नेट ब्रेनिंग का खतरा
विजन कुमार पांडे
इंटरनेट आधुनिक युग की देन है। जहाँ एक ओर इसके माध्यम से लोगों के बीच की दूरियां कम हुई है वहीं दूसरी तरफ दूरियां बढ़ी भी हैं। इसके द्वारा लोग घर बैठे दूर परिजनों को देख सकते हैं, उनसे बातें कर सकते हैं, देष-विदेष में घटने वाली घटनाओं को देख सकते हैं, विदेष जाने का मार्ग भी तलाष सकते हैं। लेकिन इसके अधिक इस्तेमाल से लोगों का आपस में संपर्क कम हो रहा है और मानसिक बीमारियां भी बढ़ रही हैं। यह बात अब पूरी तरह सच हो चुकी है कि इंटरनेट लोगों की मानसिक बीमारियां बढ़ा रहा है। इसका मुख्य कारण है लोगों को इंटरनेट की लत पड़ जाना। आज दुनिया भर में करीब 18.2 करोड़ लोग इंटरनेट की लत के षिकार हैं। इस लत के कारण लोगों में नए तरह की मानसिक बीमारियां पैदा हो रही हैं। इनमें से एक है ‘नेट ब्रेन’। इस बीमारी में लोग मानसिक और सामाजिक रूप से विचलित हो जाते हैं। इस़से ग्रस्त लोग ऑनलाइन जुए, लगातार सोषल मीडिया और ऐप्स इस्तेमाल करने के आदी हो जाते हैं। इंटरनेट से लगातार जुड़े रहने के कारण ऐसे लोगों के घर में भी हमेषा तनाव बना रहता है। ऐसा देखा गया कि भावुक लोगों में इस बीमारी के होने की आषंका सामान्य से तीन गुना ज्यादा होती है। जबकि यही आषंका फोन का अत्यधिक प्रयोग करने वालों में छः गुना अधिक होती है। दूसरी तरफ स्मार्ट फोन प्रयोग करने वालों में यह आषंका सामान्य की तुलना में सोलह गुना अधिक होती है। ऐसे व्यक्तियों के जिन्दगी में असंतुलन का खतरा तीन गुना बढ़ने की संभावना रहती है।
नेट ब्रेन बीमारी की पहचान
अगर कोई व्यक्ति इंटरनेट पर वक्त गुजारने के लिए अपने दूसरे कामों को नजर अंदाज कर रहा है और इंटरनेट से दूर रहने पर तनाव महसूस करता है तो समझना चाहिए कि उसे नेट ब्रेन की बीमारी हो गई है। ऐसे व्यक्ति समाज विरोधी हो जाते हैं। हर बात पर उनको गुस्सा आने लगता है। उन्हें समाज से कोई मतलब नहीं होता। इनका इलाज करने के लिए सबसे पहले उनको 62 घंटों तक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से दूर रखा जाता है। उन्हें खाने के समय फोन बंद करने और परिवार दोस्तों के साथ ज्यादा समय गुजारने के लिए कहा जाता है। बड़े लोगों के अलावा बच्चों पर भी इंटरनेट का बुरा असर पड़ रहा है। उनके दिमाग पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। मोबाईल, लैपटॉप, और टैब आदि से हानिकारक रेडिएषन निकलता है। यह बच्चों के मस्तिष्क में मौजूद ऊतकों पर बुरा असर डालता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बच्चों का मस्तिष्क बड़े लोगों की तुलना में ज्यादा संवेदनषील होता है। वयस्कों की अपेक्षा बच्चे इस रेडिएषन को जल्दी ग्रहण कर लेते हैं, क्योंकि उनके सिर का ऊपरी हिस्सा और आकार वयस्कों की तुलना में पतला और छोटा होता है। इसका बुरा असर गर्भवती महिला के षिषु पर भी पड़ता है। यही कारण है कि गर्भवती महिलाओं को अक्सर यह चेतावनी दी जाती है कि वे अपने पास मोबाइल आदि न रखें। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ माता-पिता बच्चों को तो मोबाइल इस्तेमाल पर डाटते हैं, लेकिन वे खुद ही बहुत ज्यादा इसका उपयोग करते हैं। जिसका असर मासूम बच्चों पर पड़ता है। बच्चे अक्सर अपने मां-बाप के पास ही रहते हैं इसलिए वे भी इसके रेडिएषन से बच नहीं पाते, भले ही वे इसका प्रयोग न करते हों।
