तारों का अनोखा संसार
प्रदीप कुमार
मानव हजारों वर्षों से निरभ्र आकाश में दिखाई देने वाले तारों का निरीक्षण करता आया हैं। अक्सर लोगों के दिमाग में यह प्रश्न उठते हैं कि आकाश के ये तारे हमसे कितनी दूर हैं? ये सतत क्यों चमकते रहते हैं? ये कब तक चमकते रहेंगे? क्या इन तारों का जन्म होता हैं? क्या इनकी मृत्यु भी होती है? इन सभी तारों में हमारे सौर-परिवार के मुखिया सूर्य का क्या स्थान है? आकाश में कुल कितने तारे हैं? ध्रुव तारा क्यों स्थिर प्रतीत होता हैं? वगैरह-वगैरह। हम जानते हैं कि मनुष्य की जिज्ञासाओं का कोई अंत नही हैं। तारों से समन्धित उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर पाने के लिये मानव आदिम काल से ही प्रयासरत रहा हैं। इसका परिणाम यह है कि आज हमारे पास इन मूल प्रश्नों के सटीक उत्तर उपलब्ध हैं।
रात के समय आकाश को देखने पर हमें यही प्रतीत होता हैं कि तारे किसी विशाल गोले पर बिखरे हुए हैं और साथ ही साथ हमें यह भी लगता है कि तारे हमसे एकसमान दूरी पर स्थित हैं। इस गोले को प्राचीन भारतीय खगोल-विज्ञानियों तथा ज्योतिषियों ने ‘नक्षत्र-लोक’ नाम दिया था। आज हम जानते हैं कि यह अवधारणा सही नहीं है क्योंकि न तो सभी तारे एकसमान दूरी पर स्थित हैं और न ही कोई ऐसा गोल है जिस पर ये टिके हुए हैं। कुछ तारे हमसे बहुत दूर हैं तो कुछ तारे हमसे बहुत नजदीक। पृथ्वी से तारों की दूरियाँ इतनी अधिक होती हैं कि हम उसे किलोमीटर या अन्य सामान्य इकाइयाँ में व्यक्त नहीं कर सकते हैं इसलिए हमें एक विशेष पैमाना निर्धारित करना पड़ा-प्रकाश वर्ष। दरअसल प्रकाश की किरणें एक सेकंड में लगभग तीन लाख किलोमीटर की दूरी तय करती हैं। इस वेग से प्रकाश-किरणें एक वर्ष में जितनी दूरी तय करती हैं, उसे एक प्रकाश-वर्ष कहते हैं। इसलिए एक प्रकाश-वर्ष 94 खरब, 60 अरब, 52 करोड़, 84 लाख, 5 हजार किलोमीटर के बराबर होता है। सूर्य के पश्चात हमसे सर्वाधिक नजदीकी तारा प्रौक्सिमा -सेंटौरी हैं, जिसकी दूरी लगभग 4.3 प्रकाश-वर्ष है। प्रकाश-वर्ष हमें समय और दूरी दोनों की सूचना देता है, हम यह भी कह सकते हैं कि प्रौक्सिमा-सेंटौरी से प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में 4.3 प्रकाश-वर्ष लगेंगे। आकाश का सर्वाधिक चमकीला तारा लुब्धक या व्याध हमसे तकरीबन 9 प्रकाश-वर्ष दूर है। तारों की दूरियाँ मापने के लिये एक और पैमाने का इस्तेमाल होता है, जिसे पारसेक कहते हैं। एक पारसेक 3.26 प्रकाश-वर्षों के बराबर है। सूर्य हमसे लगभग 8 मिनट और 18 प्रकाश सेकेंड दूर है। सूर्य और पृथ्वी के बीच की इस दूरी को ‘खगोलीय इकाई’ या ‘खगोलीय एकक’ कहते हैं। हमारी दृष्टि में सूर्य अन्य तारों की तुलना में अधिक बड़ा तथा प्रकाशमान प्रतीत होता है, परन्तु विशाल ब्रह्मांड की दृष्टि में यह महासागर के एक बूंद के बराबर भी नहीं है। अतः हमारा सूर्य आकाश का एक सामान्य तारा है। वास्तविकता तो यह है कि अन्य तारों की अपेक्षा सूर्य पृथ्वी के अधिक नजदीक है इसलिए हमें यह अधिक प्रकाशमान तथा शक्तिशाली प्रतीत होता है।
क्या आप जानते हैं कि सभी तारे एक ही रंग के नहीं होते? पृथ्वी से देखने पर हमे ज्यादातर तारे एक ही जैसे दिखाई देते हैं । परन्तु जब हम तारों का अवलोकन दूरबीन की सहायता से करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके रंग भिन्न-भिन्न हैं।
