युद्ध का बदलता स्वरूप
डॉ.मनमोहन बाला
वही सेना विजयी होती है जो अधिक आगे तक पहुंच सकती है,
अधिक तेजी से पहुंच सकती है और अधिक मारक प्रहार कर सकती है।
- टॉफलर
युद्ध के लिए अधिक उत्तम हथियारों को बनाने के लिए सदैव ही टेक्नॉलॉजी सहायक रही है। आदि मानव टेक्नॉलॉजी षब्द से परिचित नहीं था किन्तु जिस दिन उसने किसी जानवर के षिकार के लिए पहली बार पत्थर का प्रयोग किया था, उसने टेक्नॉलॉजी की सहायता ली थी। पत्थरों के हथियारों को नुकीला बनाना, किला बनाना, धनुष-बाण, तलवार, तोप-बंदूक, टैंक, वायुयान, रॉकेट-मिसाइल, उपग्रह आदि का उपयोग करना, ये सभी टेक्नॉलॉजी के कारण ही सम्भव हो सके हैं। बाबर ने तोप (अधिक उच्च टेक्नॉलॉजी) का प्रयोग कर ही राणा सांगा (हाथियों, घोड़ो, भालों आदि का अनुच्च टेक्नॉलॉजी) पर विजय प्राप्त की थी। वर्ष 1991 के खाड़ी युद्ध में अपनी अनुच्च टेक्नॉलॉजी के कारण ही ईराक को अमेरिका के नेतृत्व वाली सेना से पराजय का मुख देखना पड़ा था।
आमतौर पर माना जाता है कि आधुनिक युग यूरोप में आई औद्योगिक क्रांति के बाद प्रारम्भ हुआ। इस आधुनिक युग में विभिन्न वैज्ञानिक अनुसंधान व्यवस्थित ढंग से किये जाने लग जिससे नागरिक एवं सैनिक प्रयोग के लिए नई-नई टेक्नॉलॉजी के विकास में तेजी आई। अपनी विकसित टेक्नॉलॉजी के कारण ही यूरोप के अनेक देशों ने विश्वभर में स्थान-स्थान पर लड़े गए युद्धों में विजय प्राप्त की और अनेक देशों में अपनी कॉलोनी बनाने में सफलता प्राप्त की। वर्तमान युग में जिसे ज्ञान का युग कहा जाता है, टेक्नॉलॉजी में बहुत तेजी से क्रांतिकारी परिवर्तन देखे जा रहे हैं जिनके कारण नागरिक क्षेत्र में तो अनेक कल्पनातीत विकास हो ही रहे हैं, सैनिक क्षेत्र में भी अनेक ऐसे उपकरणों एवं शस्त्रास्त्रों का विकास हुआ है जिन्हें चमत्कारी कहा जा सकता है।
यदि हम शताब्यिों से लड़े गए युद्धों का परिकलन करें तो पाएंगे कि पहले युद्ध कबीलों के मध्य होता था जिसे निम्न स्तर का युद्ध कहा जा सकता है। सभ्यता के विकास के साथ यह युद्ध मध्य स्तर का होने लगा जो कृषि संबंधी अर्थिक व्यवस्था पर आधारित होता था। औद्योगिक क्रांति के पश्चात आधुनिक काल में यह युद्ध अब उच्च स्तर के होते हैं जिनमें औद्योगिक समाज आधुनिकतम तकनॉलॉजी पर विकसित शास्त्रास्त्रों का प्रयोग करते हैं। जहां औद्योगिक क्रांति के पश्चात इनका स्थान बन्दूक, तोप, टैंक, वायुयान, मिसाइलों एवं परमाणु बमों ने ले लिया है। अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी में तकनॉलॉजी एवं वैज्ञानिकी का विकास धीरे-धीरे हुआ था किन्तु बीसवीं शताब्दी में यह विकास अचानक ही बहुत तेजी से हुआ है। सन 1860 में लोे के बने नौसैनिक जहाज, सन 1890 में बनी मशीनगन, सन 1920-30 में बने राडार एवं एयरक्रॉफ्ट कैरियर, सन 1940-50 में बने परमाणु शस्त्र, सन 1950 में विकसित मिसाइलें, सन 1960-70 में बने सैटेलाइट, सन 1970-80 के दशक में निर्मित पायलट रहित विमान आदि सैन्य तकनॉलॉजी के प्रादुर्भाव में ‘मील के पत्थर’ कहे जा सकते हैं जिन्होंने युद्ध करने की तकनीकों एवं उनके ढंग को बदल दिया। टॉफलर बन्धु ने अपनी पुस्तक ‘वार एंड ऐन्टी वार’ में लिखा है ‘हमारे युद्ध करने के ढंग द्वारा हमारा धन कमाने का ढंग प्रदर्शित होता है।’ तकनॉलॉजी को हमेशा से ही युद्ध करने क लिए एवं धन अर्जित करने के लिए उपयोग में लाया गया है।
बहुल विध्वंस की विचारधारा
