भूकंप का वैज्ञानिक विष्लेषण और हमारी तैयारी
डॉ. इरफान ह्यूमन
नेपाल में आए भूकंप ने हज़ारों लोगों को मौत के आग़ोष में समेट लिया। इस ज़लज़ले से नेपाल ही नहीं बल्कि भारत सहित पड़ोसी देश तिब्बत और बांग्लादेश में भी कई लोगों की मौते हुई हैं। यही नहीं आने वाले दिनों में भूकम्प के बाद कई स्थानों पर भूस्खलन होने का भी भय बना हुआ है और भूवैज्ञानिक भूकम्प के और झटके आने की बात कह रहे हैं।
किसी भी आकस्मिक घटना का वर्णन करने के लिए भूकंप शब्द का प्रयोग किया जाता है। भूकंप पृथ्वी की परत या क्रस्ट से ऊर्जा के अचानक उत्पादन के परिणामस्वरूप आता है जो भूकंपी तरंगें यानी सीस्मिक वेव उत्पन्न करता है। पृथ्वी की सतह पर, भूकंप अपने आप को, भूमि को हिलाकर या विस्थापित कर के प्रकट करता है। जब तनाव पर्याप्त मात्रा में बढ़कर अनियमितता को उत्पन्न करता है और दोष यानी फ़ाल्ट से सतह की बंद सीमा के ऊपर अचानक भूमि खिसकने लगती है तो धरती की संग्रहीत ऊर्जा मुक्त होने लगती है। यह ऊर्जा विकिरित प्रत्यास्थ तनाव यानी स्ट्रेन भूकंपीय तरंगों, दोष सतह पर घर्षण की ऊष्मा और चट्टानों में दरार पड़ने के सम्मिलित प्रभाव के कारण मुक्त होती है और इस प्रकार भूकंप का कारण बनती है।
सभी टेक्टोनिक प्लेट्स में आंतरिक दबाव क्षेत्र होते हैं जो अपनी पड़ोसी प्लेटों के साथ अंतर्कि्रया के कारण भूकंप को जन्म देते हैं। अधिकांश टेक्टोनिक भूकंप 10 किलोमीटर से अधिक की गहराई से उत्पन्न नहीं होते हैं। 70 किलोमीटर से कम की गहराई पर उत्पन्न होने वाले भूकंप छिछले-केन्द्र के भूकंप कहलाते हैं, जबकि 70-300 किलोमीटर के बीच की गहराई से उत्पन्न होने वाले भूकंप मध्य केन्द्रीय या अन्तर मध्य केन्द्रीय भूकंप कहलाते हैं। सबडक्शन क्षेत्र में जहाँ पुरानी और ठंडी समुद्री परत अन्य टेक्टोनिक प्लेट के नीचे खिसक जाती है, गहरे केंद्रित भूकंप अधिक गहराई पर यानी 300 से लेकर 700 किलोमीटर तक आ सकते हैं। जब एक बड़ा भूकंप का अधिकेन्द्र यानी एपीसेन्टर अपतटीय स्थित में होता है तो यह समुद्र के किनारे पर पर्याप्त मात्रा में विस्थापन का कारण बनता है, जो सूनामी तक उत्पन्न कर सकता है। भूकंप के झटके कभी-कभी भूस्खलन और ज्वालामुखी गतिविधियों को भी जन्म दे सकते हैं। भूकंप के उत्पन्न होने का प्रारंभिक बिन्दु केन्द्र फ़ोकस या हाईपो सेंटर कहलाता है। शब्द अधिकेन्द्र यानी एपीसेन्टर का अर्थ है, भूमि के स्तर पर ठीक इसके ऊपर का बिन्दु।
नेपाल के लिए यह पहला हादसा नहीं है। इसी तरह करीब 80 साल पहले वर्ष 1934 में आए एक भूकंप में काठमांडू का एक चौथाई इलाका जमींदोज हो गया था और 17 हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे। भूवैज्ञानिकों के अनुसार ये दोनों भूकंप करीब 700 साल पहले आए दो बड़े भूकंपों के पैटर्न के अनुरूप थे, जिसका कारण है धरती की सतह के अंदर मौजूद फॉल्टलाइंस कहलाने वाली भूकंप संभावित अंदरूनी परतों में होने वाले स्ट्रेन ट्रांसफ़र का डोमिनो इफेक्ट अर्थात चेन रिएक्शन। वैज्ञानिकों को इस तरह के संभावित जुड़वा प्रभाव के बारे में कुछ समय पहले ही नेपाली इलाके में किए गए फी़ल्डवर्क से पता चला है। इससे पूर्व 20 अगस्त, 1988 को 6.8 की तीव्रता वाले भूकंप में 721 लोगों की नेपाल में और पड़ोसी भारतीय राज्य बिहार में 277 लोगों की मौत हुई थी।