रंगों के द्वारा हमें तारों के तापमान के बारे में पता चलता है। भिन्न-भिन्न तापमान होने के ही कारण ही दूरबीन से प्रेक्षण करने पर तारे अलग-अलग रंग के दिखाई देते हैं। जब किसी लोहे की छड़ी को हम आग में गर्म करते हैं तो ताप और रंग के सम्बंध हमें स्पष्ट दिखाई देने लगता हैं। जब छड़ी गर्म होती हैं तो लाल रंग की हो जाती है। इससे भी अधिक गर्म करने पर पीले रंग की हो जाती है, और भी गर्म करने पर छड़ी सफेद रंग की हो जाती है। बहुत अधिक तापमान होने के कारण सफेद रंग, नीले रंग में परिवर्तित हो जाती है। ठीक उसी प्रकार अधिक गर्म तारे नीले दिखाई देते हैं, उनकी अपेक्षा पीले तारे उनसे कम गर्म तथा लाल तारे सबसे कम गर्म होते हैं। हमारा सूर्य एक पीले रंग का तारा है। अतः यह न तो बहुत अधिक गर्म है और न ही बहुत ठंडा। यह एक सामान्य तारा है। स्पेक्ट्रमदर्शी से प्रेक्षण करने पर हमे तारों के भिन्न-भिन्न रंग दिखाई देते हैं, जिनके समूह को वर्णक्रमपट अथवा स्पेक्ट्रम कहा जाता हैं। दरअसल, तारों के वर्णक्रमपट की सहायता से हम उसके विभिन्न भौतिक गुणधर्मों के बारे में पता लगा सकते हैं।
उदाहरण के लिये हम यह पता लगा सकते हैं कि तारों के अंदर कौन-कौन से तत्व मौजूद हैं। अब तक सैकड़ों तारों के वर्णक्रमपट प्राप्त किये जा चुके हैं। इन वर्णक्रमपटों के आधार पर तारों का वर्गीकरण किया गया है। उन्नीसवी सदी के अंत में हावर्ड वेधशाला के खगोलविदों ने तारों को कुछ वर्गों में बाँटकर उन्हें व्ए ठए ।ए थ्ए ळए ज्ञए ड इत्यादि नाम दिए हैं।
O वर्ग के तारे सबसे अधिक गर्म होते हैं। इन तारों के सतह का तापमान 33,000 K (केल्विन) या उससे अधिक होता है तथा इन तारों में हीलियम गैस की बाहुल्यता होती हैं। इस वर्ग के तारे नीले रंग के होते हैं।
B वर्ग के तारों का तापमान 10,500 K से 30,000 K के बीच में होता है तथा इन तारों में हीलियम, परमाणुहीन ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन गैस की बाहुल्यता होती है। इस वर्ग के तारे नीले-सफेद रंग के होते हैं। चित्रा तारा इसी वर्ग का है, जो कन्या नक्षत्रमंडल में है।
A वर्ग के तारों का तापमान 7,500 K से 10,000 K के बीच में होता है तथा इन तारों में कैल्शियम इत्यादि गैसों की बाहुल्यता होती है। इस वर्ग के तारे सफेद रंग के होते हैं। आकाश का सबसे चमकीला तारा व्याध (सिरियस) इसी वर्ग का है।
F वर्ग के तारों का तापमान 6,000 ज्ञ से 7,200 ज्ञ के बीच में होता है। इस वर्ग के तारे पीले-सफेद रंग के होते हैं। ध्रुव-तारा इसी वर्ग का हैं।
G वर्ग के तारों का तापमान 5,500 K से 6,000 K के बीच में होता है। इस वर्ग के तारे पीले रंग के होते हैं। सूर्य इसी वर्ग का तारा है। K वर्ग के तारों का तापमान 4,000 K से 5,250 K के बीच में होता है। इस वर्ग के तारे नारंगी होते हैं। तापमान कम होने के कारण इस वर्ग के तारों के पदार्थ व्युहाणु (मोलिक्यूलर) अवस्था में होते हैं। रोहिणी इसी वर्ग का तारा है।
M वर्ग के तारों का तापमान 2,600 K से 3,850 K के बीच में होता है। इस वर्ग के तारे लाल रंग (मिश्रित नारंगी) के होते हैं। प्राक्सीमा सेन्टारी इसी वर्ग का तारा है। हमारे आकाशगंगा में 2,600 K से भी कम तापमान वाले तारे हैं। इनमें वर्ग N (लाल रंग), R (लाल रंग), S (केवल दूरबीन से दिखाई देने वाला लाल रंग का तारा) प्रमुख है। आकाशगंगा के ज्यादातर तारों को उपर्युक्त 10 वर्गों में विभाजित किया गया है। एक वर्ग तथा दूसरे वर्ग के बीच वाले तारों को उपवर्गों 1,2, 3........