शल्य चिकित्सा के जनक धन्वंतरि
शुकदेव प्रसाद
भारत का चिकित्सा शाó संबंधी ज्ञान अति प्राचीन है। भारत भूमि में दो प्रकार के आयुर्विज्ञानीय ग्रंथ रचे गए। एक में काय चिकित्सा ;च्ीलेपबंस जीमतंचलद्ध का वर्णन था, जिसे आज ‘चरक संहिता’ नाम से जाना जाता है तथा दूसरे में शल्य क्रिया ;ैनतहमतलद्ध का वर्णन किया गया था। इसे ‘सुश्रुत संहिता’ नाम से जाना जाता है। अतिप्राचीन युग में भी हमारी चिकित्सा प्रणाली का उद्देश्य इतना व्यापक था, पद्धति इतनी परिपूर्ण थी कि ‘चरक संहिता’ केवल भारत में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी लोकप्रिय हुई और इसकी महत्ता को स्वीकार करते हुए आज भी पाश्चात्य विद्वान मानते हैं कि चरक-सुश्रुत के काल में भारतीय चिकित्सा पद्धति पश्चिमी औषध विज्ञान से कहीं आगे थी।
हम भारतवासियों को इस बात का गर्व है कि जो शल्य प्रक्रिया विगत शती में संसार के अन्य राष्ट्रों में पनपी, वह इस भूमि में आज से कोई दो हजार साल पहले ही जन्म ले चुकी थी और उसका व्यापक चलन था। चरक की भांति सुश्रुत की ख्याति भी देश की सीमा से बाहर खूब फैली। 9वीं और 10वीं शती में पूर्व में कंबोडिया और पश्चिम में अरब तक सुश्रुत और उनकी संहिता चर्चित हो चली थी। आइए, प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान ;डमकपबंस ैबपमदबमेद्ध के विकास की भूली-बिसरी कड़ियां जोड़ें।
धन्वंतरि: शल्य चिकित्सा के जनक
भारत का चिकित्सा विज्ञान विषयक ज्ञान अति प्राचीन है। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने इस ज्ञान को जन्म दिया। ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति ने यह ज्ञान अर्जित किया और देव मिषज अश्विनी कुमारों को प्रदत्त किया। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह ज्ञान प्राप्त किया। जब रोगों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई तो चिंतित होकर महान ऋषियों ने हिमालय की पवित्र्ा तलहटी में सभा की और रोगों से मुक्त होने के लिए ऋषि भरद्वाज को यह विद्या सीखने के लिए इंद्र के पास भेजा। ऋषि भरद्वाज ने यह ज्ञान अपने शिष्य आत्र्ोय पुनर्वसु को दिया। आत्र्ोय के शिष्यों ने अपने-अपने आयुर्वेदीय ग्रंथ रचे। आरंभ में दो प्रकार के आयुर्विज्ञान ;स्पमि ैबपमदबमद्ध विषयक ग्रंथ रचे गए। एक में काय-चिकित्सा
(औषधि एवं उपचार से रोग चिकित्सा) का वर्णन था, इसे आज ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना जाता है तथा दूसरे में शल्य चिकित्सा (यंत्र्ाों के प्रयोग से रोगोपचार) का वर्णन किया गया है, इसे ‘सुश्रुत संहिता’ कहते हैं।
‘चरक संहिता’ तो आत्र्ोय के उपदेशों पर आधारित है परंतु ‘सुश्रुत संहिता’ में उपदेष्टा हैं - धन्वंतरि और श्रोता हैं - सुश्रुत। शल्य कर्म के प्रवर्तक धन्वंतरि के नाम पर शल्य क्रिया करने वालों को ‘धन्वंतरि’ कहा जाता था। यों वेदों में धन्वंतरि का उल्लेख नहीं मिलता परंतु वे शाóीय चिकित्सा पद्धति में देव स्वरुप माने जाते हैं और आज भी पर्याप्त श्रद्धा से उनका नाम लिया जाता है। आज भी आयुर्वेद में निष्णात विद्वान् को ‘धन्वंतरि’ उपाधि से विभूषित किया जाता है।