एकाग्रता में कमी आ रही
इस आधुनिक डिजिटल युम में नई पीढ़ी जिस गति से टेक्नॉलॉजी इस्तेमाल कर रही है, उसे देखते हुए कई लोगों का यह मानना है कि इससे षिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आएगा, लेकिन दूसरी तरफ ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो इस बात को लेकर बेहद चिंतित है कि स्मार्टफोन, टैबलेट, ई-रीडर्स व लैपटॉप जैसे इलेक्ट्रानिक समान नई पीढ़ी की एकाग्रता व चिंतन की क्षमता को नुकसान पहुंचा रहे है। इन उपकरणों से जानकारियां तो बहुत मिलती है, लेकिन एक ही विषय पर अनेक तरह के मत प्राप्त होने के कारण इसका नकारात्मक प्रभाव दिमाग पर पड़ रहा है। इसके कारण लोगों की याददाष्त पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है। आजकल के बच्चे जानकारियों को याद नहीं करते, बल्कि उसे सीधे गूगल या विकीपिडिया जैसे नेट पोर्टलों से ले लेते हैं। इससे उनकी याददाष्त कमजोर हो रही है। यह तो सच है कि इंटरनेट से कई फायदे हैं, लेकिन इसके कई दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं, जिसका समाधान जरूरी है। अगर हम इंटरनेट का प्रयोग सीमित दायरे में रहकर करें तो हम इसके दुष्परिणामों से बच सकते हैं।
मोबाइल जाल में फंसते युवा
हमें पता नहीं कि मेरा ही मोबाइल हमारे ही दिमाग पर लगातार चोट कर रहा है। मेरा दिमाग अब उसी की आवृति से नाच रहा है। वह जैसा निर्देष देता है हम वैसा ही कर रहे हैं। इसका जैविक प्रभाव हमारे जीवन को प्रभावित करने से चूक नहीं रहा। वह लगातार हम पर हावी है। बच्चे भी इससे बुरी तरह प्रभावित हैं। वे पढ़ना नहीं चाहते। आज के युवा किताबों का बोझ ढोना पसंद नहीं करते। उनकी किताबों में रूचि घटती जा रही है। उन्हें अब किताबों का पर्याय इंटरनेट मिल गया है। इसमें किताबों की तरह पन्ने उलटने की जरूरत नहीं पड़ती। वे गूगल में सर्च करके कोई भी जानकारी आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। अपने सिलेबस की कोई भी चीज नेट पर वे पढ़ लेते हैं। मोबाइल के आदी युवा अब पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। उनका ज्यादा समय सैल्फी खींचने, चैटिंग करने में चला जाता है। इससे उनकी पढ़ाई प्रभावित हो रही है। मोबाइल के कारण दुर्घटनाएं भी ज्यादा हो रही है। वे ड्राइविंग के दौरान भी फोन को अपनी नजर से दूर नहीं कर पा रहे हैं। कानों से वे हैंडफोन नहीं निकालते। इससे उनका ध्यान भटक जाता है और दुर्घटना घट जाती है। मोबाइल पर नेट की सुविधा होने से कई बार वे ऐसे साइट्स के संपर्क में आ जाते हैं जिस पर अष्लील सामग्री परोसी जाती है। इसे देख वे उस के प्रति आकर्षित हो जाते हैं और गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। कई बार तो वे मोबाइल की मदद से वे नकल भी कर लेते हैं। जबकि परीक्षा में मोबाइल को ले जाना मना होता है। फिर भी वे उसे साइलेंट में रख कर चोरी से अपने पास रख लेते हैं। ऐसा लगता है कि ज्ञान अब केवल मोबाइल तक ही सीमित रह गया है। इससे बच्चों में सीखने की क्षमता प्रभावित हो रही है।