जैसी संख्याओं में व्यक्त किया गया है। जैसे सूर्य G-2 वर्ग का तारा है। रात के समय तारों को नंगी आँखों से देखने पर हमें यह प्रतीत होने लगता है कि कुछ तारे अधिक चमकीले हैं तथा कुछ कम। कांति के अनुसार तारों को विभिन्न कांतिमानों में वर्गीकृत किया गया है। जैसाकि हम जानते हैं कि तारे हमसे बहुत दूर हैं और दूरी अधिक होने के कारण कम चमकीले तारे हमें दिखाई नही देते हैं। हम नंगी आँखों से केवल छठे कांतिमान के तारों को ही देख सकते हैं। मजेदार बात यह है कि धरती से दिखाई देने वाले आकाश में छठे कांतिमान के लगभग साढ़े पांच हजार से अधिक तारे नही हैं। कांतिमान का वर्गीकरण इस प्रकार कि जो तारे सबसे अधिक चमकीले दिखाई देते हैं, उसके लिये न्यूनतम संख्या का प्रयोग किया जाता है जैसे प्रथम। उसके विपरीत जो तारे कम चमकीले दिखाई देते हैं उनके लिये अधिकतम संख्या का प्रयोग किया जाता है, जैसे छठी। प्रथम कांतिमान के तारे द्वितीय कांतिमान के तारों से 2.5 गुना चमकीला और द्वितीय कांतिमान का तारा तृतीय कांतिमान के तारे से 2.5 गुना चमकीला होता है। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है। अमेरिका के पालोमार पर्वत पर स्थित वेधशाला 200 इंच व्यास वाली परवर्ती दूरबीन की सहायता से 22 से 23 कांतिमान तक के तारो को आसानी से पहचाना जा सकता है। व्यास और द्रव्यमान सूर्य एक सामान्य तारा है, इसका व्यास लगभग 14,00,000 किलोमीटर है अर्थात् पृथ्वी के व्यास का लगभग 109 गुना ज्यादा। आकाशगंगा में कुछ तारे सूर्य से सैकड़ों गुना बड़े हैं। इन्हें ‘महादानव तारे’ कहते हैं। इन तारों का व्यास हमारे सूर्य से 100 गुना अधिक होता है। पहले वैज्ञानिकों की यह मान्यता थी कि यदि सूर्य महादानव तारा बन जायेगा तो वह हमारी पृथ्वी को निगल जाएगा,परन्तु इटली के खगोलविद रोबर्ट सिल्वोटी ने इस आशंका को नकार दिया हैं, परन्तु वर्तमान में सभी वैज्ञानिक सिल्वोटी के तर्काे से सहमत नही हैं। आकाशगंगा में अनेक ऐसे भी तारे हैं जो सूर्य से छोटे हैं और-तो-और अनेक तारे पृथ्वी तथा बुध ग्रह से भी छोटे हैं। ऐसे तारों को ‘श्वेत वामन तारे’ अथवा ‘बौने तारे’ कहते हैं। श्वेत वामन तारे भले ही सूर्य से छोटे होते हैं, परन्तु इनका द्रव्यमान लगभग बराबर ही होता हैं। महादानव तारों के द्रव्य का घनत्व पानी के घनत्व की अपेक्षा लगभग एक लाख गुना कम होता है। ष्वेत वामन तारों या बौने तारों का घनत्व बहुत अधिक होता है। इनका घनत्व पानी के घनत्व की अपेक्षा दस लाख गुना अधिक हो सकता है। ऐसे तारों का एक घन सेंटीमीटर द्रव्य सौ टन से भी अधिक हो सकता है। जिन तारों का घनत्व पानी की अपेक्षा एक लाख अरब गुना होता हैं, ऐसे तारे ‘पल्सर’ या ‘न्यूट्रॉन’ तारे कहलाते हैं। इनका व्यास 40 किलोमीटर से भी कम हो सकता है।
डेनमार्क के खगोलज्ञ एजनार हर्टजस्प्रुंग और अमेरिका के खगोलज्ञ हेनरी नारेस रसेल ने तारों के रंग तथा तापमान में महत्वपूर्ण समंध स्थापित किया। दोनों खगोलज्ञों ने तारों के रंग तथा तापमान के आधार पर एक आरेख (ग्राफ) तैयार किया, जिसे ताराभौतिकी में हर्टजस्प्रुंग-रसेल (HR) आरेख के नाम से जाना जाता है। इस आरेख की भुजा रंग एवं तापमान को निर्धारित करता हैं तथा कोटि- अंक कांतिमान को निर्धारित करता है। सर्वाधिक विस्मयकारी बात इस आरेख में यह है कि अधिकांश तारे दाईं ओर के नीचे के कोने से बाईं ओर के ऊपरी कोने तक एक विकर्ण पट्टे में स्थित है। इस पट्टी को ‘मुख्य अनुक्रम’ या ‘मेन सिक्वेंस’ कहते है। सूर्य इस प्रमुख क्रम के लगभग मध्य में है। इस आरेख के ऊपरी कोने पर बहुत गर्म नीले रंग के विशालकाय महादानव