सुश्रुत संहिता के अनुसार धन्वंतरि काशी के राजा थे और इन्हें दिवोदास के नाम से जाना जाता था। पौराणिक आख्यानों के अनुसार समुद्र मंथन में मिले चौदह रत्नों में धन्वंतरि भी एक थे। धन्वंतरि को ब्रह्मांड के प्रपालक विष्णु का एक अंश और मृत्यु-देवता को विजित करने वाले शिव का शिष्य माना जाता है। उनमें दीर्घाष्यु प्राप्त करने तथा रोगों पर नियंत्र्ाण करने वाले दोनों ज्ञानों का संयोग पाया जाता है। सुश्रुत के उपदेष्टा हैं धन्वंतरि। एक प्रसंग देखिए।
सुश्रुत के नेतृत्व में ऋषियों का दल धन्वंतरि के आश्रम में पहुंचता है। सुश्रुत सादर उनसे निवेदन करते हैं - ‘हम देख रहे हैं कि मनुष्य अपने शरीर एवं मस्तिष्क के रोगों के कारण पीड़ा भोग रहे हैं। बाहर से प्रवेश करने वाले उन्हीं के शरीर के भीतर से उठने वाले रोगों के कारण लोग निरुत्साहित दिखाई पड़ते हैं। इस दृश्य से हमें कष्ट होता है। प्राणि मात्र्ा के हेतु हम सभी आपसे आपके परम पावन ‘आयुर्वेद’ के ज्ञान को सुनने आये हैं। हमें शिक्षा दीजिए जिसके द्वारा हम स्वास्थ्य के इच्छुक व्यक्तियों के रोगों का उपचार करना सीख जाएं तथा जिससे दीर्घायु भी प्राप्त कर सकें।’ प्रति उत्तर में धन्वंतरि ने कहा - ‘मेरे बच्चों! तुम सबका स्वागत है। तुम सब बिना किसी परीक्षा के ही मेरी शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो। मैं तुम्हें तथ्य, ज्ञान, सिद्धांत और अनुरूपता के आधार पर शल्य तंत्र्ा के विज्ञान की शिक्षा दूंगा। ध्यान से सुनो।’
इस प्रकार धन्वंतरि के उपदेशों के आधार पर आयुर्वेद के महान ग्रंथ ‘सुश्रुत संहिता’ की रचना हुई जो भारत में शल्य चिकित्सा का आदि ग्रंथ है। वाग्भट ने इस ज्ञान को आगे बढ़ाया।
आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी के विधि विधान को देखते हुए धन्वंतरि द्वारा प्रतिपादित शल्य चिकित्सा उसकी समानार्थी है। आज जो ज्ञान बीसवीं शती में संसार में पनपा, वही ज्ञान हम भारतीयों को आज से 2ए000 साल पहले भी मालूम था। इस बात के लिए हर भारतीय को गर्व होना चाहिए। यों पाश्चात्य जगत में शल्य चिकित्सा बहुत उन्नति कर चुकी है लेकिन आज से दो हजार साल पूर्व के काल का अनुमान किया जाय तो सुश्रुत संहिता में वर्णित शल्य कर्म बहुत ही परिपूर्ण एवं उन्नत लगता है।
भरद्वाज: आयुर्वेद के प्रथम शिक्षक
चरक संहिता तथा अन्य उपलब्ध स्रोतों के अनुसार भरद्वाज पहले ऋषि थे जिन्होंने आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति का ज्ञान अर्जित किया। चरक संहिता में बताया गया है कि जब आर्यों के जीवन में रोग विघ्न डालने लगे तो ऋषियों को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने हिमालय के पार्श्व में अनेक ऋषियों की सभा की और निश्चय किया कि रोगों से त्र्ााण पाने के लिए इंद्र के पास चलना चाहिए और उनसे आयुर्विज्ञान का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। भरद्वाज को ऋषियों ने अपना प्रतिनिधि चुना और एकमत से उन्हें इन्द्र के पास ज्ञानार्जन के लिए भेजा गया। इंद्र भरद्वाज की विद्वता से प्रभावित थे। अतः उन्होंने थोड़े से शब्दों में आयुर्वेद का ज्ञान भरद्वाज को प्रदान किया। फिर भरद्वाज ने अपनी एकनिष्ठा से इस शाó का पूर्ण ज्ञान अर्जित किया।
भरद्वाज ने इस ज्ञान को आत्र्ोय पुनर्वसु को दिया। भरद्वाज ने उन्हें रोगों के कारणों एवं लक्षणों, पदार्थों के सामान्य एवं विशिष्ट स्वभाव, उनके गुण एवं क्रियाओं के बारे में शिक्षा दी। कालांतर में यह ज्ञान आत्र्ोय-पुनर्वसु ने अपने 6 शिष्यों - अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि को दिया, जिन्होंने आयुर्वेद के अपने-अपने स्वतंत्र्ा ग्रंथ रचे। काय चिकित्सा में इंद्र के बाद भरद्वाज का नाम आता है और शल्य चिकित्सा में इंद्र के बाद धन्वंतरि का नाम आता है। अतः भरद्वाज एवं धन्वंतरि को आद्य गुरु माना जाता है जिन्होंने आयुर्वेद की दीक्षा परवर्ती ऋषियों को दी।
