विज्ञान


म्यू-न्यूट्रिनो की खोज से मिली नई दिशा

डॉ. के.एम. जैन

पदार्थों के प्रकाशीय गुणों का अध्ययन करने के दौरान भौतिकविद् हेनरी बैक्वेरल को कुछ ऐसे पदार्थ मिले जो स्वतः उत्सर्जन की क्षमता रखते थे । ऐसे पदार्थों को रेडियोएक्टिव पदार्थ कहा गया। इनसे उत्सर्जित होने वाले विकिरणों में धनावेशित अल्फा किरणें, ऋणावेशित बीटा किरणें तथा निरावेशित गामा विकिरण होती हैंे। उस समय वैज्ञानिकों की नजर में यह बड़ी अजीब और रहस्यमय घटना थी क्योंकि इसमें बिना किसी बाह्य-ऊर्जा के सतत ऊत्सर्जन मिल रहा था। 
भौतिकशास्त्री अर्नेस्ट रदरफोर्ड के मन में इस क्षेत्र में काम करने के लिये विशेष रूचि जागी। रसायनज्ञ एफ. डब्ल्यू.सॉडी के साथ मिलकर किये गये प्रयोगों के दौरान उन्होंने पता लगाया कि अल्फा किरणें जिन कणों से मिल कर बनी होती हैं, वे हाइड्रोजन से चार गुना भारी होते हैं तथा वे अत्यन्त तीव्र वेग से, बन्दूक की गोली की तरह, निकलते हैंे। रदरफोर्ड ने इन कणों की सहायता से परमाणु की भीतर की दुनिया को जानने का प्रयास किया और निष्कर्ष निकाला कि परमाणु में धनात्मक भाग सर्वत्र फैले रहने की बजाय एक केन्द्रक या नाभिक के रूप में स्थानीकृत रहता है। अल्फा कणों से अपने प्रयोगों की शृंखला को आगे बढ़ाने पर उन्हें नाभिक में ‘प्रोट्रान’ नामक एक नये कण की उपस्थिति का प्रमाण मिला। 

रेडियोएक्टिव पदार्थों से उत्सर्जित होने वाली बीटा किरणें जिन कणों से मिलकर बनी होती हैं, वे वास्तव में ‘इलेक्ट्रॉन’ हैं। जब बीटा कणों की ऊर्जा, कोणीय संवेग आदि का अध्ययन किया गया तब इनका उत्सर्जन भी अत्यंत रहस्यमय प्रतीत हुआ। तत्कालीन समय में ‘इलेक्ट्रॉन’ के परमाणु के अनिवार्य हिस्से होने पर किसी प्रकार का संदेह नहीं था लेकिन कई प्रेक्षण साफ बता रहे थे कि भले ही बीटा कण नाभिक के अंदर से बाहर आ रहे हों, लेकिन उन्हें नाभिक का अनिवार्य हिस्सा कदापि नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा है तो फिर यह बीटा कण किस तरह नाभिक से उत्पन्न होकर बाहर आता होगा, एक विचारणीय प्रश्न बन गया। बीटा उत्सर्जन की समस्या को हल करने के दौरान किये जा रहे प्रयोगों से जो परिणाम मिल रहे थे, वे अब तक के स्थापित ‘ऊर्जा और कोणीय संवेग संरक्षण’ के नियमों के टूटने के संकेत दे रहे थे। लेकिन संरक्षण-नियमों का टूटना वैज्ञानिकों के गले नहीं उतर रहा था क्योंकि इनमें वैज्ञानिकों की अगाध श्रद्धा थी। इसीलिये इन नियमों को बचाने के लिये तार्किक तरीके से वुल्फगैंग पॉली ने न्यूट्रिनो परिकल्पना प्रस्तुत की। इसके बाद एनरिको फर्मी ने बीटा-क्षय (डिके) को समझने के लिये एक सैद्धान्तिक ढ़ाँचा प्रस्तुत किया तथा प्रकृति में एक और नये प्रकार के बल (क्षीण नाभिकीय बल) के अस्तित्व में होने की बात सामने रखी। 
