नोबल पुरस्कारों के एक सौ चौदह साल
सुभाष चंद्र लखेड़ा
अलफ्रेड स्वभाव से तो निराशावादी थे किन्तु मानवता के सुखद भविष्य के प्रति वे अत्यधिक आशावान थे। उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले ‘नोबेल फाउंडेशन ट्रस्ट’ की स्थापना संबंधी वसीयत की और नोबेल पुरस्कारों की पात्रता के संबंध में दिशा-निर्देश सुनिश्चित कर दिए थे। एक प्रचलित प्रसंग के अनुसार अलफ्रेड ने संभवतया नोबेल पुरस्कार शुरू न किये होते यदि सन् 1888 में उनकी नजर एक दिन उस ‘निधन - सूचना’ पर न पड़ती जिसमें त्रुटिवश उनके भाई एमिल नोबेल के बजाए उनका नाम छपा हुआ था।
दुनिया में सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कारों का सिलसिला नोबेल पुरस्कार प्रदान करने वाली अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संस्था ‘नोबेल फाउंडेशन’ के संस्थापक सर अलफ्रेड बैनहार्ड नोबेल की पांचवीं पुण्यतिथि 10 दिसंबर सन् 1901 से शुरू हुआ। तब से लेकर आज तक दुनिया की कई हस्तियों को इन पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। नोबेल पुरस्कारों पर चर्चा अधूरी रहेगी यदि हम उससे पूर्व इन पुरस्कारों के जन्मदाता यानी सर अलफ्रेड नोबेल पर चर्चा न करें। इस महान विभूति का जन्म स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में सन् 1833 में 21 अक्टूबर को हुआ। उनके पिता इम्मैन्युएल पेशे से एक इंजीनियर थे और स्टॉकहोम में भवनों और पुलों के निर्माण के व्यवसाय से जुड़े थे। उनकी माता एंड्रिएट्टा अहलसैल का जन्म भी एक धनी परिवार में हुआ था।
अलफ्रेड का जन्म हुआ और उधर उनका परिवार दिवालिया हो गया। इस कारण उनके पिता ने फिर से कुछ करने की धुन में फ़िनलैंड और रूस जाने का निश्चय किया। एंड्रिएट्टा अपने शेष परिवार के साथ अगले कुछ वर्षों तक स्टॉकहोम में ही रही और परिवार के पालन-पोषण के लिए उन्होंने परचून की दुकान का सहारा लिया। खैर, जब रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में अलफ्रेड के पिता इम्मैन्युएल का व्यवसाय ठीक से जम गया तो सन् 1842 में वे अपना परिवार अपने साथ ले गए। पीटर्सबर्ग में अलफ्रेड और उसके भाई के लिए शिक्षा का बेहतर इंतजाम किया गया। उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान, साहित्य और कुछ विदेशी भाषाओं का अध्ययन किया। जहाँ तक अलफ्रेड नोबेल की शिक्षा का सवाल है, सत्रह वर्ष की आयु तक पहुंचने तक वे स्वीडिश, रूसी, फ्रेंच, अंग्रेजी और जर्मन भाषा में दक्ष हो गए थे। उन्हें अंग्रेजी भाषा, भौतिकी और रसायन विज्ञान से अधिक लगाव था। तत्पश्चात, अलफ्रेड को दो वर्षों के लिए स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका के दौरे पर भेजा गया। शिक्षा पूरी करने के बाद वे अपने पिता के विस्फोटक निर्माण संबंधी व्यवसाय से जुड़ गए। सन 1864 में विस्फोटकों को तैयार करते समय उनके छोटे भाई और चार दूसरे लोग असामयिक विस्फोट के कारण मौत का शिकार बन गए। इस दुर्घटना ने अलफ्रेड को गहरा दुख ही नहीं पहुंचाया अपितु उनकी भावी योजनाओं को भी प्रभावित किया। फलस्वरूप, उन्होंने अपना सारा ध्यान ऐसे विस्फोटकों और युक्तियों को खोजने पर केंद्रित कर दिया जिनको सुरक्षित ढंग से इस्तेमाल किया जा सके। उन्होंने इस कार्य से संबंधित कई