चरक संहिता में थोड़ा सा प्रकाश भरद्वाज पर डाला गया है। चूंकि इसकी रचना ई. पू. 800 के आस-पास मानी जाती है, अतः भरद्वाज को इससे पूर्व का माना जाना चाहिए। यह अनुमान ही है और इससे अधिक भरद्वाज के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। कुछ लोग उन्हें अथर्वांगरिस ऋषि का वंशज मानते हैं। भरद्वाज के बारे में एक पौराणिक कथा विष्णु पुराण और महाभारत में मिलती है। कहा जाता है कि उत्थय की पत्नी ममाता जब गर्भवती थी तो उसके देवर बृहस्पति ने उसके साथ संसर्ग किया। गर्भ के भ्रूण (बाद में दीर्घात्मा ऋषि) ने आपत्ति की और नए भ्रूण को पैर से बाहर धकेल दिया। बृहस्पति के क्रोध का पारावार न रहा, अतः उसने दीर्घात्मा (पहले भ्रूण) को अंधा कर दिया। बाहर आ गया भ्रूण जीवित बच गया था, बाद में अपने बच्चों से असंतुष्ट राजा पौरव ने उसे गोद ले लिया। यही गोद लिया बच्चा आगे चलकर भरद्वाज नाम से विख्यात हुआ।
महर्षि आत्र्ोय: काय चिकित्सा के उपदेष्टा
हम जान चुके हैं कि आयुर्वेद का ज्ञान ब्रह्मा से क्रमशः दक्ष प्रजापति, अश्विनी कुमारों और इंद्र को मिला। इंद्र ने भरद्वाज को यह ज्ञान दिया। भरद्वाज ने यह विद्या अन्य ऋषियों को सिखाई। इन्हीं ऋषियों में एक थे - पुनर्वसु जिन्हें आत्र्ोय भी कहा जाता है। ये अत्र्ाि के पुत्र्ा थे, अतः आत्र्ोय नाम से भी इन्हें स्मरण किया जाता है।
महर्षि आत्र्ोय का काल ईसा पूर्व की 8वीं शती माना जाता है। उन्होंने स्वयं आत्र्ोय संहिता की रचना की। इसके प्रारंभिक अध्याय में आत्र्ोय एवं उनके शिष्यों के बीच हुई वार्ता का विवरण है जिसमें उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि - ‘संपूर्ण आयुर्वेदिक चिकित्सा शाó का पूर्ण ज्ञान मनुष्य अपने पूरे जीवन काल में नहीं प्राप्त कर सकता। अतः तुम्हें मेरे एक अन्य छोटे से ग्रंथ से विद्या प्राप्त करके ही संतुष्ट हो जाना चाहिए।’
आत्र्ोय ने रोगों को कई वर्गों में बांटा है - साध्य रोग, असाध्य रोग, तंत्र्ा-मंत्र्ा द्वारा साध्य रोग, तथा वे रोग जिनके उपचार की संभावना बहुत कम होती है। आत्र्ोय संहिता में जल चिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। आत्र्ोय ने नैतिक कारणों का भी विवेचन किया है। ज्वर, अतिसार, पेचिश, रक्तचाप आदि के उपचार की विशेष चर्चा आत्र्ोय ने की है। इतना ही नहीं, इस ग्रंथ में विषों के प्रतिकारकों का प्रचुर उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद में महर्षि आत्र्ोय का वही स्थान है जो यूनानी चिकित्सा में हिपोक्रेटीस का। आत्र्ोय सामाजिक भ्रांतियों एवं रूढ़ियों के कट्टर विरोधी थे। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। अपने यहां और बाहर भी पागलपन को देवताओं, राक्षसों के प्रकोप का प्रभाव माना जाता था एवं असाध्य भी। मगर तत्कालीन धारणा के विपरीत आत्र्ोय ने कहा कि पागलपन से देवता अथवा राक्षसों का नाम मात्र्ा भी संबंध नहीं है, अपितु पागलपन अनुचित आचरण के कारण उत्पन्न होता है तथा यथोचित उपचार से इसका प्रतिकार भी किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि आगे चलकर फिलिप पीनल ने भी पागलपन की अंधविश्वासी धारणा को बदला। पागलों को कटघरे में बंद कर दिया जाता था अथवा उन पर कुत्ते छोड़ दिए जाते थे और तरह-तरह की शारीरिक यातनाएं दी जाती थीं। पीनल ने इस अमानवीयता के खिलाफ संघर्ष किया और पागलों के लिए मानसिक अस्पतालों की व्यवस्था करायी। तुलनात्मक ढंग से देखिए कि हमारे विज्ञान मनीषियों की दृष्टि कितनी परिष्कृत थी और वे कितना आगे थे।