औद्योगिक क्रांति ने हमारे युद्ध करने के ढंग में एतिहासिक परिवर्तन कर दिए। मशीनों की उपलब्धि के कारण विकसित देश बहुत बड़ी संख्या में आयुधों का निर्माण करने लगे जिसके कारण बड़ी-बड़ी सेनाएं रखी जाने लगीं। नवीन आयुधों के कारण उद्योगीकरण में तेजी आई। सैनिक प्रशिक्षण, सैनिक संगठन एवं सैनिक सिद्धान्तों के लिए भी मानक बनाए जाने लगे। मौखिक आदेशों का स्थान लिखित आदेशों ने ले लिया। युद्ध कौशल का मशीनकरण हो जाने से सेना की शत्रु पर आग उगलने की क्षमता में बढ़ोत्तरी हुई जिसके कारण सैनिक कार्यकलापों का आकार बहुत बढ़ गया। युद्ध का लक्ष्य पहले युद्ध-क्षेत्र में शत्रु की प्रमुख सेना का ध्वंस किया जाना हुआ करता था। इसका स्थान अब सम्पूर्ण सुद्ध एवं विध्वंस की विचारधारा ने ले लिया। प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध तथा इसके पश्चात हुए शीत युद्ध में इस विचारघारा को वास्तविकता का रूप दिया गया। वर्ष 1940-50 में विकसित परमाणु शस्त्रों तथा वहीं 1960-70 में इन परमाणु शस्त्रों को शत्रु के देश तक पहुंचाने के लिए विकसित अन्तरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों ने युद्ध में विध्वंस करने की चरम शक्ति प्रदर्शित की। इन्हें बहुत विध्वंस के आयुध कहा गया है। अर्थशास्त्र में बहुल उत्पादन की भांति ही सैन्य विज्ञान में बहुल विध्वंस ने मुख्य भूमिका निभानी शुरू कर दी। टेक्नॉलॉजी के युद्ध कौशल पर प्रभाव के परिणाम स्वरूप ही इन विचारधाराओं ने जन्म लिया।
वर्ष 1991 में लड़ा गया खाड़ी युद्ध इस बहुल विध्वंस विचारधारा का एक सटीक उदाहरण है। इस युद्ध में सर्वप्रथम अमेरिका के नेतृत्व वाली सेना ने सर्वप्रथम शत्रु (ईराक) के नियंत्रण तंत्र पर मारक प्रहार कर उनका विध्वंस कर दिया। फिर उन के बंकरों एवं सैनिक ठिकानों पर प्रिसीशन बॉम्बिंग कर उन्हें पंगु बना दिया। इसके लिए अमेरिकी सेना को इराकी ठिकानों आदि की रियल-टाइम सूचना, आदि की जानकारी आवश्यक थी। इस प्रकार यह युद्ध एक पूर्ण विकसित सूचना आधारित युद्ध कहा जा सकता है। टॉफलर बन्धु ने इसे सूचना आधारित युद्ध कौशल की ‘तीसरी लहर’ कहा है। युद्धकौशल पर उन्नत टेक्नॉलॉजी के इस प्रभाव को हम अनेक डॉमिनेट ट्रेंड में विभाजित कर सकते हैं। ये हैं आयुद्यों का अधिक दूरी तक मारक प्रभाव, आग उगलने की शक्ति एवं विश्वसनीयता में बढ़ोत्तरी, विभिन्न निकायों का एकीकरण, छोटी इकाइयों में आग उगलने की अधिकतम शक्ति का जमावड़ा तथा युद्ध-क्षेत्र में अधिक पारदर्शिता का होना।
आयुधों का अधिक दूरी तक मारक प्रभाव
पहले मनुष्य मल्लयुद्ध अथवा तलवार की सहायता से लड़ता था। भालों तथा धनुष बाण के विकास ने मनुष्य की मारक शक्ति के आयुधों की परास बढ़ा दी। 19 वीं शताब्दी में राइफलिंग के कारण वैयक्ति आयुधों एवं आर्टीलरी तोपों की परास एवं अचूकता को बढ़ा दिया। विमानों तथा मिसाइलों ने इस क्षमता में और अधिक विस्तार कर दिया। व्यक्ति एवं उसकी इकाइयों को छितरा दिया है। जैसे-जैसे आयुधों की मारक शक्ति की दूरी में बढ़ोत्तरी हुई, व्यक्ति एवं उसकी इकाइयां छितरती गईं। इस छितराव का सैन्य संगठन, उसकी युद्ध प्रणाली उसके युद्ध करने के सिद्धांतों, उसके आयुधों उसके कमान एवं नियंत्रण आदि पर सीधा प्रभाव पड़ा है। युद्ध क्षेत्र बड़ा होता गया है। पर साथ ही युद्ध क्षेत्र खाली भी होता गया है। जहां वर्ष 1815 में एक सैनिक डिवीजन केवल 5 वर्ग कि.मी में ही सीमित रहती है, आज वह 1600 वर्ग कि.मी. स्थान घेरती है और शायद वर्ष 2015 में 22ए500 वर्ग कि.मी. स्थान घेरेगी। वर्ष 1991 के खाड़ी युद्ध में ईराक पर क्रूज मिसाइल का आक्रमण पर्शिया की खाड़ी तथा भूमध्य सागर स्थित पनडुब्बियों से किया गया था। इसी प्रकार अगस्त 1998 में मुस्लिम आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के सूडान सूडान एवं अफगानिस्तान स्थित अड्डों पर क्रूज मिसाइल का आक्रमण अरब सागर स्थित पनडुब्बियों से किया गया था। भारत ने भी एकीकृत गाइडेड मिसाइल विकास परियोजना के अन्तर्गत वर्ष 2015 तक ऐसी लम्बी दूरी की मिसाइलें बनाने की परियोजना बनाई है जिसके अन्तर्गत अग्नि-2 मिसाइल के 2000 कि.मी. से अधिक दूरी तक पहुंचाने का सफल परीक्षण 11 अप्रैल 1999 के दिन किया गया था। जब मारक आयुधों का परास बढ़ जाता है तथा युद्ध क्षेत्र बड़ा हो जाता है तब उनके कमान, नियंत्रण एवं संचार व्यवस्था को अधिक उत्तम बनाना आवश्यक हो जाता है। साथ ही शत्रु के विषय में अधिक से अधिक पूर्व जानकारी की आवश्यकता बढ़ जाती है। इन सबको मिलाकर कहा जा सकता है कि सी3आई बहुत उत्तम होना चाहिए ताकि मिसाइल की सर्वाधिक क्षमता का उपयोग किया जा सके।