तारे हैं तथा नीचले कोने पर लाल रंग के श्वेत वामन अथवा बौने तारे है। हर्टजस्प्रुंग-रसेल आरेख तारों के विकासक्रम के अध्ययन में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है। सूर्य हमसे लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर है। हम जानते हैं कि अन्य तारों की अपेक्षा सूर्य हमसे बहुत नजदीक है, इसलिए हमे बहुत शक्तिशाली प्रतीत होता है। सूर्य से संबंधित हमारे मस्तिष्क में अनेक कौतहूलपूर्ण सवाल उठते हैं- यह कैसे चमकता हैं? यह कैसे इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करता है? आखिर सूर्य तथा तारों के अंदर ऐसी कौन सा ईधन है जो जल रहा है? होउटरमैन्स तथा अटकिंसन नामक दो वैज्ञानिक ने यह प्रस्ताव रखा कि ‘तापनाभिकीय अभिक्रियायें’ ही सूर्य तथा अन्य तारागणों में ऊर्जा का स्रोत है।
सन् 1939 में वाइसजैकर तथा हैंस बेथे नामक दो वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से शोध के पश्चात् यह व्याख्या कि सूर्य तथा अन्य तारों में होने वाली तापनाभिकीय अभिक्रियाओं के कारण हाइड्रोजन का दहन होकर हीलियम में परिवर्तन हो जाता है (संलयन)। सूर्य तथा अन्य तारों में हाइड्रोजन सर्वाधिक मात्रा में पाया जाने वाला संघटक हैं,तथा ब्रह्मांड में भी इसकी सर्वाधिक मात्रा है । यदि हम हाइड्रोजन के चार नाभियों को जोड़ें, तो हीलियम के एक नाभिक का निर्माण होता है। हाइड्रोजन के चार नाभियों की अपेक्षा हीलियम के एक नाभिक का द्रव्यमान कुछ कम होता है। इन सबके पीछे 1905 में आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित ‘विशेष सापेक्षता सिद्धांत’ का प्रसिद्ध समीकरण E=mc2 हैं। इस समीकरण के अंतर्गत द्रव्यमान ऊर्जा का ही एक रूप हैं, द्रव्यमान m ऊर्जा की एक मात्र E के तुलनीय हैं । अर्थात् उपरोक्त तापनाभिकीय संलयन में हीलियम के द्रव्यमान में जो कमी हुई थी,वह ऊर्जा के रूप में वापस मिलेगा । इसी कारण से सूर्य तथा अन्य तारें चमकते हैं। परन्तु मजेदार तथ्य यह है कि सभी तारे अपना हाइड्रोजन एक ही प्रकार से खर्च नही करते हैं। जो तारे हमारे सूर्य से बड़े हैं वे अपना हाइड्रोजन बहुत तेजी से खर्च कर रहे। इसका अर्थ यह हैं कि जो तारे जितना बड़ा होते हैं उतना ही अधिक तेजी से हाइड्रोजन खर्च करते हैं। जो तारे सूर्य से दो गुना बड़े हैं वे अपना हाइड्रोजन दस गुना तेजी से खर्च कर रहे हैं। जो तारे सूर्य से दस गुना बड़े हैं वे एक हजार गुना तेजी से। ऐसे तारे काफी कम समय में ही अपना हाइड्रोजन समाप्त कर देते हैं तथा मृत्यु की कगार पर पहुँच जाते हैं। जो तारे हमारे सूर्य के आकार के हैं उनका हाइड्रोजन काफी लम्बे समय तक चलता है। तारों की जीवन यात्रा के समंध में चर्चा करने से पहले हमे यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि धरती के मानवों ने सन् 1950 के उपरांत हाइड्रोजन बम निर्माण करने का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। हाइड्रोजन बम आकार में अधिक बड़ा नहीं होता है। यूँ कहे तो दस लाख टी.एन.