फ्रांस की शोध संस्था सीईए के लॉरेंट बोलिंगर और उनके साथियों ने पिछले दिनों नेपाल में किए गए अपने फील्डवर्क के दौरान इस इलाके में आने वालों भूकंपों में एक ऐतिहासिक पैटर्न का अध्ययन किया है। वैज्ञानिकों की टीम ने ठीक उसी इलाके में भूकंप आने का अनुमान लगाया था जहाँ शनिवार 25 अप्रैल को भूकंप आया। मध्य दक्षिण नेपाल के जंगलों में बोलिंगर की टीम ने नेपाल के प्रमुख भूकंप फॉल्टलाइंस के समांतर खंदक यानी ट्रेंच बनाए। देश के पश्चिम से पूर्व तक इस फॉल्टलाइन की कुल लंबाई 1,000 किलोमीटर से अधिक है। जहाँ भी भूकंप फॉल्टलाइंस धरती की सतह से मिलती हैं वहाँ वैज्ञानिकों ने उसमें दबे तारकोल के टुकड़ों की कार्बन डेटिंग करके पता लगाया कि इन फॉल्टलाइंस में आख़िरी बार कब हरकत हुई थी।
मानसून की बारिश में पहाड़ों से काफी मिट्टी बहकर मैदानी इलाकों में आती है जिनका बड़ा हिस्सा जंगल से ढका हुआ रहता है, ऐसे में भूकंप से आई दरारों के भर जाने की संभावना होती है। भूवैज्ञानिकों की टीम यह जानने में सफल रही कि फॉल्टलाइंस का ये हिस्सा लंबे समय से हरकत में नहीं आया है। बोलिंगर के अनुसार, वर्ष 1505 और 1833 में आए बड़े भूकंपों के लिए ये फॉल्टलाइन ज़िम्मेदार नहीं थी। इस फॉल्टलाइन में आख़िरी बार संभतः वर्ष 1344 में कोई हरकत हुई थी। यह फॉल्टलाइन काठमांडू के पूरब में स्थित है। उन्होंने दर्षाया है कि इस फॉल्टलाइन वाले हिस्से में वर्ष 1255 में बड़ा भूकंप आया था और उसके बाद फिर वर्ष 1934 में आया।
बोलिंगर और उनके साथियों ने जब नेपाल में आने वाले भूकंपों में इस ऐतिहासिक पैटर्न की पहचान की तो उनके चेहरों पर चिंता की गहरी लकीरें खिंच गईं। सिंगापुर अर्थ ऑबजरवेटरी के बोलिंगर की टीम में शामिल डॉ. टैपोनियर के अनुसार, काठमांडू और पोखरा में भूकंप आने की प्रबल आशंका है, जहाँ दोनों शहरों के बीच आख़िरी बार वर्ष 1344 में भूकंप आया था। जब भी बड़े भूकंप आते हैं तो एक भूकंप फॉल्टलाइन से दूसरे भूकंप फॉल्टलाइन की तरफ स्ट्रेन का स्थानांतरण सामान्य बात है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्ष 1255 में यही हुआ था।
उसके बाद अगले 89 सालों में पड़ोसी पश्चिमी फॉल्टलाइंस क्षेत्र में स्ट्रेन बढ़ता गया, जिस कारण वहाँ वर्ष 1344 में भूकंप आया। इसी तरह इतिहास ने एक बार ख़ुद को दोहराया है। वर्ष 1934 में आए भूकंप की वजह से स्ट्रेन पश्चिम की तरफ खिसक गया जिस कारण 81 साल बाद ये भूकंप आया है। इस टीम को डर है कि भविष्य में ऐेसे और बड़े भूकंप आ सकते हैं। बोलिंगर के अनुसार, नेपाल में आया 7.9 तीव्रता वाला भूकंप शायद इतना ताकतवर नहीं था कि फॉल्टलाइन में पूरे स्ट्रेन को निकाल सके। अभी उसके अंदर और स्ट्रेन बचे होने की संभावना है। उनके अनुसार अभी अगले कुछ दशकों में इस इलाके के पश्चिम या दक्षिण में एक और बड़ा भूकंप आने की संभावना बनी हुई है।
अतः हमें आने वाली स्थिति से निपटने के लिए आज से ही तैयारी शुरू कर देना चाहिए साथ ही भूकंप के प्रति जनजागरूकता भी लाना चाहिए। जापान इसका एक अच्छा उदाहरण है। 11 मार्च, 2011 जापान के उत्तर पूर्वी तट पर समुद्र के नीचे 9ण्0 की तीव्रता के भूकंप आने के बाद आई सुनामी से करीब 18 हजार 900 लोगों की मौत हो गई थी और फुकुशिमा डाईची परमाणु संयंत्र में संकट पैदा हो गया था। कम ही लोग जानते हैं कि जापान जिस भूभाग पर बसा है वह भूभाग धरती की सबसे अशांत टेक्टोनिक प्लेटों पर स्थित है। इन प्लेटों हलचल के चलते वहां समय-समय पर भूकंप आते रहते हैं। जापान चूंकि भूकंप का केंद्र हैं इसलिए वहां इस की मॉनिटरिंग करने का सिस्टम काफ़ी मज़बूत और अपडेट है। मेट्रोलॉजिकल एजेंसी जापान को छह स्तरों में लगातार मॉनिटर करती रहती है। सुनामी वार्निंग प्रणाली भी इसी एजेंसी के तहत काम करती है। सुनामी और भूकंप मॉनिटरिंग प्रणाली के तहत प्लेटों में बदलाव पर नजर रखने वाले सिसमिक स्टेशन के साथ साथ छह क्षेत्रों पर नजर रखती है। इसकी बदौलत केवल तीन मिनट के भीतर ही भूकंप और सुनामी की चेतावनी पूरे देश में जारी कर दी जाती है।