आत्र्ोय का एक और महत्वपूर्ण योगदान है, वह यह कि इन्हीं के उपदेशों पर काय चिकित्सा की आधारशिला रखी गयी। आत्र्ोय ने भरद्वाज का ज्ञान प्राप्त करके अपने शिष्यों-अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि को दिया। उन्होंने अपने-अपने आयुर्वेदीय ग्रंथ रचे। ‘चरक संहिता’ काय चिकित्सा का प्रामाणिक ग्रन्थ है, वह महर्षि आत्र्ोय के उपदेशों पर आधारित है। इसमें आत्र्ोय के उपदेशों का संग्रह अग्निवेश ने किया और उसे ग्रंथ रूप दिया। आगे चलकर चरक तथा दृढ़़बल आदि ने उसमें संशोधन किया।
चरक संहिता के प्रत्येक अध्याय का आरंभ इन पंक्तियों में होता है - ‘पूजनीय आत्र्ोय ने ऐसा कहा।’ (इति ह स्माह भगवान आत्र्ोयः) वास्तव में इस ग्रंथ में आत्र्ोय एवं उनके शिष्यों के बीच चिकित्सा-शाó के विभिन्न पहलुओं पर हुए विचार-विमर्श का विशद वर्णन है। अतः प्रायः हर अध्याय में ‘आत्र्ोय ने ऐसा कहा’ लिखना स्वाभाविक है।
आचार्य आत्र्ोय ऐसी गोष्ठियों में जिस विषय पर वार्ता करना चाहते, उसकी पूर्व घोषणा कर देते। उनके शिष्य एवं आस-पास के अन्य ऋषि एवं विद्वान विचार-विमर्श के लिए एकत्र्ाित होते। शिष्य प्रश्न पूछते, आत्र्ोय उनका उत्तर देते, शंकाओं का समाधान करते। वस्तुतः आयुर्वेद की आधारशिला महर्षि आत्र्ोय ने ही रखी। आत्र्ोय न होते तो ‘चरक संहिता’ जैसा आयुर्वेद का विश्वकोष अस्तित्व में भी आता, कहना असंभव प्रतीत होता है।
कौमारभृत्य जीवक: बौद्धकालीन चिकित्सक
आज से कोई ढाई हजार साल पूर्व भारत की कला, संस्कृति और वैभव की ध्वजा कीर्ति चारों ओर फैल रही थी। मगध की राजधानी थी राजगृह और राजा थे बिंबिसार। इस राज्य के उत्तर में वज्जि गणराज्य था जिसकी राजधानी वैशाली थी। यों तो राजगृह और वैशाली दोनों धनधान्य, वैभव से परिपूर्ण थे लेकिन वैशाली में एक और आकर्षण था जो मगध में नहीं था। वैशाली में अंबपाली (आम्रपाली) गणिका थी जो नगरवासियों का मनोरंजन करती थी। अंबपाली रूप, गुण, नृत्य, संगीत में पारंगता थी और वैदुष्य में भी उसकी कीर्ति चारों ओर थी। उस समय राजगृह का नैगम (नगर सेठ) किसी काम से वैशाली आया, लौटकर उसने बिंबिसार से वैशाली की समृद्धि की चर्चा की और पूछा कि ‘देव? हम भी एक गणिका रखें!’ राजा की अनुमति मिल जाने पर राजगृह में अभिरूप दर्शनीय एक कुमारी, सालवती को गणिका चुना गया। शीघ्र ही वह लोकप्रिय हो गई और उसकी ख्याति अंबपाली की भांति चारों ओर फैलने लगी। लेकिन यह गणिका अचिर में ही गर्भवती हो गई। उसने सोचा कि जब लोगों को मेरे गर्भधारण के बारे में पता लग जायेगा, तो उनकी दिलचस्पी मेरे प्रति समाप्त हो जायेगी। अतः सालवती ने बीमार होने का नाटक किया और नौकरानी से कहा - ‘कोई पुरुष आये और मुझे पूछे तो उससे कहना कि बीमार है।’