अनुसंधान किए। नाइट्रोग्लिसरीन का अन्य पदार्थों से तालमेल बिठाकर उन्होंने जिन महत्वपूर्ण विस्फोटकों का निर्माण किया, उनमें डायनामाइट और ब्लास्टिंग जिलेटन प्रमुख हैं। उन्होंने डायनामाइट का ब्रिटिश पेटेंट सन् 1867 में और अमेरिकी पेटेंट सन् 1868 में अर्जित किया। सन् 1876 में उन्हें नाइट्रोग्लिसरीन और गनकॉटन को मिलाकर बनाये हुए उच्च विस्फोटक ‘ब्लास्टिंग जिलेटिन’ का पेटेंट मिला। अपने पेटेंटों और बाकू तेल क्षेत्रों की बदौलत अलफ्रेड नोबेल ने अकूत संपत्ति अर्जित की। अथाह धन-संपदा के स्वामी अलफ्रेड को नए-नए स्थानों के भ्रमण का शौक था। उनके इस शौक के कारण ही विक्टर ह्यूगो ने उन्हें ‘यूरोप का सर्वाधिक धनी आवारा’ कहा था। बहरहाल, उन्होंने जीवनपर्यन्त विवाह नहीं किया। शारीरिक दृष्टि से भी वे जीवन भर अस्वस्थ रहे।
अलफ्रेड स्वभाव से तो निराशावादी थे किन्तु मानवता के सुखद भविष्य के प्रति वे अत्यधिक आशावान थे। उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले ‘नोबेल फाउंडेशन ट्रस्ट’ की स्थापना संबंधी वसीयत की और नोबेल पुरस्कारों की पात्रता के संबंध में दिशा-निर्देश सुनिश्चित कर दिए थे। एक प्रचलित प्रसंग के अनुसार अलफ्रेड ने संभवतया नोबेल पुरस्कार शुरू न किये होते यदि सन् 1888 में उनकी नजर एक दिन उस ‘निधन-सूचना’ पर न पड़ती जिसमें त्रुटिवश उनके भाई एमिल नोबेल के बजाए उनका नाम छपा हुआ था। उस ‘निधन-सूचना’ में आगे लिखा हुआ था - ‘डायनामाइट सम्राट, जिन्होंने विस्फोटकों के उद्योग से अकूत संपत्ति अर्जित की।’ उसे को पढ़कर वे हतप्रभ रह गए थे। वे समझ गए थे कि भले ही उस ‘निधन-सूचना’ में उनका नाम गलती से छपा था किन्तु उसने इस सच को उजागर कर दिया कि दुनिया की नज़रों में उनकी हैसियत मौत के सौदागर से अधिक नहीं थी। लोग उन्हें हथियारों और विस्फोटकों के एक ऐसे निर्माता और विक्रेता के रूप में जानते हैं जिसके लिए जीवन का अर्थ सिर्फ अथाह दौलत कमाना रहा है। उन्हें पहली बार यह अहसास हुआ कि दुनिया उनके उन कार्यों से अनभिज्ञ है जो उन्होंने लोगों में राष्ट्रीयता, धर्म, तथा विचारों के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को समाप्त करने के लिए किए हैं। उनको महसूस हुआ कि अब उन्हें ऐसा कुछ करना होगा जिससे दुनिया को उनके जीवन के मूल्यों और उद्देश्यों की सही जानकारी हो सके और अपने इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने उस दौरान ही ‘नोबेल फाउंडेशन ट्रस्ट’ की स्थापना के बारे में सोचना शुरू कर दिया था।
बहरहाल, इस सन्दर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति इन पुरस्कारों को पा सकता है बशर्ते उसने उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट कार्य किया हो जिनके लिए ये पुरस्कार दिए जाते हैं। अलफ्रेड नोबेल के व्यक्तित्व की विशालता का एक पक्ष इस तथ्य से भी उजागर होता है कि उन्होंने इन पुरस्कारों को संप्रदाय, जाति, नागरिकता, और विचारधारा की संकीर्णताओं से मुक्त रखा है। सर नोबेल की मृत्यु 10 दिसंबर सन् 1896 के दिन इटली के सान रीमो नगर में हुई और जैसा कि प्रारंभ में उल्लेख किया गया है, प्रथम बार नोबेल पुरस्कार 10 दिसंबर सन् 1901 में वितरित किए गए। उल्लेखनीय है कि प्रारम्भ में नोबेल पुरस्कारों की सूची में