इंटरनेट की सुविधा से हम किसी भी विषय की जानकारी तो हासिल कर लेते हैं लेकिन वह जानकारी सही भी है या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं होती। युवा मोबाइल पर व्यस्त रहने के कारण भविष्य की प्लानिंग के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। दरअसल मोबाइल में गानों की सुविधा और इस से बढ़ता लगाव युवाओं को किताबों से दूर कर रहा है। अब वे अपना ज्यादा समय मोबाइल पर गाना सुनने में बिता देते हैं। वे खाली समय में किताबें पढ़ने से ज्यादा गाना सुनना पसंद करते हैं। मोबाइल में आज ढेरों गेम्स डाउनलोड करने की सुविधा होती है। इसका युवा भरपूर लाभ उठाते हैं। अब उन्हें अच्छे अंक लाने से ज्यादा अपने पसंदीदा गेम में विजय हासिल करने में उत्सुकता रहती है। मोबाइल गेम के चक्कर में वे अब सफर के दौरान भी किताबें नहीं पढ़ते। वे सफर के दौरान मोबाइल से ही चिपके रहते हैं। स्मार्टफोन के कारण ऐप्स की बहार आ गई है। अब तो एप्स के माध्यम से पूरा दिन कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। इनमें वाट्सऐप, फेसबुक, स्काइप आदि प्रमुख हैं। मोबाइल एप्स में व्यस्त रहना युवाओं को ज्यादा भा रहा है। दिनरात वाट्सऐप पर दोस्तों से बातें करते रहते हैं। नोट्स आदि भी वाट्सऐप पर एक दूसरे को षेयर कर दिए जाते हैं। अब पढ़ाई बैठकर नहीं होती बल्कि चलते चलते हो जाती है। ़नेट से तो किताबों को खोलने और ढोने से भी छुटकारा मिल गया है। दरअसल मोबाइल ऐप्स ने किताबों का महत्व ही घटा दिया है। आज मोबाइल के कारण ही लोग आउटडोर गेम से दूर हो गए हैं। वैसे तो हम तकनीक को नकार नहीं सकते लेकिन उसे सीमित जरूर कर सकते हैं। टेक्नॉलॉजी जरूरी है लेकिन उसके पीछे दीवाना हो जाना खतरनाक है।
किताबों से जुड़ने की नसीहत
आप अपने बच्चे को तभी सीख दे सकते हैं जब आप खुद उस काम को न करें। यदि आप खुद मोबाइल से सटे रहेंगे तो आपका लड़का भी यही करेगा। ऐसे में आप उससे कुछ भी नहीं कह पाएगें। इसलिए जरूरी है कि मोबाइल मोह आप पहले त्यागें फिर अपने बच्चे को समझायें। उसे प्यार से समझााने की कोषिष करें कि मोबाइल नहीं बल्कि किताबें उसके भविश्य को संवारेगीं। किताबें उनको विषय की गहन जानकारी देती हैं जबकि मोबाइल के कारण आप को कॉपीपेस्ट की ही आदत पड़ रही है। घर में बच्चे के सामने पढ़ाई का माहौल बनाने के लिए खुद भी खूब किताबें पढ़ें। ऐसी किताबें पढ़ें जिन का ज्ञान आपके की बच्चे के भी काम आए। जबवह आप की किताबों से लगाव महसूस करेगा तो वह खुद भी उस माहौल में रमने की कोषिष करेगा। इससे वह मोबाइल से दूर होगा और किताबों से जुड़ेगा। किताबें हमारी रचनात्मक शक्ति का विकास करने मंे भी मदद करती हैं। हम जितना ज्यादा पुस्तकों से प्यार करेगें उतनी ही ज्यादा जानकारी उनसे हमें प्राप्त होगी। बच्चों को इस बात को समझाने की कोषिष करें कि पुस्तकें जीवन का अभिन्न अंग होने के साथ-साथ हमारी सब से अच्छी दोस्त भी हैं। हमारे लिए किताबों के बिना सफलता पाना मुष्किल है।