वहां जैसे ही भूकंप आता है, कुछ ही सैकेंड में भूकंप का केंद्र, रिक्टर स्केल और मेग्नीट्यूड संबंधी सारी जानकारी तुरंत ही देश के सभी टीवी चैनलों पर प्रसारित कर दी जाती है। इसी के साथ अगर सुनामी का ख़तरा है तो उस की चेतावनी भी जारी करते हुए कहां-कहां ख़तरा है, सभी लोकेशन राष्ट्रीय प्रसारण में बताए जाते हैं। कुल मिलाकर टीवी पर ये जानकारी साठ सैकेंड के भीतर जारी की जाती है ताकि जनता भूकंप के खतरे को समझकर बचाव पर ध्यान दे। वहां कई क्षेत्रों में लाउडस्पीकर लगाए गए हैं ताकि आपदा की जानकारी दी जा सके। ज्ञात रहे 26 दिसम्बर, 2004 को सुमात्रा तट के पास समुद्र के अंदर आए भीषण भूकंप से आई सुनामी के कारण हिंद महासागर के आसपास के देशों में दो लाख 20 हजार लोगों की मौत हुई थी, जिसमें एक लाख 68 हजार लोग इंडोनेशिया में मारे गए थे।
भूवैज्ञानिकों के अनुसार, आज से क़रीब चार करोड़ साल पहले हिमालय आज जहां है, वहां से भारत करीब पांच हजार किलोमीटर दक्षिण में था। धीरे-धीरे एशिया और भारत निकट आए और इससे हिमालय का निर्माण हुआ। आज भी महादेशीय चट्टानों का खिसकना प्रति वर्ष दो सेंटीमीटर की गति से जारी है। अहमदाबाद स्थित भूकंप अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक डॉ. बी.के. रस्तोगी के अनुसार, उत्तर भारत में समान तीव्रता का एक भूकंप आ सकता है। कश्मीर, हिमाचल, पंजाब और उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में यह भूकंप आज अथवा आज से 50 साल बाद भी आ सकता है, क्योंकि इन क्षेत्रों में सिस्मिक गैप की पहचान की गई है। लंबी अवधि के दौरान टेक्टॉनिक प्लेटों के स्थान बदलने से तनाव बनता है और धरती की सतह पर उसकी प्रतिक्रिया में चट्टानें फट जाती हैं। दबाव बढ़ने के बाद 2000 किलोमीटर लंबी हिमालय श्रंृखला के हर 100 किलोमीटर के क्षेत्र में उच्च तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है। हिमालय में 20 स्थानों पर उच्च तीव्रता वाले भूकंप की अधिक संभावना रहती है और इस बेल्ट में इतनी तीव्रता का भूकंप आने में करीब 200 साल लग सकते है। काठमांडू से 80 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में इसी केंद्र पर वर्ष 1833 में 7ण्5 तीव्रता का भूकंप आया था।
यदि देखा जाए तो भारत में 26 जनवरी, 2001 में आए भूकम्प से अभी हमने सीख नहीं ली है, जब गुजरात में 7ण्7 की तीव्रता वाले भूकंप में 25 हज़ार लोगों की मौत और एक लाख 66 हज़ार लोग जख़्मी हो गये थे। नेपाल में आए भूकम्प के बाद विशेषज्ञों का मानना है कि अब उत्तर भारत में भी समान तीव्रता का भूकंप आ सकता है। झटके और भूमि का फटना भूकंप के मुख्य प्रभाव हैं, जो मुख्य रूप से इमारतों को गंभीर नुकसान पहुचते हैं। दोष सतह के किनारे पर भूमि कि सतह का विस्थापन और भूमि का फटना प्रकट करता है, ये मुख्य भूकम्पों के मामलों में कुछ मीटर तक हो सकता है। अतः हमारे भवनों की संरचना भूकम्परोधी होना बहुत ज़रूरी है। यही नहीं हमें पुराने भवनों को या तो भूकम्परोधी बनाना होगा अन्यथा उन्हें गिराना ही उचित रहेगा। ऐसे प्रयासों से भविष्य में आने वाले किसी भूकम्प से बड़ी जनहानि से बचा जा सकता है।
research.org@rediffmail.com