फिर सावलती ने समय पर एक बच्चे को जना और अपनी नौकरानी को आज्ञा दी कि इसे सूप में रखकर कूड़े के ढेर में छोड़ आये। नौकरानी ने वैसा ही किया। राजकुमार अभय उधर से गुजर रहे थे कि कौओं से घिरे उस बच्चे को देखकर लोगों से पूछा - ‘यह कौओं से घिरा क्या है?’ तब लोगों ने बताया - ‘देव? बच्चा है, जीता है।’ तब कुमार ने उसे अंतःपुर में भिजवा दिया और वहीं उसका लालन-पालन हुआ। ‘जीता है, कहने से उसका नाम पड़ा - ‘जीवक’। चूंकि कुमार ने पाला, अतः नाम हुआ ‘कौमारभृत्य’। यही कौमारभृत्य जीवक आगे चलकर महान चिकित्सक हुआ। उत्तर भारत में जीवक की टक्कर का कोई चिकित्सक न हुआ। आस-पास ही नहीं, दूर देश के राजे-महाराजे तक उनसे अपना इलाज करवाने को उत्सुक रहते। जीवक ने बड़ा यशस्वी जीवन प्राप्त किया।
थोड़ा बड़ा होने पर जीवक राजकुमार की बिना अनुमति के तक्षशिला गया और वहां के वैद्य (संभवतः आत्र्ोय पुनर्वसु) से निवेदन किया - ‘आचार्य! मैं शिल्प सीखना चाहता हूं।’ प्रति उत्तर में आचार्य आत्र्ोय ने कहा - ‘तो भंते जीवक! सीखो।’ और सात वर्ष तक वह आचार्य के सानिध्य में सीखता-पढ़ता रहा। लेकिन उसे लगता कि इस शिल्प का अंत नहीं है। अतः हार कर उसने आचार्य से पूछा - ‘आचार्य! मैं बहुत पढ़ता हूं, कब इस शिल्प का अंत जान पड़ेगा।’ आचार्य ने कहा - ‘भंते, खनती (खनित्र्ा) लेकर तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर घूम कर अभैषज्य (औषधि के अनुपयुक्त) देखो और उसे ले आओ।’ लौटकर और जीवक के यह बताने पर कि मैंने अभैषज्य नहीं देखा आचार्य ने कहा - ‘सीख चुके भंते जीवक! यह तुम्हारी जीविका के लिए पर्याप्त है।’
यह कह कर आचार्य ने जीवक को थोड़ा सा पाथेय (राह खर्च) दिया और जीवक गुरु को प्रणाम कर राजगृह की ओर चल पड़ा।
मार्ग में उसका पाथेय समाप्त हो गया तो उसने सोचा कि चिकित्सा के आधार पर आजीविका जुटानी चाहिए। उस समय साकेत में नगर सेठ की भार्या पिछले सात वर्षों से भयंकर सिर दर्द से पीड़ित थी। पहले तो सेठानी जीवक से चिकित्सा कराने को तैयार नहीं हुई लेकिन ठीक न होने पर कुछ न लेने की बात पर वह तैयार हो गई और जीवक ने एक ही नस्य से उसका भीषण सिर दर्द ठीक कर दिया। पारिश्रमिक स्वरूप सेठानी के पुत्र्ा ने चार हजार कार्षापण, सेठानी ने भी इतना ही, बहू ने भी तथा गृहपति ने भी इतना धन दिया, साथ में एक दासी और रथ भी। इस संपदा के साथ जीवक राजगृह पहुंचा और राजकुमार को अपनी पहली अर्जित आजीविका अर्पित करते हुए कहा - ‘देव, इसे स्वीकार करें।’ इस पर राजकुमार ने कहा - ‘नहीं भंते, यह तेरा ही रहे। हमारे ही अंतःपुर में भवन बनवाकर रहो।’ और जीवक वहां स्थायी रूप से रहने लगे।
उस समय बिंबिसार भगंदर से पीड़ित थे। अभय ने जीवक से चिकित्सा कराने को राजा से कहा। जीवक ने राजा के भगंदर को एक ही लेप से दूर कर दिया। प्रसन्न होकर महाराजा ने जीवक को राजचिकित्सक बना दिया। जीवक ने भगवान बुद्ध की भी चिकित्सा की थी।
चरक: काय चिकित्सा के प्रणेता
चरक संहिता, काय चिकित्सा का आदि एवं प्रामाणिक ग्रंथ है। इसके नाम से इसके रचयिता के रूप में चरक का नाम लिया जाता है। वस्तुतः जो चरक संहिता हमें आज प्राप्त है (निर्णय सागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित), वह अग्निवेश द्वारा रची गई थी, उसका प्रतिसंस्कार किया चरक ने तथा उसे पूरा किया दृढ़बल ने। इस गद्य-पद्य मिश्रित 120 अध्यायों वाले चिकित्सा ग्रंथ के उपदेष्टा हैं - आत्र्ोय पुनर्वसु तथा अग्निवेश। वास्तव में भरद्वाज से ज्ञान प्राप्त कर महर्षि आत्र्ोय ने यह ज्ञान 6 शिष्यों अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारिपाणि को दिया था। सर्वप्रथम अग्निवेश ने आयुर्वेदीय ज्ञान को तंत्र्ाबद्ध किया। बाद में अन्य ने भी अपनी संहिताएं रचीं लेकिन सबसे अधिक प्रतिष्ठा अग्निवेश के तंत्र्ा को मिली और यही चरक तथा दृढ़बल के परिश्रम से आज हमें चरक संहिता के रुप में प्राप्त है।