जैविक प्रभाव
आपकी जेब में रखा मोबाइल कैंसर देने वाली मषीन की तरह है। मोबाइल फोन और टावर से निकलने वाले रेडियेषन आपका पीछा कभी नहीं छोड़ते। सोते जागते ये आप पर नजर रखते हैं और अपना प्रभाव डालते रहते हैं। संसार भर में सीने से चिपकाकर रखने वाली महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर तेजी से फैल रहा है। वहीं जो पुरूष अपनी पेंट कि जेब में मोबाइल रखते है, उनमें नपुंसकता, षुक्राणुओं में कमी और कैंसर जैसे रोग पनपते देखे जा रहे हैं। जेब में रखे मोबाइल दिल के लिए घातक होता है। मोबाइल टॉवर से कुछ ही मीटर दूर रहने वाले लोगों में कैंसर का खतरा अन्य लोगों के मुकाबले काफी ज्यादा होता है। खासतौर से बच्चो और गर्भवती महिला को मोबाइल के इस्तेमाल से अन्य लोगो के मुकाबले ज्यादा खतरा है। इसका जैविक प्रभाव अब पूरे संसार में देखने को मिल रहा है।
संदेशों का मसीहा
आज के दौर में मोबाइल फोन विज्ञान की सबसे बड़ी देन है। प्राकृतिक आपदाओं में यह हमारा सच्चा साथी होता है। पहले व्यक्ति अपने से दूर मित्रों को सन्देष भेजता था। उसके पास संदेष भेजने के पर्याप्त साधन न थे। वह पक्षियों के माध्यम से अपना संदेष भेजा करता था, लेकिन उसका संदेष उसके मित्रों या परिवारजनों तक पहुँचेगा या नहीं इस बात का उसे हमेंषा सन्देह रहता था। संदेष पहुँचनें में भी काफी समय लग जाता था। लेकिन आज मोबाइल ने इन सन्देहों से छुटकारा दिला दिया। मोबाइल के रूप में आज जो क्रान्ति आई है, वह अंतहीन खोजों और आविष्कारों का ही परिणाम है। पहले के लोग पत्र व तार के माध्यम से सन्देष भेजते थे लेकिन मोबाइल आ जाने से हम कभी भी व कहीं से भी सुविधापूर्वक अपने सगे-सम्बन्धियों, मित्रों और अजनबियों से भी बात कर सकते हैं। मोबाइल से हम केवल बातें ही नहीं कर रहे बल्कि विभिन्न अवसरों की फोटो व वीडियों रिकार्डिंग भी कर रहे हैं। हम जहाँ चाहे वहाँ रेडियो और टीवी का मजा इसके द्वारा ले सकते हैं। अगर हम किसी विपत्ति में पड़ जायें तो मोबाइल के माध्यम से तत्काल सहायता के लिए किसी को बुला सकते हैं। आज यह हर कदम पर हमारे लिए बहुपयोगी बन गया है। लेकिन हमंे याद रहे कि कोई भी सुविधा हमारे लिये दुविधा का कारण भी बन जाती है। इसलिए ये जरूरी है कि मोबाइल को दुविधा का कारण न बनने दें।
मोबाइल गुलामी अच्छी नहीं
हमें याद रखना चाहिए कि अत्यधिक सुविधा भी कभी असुविधा का कारण बन सकती है। दरअसल सुविधा का भोग कब रोग में तब्दील हो जाता है हमें पता भी नहीं चलता। आज यह सच है कि जाने-अनजाने में मानव ने मोबाइल के अत्यधिक प्रयोग के कारण स्वयं के लिए अनेकों बीमारियों को न्यौता दिया है। इसके अत्यधिक प्रयोग से कान सम्बन्धी रोग हो रहे हैं। मस्तिष्क पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। मोबाइल की स्क्रीन पर लगातार नजरें गड़ाए रखने से आँखों की रोषनी कम हो रही है। इतना ही नहीं मोबाइल से उत्पन्न कंपन के कारण मनुष्य का एकांत समाप्त हो गया है। ऐसा लगता है कि हम मोबाइल के उपयोगकर्ता नहीं रह गये हैं, बल्कि मोबाइल ही हमें अपने अनुसार इस्तेमाल कर रहा है। फिर भी मोबाइल गुलामी लोगों को इस कदर रास आ रही है कि वे इस कैद को ही आजादी मान बैठे हैं। फिर भी, मोबाइल के उपयोग व आकर्षण से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए हम इसका प्रयोग अपनी आवष्यकताओं के आधार पर करें न कि फैषन या दिखावे के लिए।