आग उगलने की शक्ति एवं विश्वसनीयता
शत्रु की सेना पर आग उगलने के कई तरीके हैं पहला तरीका जो सबसे पुराना भी है वह बन्दूकों की सहायता से शत्रु पर आग उगलना। सबसे प्रथम स्वचालित बन्दूक जो अधिक मात्रा में आग उगलती थी, उसे वर्ष 1884 में हिरम मैक्सिम नामक अमेरिकन ने बनाया था। यह बन्दूक एक मिनट में 600 गोलियां दाग सकने की क्षमता रखती थी। प्रथम विश्वयुद्ध में इस मशीन ने बहुत कहर बरपा था। दूसरे विश्वयुद्ध में और उसके पश्चात भी ऐसी मशीनगने विकसित की गईं जो बहुत अधिक मात्रा में आग उगलती थीं। इस आग उगलने की क्षमता को रोकने के लिए भी तकनॉलॉजी विकसित की गई। खाई खोदना इस तकनॉलॉजी का एक सफल प्रयास था। फिर टैंक तथा इन्फैन्ट्री कम्बैट वेहिकल का विकास हुआ जिससे आग उगलने की क्षमता चलित हो गई।
दूसरा तरीका बम वर्षक विमानों द्वारा शत्रु के देश में भीतर तक घुस कर आग उगलने का था। यह तरीका अीाी भी सफलता के साथ उपयोग में लाया जा रहा है। किन्तु प्रायः ही शत्रु हवाई फायर द्वारा इन विमानों को मार गिराने में सफल होता है जिससे पायलट की जान जाने का खतरा भी रहता है। सन 60 के दशक में गाइडेड मिसाइल के विकास ने शत्रु के शहरों के सैनिक ठिकानों पर आग उगलने की क्षमता बहुत बढ़ा दी। अब माध्यमिक रेंज की तथा अन्तर महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल ने इस क्षमता को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। क्रूज मिसाइल आग उगलने की क्षमता को अचूकता प्रदान करती है। यह अचूकता लेजर गाइडेड आयुघों तथा स्मार्ट बमों आदि से भी बहुत बढ़ गई है। परमाणु शस्त्रों द्वारा शत्रु के क्षेत्र में प्रहार करने के लिए भी बैलिस्टिक मिसाइलों के प्रयोग से आग उगलने की क्षमता कई गुना बढ़ गई है।
निकायों का एकीकरण
आधुनिक युद्ध क्षेत्र इतने व्यापक और आयुध इतने विविध हो गए हैं कि उनका समुचित उपयोग करने के लिए एक अत्यन्त कर्मठ कमान, नियंत्रण, संचार तथा आसूचना की एकीकृत प्रणाली की आवश्यकता प्रखर हो उठी हैं। टेलीग्राफ तथा रेलरोड यातायात प्रणालियों के विकास एवं उनके एकीकरण ने इस प्रयास को दिशा प्रदान की। इनके समुचित उपयोग से ही भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ जमी। रेडियो, वायु तथा समुद्री यातायात एवं कम्प्यूटर आदि के विकास ने कमाण्डरों को शीघ्र एवं उचित निर्णय लेने में सहायता प्रदान की। खाड़ी युद्ध-91 में निकायों के एकीकरण का अद्भुत एवं सफलतम प्रयोग किया गया। संचार व्यवस्था में निरन्तर विकास के कारण संदेशों को पहुंचाने की गति में बहुत तेजी आई है। वर्ष 1865 के अमेरिकी गृहयुद्ध में जहां एक मिनट में केवल तीस शब्द ही भेजे जा सकते थे वहीं कम्प्यूटर की सहायता से खाड़ी युद्ध-91 में एक मिनट में 1ए92ए000 शब्द भेजना संभव हो गया था। वर्ष 2015 तक शायद एक मिनट में 1ण्5 ट्रिलियन शब्द भेजे जा सकेंगे।
शक्तियों का जमघट
किसी भी युद्ध को जीतने के लिए समस्त शक्तियों में ताल-मेल अत्यन्त आवश्यक है ताकि वे एक शक्ति गुणक की भांति कार्य कर सकें। आधुनिक युद्ध में सूचना युद्ध कौशल की सहायता से आग उगलने की शक्ति, सेनाओं की चलायमानता, आवश्यक उपकरण एवं आयुधों का इीक समय पर ठी जगह पहुंचाया जाना तथा परिस्थिति की जानकारियां आदि का कम्प्यूटरीकरण कर उन्हें शक्ति गुणक बनाना निश्चय ही संभव हो गया है। अमेरिका फ्यूचर कम्बैट सिस्टम नामक एक ऐसी टैंक परियोजना का विकास कर रहा है जिससे उनके शक्तियों का केन्द्रीयकरण कर उन्हें शक्तिगुणक बना सकेगा।
युद्ध की पारदर्शिता