फर्मी के सिद्धांत से जनित न्यूट्रिनो, बीटा क्षय से जुड़े प्रत्येक अध्ययन से प्राप्त परिणामों को समझने में अपनी अनिवार्यता तो साबित करता रहा, लेकिन यह सैद्धांतिक धरातल की सीमाएं लांघ कर प्रायोगिक धरातल पर अवतरित नहीं हो पाया। वैज्ञानिक इसे लेकर लम्बे समय तक ऊहापोह की स्थिति में बने रहे। न वे इसे नकार सकते थे और न ही प्रायोगिक पुष्टि के बिना इसे दिल से स्वीकार सकते थे। लेकिन इसी बीच दृढ़ संकल्पित फ्रेडरिक रैंन्स और क्लायड कोवन ने कुछ नाभिकीय प्रक्रियाओं के पहचान कर इस घटना को रिकार्ड करने में समर्थ ‘संसूचक’ बनाया जिससे उन्हें सन 1956 में न्यूट्रिनो के स्पष्ट हस्ताक्षर प्राप्त करने में सफलता मिल गई। यह सचमुच ही बहुत उपलब्धि थी। इसने ‘क्षीण नाभिकीय बलों’ के प्रति वैज्ञानिकों की रूचि को बहुत बढ़ा  दिया। 
कोलंबिया विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में ‘कॉफी ब्रेक’ की एक परम्परा रही है। इस दौरान वहाँ के वैज्ञानिक भौतिकी की दुनिया में चल रहे आधुनिकतम विषयों और उठ रही समस्याओं पर चर्चा करते थे। बात सन् 1959 के अंतिम दिनों की है। ऐसे ही एक ‘ब्रेक’ के दौरान उच्च ऊर्जा पर क्षीण नाभिकीय बलों के अध्ययन की संभावना पर चर्चा आरंभ हुई। उस कॉफी ब्रेक में हो रही चर्चा में भाग लेने वालों में युवा 27 वर्षीय मेल्विन श्वार्ट्ज भी थे। चर्चा के दौरान कई विचार आये और गए, लेकिन कहीं कोई ठोस बात सामने नहीं आ रही थी। इससे कुछ समय के लिये माहौल निराशा और कुंठा में बदल रहा था। लेकिन श्वार्ट्ज आशांवित थे। जब वे घर लौटे तब वे रात में विचारमग्न हो बिस्तर में लेटे थे। अचानक उनके मन में एक आयडिया आया कि न्यूट्रिनो को एक ‘टूल’ के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है जिससे निश्चित ही ‘क्षीण नाभिकीय बलों’ का अध्ययन किया जा सकता है। कोलंबिया विश्वविद्यालय में इस क्षेत्र में गहरी रूचि रखने वाले अनुभवी भौतिकशास्त्रियों में जेक स्टिनबर्गर और लियॉन लेडरमॅन थे। स्टिनबर्गर एनरिको फर्मी के छात्र थे तथा उन्हीं की प्रेरणा से वे इस क्ष़्ोत्र में कार्य करने को लालायित हुए थे। अपनी पीएच.डी. थिसिस में उन्होंने म्यू-मिसॉन का अध्ययन करते हुए इसे ‘त्रि-पिण्ड क्षय’ बताया था जिनमें दो निरावेशित कण, न्यूट्रिनो और एण्टी-न्यूट्रिनो, होना चाहिये। इन दोनों को आपस में मिलकर एक ‘गामा-रे फोटॉन’ को जन्म देना चाहिये। लेकिन अपेक्षानुसार ‘गामा-रे फोटॉन’ नहीं मिल रहा था। यह एक बड़ी समस्या तत्कालीन वैज्ञानिकों के सामने थी। 
जेक स्टिनबर्गर ने विचित्र कणों और न्यूट्रल पाय-मिसॉन पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। बुद्बुद् कोष्ठ के विकास में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा था। इस तरह उनके पास इस क्षेत्र में काम करने का गहरा अनुभव था। अगले दिन श्वार्ट्ज ने इन साथियों के साथ अपने ‘आयडिया’ पर चर्चा की। सभी को उनके ‘आयडिया’ में दम नजर आया और बस यहीं से शुरूआत