टी. क्षमता वाले हाइड्रोजन बम को एक साधारण बिस्तर में छुपा सकते हैं। हाइड्रोजन बम का विमोचक(ट्रिगर) ही सामान्यता परमाणु बम की क्षमता के बराबर होता है। इस बम से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा वस्तुतः तापनाभिकीय अभिक्रियाओं के ही कारण होती है। इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य तथा अन्य तारों में प्रतिदिन हजारों-करोड़ों हाइड्रोजन बम फूटते हैं। परन्तु, तारों के अंदर होने वाली तापनाभिकीय प्रक्रियायें विस्फोटात्मक रूप में न होकर संतुलित रूप में होती हैं। संलयन को संतुलित रूप में करवाने में अभी पृथ्वीवासी सफल नहीं हुए हैं, यदि मानव ‘संलयन भट्ठी’ बनाने में सफलता प्राप्त कर लेगा तो हम धरती पर ही कृत्रिम वामन तारों का निर्माण कर सकेंगे। परन्तु इस समय चिंताजनक विषय यह हैं कि मानव हाइड्रोजन बम जैसी युक्तियों का उपयोग विनाशक तथा संहारक आयुधों के निर्माण में निरंतर प्रयासरत रहा है और इसमें बहुत सफल भी रहा है । सौभाग्यवश अभी तक हाइड्रोजन बम का किसी युद्ध में प्रयोग नहीं किया गया है। आइए, अब हम तारों के जीवन यात्रा की ओर मुड़ते हैं।
तारों की अरबों साल की जीवन यात्रा की तुलना में मनुष्य का जीवन काल बहुत ही छोटा है। तो फिर वैज्ञानिक तारों के जन्म, यौवन, मृत्यु आदि के बारे में कैसे जान सकते हैं? कल्पना कीजिये कि कोई दूसरे ग्रह से आया बुद्धिसम्पन्न प्राणी मनुष्यों के जीवन क्रम को जानना चाहता है। उसके पास दो उपाय हैं। पहला उपाय यह हैं कि वह धरती पर आकर किसी अस्पताल में जाकर नवजात शिशु को जन्म होते देखे और साथ-ही-साथ उसे किशोर, युवक, प्रौढ़, वृद्ध तथा मृत्युपर्यन्त तक उसका अवलोकन करे। इसी प्रकार वह उस मनुष्य के जीवनक्रम से भलीभांति परिचित हो जाता है, जिसका उसने अवलोकन किया था। परन्तु इससे केवल एक ही मनुष्य के विषय में जानकारी प्राप्त होगी तथा उस प्राणी को पृथ्वी पर लगभग साठ-सत्तर वर्ष व्यतीत करने पड़ेंगे। दूसरा उपाय बहुत ही अद्भुत् है। इसके अंतर्गत उस प्राणी को किसी नगर में जाकर वहाँ के लोगों का अवलोकन तथा अध्ययन करना पड़ेगा। इससें चंद दिनों में ही वह मनुष्यों के कुछ गुण तथा जीवन के बारे में समझने लगेगा। वह एक बुद्धिसम्पन्न प्राणी हैं अतः वह सांख्यिकी का इस्तेमाल करेगा जैसे वह नगर के सभी मनुष्यों का वजन ऊंचाई, बालों का रंग, दाँतों की संख्या, त्वचा के रंग आदि के बारे में जानकारी एकत्र करेगा। इसी प्रकार कुछ ही दिनों के अवलोकन के पश्चात् वह मानव के कालानुसार विकास-क्रम की रूप-रेखा से परिचित हो जायेगा। यही दूसरा उपाय तारों की जीवन यात्रा को समझाने में समर्थ सिद्ध हुआ है। तारों की उत्पत्ति का प्रश्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति से ही समन्धित है। परन्तु यहाँ पर केवल आकाशगंगा पर ही चर्चा करना उचित होगा ।
एक तारे की जीवन यात्रा आकाशगंगा में उपस्थित धूल एवं गैसों के एक अत्यंत विशाल मेघ (बादल) से शुरू होती है। इसे नीहारिका (नेबुला) कहते हैं। दरअसल नीहारिका शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द नीहार से हुई जिसका अर्थ है ‘कुहरा’। लैटिन में नीहारिका शब्द को ‘नेबुला’ कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है बादल। इन नीहारिकाओं के अंदर हाइड्रोजन की मात्रा सर्वाधिक होती है और 23 से 28 प्रतिशत हीलियम तथा बहुत कम मात्रा में कुछ भारी तत्व होते हैं। ऐसी ही तारों की एक प्रसूतिगृह हैं ओरीयान नीहारिका । इसकी विस्तृति लगभग 100 प्रकाश-वर्ष हैं इसके अंदर बहुत से नये तारे हैं तथा इसमें अनेकों ऐसे तारे हैं जिनका निर्माण हो रहा है। वर्तमान में सभी वैज्ञानिक इस सिद्धांत से सहमत हैं कि धूल और गैसों के बादलोँ से ही तारों का जन्म होता है। कल्पना कीजिए कि गैस और धूलों से भरा हुए मेघ के घनत्व में वृद्धि हो जाती है। उस समय मेघ अपने ही गुरुत्वाकर्षण के कारण संकुचित होने लगता है। इस संकुचन के होने के समय