जब से युद्धों का इतिहास प्रारम्भ हुआ है शत्रु के विषय में अग्रिम जानकारी प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के उपाय अपनाए जाते रहे हैं। शुरू में यह जानकारी दृश्य-रेखा तथा जासूसों की सूचना आदि तक ही सीमित थी। टेलीफोन तथा रेडियो के विकास द्वारा इस सूचना को तत्काल पाना संभव हो सका। राडार एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक युक्तियों ने इसमें अपना योगदान किया। आधुनिक युद्ध में पायलट रहित विमान तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक युक्तियों द्वारा युद्ध क्षेत्र के विषय में रियल टाइम छवि मिल जाना संभव हो गया है। उच्च तकनॉलॉजी की सहायता से इन आसूचनाओं को प्राप्त करना, उनका त्वरित गति से संसाधन करना तथा उन पर तुरन्त अमल करना संभव हो गया है। अमेरिका की क्रूज मिसाइल द्वारा अफगान एवं सूडान पर आक्रमण इसका ज्वलन्त उदाहरण है। इस प्रकार अब युद्ध क्षेत्र अधिक पारदर्शी होता जा रहा है। ‘‘विश्व में शक्तियाँ केवल दो ही है- तलवार और बुद्धि; किन्तु अंत में तलवार भी बुद्धि से पराजित हो जाती है।’’ यह कहना था नेपोलियन बोनापार्ट का। सूचना तकनॉलॉजी और युद्ध के बीच एक पारस्परिक निर्भरता है। सूचना युद्ध एक द्विआधारी प्रणाली है इसमें कमान तो नियंत्रण भी है, अनुकारिता है तो नुकारिता भी है, छदम है तो विध्वंस भी है, संकेत है तो आयुध प्रणाली भी है, वर्चुअल रियालटी है तो हायपर रियालटी भी है। अपने कठोर स्वरूप में सूचना युद्ध द्वारा जीपीएस गाइडेड मिसाइलों एवं बमों का प्रयोग एवं माइक्रोवेव तथा विद्युत चुम्बकीय स्पंद आयुधों की टेक्नॉलॉजी का उपयोग किया जाता है तो कोमल स्वरूप में कम्प्यूटर नेटवर्क पर वायरस का प्रकोप अथवा शत्रु के बैंक खातों की समाप्ति जैसे कार्य भी शामिल है (सन 2002 में जैसा अमरीकाने तालिवान आतंकवादियों के साथ किया था।) इसी प्रकार अपने आभासी स्वरूप में इसका प्रयोग रण क्षेत्रों की अनुकारिता कर अपनी सेनाओं को आभासी युद्ध खेल के माध्यम से अभ्यास करना आदि शामिल हैं। इन तीनों ही स्वरूपों में यह आक्रामक भी हो सकता है (जैसे नेटवर्क केन्द्रित युद्ध, ट्रांजन हार्स आदि) और रक्षात्मक रूप भी ले सकता है (जैसे नेटवर्क फायरवाल, बैलेस्टिक मिसाइल सुरक्षा आदि)
सूचना का संबंध बुद्धि से है, नेपोलियन के इस कथन से सूचना की महान शक्ति का अन्दाजा लगाया जा सकता है। किसी भी युद्ध में शत्रु की केवल दुर्बलता ही नहीं, स्वयं अपनी भी शक्ति तथा दुर्बलता की पल-पल की सूचना एवं उसका निरन्तर विश्लेषण करते रहना आवश्यक है। ऐसे समय में मस्तिष्क का संतुलन अवश्य होना चाहिए। अपनी पुसतक ‘युद्ध और सूचना प्रौद्योगिकी’ में मैंने लिखा है ‘‘सूचना युद्ध का मुख्य लक्ष्य मनुष्य का मस्तिष्क होता है इसलिए यह स्वाभाविक है कि मनोवैज्ञानिक युद्ध जो सीधे मस्तिष्क को प्रभावित करता है, महत्वपूर्ण हो जाता है।’’
हमारा प्राचीन समाज कृषि आधारित समाज था और अधिकतर युद्ध कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को लेकर ही होते थे। 18वीं शताब्दी के मध्य में योरोप में आई औद्योगिक क्रांति के कारण समाज के विभिन् क्षेत्रों ने करवट बदली और समाज उद्योग आधारित होते गए। मनुष्य का स्थान धीरे-धीर मशीन लेने लगी। मशीन के कारण मनुष्य की शक्ति प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ती गई और युद्ध क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इलेक्ट्रॉनिक टेक्नॉलॉजी एवं डिजिटल टेक्नॉलॉजी के विकास ने तो जैसे मशीनी शक्ति में पंख लगा दिए। इसका एक परिणाम यह हुआ कि कोई भी टेक्नॉलॉजी अब अधिक समय तक टिक पाने में असमर्थ हो गई और अनित्य ही नवीन एवं उन्नत टेक्नॉलॉजी के विभिन्न स्वरूपों से समाज परिचित होने लगा। डिजिटल इलेक्ट्रॉनिकी के विकास ने हमारी जीवन शैली ही नहीं, हमारी युद्ध शैली में भी आमूल-चूल परिवर्तन कर दिए। इसी परिवर्तन की एक शाखा सूचना युद्ध के रूप में प्रस्फुटित हुई है।
सूचना युद्ध की परिकल्पना
आइये विचार करे कि आखिर सूचनायुद्ध होता क्या है?