हो गई। इस चर्चा के बाद स्टिनबर्गर की रूचि विचित्र कणों के अध्ययन से न्यूट्रिनो की ओर मुड़ी। इस समय वैज्ञानिकगण न्यूट्रिनो को अनोखा कण तो मानते थे लेकिन किसी की भी कल्पना में यह नहीं था कि ये कण किसी अन्य प्रकार के भी हो सकते हैं। उनकी नजर में न्यूट्रिनो एक ही प्रकार का कण है जिसे अपने ‘प्रतिकण’ के साथ अस्तित्व में होना चाहिए, जिसे वोल्फगैंग पॉली और एनरिको फर्मी ने वैज्ञानिक जगत में प्रस्तुत किया था तथा जिसे सन 1956 में रैंस और कोवन ने खोजा था। 
रैंस और कोवन के प्रयोग के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि न्यूट्रिनो के लिए वास्तव में प्रत्येक पदार्थ पारदर्शी होता है। अतः इसकी किसी भी गतिविधि को मापना या जानना आसान नहीं होता। लेकिन आशांवित करने वाली एक बात जरूर थी और वह यह कि पदार्थ में से गुजरते हुए अरबों न्यूट्रिनो में से कोई एक न्यूट्रिनो नाभिक में स्थित किसी न्यूट्रॉन और प्रोटॉन से टक्कर भी कर सकते हैं। भलेही इस तरह की घटना के घटित होने की संभावना अत्यंत ही क्षीण हो, लेकिन यह ‘शून्य’ कदापि नहीं होती। इसीलिये वैज्ञानिकों को गहरा विश्वास हो गया कि इन टक्करों को घटते हुए अवश्य ही देखा जा सकता है।
वैज्ञानिक इस बात को जानते थे कि न्यूट्रिनो 15 करोड़ किलोमीटर लंबी स्टील की दीवार में से भी बिना किसी परमाणु को छुए गुजर जाता है। इसका मतलब हुआ कि न्यूट्रिनो के बारे में जानने के लिये हमें बहुत ही लम्बी दीवार की आवश्यकता होगी। लेकिन, इसको बनाना असंभव है। ऐसे में क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती हैै? चिंतन के इस दौर में वैज्ञानिकों के मन में विचार आया कि अगर न्यूट्रिनो का पुंज ले कर प्रयोग किया जाय तो छोटी दीवार से भी बात बन सकती है। साथ ही टक्कर की संभावना बढ़ाने के लिए न्यूट्रिनो की ऊर्जा को भी कृत्रिम तरीके से बढ़ाया जा सकता है। इस तरह यह स्पष्ट हो गया कि टक्कर होने की संभावना को ‘उच्च-ऊर्जा युक्त न्यूट्रिनो पुंज’ के उपयोग से बहुत हद तक बढ़ाया सकता है। 
विश्व के तत्कालीन सबसे शक्तिशाली कण त्वरक अल्टरनेटिंग ग्रेडियंट सिंक्रोट्रॉन की न्यूट्रिनो के पुंज को उत्पन्न करने की क्षमता से वैज्ञानिक परिचित हो रहे थे। यह अमरीका की ब्रुकहेवन लेबोरेटोरी में स्थापित था। इस सिंक्रोट्रॉन से मिले अत्यंत उच्च ऊर्जा के प्रोटॉनों की बेरिलियम से टक्कर होने पर अन्य कणों के साथ ही पाय-मिसॉनों की बौछार निकलती है। यह पहले से ही ज्ञात था कि ‘पाय-मिसॉन’ का क्षय ‘म्यूऑन और न्यूट्रिनो’ नामक कणों में होता है। स्टील की दीवार से गुजरते समय अपनी यात्रा के दौरान पाय-मिसॉन, म्यूऑन और न्यूट्रिनो में टूटते हैं जिनमें से म्यूऑन तो रास्ते में ही सोख लिए जाते हैं लेकिन न्यूट्रिनो अपनी यात्रा को निर्बाध रूप से जारी रखते हुए बाहर निकलते हैं। इस तरह न्यूट्रिनो के बीम को पाना वास्तविकता नजर आने लगा। जब गणना की तब पता चला कि स्टील की करीब 70 फीट मोटी दीवार से बात बन सकती है। 
