कोशिश की है। मैं इस बात पर यकीन रखता हूं कि हमसे ऊपर भी एक आला ताकत है, एक महान शक्ति है जो हमें मुसीबत, मायूसी और नाकामी से निकालकर सच्चाई के मुकाम तक पहुंचाती है। मैं करीब छह बरस का था, जब अब्बा ने एक लकड़ी की कश्ती बनाने का फैसला किया, जिसमें वे यात्रियों को रामेश्वरम से धनुषकोड़ी का दौरा करा सके, ले जाएं और वापस ले आएं। वो समुंदर के साहिल पर लकड़ियां बिछाकर कश्ती का काम किया करते थे, एक और हमारे रिश्तेदार के साथ, अहमद जलालुद्दीन। बाद में उनका निकाह मेरी आपा जोहरा के साथ हुआ। अहमद जलालुद्दीन हालांकि मुझसे 15 साल बड़े थे, फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गई थी। हम दोनों हर शाम लंबी सैर को निकल जाया करते थे। मस्जिद गली से निकलकर हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था, जिसके गिर्द हम उतनी ही श्रद्धा से परिक्रमा करते थे, जिस श्रद्धा से बाहर से आए हुए यात्री। जलालुद्दीन ज्यादा पढ़-लिख नहीं सके। उनके घर के हालात की वजह से। लेकिन मैं जिस जमाने की बात कर रहा हूं उन दिनों हमारे इलाके सिर्फ वही एक शख्स था, जो अंग्रेजी लिखना जानता था। जलालुद्दीन हमेशा तालीमयाफ्ता, पढ़े-लिखे लोगों के बारे में बातें करते थे। साइंस की ईजाद, मेडिसन और उस वक्त के लिटरेचर का जिक्र किया करते थे। एक और शख्स,, जिसने बचपन में मुझे बहुत मुतारिसर किया, वह मेरा कजिन था, मेरा चचेरा भाई शमशुद्दीन। उसके पास रामेश्वरम में अखबारों का ठेका था और सब काम अकेले ही किया करता था। हर सुबह अखबार रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुंचता था। सन 1939 में दूसरी आलमगीर जंग शुरू हुई, सेकंड वर्ल्ड वॉर। उस वक्त में आठ साल का था। हिंदुस्तान को इतहादी फौजों के साथ शामिल होना पड़ा और एक इमरजेंसी के से हालात पैदा हो गए थे। सबसे पहले दुर्घटना ये हुई कि रामेश्वरम स्टेशन पर आने वाली ट्रेन का रुकना कैंसल कर दिया गया और अखबारों का गट्ठा अब रामेश्वरम और धनुककोडी के बीच से गुजरने वाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता था। शमशुद्दीन को मजबूरन, एक मददगार रखना पड़ा, जो अखबारों के गड्ढे सड़क से जमा कर सके। वो मौका मुझे मिला और शमशुद्दीन मेरी पहली आमदनी की वजह बना।
हर बच्चा, जो पैदा होता है वो कुछ समाजी और आर्थिक हालात से जरूर असरअंदाज होता है और कुछ अपने जज्बाती माहौल से भी। उसी तरह उसकी तरबियत होती है। मुझे दयानतदारी और सेल्फडिसीप्लिन अपने अब्बा से विरासत में मिला था और मां से अच्छाई पर यकीन करना और रहमदिली। लेकिन जलालुद्दीलन की सोबत से जो असर मुझ पर पड़ा उससे सिर्फ मेरा बचपन ही महज अलग नहीं हुआ बल्कि आइंदा जिंदगी पर भी उसका बहुत बड़ा असर पड़ा।
अग्नि की परवाज 20 अप्रैल 1989 तय पाई थी। लॉन्च की तमाम तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं और हिफाजत के लिए ये फैसला किया गया था कि लॉन्च के वक्त आस-पास के तमाम गांव खाली करा लिए जाएं। अखबारात और दूसरे मीडिया ने इस बात को बहुत उछाला। 20 अप्रैल पहुंचते-पहुंचते तमाम मुल्क की नजरें हम पर टिकी हुई थीं। दूसरे मुल्कों का दबाव बढ़ रहा था। हम इस तजुर्बे को मुल्तवी कर दे या खारिज कर दें लेकिन सरकार मजबूत दीवार की तरह हमारे पीछे खड़ी थी और किसी तरह हमें पीछे नहीं हटने दिया। परवाज से सिर्फ 14 सेकंड पहले हमें कम्प्यूटर ने रुकने का इशारा किया। किसी पुर्जे में कोई खामी थी। वो फौरन ठीक कर दी गई। लेकिन उसी वक्त डाउन रेंज स्टेशन ने रुकने का हुक्त दिया। चंद सेकंड्स में कई रुकावटें सामने आ गई और परवाज मुल्तवी कर दी गई। अखबारात ने आस्तीनें चढ़ा लीं। हर बयान में अपनी-अपनी तरह की वजूहात निकाल लीं।