आधुनिक युग में उपलब्ध चरक संहिता के प्रत्येक अध्याय के प्रारंभ की पुष्पिका में पहला वचन मिलता है - ‘इति ह स्माह भगवानात्र्ोयः’ अर्थात् ‘ऐसा भगवान आत्र्ोय ने कहा।’ चरक संहिता के 120 अध्यायों में से 79 अध्यायों की समाप्ति में यह वाक्य मिलता है - ‘अग्निवेश कृते तंत्र्ो चरक प्रतिसंस्कृते।’ अर्थात् ‘अग्निवेश द्वारा रचित और चरक द्वारा प्रतिसंस्कारित’ और शेष के 41 अध्यायों में ये शब्द आते हैं ‘...दृढ़बल संपूरिते’ अर्थात् ‘दृढ़बल ने इसे पूरा किया।’ इस प्रकार महर्षि आत्र्ोय द्वारा उपदेशित, अग्निवेश रचित, चरक द्वारा प्रति संस्कारित और दृढ़बल द्वारा संपूरित संहिता ही चरक संहिता है। तात्पर्य यह है कि चरक संहिता के प्रणेता एकमात्र्ा चरक नहीं थे।
इसमें भी विवाद है कि चरक नामधारी कोई व्यक्ति था भी या नहीं। चरक संहिता के प्रतिसंस्कर्त्ता चरक कौन थे? कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा का नाम चरक है, जिसका संबंध वैशंपायन से था। वैशंपायन के शिष्य चरक कहलाते थे। जो शिष्य प्रथम गुरु के पास से विद्या प्राप्त करके ज्ञानार्जन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते फिरते थे (चलते रहने के कारण), वे चरक कहलाते थे। वैयाकरण पाणिनी के बारे में कहा जाता है कि शब्द सामग्री की खोज में उन्होंने लंबी यात्र्ााएं की। यही उनका ‘चरक’ रूप था। पीछे चलकर वैद्यों को भी चरक कहा जाने लगा क्योंकि ये भ्रमणशील वैद्य (चरक) रोगियों की व्याधियों को दूर करने के लिए यत्र्ा-तत्र्ा विचरते रहते थे। ऐसा विश्वास है कि इन्हीं में से काय चिकित्सा में निपुण किसी वैद्य ने अग्निवेश के ग्रंथ का प्रतिसंस्कार किया होगा, जिसके जन्म, काल, स्थान आदि के बारे में हमें स्पष्ट ज्ञान नहीं है। पीछे आयुर्वेद में निष्णात वैद्यों को चरक या चरकाचार्य भी कहा जाता था। चरक संहिता काय चिकित्सा (औषध निदान) का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी ख्याति बाहर भी फैली, अरबी में इसका अनुवाद हुआ। अलबेरूनी ने लिखा है - ‘हिंदुओं की एक पुस्तक है, जो चरक के नाम से प्रसिद्ध है। यह औषधि विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है।’
चरक संहिता में 8 खंड हैं जिनमें प्रत्येक को ‘स्थान’ कहा जाता है। वे इस प्रकार हैं:
1. सूत्र्ा स्थान - इसमें औषधि विज्ञान, आहार, पथ्यापथ्य, विशेष रोग तथा मन के रोगों की चिकित्सा का वर्णन है।
2. निदान स्थान - इसमें 8 प्रमुख रोगों की जानकारी दी गई है।
3. विमान स्थान - रुचिकर स्वास्थ्यवर्धक भोज्यों के बारे में जानकारी दी गई है।
4. शारीर स्थान - शरीर की रचना, गर्भ स्थिति, शिशु का जन्म तथा विकास आदि बातों का वर्णन है।
5. इंद्रिय स्थान - रोगों की चिकित्सा वर्णित है।
6. चिकित्सा स्थान - प्रमुख रोगों के प्रमुख उपाय दिए गए हैं।