चीन के सुविख्यात रक्षा विद सुनर्न्त्ज के अनुसार सूचना युद्ध का अर्थ खोजना एक अत्यन्त जटिल कार्य है क्योंकि यह ऐसी अनेक घटनाओं एवं तथ्यों को अपने विशाल कैनवास में समाहित कर देता है जिनका आपस में कोई संबंध नहीं होता। अपने वर्तमान स्वरूप में कम्प्यूटर वायरस से लेकर स्मार्ट बमों तथा भिन्न प्रकार के विषय तथा कम्प्यूटर हैकरों से लेकर व्यावयासिक सैनिकों तक सभी इस सूचना युद्ध के विस्तार में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त सायबर युद्ध, नेट युद्ध, तीसरी लहर का युद्ध, कमान एवं नियंत्रण युद्ध, उद्योगेतर युद्ध एवं आर्थिक युद्ध जो निश्चय ही अलग-अलग होते हैं, सूचना युद्ध की परिकल्पना में समा जाते हैं
भारत-पाक युद्ध की अनकही विज्ञानगाथा
प्रत्येक वर्ष में 16 दिसम्बर को हम ‘विजय दिवस’ के नाम से मनाते हैं क्योंकि 42 वर्ष पूर्व भारतीय सेना ने इसी दिन पाकिस्तान को एक करारी हार दी थी और उसको आत्मसमर्पण करना पड़ा था। यही नहीं, इस हार के बाद पूर्वी पाकिस्तान स्वतन्त्र हो कर एक नए देश - बांग्लादेश के नाम से स्थापित हुआ था। इस युद्ध के विषय में अनेक भारतीय, पाकिस्तानी तथा अन्य देशों के इतिहासकारों ने इलेक्ट्रॉनिक तथा प्रिन्ट मीडिया में अंग्रेजी भाषा में बहुत कुछ लिखा है। स्वयं एयरचीफ मार्शल पी.सी.लाल ने जो उस समय भारतीय वायुसेनाध्यक्ष थे, अपनी पुस्तक ‘माई इयर्स विद इण्डियन एयर फोर्स’ में इस युद्ध का विस्तृत वर्णन किया है। इसी प्रकार एयरकमोडोर जसजीत सिंह तथा अन्य लेखकों ने इस युद्ध के रोचक वर्णन किया है। किन्तु इस युद्ध में भारतीय सेना ने प्रथम बार एक ‘इलेक्ट्रॉनिक युद्ध’ लड़ा और भारतीय वायु सेना की एक वायरलेस एक्सपेरिमेंट यूनिट ने एक ऐसी सूचना का अपरोधन किया जिसने पाकिस्तानी सेना को अगले दिन ही आत्मसमर्पण करने को बाध्य कर दिया। यह एक विडम्बना ही थी कि इस छोटे से किन्तु अति महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक युद्ध का वर्णन किसी भी इतिहासकार ने नहीं किया। आज इस इलेक्ट्रॉनिक युद्ध के विषय में मैं आपको बताना चाहूंगा क्योंकि मैंने स्वयं इस में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मैं उस समय भारतीय वायुसेना में एक फ्लाइट लेफ्टिनेंट (थल सेना के कैप्टेन के बराबर की रैंक) था। जून सन 1970 में एयरफोर्स टेक्निकल कॉलेज, बैंगलौर से एक एडवान्स्ड कोर्स की पढ़ाई करने के पश्चात मेरी पोस्टिंग एक वायरलेस एक्सपेरिमेंन्टल यूनिट में हो गई थी। संक्षेप में इसे डब्ल्यू.ई.यू. कहते थे। तब तक मेरी भारतीय वायुसेना में 7 वर्ष की कमीशन्ड सेना पूरी हो चुकी थी किन्तु मैंने इस यूनिट का नाम भी नहीं सुना था। वास्तव में मैंने वायुसेना में भर्ती लेने का कभी विचार भी नहीं किया था। सन 1962 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से डी.फिल. पूरी करने के साथ ही मुझे अमेरिका की पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी से पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप का निमंत्रण मिल चुका था और मार्च 1963 में मुझे वहां जाना था। किन्तु सन 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत को एक शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इसी बीच भारतीय वायुसेना के सिग्नल्स ब्रान्च में राष्ट्रपति कमीशन के लिए मेरा चयन हो गया और मैंने पेन्सिलवेनिया जाने के बजाय भारतीय वायुसेना में कमीशन लेना बेहतर समझा। ऐसा करने के अनेक कारण थे जिसमें प्रमुख कारण था देश के लिए सक्रिय कार्य करने का अवसर मिलना। इस प्रकार जनवरी 1963 में मैं भारतीय वायुसेना का पायलट अफसर बन गया।
सन 1970 के जून के महीने में मैंने वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिट के कमान्डिंग ऑफिसर स्क्वाड्रन लीडर ओ.एन.कपूर के पास रिपार्ट किया। यह एक छोटी सी यूनिट थी। इसमें मुझ सहित कुल 6 तकनीकी अधिकारी, एक प्रशासनिक अधिकारी तथा 40 एयरमैन काम करते थे। वरिष्ठता के अनुसार मैं दूसरे नम्बर पर था, इसलिए मैं 2आईसी अर्थात सेकन्ड इन कमान्ड भी कहलाता था। मेरी नियुक्ति यूनिट ऑप्स ऑफिसर पद के लिए इुई थी इसलिए मैंने उसी दिन वह पद संभाल लिया।