अब समस्या थी न्यूट्रिनो के द्वारा की जा सकने वाली अभिक्रिया को देखने के लिये  व्यवस्था करने की ताकि न्यूट्रिनो से अभिप्रेरित किसी घटना को देखा जा सके। जब न्यूट्रिनो की खोज में वैज्ञानिक बीसवीं सदी की 60वीं दशक में निकले थे, तब पदार्थ की संरचना में ‘क्वार्क’ का विचार ही बहुत नया था। लेकिन क्वार्क की खोज के बाद जो तथ्य प्रकाश में आए, उनसे पता चला कि यह न्यूट्रिनो तो न्यूट्रॉन और प्रोटॉन के अंदर झांकने की बेहतर तकनीक उपलब्ध करा सकता है। जो मूल बात वैज्ञानिकों ने पकड़ी वह थी, निरावेशित न्यूट्रिनो इनसे अंतःक्रिया कर आवेशित कण को जन्म देता है। और इसी विचार ने उन्हें एक नए डिटेक्टर को विकसित करने का आयडिया दिया जिसकी चर्चा हम आगे कर रहे हैं।
इस प्रयोग के लिये सबसे पहले उच्च ऊर्जा वाले न्यूट्रिनो के पुंज को पाने की जरूरत थी। इसके लिए ब्रुकहेवन लेबोरेटोरी में नया ‘प्रोटॉन त्वरक’ स्थापित हो ही चुका था। अब कोलंबिया और ब्रुकहेवन की साझेदारी में कार्य शुरू हुआ। त्वरक से निकलने वाले प्रोटॉनों की पहले बैरिलियम से टक्कर कराई गई। इस दौरान कई कण निकले जिनमें पॉयान भी थे। अब इन कणों को स्टील की दीवार से गुजारा गया तथा ‘न्यूट्रिनो के पुंज’ को प्राप्त कर लिया गया। अब न्यूट्रिनो को पकड़ने की व्यवस्था करना थी। इसके लिए इन वैज्ञानिकों ने उसी आयडिया का इस्तेमाल किया जिसे रैन्स और कोवन ने किया था। वह आयडिया था जिसमें व्युतक्रम बीटा-अभिक्रिया को र्घिटत होते हुए देखना था। इसमें एंटीन्यूट्रिनो की न्यूट्रॉन के साथ अभिक्रिया के स्थान पर न्यूट्रिनो की प्रोटॉन के साथ अभिक्रिया होना थी तथा इस प्रयोग के दौरान अब उन्हें ‘प्रोटॉन और पॉजीट्रॉन’ के स्थान पर ‘न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन’ मिलना था। 
वैज्ञानिक इस तथ्य से परिचित थे कि उच्च ऊर्जा युक्त आवेशित कण जब भी किसी परमाणु से टकराता है तो वह उसके बाह्य इलेक्ट्रॉन को मुक्त करते हुए उसे आवेशित कर देता है। विद्युत क्षेत्र के प्रभाव में यह घटना चिनगारी  को जन्म देती है। इस प्रेक्षण ने इन उत्साही वैज्ञानिकों को एक नये प्रकार के संसूचक (डिटेक्टर) बनाने का रास्ता सुझाया। यह स्फुलिंग कोष्ठ यानि स्पार्क चैम्बर था। इस संसूचक में अल्यूमिनियम की 2ण्5 सेंटीमीटर मोटी 90 प्लेटें प्रयुक्त की गईं जिनका कुल वजन लगभग दस टन था। प्रयोग आरंभ करने के साथ ही इन प्लेटों के बीच बहुत ही उच्च विद्युत विभवांतर लगाया गया तथा इन प्लेटों के बीच में नियॉन गैस भरी गई। ऐसा इसलिये किया गया ताकि न्यूट्रिनो अपने मार्ग में पड़ने वाले किसी अल्यूमिनियम के नाभिक से टकराकर अंतःक्रिया के दौरान उत्पन्न आवेशित कण प्लेटों के बीच नियॉन में स्पार्क उत्पन्न कर न्यूट्रिनो के गुजरने की सूचना दे सके! 