7.8. कल्प तथा सिद्धि स्थान - कुछ छोटे-मोटे रोगों की जानकारी एवं चिकित्सा की बातें लिखी गई हैं। आज मेडिकल के छात्र्ाों को डाक्टरी की उपाधि लेने के बाद ‘हिपोक्रेटीस की शपथ’ दिलाई जाती है। हमारे यहां भी यह परंपरा थी। चरक में वैद्यों को कुछ नियम पालन हेतु आदेश रूप में बताये जाते थे। यथा: ‘तू रात-दिन भले ही कार्य में व्यस्त रहे, तू अपने जीवन अथवा रोजी की परवाह किये बिना रोगियों को राहत पहुंचाने का हर संभव प्रयास करेगा।’ ‘रोगी के गृह के विशिष्ट रीति-रिवाजों के बारे में तू अन्य किसी को कुछ नहीं बताएगा। यह जानते हुए भी रोगी की जीवन लीला समाप्त होने वाली है, तू इस बात को वहाँ किसी से नहीं कहेगा अन्यथा रोगी या अन्य व्यक्तियों को धक्का लगेगा।’ ‘तू भले ही कितना ही ज्ञान प्राप्त कर चुका हो, तुझे अपने ज्ञान की बड़ाई नहीं करनी होगी। अधिकांश व्यक्ति उन व्यक्तियों के शेखी बघारने से चिढ़ उठते हैं जो अन्यथा भले एवं विशेषज्ञ होते हैं।’
अति प्राचीन युग में हमारी चिकित्सा प्रणाली का उद्देश्य इतना व्यापक था, पद्धति इतनी परिपूर्ण थी कि ‘चरक संहिता’ केवल भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हुई और इसकी महत्ता को स्वीकार करते हुए आज भी पाश्चात्य विद्वान मानते हैं कि चरक-सुश्रुत के काल में भारतीय चिकित्सा यूनानी पद्धति से कहीं आगे थी।
अरबी में चरक संहिता के अनुवाद के अतिरिक्त तिब्बती और चीनी भाषाओं के आयुर्वेद साहित्य पर भी इस ग्रंथ का प्रभाव पड़ा। इसकी बहुत सी टीकाएं उपलब्ध हैं। पुरानी टीकाओं में भट्टार हरिश्चंद्र (5वीं शती) की ‘चरकन्यास’, जेज्जट (6ठीं शती) कृत ‘निरंतरपद’ और चक्रपाणिदत्त (11वीं शती) की ‘आयुर्वेद दीपिका’ या ‘चरकतात्पर्य’ आदि प्रमुख हैं। बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ में भी चरक का उल्लेख है।
सुश्रुत: शल्य चिकित्सा के प्रणेता
हमें इस बात का गर्व है कि जो चिकित्सा पद्धति (प्लास्टिक सर्जरी) विगत शती में दुनिया के तमाम मुल्कों में पनपी, वह इस भूमि में आज से दो हजार साल पहले ही जन्म ले चुकी थी और उसका व्यापक प्रसार था। इसका प्रमाण है महर्षि सुश्रुत द्वारा प्रणीत शल्य चिकित्सा का महान ग्रंथ - ‘सुश्रुत संहिता।’ इसमें उपदेष्टा हैं धन्वंतरि और संपूर्ण संहिता सुश्रुत को संबोधित करके कही गई है। श्रोता रुप में सुश्रुत के अतिरिक्त वैतरणी, औरभ्र, पौष्कलावत, करवीर्य, गोपुररक्षित आदि हैं। इस संहिता के प्रतिसंस्कारकर्त्ता नागार्जुन माने जाते हैं। प्राचीन भारत में कई नागार्जुनों का उल्लेख है लेकिन सुश्रुत संहिता से किस नागार्जुन का संबंध था, ज्ञात नहीं है।
यद्यपि सुश्रुत संहिता प्रमुख रूप से शल्य चिकित्सा का ग्रंथ है लेकिन इसमें काय चिकित्सा का भी उल्लेख है। इसमें आरंभिक अंश (शल्य तंत्र्ा) कुल 120 अध्यायों में विभाजित है। स्ािान 5 ही हैं यथा - सूत्र्ा स्थान (46 अध्याय), निदान स्थान (16 अध्याय), शारीर स्थान (10 अध्याय), चिकित्सा स्थान (40 अध्याय), कल्प स्थान (8 अध्याय)। परिशिष्ट रूप में दिए गए उत्तर तंत्र्ा (काय चिकित्सा) में कुल 66 अध्याय हैं।
शल्य तंत्र्ा में सुश्रुत कहते हैं कि विद्यार्थी को सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों ज्ञान का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये। वे लिखते हैं-‘ऐसा चिकित्सक, जो केवल शाó (सैद्धांतिक ज्ञान) में पारंगत हो किंतु आचार की व्यावहारिक रीतियों से अपरिचित हो अथवा वह चिकित्सक जिसे उपचार के व्यावहारिक विवरणों का ज्ञान तो हो, किंतु उसने अपने आत्मविश्वास के कारण पुस्तकों का अध्ययन न किया हो, अपने व्यवसाय के लिए अनुपयुक्त होते हैं।’