मीडिया चैनल बना मोबाइल
आपको याद होगा कि 1998 में मोबाइल फोन एक मीडिया चैनल बन गया जब फिनलैंड में रेडियो लिंजा द्वारा पहली रिंग टोन बेचा गया था। इसके बाद अन्य मीडिया अवयव प्रकट हुए जैसे की समाचार, वीडियो गेम, जन्म पत्री, टीवी सामग्री और विज्ञापन आदि। सन 2006 में मोबाइल फोन भुगतान ने इंटरनेट भुगतान को पार कर दिया और इसकी कीमत 3100 करोड़ डॉलर थी। अर्थात इसका मीडिया बाजार अपना दायरा बढ़ाता चला गया। अगर पहले के तीन रूप में सिनेमा, टीवी और पर्सनल कंप्यूटर चित्रपट को गिना जाए तो मोबाइल फोन को अक्सर चौथा चित्रपट कहा जाता है। इसे मास मीडिया में सातवाँ भी कहा जाता है। पिछले छः में प्रिंट, रिकॉर्डिग, सिनेमा, रेडियो, टीवी और इंटरनेट षुमार हैं। बेषक मोबाइल हमारे लिए बहुत उपयोगी साबित हो रहा है। इसमें हम रोजमर्रे के काम कर सकते हैं। हम एस.एम.एस., फोन कॉल्स, गेम्स, ब्लूटूथ, जी.पी.एस., अन्तरजाल, सामाजिक नेटवर्क, वीडियो, ध्वनि रिकार्डिंग वगैरह के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं। जरूरत पड़े तो हम किसी के जीवन में हो रही किसी घटना का वीडियो बना कर प्रमाण के रूप में न्यायालय में प्रस्तुत कर सकते हैं। हमें संदेष भेजने या बात-चीत करने के लिए मीलों दूर चलने की आवष्यकता नहीं पड़ती। हर काम पलक झपकते ही इससे हो जाता है। हर बैंक आज कल मोबाइल पर आपके खाते और लेन-देन की तमाम जानकारी दे रहा है। लेकिन इसके कुछ दुष्प्रभाव भी हैं। अभी कई वैज्ञानिक अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मोबाइल फोन तथा अन्य कॉर्डलेस टेलीफोनों के इस्तेमाल से दिमाग पर जैविक प्रभाव पड़ रहा है। नए षोध से पता चला है कि बच्चों तथा कि षोरों को इन फोनों का इस्तेमाल करने के दौरान सतर्कता बरतनी चाहिए। जिससे उनका दिमाग अप्रभावित रहे।
खुदकुषी से रोकेगा ऐप
वैसे बहुत लोगों के दिमाग में बैठ गया है कि मोबाइल, इंटरनेट जैसी प्रौद्योगिकी तनाव का मुख्य कारण है। यह उन्हें कई बार आत्महत्या के लिए मजबूर करते हैं। लेकिन अब इससे भी हमें छुटकारा मिल जाएगा। मोबाइल का एक नया एप ऐसा आया है जो खुदकुषी के बारे में सोच रहे लोगों को ऐसा करने से रोकेगा। यह एप खुदकुषी जैसी मानसिकता की ओर झुक रहे लक्षणों के बारे में सूचित करता है और इसके बाद उस व्यक्ति के साथ बातचीत करना षुरू कर देता है। यह एप पूरी तरह फ्री है। इस एप को हाल ही में अमेरिकी षहर ब्रूम काउंटी के कार्यकारी अध्यक्ष डेबी प्रीस्टन ने लांच किया है।आत्महत्या रोकथाम के लिए यह एप काफी मददगार है। यदि कोई व्यक्ति ऐसी बातें कर रहा हो कि उसे जीने की कोई इच्छा नहीं है या उसका जीवन चारों तरफ से अंधेरे में है तो यह आत्महत्या की ओर बढ़ रही मानसिकता का लक्षण है। इसके अलावा परिवार और मित्रों से अलग-अलग अकेले रहना, तनावग्रस्तता और मूल्यवान चीजों को देना आदि भी आत्महत्या या खुदकुषी के लक्षण हैं। इस एप में हर वर्ग के लोग जैसे वयस्क, किषोर, युवा और वृद्ध से जुड़ी सूचनाएं हैं। यह एप एंड्रायड और आईफोन पर उपलब्ध है।