यूनिट का काम अति गुप्त था। यह यूनिट आर्मी मुख्यालय के सिग्नलस इन्टेलिजेन्स निदेशालय के अधीन काम करती थी। इस निदेशालय का काम भारत के पड़ोसी देशों के थल सेना वायुसेना एवं नौसेना द्वारा किए जाने वाले कार्य-कलापों को मॉनीटर करना था। काम को विभिन्न वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिटों की सहायता से किया जाता था। इसलिए इस निदेशालय के अधीन आर्मी, एयरफोर्स तथा नेवी की अनेक वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिटें थीं। यह मॉनीटरिंग इलेक्ट्रॉनिक आयुधों द्वारा की जाती थी। प्रत्येक डब्ल्यू.ई.यू. का अलग-अलग कार्य तथा उत्तरदायित्व था। हमारी यूनिट का काम पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान की सेना की रेडियो टेलीफोन द्वारा की गई वार्ताओं का अपरोधन कर युद्ध संबंधी आसूचनाओं का संकलन करना तथा महत्वपूर्ण आसूचनाओं को निदेशालय के उपयुक्त विभागों तक पहुंचाना था। यह काम हम विशिष्ट आवृत्तियों के संग्राहकों द्वारा करते थे। इन संग्राहकों के साथ टेप रिकॉर्डर भी संलग्नित थे जिन पर महत्वपूर्ण वार्ताएं रिकॉर्ड कर ली जाती थीं। निदेशालय को पहुंचाई जा रही प्रत्येक वार्ता के साथ यूनिट ऑप्स अफसर को अपनी अनुशंसा भी देनी पड़ती थी जो एक अति उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य होता था। यह काम चौबिस घंटे सातों दिन होता था।
संग्राहकों पर वार्ता को सुनने तथा महत्वपूर्ण वार्ता को रिकॉर्ड करने का काम रेडियो टेलीफोन ऑपरेटर ट्रेड के ऑपरेटर एयरमैन करते थे जो अधिकतर कॉर्पोरल रैंक के होते थे। यह अत्यधिक कठिन तथा धीरज का कार्य होता है। कुछ समय बाद ही ऑपरेटर की श्रवण की शक्ति कम हो जाती है थकान उस पर हावी होने लगती है, इसलिए प्रत्येक ऑपरेटर को 4 घंटे कार्य के पश्चात 2 घंटे का आराम दिया जाता है। यदि उसे आराम न दिया जाए तो उसकी सुनने की क्षमता कम हो जाती है। इससे लापरवाही उसे घेर लेती है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय पर्ल हार्बर नामक द्वीप पर अमेरिकी राडार ऑपरेटर की इसी लापरवाही के कारण जापान द्वारा भयंकर जापानी हवाई आक्रमण हो गया था।
पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान की रेडियो टेलीफोन वार्ता में अंग्रेजी तथा उर्दू भाषा के अलावा कभी-कभी बंगाली, पश्तो, झंगी तथा चीनी भाषा का भी इस्तेमाल किया जाता था। इसके लिए मुख्यालय के पैनल पर विशेष अनुवादकों की सुविधा भी उपलब्ध थी। रेडियो संग्राहकों तथा टेपरिकार्डरों का नियमित रख-रखाव भी किया जाता था। सन सत्तर के दशक में पूर्वार्द्ध में भारतीय वायुसेना में डिजिटल प्रौद्योगिकी का प्रवेश नहीं हुआ था इसलिए हमारे रिसीवर तथा रिकॉर्डर पारम्परिक अनालॉग प्रौद्योगिकी के थे जो शीघ्र ही गर्म हो जाते थे और ठीक से काम करना बंद कर देतेे थे, इसलिए थोड़ी देर बाद उनको ठंडा करना आवश्यक होता था।
इन सब कठिनाइयों के बाद भी हम सभी अपने-अपने कार्य को पूर्ण समर्पण के भाव से करते थे। हम समय-समय पर प्रत्येक सप्ताह कोई न कोई ऐसी वार्ता का अपरोधन करते रहते जो अपने देश के हित में काम आती थी। इस आसूचना को रिकॉर्ड कर हम अपनी अनुशंसा के साथ निदेशालय में भेज देते थे।
यूनिट ऑप्स अफसर और 2 आई सी होने के कारण मेरा उत्तरदायित्व बहुत अधिक था। काम अति गुप्त होने के कारण मेरा काम कुछ अधिक ही गंभीर हो गया गया था। किन्तु धीरे-धीरे मुझे अपने काम में आनंद आने लगा था। इलेक्ट्रॉनिक युद्ध-प्रणाली पर कार्य करने का यह मेरा प्रथम अनुभव था।
यद्यपि पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान की संरचना एक ही धर्म के अनुयायी होने कारण हुई थी किन्तु उनकी भाषा, उनकी संस्कृति तथा उनकी जीवन शैली एक दूसरे से बहुत ही भिन्न थी। पष्चिमी पाकिस्तान का रोबदार मुसलमान निरन्तर नरम स्वभाव के पूर्वी पाकिस्तानी को नीचा दिखाने की चेष्टा में लगा रहता था जिससे पूर्वी पाकिस्तान की जनता तथा सैनिकों में असंतोष फैलने लगा और फिर एक दिन वह असंतोष इतना बढ़ गया कि पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली मुसलमान वायुसैनिकों ने तेजगांव एयरबेस में विद्रोह का शंखनाद फूंक दिया। वह विद्रोह बहुत तेजी से फैलने लगा। पाकिस्तान के दोनों भागों में स्थिति बहुत तनावपूर्ण होती जा रही थी। उनकी इस स्थिति की सूचना हमें निरन्तर अपने आरटी चैनलों से प्राप्त होती रहती थी और हम महत्वपूर्ण आसूचनाओं को निदेशालय को भेजते रहते थे।