आशांवित वैज्ञानिकों ने सोच के अनुरूप स्पार्क चैम्बर को डिजाइन किया। उनकी गणना के अनुसार दस टन अल्यूमिनियम में आने वाले परमाणुओं से पुंज में आने वाले करोड़ों न्यूट्रिनो के द्वारा कम से कम दस टक्कर प्रति दिन के हिसाब सेे अवश्य होगी। 
करीब 25 दिनों तक प्रयोग चला। इस दौरान करीब दस करोड़ न्यूट्रिनो चैम्बर में से गुजरे। लेकिन इनमें से मात्र 51 ही चिनगारियों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाने में कामयाब हो सके। हालांकि यह संख्या उनकी अपेक्षा से बहुत कम थी। लेकिन यह इतनी पर्याप्त अवश्य हो गई जिनसे साबित हो गया कि न्यूट्रिनो का अस्तित्व है। इसतरह यह रैन्स और कोवन द्वारा किये गये प्रयोग के बाद दूसरा सफल प्रयोग बन गया।
अब परिणामों का विश्लेषण किया गया। अपने प्रयोग में हर बार टक्कर के परिणाम स्वरूप उन्हें ‘म्यूऑन’ ही मिला, जबकि अपेक्षानुसार उन्हें ‘इलेक्ट्रॉन’ भी मिलना चाहिये था। इससे स्पष्ट हुआ कि उनका ‘न्यूट्रिनो’ रैन्स और कोवन द्वारा पूर्व में खोजे गये ‘न्यूट्रिनो’ से भिन्न था। अब इन वैज्ञानिकों को यह समझने में देर नहीं लगी कि न्यूट्रिनो अंतःक्रिया करते समय अपनी पहिचान को नहीं भूलता है और याद रखता है कि इसका जन्म कब और किसके साथ हुआ है। अगर न्यूट्रिनो का जन्म आवेशित इलेक्ट्रॉन के साथ हुआ है तो अंतक्रिया के बाद इलेक्ट्रॉन को और अगर इसका जन्म म्यूऑन के साथ हुआ है तो यह अंतक्रिया के बाद म्यूऑन को ही जन्म देता है। अतः इन वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गये न्यूट्रिनो को एक नये प्रकार के न्यूट्रिनो ‘म्यू-न्यूट्रिनो’ के रूप में पहिचाना गया। इसने रैंस और कोवन द्वारा पूर्व में खोजे गये न्यूट्रिनो को ‘इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो’ के नाम से स्पष्ट पहिचान दे दी।
इसतरह दो प्रकार के ‘न्यूट्रिनो’ मिलने से कणों की दुनिया का क्लिष्ट परिदृश्य अब और भी क्लिष्ट हो गया।  
बीसवीं सदी की साठवीं दशक तक सौ से अधिक कण खोजे जा चुके थे। म्यू-न्यूट्रिनो की खोज ने मूल कणों के वर्गीकरण का रास्ता सुझाया जिससे ‘कण भौतिकी’ (पार्टिकल फिजिक्स) में एक नए युग की शुरूआत हो गई। वैज्ञानिकों को समझ में आ गया कि ब्रह्माण्ड में उपस्थित पदार्थ और ऊर्जा को बनाने में लगे मूल कणों को दो मुख्य परिवारों में बांटा जा सकता है। पहला परिवार उन कणों का है जो प्रोटॉन और न्यूट्रॉन जैसे से कणों के निर्माण के लिए उŸारदायी हैं और दूसरा परिवार उन कणों का है जो इलेक्ट्रॉन जैसे कणों के निर्माण के लिए उŸारदायी हैं। इन दोनों परिवारों के नाम क्रमशः क्वार्क और लेप्टॉन परिवार हैं। इसके बाद खोज का जो सिलसिला चला उससे शीघ्र ही वैज्ञानिक पदार्थ के मानक मॉडल को खड़ा करने में कामयाब हो गए। मानक मॉडल में क्वार्क-लेप्टॉन सममिति होती है। इस सममिति का मतलब है कि ब्रह्माण्ड