एक कार्टून में दिखाया गया कि साइंसदां कह रहा है, ‘सब ठीक था, स्विच बटन नहीं चला।’ एक कार्टून में एक नेता रिपोर्टर को समझा रहा है, डरने की कोई बात नहीं। यह बड़ी अमन पसंद अहिंसावाद मिसाइल है, इससे कोई मरेगा नहीं। फिर भी करीब 10 रोज दिन-रात काम चला, मिसाइल की दुरुस्ती में और आखिरकार साइंसदानों ने नई तरीख तय की अग्नि की परवाज के लिए। मगर फिर वहीं हुआ। 10 सेकंड पहले कम्प्यूटर ने रुकावट का इशारा किया। पता चला एक पुर्जा काम नहीं कर रहा है। परवाज फिर मुल्तवी कर दी गई।
ऐसी बात किसी भी साइंसी तजुर्बे में हो जाना आम बात है। गैरमुल्कों में भी बहुत बार होता है लेकिन उम्मीद से भरी हुई कौम हमारी मुश्किलें समझने को तैयार नहीं थी। एक कार्टून छपा, जिसमें एक देहाती नोट गिनते हुए कह रहा था, मिसाइल के वक्त गांव से हट जाने का मुआवजा मिला है। दो-चार बार और ये तजुर्बा मुल्तवी हुआ तो मैं पक्का घर बनवा लूंगा। अमूल बटर वालों ने अपने होर्डिंग पर लिखा, ‘अग्नि को ईंधन के लिए हमारे बटर की जरूरत है।’ अग्नि की मरम्मत का काम जारी रही। आखिर फिर 22 मई की तारीख अग्नि की परवाज के लिए तय पाई गई।
अगले दिन सुबह सात बजकर 10 मिनट पर अग्नि लॉन्च हुई। कदम-कदम सही निकला। मिसाइल ने जैसे टेक्स्ट बुक याद कर ली हो। जैसे सबक याद कर लिया हो। हर सवाल का सही जवाब मिल रहा था। लगता था, एक लंबे खौफनाक ख्वाब के बाद एक खूबसूरत सुबह ने आंख खोली है। पांच साल की मुशक्कत के बाद हम इस लॉन्च पैड पर पहुंचे थे। इसके पीछे पांच लंबे सालों की नाकामयबी, कोशिशें और इम्तेहान खड़े थे। इस कोशिश को रोक देने के लिए हिंदुस्तान ने हर तरह के दबाव बर्दाश्त किए थे। लेकिन हमने कर दिखाया, जो करना था। वो मेरी जिंदगी का सबसे कीमती लम्हा था, वो मुट्ठी भर सेकंड, छह सौ सेकंड की वाज परवाज, जिसने अपनी बरसों की थकान दूर कर दी, बरसों की मेहनत को कामयाबी का तिलक लगाया।
उस रात मैंने अपनी डायरी में लिखा, ‘अग्नि को इस नजर से मत देखो, यह सिर्फ ऊपर उठने का साधन नहीं है न शक्ति की नुमाइश है, अग्नि एक लौ है, जो हर हिंदुस्तानी के दिल में जल रही है। इसे मिसाइल मत समझो, यह कौम के माथे पर चमकता हुआ आग का सुनहरा तिलक है।’
1990 के रिपब्लिक डे पर देश ने मिसाइल प्रोग्राम की कामयाबी का जश्न मनाया। मुझे पद्म विभूषण से नवाजा गया। दस साल पहले पद्म भूषण की यादें एक बार फिर हरी हो गई। रहन-सहन मेरा अब भी वैसा ही था, जैसा तब था। दस बाई बारह का एक कमरा किताबों से भरा हुआ और कुछ जरूरत का फर्नीचर जो किराए पर लिया था। फर्क इतना ही था कि तब ये कमरा त्रिवेंद्रम में, अब हैदराबाद में।
मैं जानता हूं कि बहुत से साइंसदान और इंजीनियर मौका मिलते ही वतन छोड़ जाते हैं, दूसरे मुल्कों में चले जाते हैं ज्यादा रुपया कमाने के लिए ज्यादा आमदनी के लिए लेकिन ये आदर, मोहब्बत और इज्जत क्या कमा सकते हैं, जो उन्हें अपने वतन से मिली है?
15 अक्टूबर 1991 में मैं 60 साल का हो गया। मुझे अपने रिटायरमेंट का इंतजार था। चाहता था कि गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोलूं। ये वो दिन थे जब मैंने सोचा कि अपनी जिंदगी के तजुर्बे और वो तमाम बातें कलमबंद करूं, जो दूसरों के काम आ सकें। एक तरह से अपनी जीवनी लिखूं। मेरे ख्याल में मेरे वतन के नौजवानों को एक साफ नजरिए और दिशा की जरूरत है। तभी ये इरादा किया कि मैं उन तमाम लोगों का जिक्र करूं जिनकी बदौलत मैं ये बन सका, जो मैं हूं। मकसद ये नहीं था कि मैं बड़े-बड़े लोगों का नाम लूं। बल्कि ये बताना था कि कोई शख्स कितना भी छोटा क्यों न हो, उसे हौसला नहीं छोड़ना चाहिए। मसले मुश्किलें जिंदगी का हिस्सा हैं और तकलीफें कामयाबी की सच्चाईयां हैं।
काश! हर हिंदुस्तानी के दिल में जलती हुई लौ पर लग जाएं और उस लौ की परवाज से सारा आसमान रोशन हो जाए।


(गुलज़ार द्वारा लिखित जीवनी का अंश)