जैसे-जैसे पाकिस्तान में तनाव बढ़ता जा रहा था, हमें रेडियो टेलीफोन चैनल पर पाकिस्तानी वार्ताओं की प्रकृति में परिवर्तन नजर आता जा रहा था। अब प्रशासनिक तथा व्यापारिक वार्ताएं कम और युद्ध संबंधी वार्ताएं अधिक होने लगी थीं। अपने अनुभव से हमने पाया पाकिस्तानी सैनिक अधिकारी अपनी अति गुप्त तथा परमगुप्त वार्ताओं के लिए कुछ विशेष आवृत्तियों का ही प्रयोग करता था अन्यथा उनको नित्य परीक्षण करके बन्द कर देता था। हमने पाया कि ऐसी सात आवृत्तियां थीं। इन्हें हमने ‘रणनीतिक आवृत्ति’ की सूची का नाम दे रखा था।
अमेरिकी कम्पनी ने पाकिस्तान सेना को कुछ ‘कोडिंग कार्ड’ दे रखे थे। संप्रेषक (ट्रांसमीटर) में इन्हें लगा देने से उनकी स्पीच में कोडिंग हो जाती थी जिससे हम वार्ता को बिलकुल समझ नहीं पाते थे। किन्तु उसी अमरीकी कम्पनी ने हमें डिकोडिंग कार्ड बेचे थे जिनकी सहायता से हम उनकी कोडेड वार्ताओं को डिकोड करके समझने लायक बना लेते थे। ये डिकोडिंग कार्ड परमगुप्त होने के कारण यूनिट ऑप्स अफसर के पास सुरक्षा में रखे जाते थे और इनका प्रयोग किसी अधिकारी द्वारा ही किया जाता था। अब किसी न किसी अफसर को चौबीसों घंटे यूनिट रूम में रहना पड़ता था क्योंकि कोडिंग वार्ताओं का प्रयोग बहुत अधिक किया जाने लगा था। हमारी तथा हमारी जैसी अन्य इन्टेलिजेन्स यूनिटों का काम अब बहुत बढ़ गया था। इसी समय हमारे कमाडिंग अफसर की मां अत्यधिक बीमार हो गई और उन्हें 10 दिसम्बर 1971 को छुट्टी पर जाना पड़ा। इससे मेरा दायित्व बहुत बढ़ गया और युद्व शुरू हो जाने पर मेरा अधिकतर समय यूनिट में ही बीतने लगा था। इस समय मुझे अपने कमांडिंग अफसर की कमी बहुत खल रही थी। किन्तु उनकी मां मृत्युशैया पर पड़ी थी और ऐसे समय में उनका अपनी मां के निकट रहना बहुत आवश्यक था।
युद्ध शुरू होने के साथ ही हमने इस वार्ता का अपरोधन किया कि ईरान अपने बोइंग सी-130 विमान पाकिस्तान की सहायता के लिए भेज रहा है। हमने इस आसूचना का भी अपरोधन किया कि यद्यपि चीन पाकिस्तान को सैनिक सहायता देने को तैयार है किन्तु अभी वह भारत पर दबाव डालने के लिए सीमा पर अपनी सेना नहीं भेज सकेगा। इसी प्रकार सीमा पर उड़ान भरते हेलीकॉप्टर पर गोली लगने से मेजर जनरल खदिम रजा के घायल होने का समाचार का अपरोधन भी हमारी यूनिट ने किया था। इसी प्रकार की अनेक अन्य आसूचनाएं, हमारी वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिट द्वारा अपरोधन कर अपने सिग्नल्स इन्टेलिजेन्स निदेशालय को हमने भेजी थीं। निश्चय ही इन आसूचनाओं से हमारे रक्षा मंत्रालय को और अंततः हमारे देश को सहायता मिली होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
मनोवैज्ञानिक युद्ध
पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों को अवश्य ही मालूम रहा होगा कि हम उनकी रेडियो टेलीफोन चैनल का अपरोधन कर रहे हैं। इसलिए उनके सैनिक अधिकारी हमारे ऑपरेटरों पर मनोवैज्ञानिक तथा मानसिक दबाव डालने की चेष्टा दूर-संचार के इन्हीं चैनलों पर करते रहते थे। वे प्रायः अपनी टेलीफोन वार्ताओं में अन्य बातों के साथ-साथ गलत सूचनाएं भी देते रहते थे जिससे हमारे ऑपरेटरों पर मानसिक दबाव निश्चय ही पड़ता था। उदाहरण के लिए वे कहते थे कि, ‘उनके विमानों ने अम्बाला तथा आगरा शहरों पर भीषण बमबारी की है’, ‘उनकी थल सेनाओं ने जम्मू सेक्टर में बड़ी जीत हासिल की है’, ‘राजस्थान तथा असम सेक्टरों में बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों को बन्दी बना लिया है’ आदि। ऐसी बातें बार-बार सुनकर हमारे ऑपरेटर परेशान हो जाते थे। इसलिए हमारे विशेषज्ञों को अक्सर उन्हें उत्साहवर्धक परामर्श भी देना पड़ता था ताकि वे गलत और सही सूचनाओं का भेद समझ सकें।