में जितने प्रकार के क्वार्क हैं, उतने ही प्रकार के लेप्टॉन भी होना चाहिए। म्यू-न्यूट्रिनो की खोज के बाद लेप्टॉन परिवार में कुल चार सदस्य हो गए। इनमें इलेक्ट्रॉन और म्यूऑन नामक दो आवेशित कण और इनके निरावेशित साथियों के रूप में दो प्रकार के न्यूट्रिनो क्रमशः इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो और म्यूऑन-न्यूट्रिनो थे। चूंकि प्रत्येक कण का प्रतिकण भी होता है, अतः इन चार कणों के चार और प्रतिकण, पॉजीट्रॉन, एंटीम्यूऑन, एंटीइलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो और एंटीम्यूऑन - न्यूट्रिनो भी इस परिवार के सदस्य के रूप में शामिल हो गए। इस समय तक क्वार्क परिवार में शामिल होने के लिए कुल तीन सदस्य अप, डाउन और स्ट्रेंज (और इतने ही इनके प्रतिकण) ही मिल सके थे। अतः सममिति को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिकों को चौथे क्वार्क के भी अस्तित्व में होने की आशा थी। तदनुरूप इसकी भविष्यवाणी भी कर दी गई जिसकी खोज 1974 में जा कर पूरी हुई। इस चौथे क्वार्क को वैज्ञानिकों ने चार्म नाम से संबोधित किया। भौतिकी में इस खोज को ‘नवम्बर क्रांति’ के नाम से जाना जाता है और इसका श्रेय सेम्यूल टिंग व बर्टन रिच्टर को जाता है जिन्हें आगे चल कर 1976 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस कार्य को ‘क्रांति’ इसलिए माना गया क्योंकि तत्कालीन वैज्ञानिकों को लगा कि इस खोज के बाद ब्रह्माण्ड के सारे ‘बिल्डिंग ब्लॉक्स’ खोज लिए गए हैं। अभी ज्यादा समय बीता ही नहीं था और तभी सन् 1975 में मार्टिन पर्ल ने लेप्टॉन परिवार के म्यूऑन से भी भारी एक और सदस्य टॉऑन के अस्तित्व में होने की सूचना दी। इसी दौरान 1974 से 1977 के बीच मार्टिन पर्ल द्वारा किए गए ‘टॉऑन’ के क्षय के अध्ययन के दौरान ऊर्जा और संवेग के मान अपेक्षा से कम मिलने के कारण टॉऑन-न्यूट्रिनो के अस्तित्व में होने की भनक मिली। इसीलिए वैज्ञानिकों ने ‘टॉऑन’ के निरावेशित साथी ‘टॉऑन-न्यूट्रिनो’ के होने की भविष्यवाणी कर दी। इससे लेप्टॉन परिवार के सदस्यों की संख्या चार से बढ़ कर छह हो गई। मानक मॉडल में अभिव्यक्त हो रही सम्मति को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिकों ने क्वार्क परिवार में भी छह सदस्यों के अस्तित्व में होने की भविष्यवाणी कर दी। सन् 1977 में पांचवे क्वार्क को भी खोज लिया गया। इसे ब्यूटी या बॉटम नाम दिया गया। इस क्वार्क की खोज में लियॉन लेडरमॅन की अहम् भूमिका रही। सममिति के आधार पर की गई भविष्यवाणी के अनुसार अंतिम क्वार्क को सबसे भारी, लगभग स्वर्ण के नाभिक के बराबर द्रव्यमान वाला, होना चाहिए (हालांकि यह आज भी अनुŸारित प्रश्न है कि क्यों इस छटवें क्वार्क को इतना भारी होना चाहिए?)