को ‘हायाशी-काल’ कहा जाता है। जैसे -जैसे मेघ में संकुचन होने लगता है, वैसे-वैसे उसके केन्द्रभाग का तापमान तथा दाब भी बढ़ जाता है। आखिर में तापमान और दाब इतना अधिक हो जाता है कि हाइड्रोजन के नाभिक आपस में टकराने लगते हैं और हीलियम के नाभिक का निर्माण करते हैं। तब तापनाभिकीय अभिक्रिया (संलयन) प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रक्रम में प्रकाश तथा गर्मी के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस प्रकार वह मेघ ताप और प्रकाश से चमकता हुआ तारा बन जाता है। हर्टजस्प्रुंग-रसेल आरेख की मुख्य अनुक्रम पट्टी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर तारे इसी पट्टी में पायें जाते हैं । इसका कारण यह है कि तारे अपने जीवन के 90 प्रतिशत भाग को इसी अवस्था में व्यतीत करते हैं । इस अवस्था में हाइड्रोजन का हीलियम में परिवर्तन काफी लम्बे समय तक चलता है। इसके कारण तारों के केन्द्रभाग में हीलियम की मात्रा में वृद्धि होती रहती है। अंत में तारों का क्रोड हीलियम में परिवर्तित हो जाता है। जब हीलियम क्रोड में परिवर्तित हो जाता है तो उसके उपरांत उनकी तापनाभिकीय अभिक्रियायें इतनी अधिक तेजी से होने लगती हैं कि तारे मुख्य अनुक्रम से अलग हो जाते हैं।
दानव तारे: मुख्य अनुक्रम के पश्चात् तारे के केन्द्रभाग में संकुचन प्रारम्भ हो जाता है, संकुचित होने के कारण उत्पन्न होने वाली ऊर्जा के कारण तारा फैलने लगता है। फैलने के उपरांत वह एक दानव तारा बन जाता है। हमारा सूर्य भी 450 वर्षों के उपरांत इस अवस्था में आ जाएगा। पृथ्वी को छोड़कर बुध और शुक्र जैसे ग्रहों का नामोनिशान ही मिट जायेगा। यदि पृथ्वी सूर्य का ग्रास बनने से बच भी जाता हैं तो भी आग का दैत्याकार गोला बनने के बाद जब सूर्य श्वेत वामन तारा बन जायेगा। इससे पृथ्वी पर पर एक्स-रे तथा अन्य पैराबैंगनी किरणों की झड़ी-सी लग जाएगी। उस समय पृथ्वी को जीवन विहीन बनने से कोई भी नही रोक पायेगा।
श्वेत वामन तारे: दानवी अवस्था में पहुँचने के पश्चात् तारे के अंदर हीलियम की ऊर्जा उत्पन्न होती है। और एक विशेष प्रक्रिया के अंतर्गत हीलियम भारी तत्वों में परिवर्तित हो जाता है। अंततरू यदि तारा सूर्य से पांच -छह गुना ही अधिक बड़ा हों तो उसमे छोटे-छोटे विस्फोट होकर उससे तप्त गैस बाहर निकल पड़ती है। उसके उपरांत तारा श्वेत वामन के रूप में अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत करता हैं। प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ. सुब्रमणियन् चन्द्रशेखर ने यह सिद्ध किया कि तारों का द्रव्यमान सूर्य से 44 प्रतिशत से अधिक नही हो सकता। द्रव्यमान-सीमा को ‘चन्द्रशेखर - सीमा’ के नाम से जाना जाता है।
विस्फोटी तारे: जो तारे सूर्य से पांच-छह गुना अधिक विशाल होते हैं अन्ततरू उनमें एक भंयकर विस्फोट होता है। विस्फोटी तारे के बाहर का समस्त आवरण (कवच) उड़ जाता है और और उसका समस्त द्रव्य-राशी अंतरिक्ष में फ़ैल जाता है। परन्तु उसका अति तप्त क्रोड सुरक्षित रहता है। इस अद्भुत् घटना को सुपरनोवा कहते हैं। यदि उस तारे में अत्यधिक तेजी से संकुचन होने लगता है तो तो वह न्यूट्रॉन तारे का रूप धारण कर लेता है। बशर्ते उस तारे का द्रव्यमान हमारे सूर्य से दुगनी से अधिक न हो। कुछ विशेष परिस्थितियों में तारे इतना अधिक संकुचित हो जाते हैं कि इनमे से प्रकाश की किरणें भी बाहर नही निकल पाती है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे। 