स्टैटस का सिम्बल सेलफोन
आज के बच्चे सेल फोन को स्टैटस का सिम्बल बना लिए हैं। अपने दोस्तों में ज्यादा मंहगा मोबाइल देखना उनकी आदत सी बन गई है। लेकिन यह मोबाइल इन बच्चों पर कितना बुरा प्रभाव डाल रहा है, इससे उनके अभिभावक भी बेफिक्र हैं। यह उनके लाइफस्टाइल को ही बदल दे रहा है। ये बच्चे लगातार मैसेज देखते हैं और वे जरूरी काम नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए। उनके खेलने का समय, रचनात्मक कार्य, खुली हवा में रहने का समय घटता जा रहा है। खेलने के दौरान उन्हें ताजी हवा मिलती थी उससे ये दूर हो गए हैं। अब वे मोबाइल पर बातें करने के चक्कर में मैदान में खेलना भी भूल जा रहे हैं। ऐसे बच्चे लगातार मोबाइल से दूसरे व्यक्ति के संपर्क में रहते हैं जिसके कारण वे गलत आदतों के भी षिकार हो जाते हैं। वैसे भी षोध से पता चला है कि 16 साल से कम उम्र के बच्चों को मोबाइल देना खतरनाक है। सोलह साल से कम उम्र के बच्चे का दिमाग बहुत ज्यादा सक्रिय होता है जिसके कारण वे मोबाइल के रेडियेषन के प्रभाव में आ जाते हैं। इनके दिमाग ऐसे रेडियेषन को बहुत जल्द ग्रहण कर लेते हैं, जिसके कारण उन्हें ब्रेन कैंसर होने का डर ज्यादा होता है। आज हम ऐसे संसार में रह रहे हैं जहाँ रोज ही बच्चों पर क्राइम हो रहे हैं। ऐसे में अभिभावकों को चाहिए अपने बच्चों की सुरक्षा को देखते हुए उसे मोबाइल से दूर ही रखें। उन्हें अगर वे मोबाइल देते हैं तो उसे पोस्ट पेड करें जिससे पता तो चले कि वे कितने बिल उठा रहे हैं।
दोस्त पर प्यारा दुष्मन भी
यद्यपि मोबाइल के अनेक फायदे हैं। जैसे किसी अनहोनी या आपातकालीन घटना के समय बच्चे मोबाइल से अपने माता-पिता को इसकी सूचना दे सकते हैं। ऐसे में अभिभावक निष्चिंत रहता है क्यांेकि उनका बच्चा हमेषा उनके संपर्क में रहता है। लेकिन इसके दुष्प्रभाव भी ज्यादा हैं। यह बच्चों की पढ़ाई पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है। टीचर इन बच्चों पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं। ऐसे बच्चे क्लास मंे लिखना-पढ़ना छोड़कर हमेषा मोबाइल से ही खेलते नजर आते हैं। वे हमेषा अपने मम्मी-पापा को मैसेज भेजते रहते हैं। जब पाठ पढ़ाये जाते हैं तो उनका उसपर ध्यान नहीं होता। ऐसे में उनके पाठ छूट जाते हैं फिर वे दूसरे की नोटबुक लेकर नकल करते हैं। इससे उनमें नकल करने की प्रवृति बढ़ रही है। इसी तरह जब स्कूल में कोई प्रोजेक्ट वर्क दिया जाता है तो उसे वे गूगल पर सर्च करके नकल कर लेते हैं। इससे उनमें सोचने की शक्ति कम हो जाती है। नया कुछ करने के लिए वे हमेषा गूगल का सहारा लेते हैं जिससे उनमें अपने पर से भरोसा हट जाता है। मोबाइल हमारा एक दोस्त तो है पर प्यारा दुष्मन भी है।
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