। हालांकि इसकी खोज भी सन् 1995 में हो गई। इसे ट्रूथ या टॉप क्वार्क के नाम से जाना गया। अब बारी थी अंतिम बचे लेप्टॉन ‘टॉऑन-न्यूट्रिनो’ को खोजने की। और, बीसवीं सदी के अंत तक इसे भी खोज लिया गया। पदार्थ के मानक मॉडल में कण द्रव्यमान-रहित मिल रहे थे। लेकिन वास्तव में मॉडल में शामिल सभी कणों द्रव्यमानरहित नहीं होते है। अतः इन कणों में द्रव्यमान के लिये पीटर हिग्स के द्वारा हिग्स बोसॉन की भविष्यवाणी की गई जिससे मानक मॉडल को पूर्णता मिली। हाल ही में बिगबैंग-2 प्रयोग के पहले चरण में में प्रोटॉनों की टक्कर के दौरान लार्ज हैड्रॉन कोलायडर में इसे खोज लिया गया। इसतरह ‘मानक मॉडल’ के सभी आधारों की प्रायोगिक पुष्टि हो गई। अब मात्र ‘6 क्वार्क’, ‘6 लेप्टॉन’ और हिग्स बोसॉन से पदार्थ के संबंध में जाना और समझा जा सकता है। इस तरह म्यू-न्यूट्रिनो की खोज के बाद मिली राह से पदार्थ निर्माण की पाक शास्त्रीय विधि का पता चल गया। अब जिज्ञासाजन्य कई प्रश्नों यथा, कैसे ब्रह्माण्ड बना, कैसे यह काम करता है आदि के सटिक उत्तर खोजने में मदद मिल सकेगी। स्मरणीय है कि इस खोज के दौरान किये गये प्रयासों ने ‘न्यूट्रिनो फैक्ट्री’ के निर्माण की तकनीक उपलब्ध करा दी। इसने अंतरिक्ष से मिलने वाले न्यूट्रिनो के अध्ययन के लिये वैज्ञानिकों को ‘न्यूट्रिनो ऑब्जर्वेटरी’ स्थापित करने को प्रेरित किया। इन सबके कारण न्यूट्रिनो प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यों को जानने और समझने का एक महत्त्वपूर्ण औजार बन गया। सच कहा जाये तो आज वैज्ञानिकों को ब्रह्माण्ड के देखने और समझने के लिये न्यूट्रिनो के रूप में एक नई खिड़की मिल गई है। सोलर न्यूट्रिनो के अध्ययन हेतु किये गये प्रयोगों के दौरान ‘न्यूट्रिनो दोलन’ मिले हैं जो तत्कालीन धारणा के विपरीत इनमें द्रव्यमान होने की पुष्टि कर रहे हैं। यह चौंकाने वाला तथ्य है जो पदार्थ के ‘मानक मॉडल’ के परे भी भौतिकी के विस्तारित होने की ओर संकेत कर रहा है।
इस तरह सन् 1961 में हुई म्यू-न्यूट्रिनो खोज ने पदार्थ और ऊर्जा की समझ के लिए जो आधार प्रस्तुत किया वह भौतिकी के इतिहास का मील का पत्थर साबित हुआ। इसके बाद भौतिकी में अनुसंधान हेतु कई नये रास्ते खुले। इस महत्त्वपूर्ण खोज के लिये तीनों वैज्ञानिकों को सन् 1988 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 27 साल के इंतजार के बाद मिले इस पुरस्कार पर खुशी जाहिर करते हुए लेडरमॅन ने कहा कि यह नोबेल पुरस्कार न्यूट्रिनो की खोज से अधिक उसके एक औजार यानि टूल के रूप में इस्तेमाल हो सकने के प्रमाण जुटाने के लिये है जो निश्चित ही युवाओं को मौलिक अनुसंधान की ओर आकृष्ट करेगा। और, उन जिज्ञासु युवाओं के शोध बतायेंगे कि किसतरह यह न्यूट्रिनो-औजार ग्लोबल वार्मिंग और ग्रीन हाउस प्रभाव जैसी समाज की वर्तमान समस्याओं के समाधान खोजने में सहायक हो सकता है। 

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