4 जुलाई 1054 को चीनी ज्योतिषियों ने हमारी आकाशगंगा में एक बहुत ही चमकीला तारा देखा यहाँ तक दो दिनों तक तारा सूर्य के रहते हुए भी प्रकाशमान रहा,परन्तु शनैः-शनैः उसकी शक्ति समाप्त हो गयी। यदि करोड़ो-करोड़ो हाइड्रोजन बमों का विस्फोट करे तो शायद ऐसा विस्फोट हो। कर्कट-नीहारिका (क्रैब-नेबुला) में इस विस्फोट के आज भी स्पष्ट चिन्ह प्राप्त होते हैं । दरअसल नोवाश्लैटिन भाषा का एक शब्द हैं जिसका अर्थ होता हैं -नया। इसलिए प्राचीन ज्योतिषियों ने जब भी आकाश में कोई नई घटना होती देखी, बशर्ते आकाश में कोई नया तारा उदय होते देखा तो नोवा शब्द का इस्तेमाल किया। इसी प्रकार सुपरनोवा नाम पड़ा।
श्याम विवर (ब्लैक होल): जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं कि जब तारे इतना अधिक संकुचित हो जाते हैं कि अत्यंत सघन पिंड(न्यूट्रॉन तारे से भी अधिक) बन जाते हैं, जिनमें से प्रकाश का भी निकल पाना सम्भव नही होता। वैज्ञानिक ऐसे अत्यधिक सघन पिंडों को ‘श्याम विवर’ या ‘ब्लैक होल’ कहते हैं। क्या कारण हैं कि श्याम विवर प्रकाश को भी बाहर नहीं आने देते? ऐसा उस क्षेत्र के अत्यंत प्रबल गुरुत्वाकर्षण के कारण होता हैं। विस्मयकारी बात यह हैं कि श्याम विवर के निकट काल के प्रवाह में भी बेहद परिवर्तन हो जाता है। श्याम विवर के अस्तित्व में होने की सम्भावना सर्वप्रथम गणितज्ञ लाप्लास ने सन् 1798 में बताई थी।
यदि श्याम विवर प्रकाश की किरणों को नही भेजता तो हम उसे कैसे देख सकते हैं? हम यह अनुमान कैसे लगा सकते हैं कि श्याम विवर का अस्तित्व है?
श्याम विवर की कल्पना हम उस व्यक्ति से कर सकते हैं जो सोफ़े पर बैठा हुआ हैं ,परन्तु अदृश्य हैं। हम उस व्यक्ति को नहीं देख सकते हैं क्योंकि वह दृश्यमान नहीं हैं,परन्तु उसके बैठने से सोफ़े में गड्ढ़े बन जाते हैं ! ठीक उसी प्रकार से तारों के गुरुत्व क्षेत्र के प्रभाव को देखकर वैज्ञानिक श्याम विवर के अस्तित्व के बारे में पता लगा सकते हैं। हम जानते हैं कि आकाश में अनेक युग्म तारे (ऐसे तारे जो एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं) हैं। कल्पना कीजिये उनमे से एक तारा श्याम विवर हैं, तो दूसरे तारे के द्रव्यमान के बारे में खगोलीय विधियों द्वारा जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यदि उस पिंड का द्रव्यमान दो-तीन सूर्य से अधिक निकलता है तो अत्यधिक सम्भावना यही हैं कि वह पिंड श्याम विवर हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत तथा क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतो के आधार पर यह निष्कर्ष निकला है कि श्याम विवर किसी गर्म पिंड की भांति एक्स और गामा किरणों का उत्सर्जन करते हैं। कई वैज्ञानिको का मत है कि हमारे आकाशगंगा में ही करोड़ो-अरबों की संख्या में श्याम विवर हो सकते हैं। वर्तमान में भी कई खगोलविदों का यह मत है कि श्याम विवर केवल एक कल्पना-मात्र हैं ।
जब हम रात्रि में आकाश-दर्शन करते हैं तो यह देखते हैं कि ध्रुव तारा प्रतिदिन, हर समय एक ही स्थिति में दिखाई देता हैं। अतः हमने ध्रुव तारे को स्थिरता का प्रतीक मान लिया हैं। हमारे पौराणिक कथाओं में भी ध्रुव से समन्धित एक कथा हैं। राजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थी-सुनीति और सुरुचि। उत्तानपाद सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे। सुनीति को ध्रुव नामक पुत्र हुआ तथा सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम था। एक दिन उत्तम