चूंकि शल्य तंत्र्ा का क्रियात्मक ज्ञान से अधिक संबंध है, अतः ‘योग्यासूत्र्ाीय’ अध्याय में वह बताते हैं कि किस कर्म का किस पर अभ्यास किया जाय। यथा - ‘कुम्हड़ा, लौकी, तरबूज, खीरा, ककड़ी आदि वस्तुओं में छेदन कार्य का अभ्यास करना चाहिए। ऊपर को काटना, नीेचे को काटना आदि कार्य इन्हीं पर करना चाहिए। मशक यानी चमड़े की थैली में पानी या कीचड़ आदि भर कर छेदन कर्म सीखना चाहिए। बाल वाली त्वचा पर लेखन कार्य, मरे पशुओं की शिराओं तथा कमलनाल में बेधन कर्म का अभ्यास करना चाहिये। घुन खायी लकड़ी, सूखी तुंबी के मुख में ऐषण कार्य, कोमल त्वचाओं में सीवन कार्य, पुस्त (मिट्टी या लकड़ी के मॉडल) के अंग-प्रत्यंगों पर पट्टी आदि बांधने का अभ्यास करना चाहिए। मृदु मांस के टुकड़ों पर अग्नि और क्षार का अभ्यास करना चाहिए।’ (सू. अ. 9/4)
सुश्रुत में शवच्छेदन का कार्य बताया गया है - ‘शल्य शाó का संपूर्ण ज्ञान बिना संशय के जानने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह मृत शरीर का शोधन करके अंग-प्रत्यंग का निश्चय करे। जो वस्तु आंख से पृथक देख ली जाती है, शाó से भी जिसे समर्थन प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार दोनों प्रकारों से जानना ही ज्ञान को बढ़ाता है, इसलिए संपूर्ण अंगों वाले, विष न भरे हुए, बहुत लंबी बीमारी से न मरे हुए एक सौ वर्ष की आयु से कम व्यक्ति के शव में आंत्र्ा व मल निकालकर पुरुष के शव को बहते हुए जल वाली नदी में पिंजरे के अंदर मूंज, वल्कल, कुश, सन आदि से लपेट कर एकांत स्थान में रख कर गलाएं। भली प्रकार नरम हो जाने पर इसको निकालकर सात दिन तक खस, बाल, बांस की बनायी हुई कूंची (ब्रश) से धीरे-धीरे रगड़ते हुए वचा से लेकर अंदर और बाहर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग को देखना चाहिए।’ (शा. अ. 5ध्47.49)।
नई नाक लगाने की प्रक्रिया का वर्णन सुश्रुत के ही शब्दों में पढ़िए - ‘अब मैं एक कृत्र्ािम नाक बनाने की प्रक्रिया का वर्णन करूंगा। सबसे पहले लता की एक पत्ती लेते हैं, इतनी लंबी और चौड़ी जो पूरे कटे हुए अंग को पूर्णरूप से ढंकने के लिए पर्याप्त होती है, फिर गाल पर से इस पत्ती के बराबर जीवित मांस का एक टुकड़ा उतार लेते हैं। इसे उतार कर फुर्ती से कटी हुई नाक पर चिपका देते हैं। कटी नाक को पहले से छील कर तैयार रखते हैं। चिकित्सक को इसे धैर्य के साथ पट्टी से बांध देना चाहिए। सुश्रुत ने विभिन्न आपरेशनों के लिए भिन्न-भिन्न शल्य उपकरणों का वर्णन किया है। उन्होंने 101 प्रकार के कुंद उपकरण तथा 20 प्रकार के पैने उपकरण गिनाए हैं। यंत्र्ाों के बारे में सुश्रुत लिखते हैं - ‘उपकरण सामान्यतया अच्छे लोहे के बने होने चाहिए। उनका आकार संतुलित हो, उन्हें मजबूती से पकड़ा जा सके तथा उनके सिरे देखने से डरावने न लगते हों।’
शरीर के विभिन्न भागों पर पट्टी बांधने की उन्होंने 81 विभिन्न रीतियां बताई हैं। प्रदाहकों के प्रयोग-प्रदाहन, जोंक द्वारा रक्त निकालने तथा शिरा में पंक्चर (छेदन) करने का भी वर्णन सुश्रुत में मिलता है। चरक की भांति सुश्रुत की ख्याति देश की सीमा से बाहर खूब फैली। 9वीं और 10वीं शती के पूर्व में कंबोडिया और पश्चिम में अरब तक सुश्रुत संहिता की चर्चा पहुंच चुकी थी। 11वीं शती में चक्रपाणिदत्त ने ‘भानुमती व्याख्या’ नाम से इसकी टीका लिखी। जेज्जट और गयदास की भी टीकाएं उपलब्ध हैं। 13वीं शती में डल्हण ने इसकी टीका की।
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