गर्व का वह क्षण
जैसे-जैसे सन 1971 का नवम्बर महीना बीत रहा था युद्ध अवश्यम्भावी हो गया था। पूर्वी पाकिस्तान में मुक्तिवाहिनी सेना ने शेख मुजीबुर रहमान को अपना पूरा सहयोग दे रखा था। हमारे रेडियो टेलीफोन पर अब लगभग सभी चैनलों पर प्रत्येक पल युद्ध संबंधी वार्ताएं ही होती थीं। दिसम्बर 1971 शुरू होते ही युद्ध की घोषणा हो गई। पाकिस्तान ने भारत के पश्चिम दिशा में पूरी शक्ति लगा दी। शायद वे समझ चुके थे कि अब पूर्वी पाकिस्तान उनसे अलग हो जाएगा। इसलिए पूर्वी पाकिस्तान की अधिकतर सेना पश्चिमी पाकिस्तान भेज दी गई थी। पूर्वी पाकिस्तानी वायुसेना के एयर ऑफिसर ढाका, एयर कमोडोर इनाम-उर-रहमान की एक वार्ता का अपरोधन हमने किया जिसमें वह अपने वायुसेनाध्यक्ष से कह रहे थे, ‘‘थेंक्यू सर फॉर गिविंग मी अ कमांड ऑफ नथिंग’’।
पूर्वी पाकिस्तान के आकाश पर भारतीय वायुसेना का प्रभुत्व छा चुका था। भारत की थल सेना भी राजधानी ढाका को चारों ओर से घेरती जा रही थी। हमें निरन्तर अपने चैनल पर पूर्वी पाकिस्तान से अच्छे समाचार मिल रहे थे। 14 दिसम्बर 1971 का सूरज अपने साथ अच्छे समाचार लाया। हमने अपने चैनलों पर वार्ताओं के अपरोधन से पता लग रहा था कि पूर्वी पाकिस्तान के सैनिकों का मनोबल लगभग टूट चुका था। उसी दिन लगभग पौने ग्यारह बजे सुबह हमारे एक ऑपरेटर ने मुझे फोन द्वारा अपने चैनल के पास बुलाया। मैं फौरन उसके पास पहुंचा। उसने मुझे एक वार्ता के विषय में बताया जो पश्चिमी पाकिस्तान के मुख्यालय से पूर्वी पाकिस्तान के मार्शल-लॉ प्रशासन ले.जनरल टिक्का खां के कार्यालय में की गई थी। उसने यह भी बताया कि यह वार्ता एक रणनीतिक चैनल पर कोडिंग कार्ड लगा कर की गई थी और उसे अपना डिकोडिंग कार्ड लगाना पड़ा था। यह सुन कर मेरी उत्सुकता बढ़ी। मैंने उसकी लॉक बुक देखी तो पाया कि यह वार्तालाप लगभग तीन मिनट तक हुआ था। जब मैंने उस रिकॉर्डेड वार्ता को सुना तो पाया कि यह वार्ता किसी मीटिंग के विषय में थी। जो उसी शाम ढाका गवर्नर ए एम मलिक की अध्यक्षता में की जानी थी। मीटिंग में भाग लेने वालों में टिक्का खां तथा इनाम-उर-रहमान के नाम भी थे। इससे मुझे समझ में आया कि यह कोई उच्च स्तरीय मीटिंग अवश्य होगी। मैंने एक अन्य अफसर को भी यह टेप सुनने को कहा तो उसे भी ऐसा ही प्रतीत हुआ। अब मैंने फौरन उस वार्ता को टाइप करवाया और उसे पढ़ा। अब तक मुझे इस वार्ता का महत्व तथा इसकी गंभीरता समझ में आ गई थी।
इस समय मुझे अपने कमांडिंग अफसर की अनुपस्थिति बहुत खली। साढ़े ग्यारह बज चुके थे। मुझे सलाह देने वाला कोई नहीं था। मैंने फौरन निदेशालय में अपने सहायक निदेशक (वायु) विंग कमांडर बनर्जी को इस वार्ता के विषय में बताया। लगभग 1 घंटे बाद उन्होंने मुझे फौरन स्वयं इस रिकॉर्डेड टेप और इसके लॉग-बुक के साथ निदेशालय में पहुंचने के लिए कहा। वहां विंग कमांडर बनर्जी और निदेशक ब्रिगेडियर जुनेजा ने भी इस टेप को सुना। लगभग दो घंटों के विचार विमर्श के बाद मैं वापस लौट आया। लगभग 7 बजे सायंकाल में मुझे समाचार मिला कि जिस समय ढाका के गवर्नर हाउस में वह महत्वपूर्ण मीटिंग चल रही थी जिसका अपरोधन मेरी कमान में हमारी वायरलेस यूनिट ने किया था ठीक उसी समय विंग कमांडर विश्नोई के नेतृत्व में भारतीय वायुसेना के पायलटों ने गवर्नर हाउस पर बम तथा रॉकेटों की वर्षा की जिससे घबड़ा कर पाकिस्तान के वे उच्च अधिकारी पास के इन्टरनेशनल होटल में भाग गए और 10 दिसम्बर को पाकिस्तान सेना ने आत्म-समर्पण कर दिया। सचमुच विलक्षण था हमारी यूनिट के कर्मियों के लिए और स्वयं मेरे लिए गर्व का वह क्षण जब हमें पता लगा कि सन 1971 के युद्ध में ऐतिहासिक विजय के कारण बने। किन्तु खेद का विषय है कि हमारी वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिट के इस महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक युद्ध के योगदान को सन 1971 के युद्ध के इतिहास में कहीं जिक्र तक नहीं आया है।
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