को अपने पिता के गोद में बैठा देखकर धु्रव ने भी गोद में बैठने की इच्छा प्रकट की। और जाकर बैठ गया,परन्तु सुरुचि ने बालक ध्रुव को वहाँ से जबर्दस्ती दूर धकेल दिया। इस घटना से बालक ध्रुव अत्यंत क्षुब्ध हो गया और घर को त्याग दिया। ध्रुव ने जंगल में जाकर तपस्या शुरू कर दी। कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु या शिव ने ध्रुव से वर मांगने के लिये बोला। तो ध्रुव ने त्रिलोक अर्थात् पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा स्वर्ग में सर्वाेच्च पद की मांग की,जहाँ से उसे हटाया न जा सके। भगवान ने उसे वही स्थान दिया जो सदैव अटल रहता हैं,ध्रुव तारा! ऐसी प्राकृतिक घटनाएँ जिसका कारण विज्ञान द्वारा नहीं मिलता, ऐसी लोककथाओं तथा पौराणिक कथाओं में गढ़ा जाता हैं। इतना तो स्पष्ट हैं कि ध्रुव तारे की स्थिरता को ही देखकर उपरोक्त कथा गढ़ी गयी होगी। वर्तमान में हमारे पास कारण मीमांसा उपलब्ध हैं, इसलिए हम यह बता सकते हैं कि ध्रुव तारा स्थिर (अटल) क्यों प्रतीत होता हैं और अब यह कथा केवल मनोरंजक कहानी रह गईं हैं। आज से लगभग दो हजार साल पहले यूनानी दार्शनिकों की यह अवधारणा थी कि पृथ्वी के चारों तरफ एक गोल पर तारे फैले हुए हैं (तथाकथित खगोल) तथा यह गोल एक धुरी पर घूमती हैं। इस अवधारणा के अनुसार तारे इस गोल पर जड़े हुए प्रकाशीय स्रोत हैं जो तथाकथित खगोल के साथ-साथ घूमते रहते हैं। ध्रुव तारा गोल की धुरी पर होने के कारण स्थिर प्रतीत होता हैं। महान भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट ने यूनानी दार्शनिकों की इस अवधारणा का खंडन किया तथा उन्होनें बताया पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर परिक्रमा करती हैं, इसलिए तारे हमे पश्चिम से पूर्व की ओर जाते हुए प्रतीत होते हैं। हम जानते हैं कि आर्यभट की यह अवधारणा सही हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती हैं। पृथ्वी की यह धुरी उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की ओर हैं। परन्तु यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती हैं तो क्या लट्टू की धुरी सदैव स्थिर रहती हैं? तो फिर ध्रुव तारा हमेशा स्थिर कैसे प्रतीत होता हैं? जब हम लट्टू को नचाते हैं तो वह धीरे-धीरे शंकु बनाते हुए घुमा करती हैं। ठीक लट्टू की ही भांति हमारी पृथ्वी की भी धुरी अंतरिक्ष में स्थिर नहीं हैं। दिलचस्प बात यह हैं कि पृथ्वी की यह धुरी स्वयं सूर्य की गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे घूम रही हैं और लगभग 20000 वर्षों में एक चक्कर पूरी करती हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सर्वदा इस धुरी की स्थिति ध्रुव तारे की ओर नही रहेगी। आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व वर्तमान ध्रुव तारा घूमता हुआ प्रतीत होता होगा क्योंकि उस समय अटल (स्थिर) स्थान था अल्फ़ा ड्रेकोनिस। इसी प्रकार उत्तरी आकाश का सर्वाधिक चमकीला तारा अभिजित(अमहं) आज से करीब 12 हजार साल बाद ध्रुव-बिंदु के अत्यधिक नजदीक होगा और उस समय उसे ध्रुव तारा कहा जायेगा। अतः इस भौतिक-विश्व में कुछ भी स्थिर नहीं हैं, ध्रुव तारा भी नहीं! सूक्ष्म परमाणु कणों से लेकर विराट आकाशगंगाओं तक की इस भौतिक-विश्व की प्रत्येक वस्तु गतिशील हैं। विश्व में अटल, स्थिर, शाश्वत, सदैव एकरूपी, नित्य एकरूपी, पक्का इत्यादि नाम की कोई भी वस्तु नहीं हैं।
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