कुल पांच विषय थे: भौतिकी, रसायन विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान अथवा आयुर्विज्ञान, साहित्य और शांति। अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार शुरू करने का श्रेय ‘द नेशनल बैंक ऑफ़ स्वीडन’ को जाता है जिसने अपनी स्थापना के तीन सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में इसके लिए जरूरी धन राशि प्रदान की। अर्थशास्त्र के पहले नोबेल पुरस्कार से 10 दिसंबर सन् 1969 में नॉर्वे के रैगनर एंतोन किटील फ्रिश (त्ंहदंत ।दजवद ज्ञपजजपस थ्तपेबी) और नीदरलैंड्स के यान टिनबेरगेन (श्रंद ज्पदइमतहमद) को सम्मानित किया गया। जहां तक अन्य नोबेल पुरस्कारों का सवाल है, सन 1901में भौतिकी का प्रथम नोबेल पुरस्कार जर्मन भौतिकविद् विलहेम्स कोनराट रॉन्टगेन (ॅपसीमसउ ब्वदतंक त्öदजहमद), रसायन विज्ञान का जैकोबस एच वांटहॉफ (श्रंबवइने भ्मदतपबने अंद श्ज भ्विि ), शरीरक्रिया विज्ञान अथवा आयुर्विज्ञान का एमिल फॉन बेहरिंग ( म्उपस अवद ठमीतपदह ), साहित्य का सुली प्रुधोम ( ैनससल च्तनकीवउउम) और शांति का पुरस्कार रेड क्रॉस के संस्थापक ज्यां हैरी दुनांत (भ्मदतप क्नदंदज) और फ्रेंच पीस सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष फ्रेडरिक पैसी (थ्तमकमतपब च्ंेेल ) को संयुक्त रूप से दिया गया। जहाँ तक विज्ञान विषयक नोबेल पुरस्कारों का सवाल है, उल्लेखनीय है कि भौतिकी का नोबेल पुरस्कार पाने वाले वैज्ञानिकों की संख्या अब 198 हो गई है। वर्ष 1901 से लेकर अब तक यह पुरस्कार 108 बार दिया गया है। दरअसल, जॉन बार्डीन को यह नोबेल दो बार (1956 एवं 1972) नवाजा गया है। यह पुरस्कार 47 अवसरों पर सिर्फ किसी एक वैज्ञानिक को, 31 अवसरों पर एक साथ दो वैज्ञानिकों को और 30 अवसरों पर संयुक्त रूप में तीन वैज्ञानिकों को नवाजा गया है। इस पुरस्कार के समय इसे पाने वाले सबसे कम आयु वाले वैज्ञानिक विलियम लॉरेंस ब्रैग थे। उन्हें यह पुरस्कार 25 वर्ष की आयु में सन 1915 में अपने पिता विलियम हेनरी ब्रैग के साथ दिया गया था । इस पुरस्कार को पाते समय सबसे अधिक आयु वाले वैज्ञानिक रेमंड डेविस जूनियर थे जिन्हें 88 वर्ष की आयु में सन 2002 में यह पुरस्कार दिया गया था । अब तक इस पुरस्कार से सम्मानित होने वाली महिला वैज्ञानिकों की संख्या सिर्फ 2 है। मॉरी क्यूरी (1903) और मारिया गोएपर्ट - मेयेर (1963), इन दोनों महिलाओं को यह पुरस्कार अन्य दूसरे वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से मिला था। उल्लेखनीय है कि रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार पाने वाले वैज्ञानिकों की संख्या अब 168 हो गई है। वर्ष 1901 से लेकर अब तक यह पुरस्कार 106 बार दिया गया है। दरअसल, ब्रिटिश वैज्ञानिक फ्रेडरिक सैंगर को यह नोबेल दोबारा (1958 एवं 1980) नवाजा गया है। यह पुरस्कार 63 अवसरों पर सिर्फ किसी एक वैज्ञानिक को, 23 अवसरों पर एक साथ दो वैज्ञानिकों को और 20 अवसरों पर संयुक्त रूप में तीन वैज्ञानिकों को नवाजा गया है। इस पुरस्कार के समय इसे पाने वाले सबसे कम आयु वाले वैज्ञानिक फ्रेडेरिक जूलियट (जूलिए) थे। उन्हें यह पुरस्कार 35 वर्ष की आयु में सन 1935 में दिया गया था। इस पुरस्कार को पाते समय सबसे अधिक आयु वाले वैज्ञानिक जॉन बी फेन थे जिन्हें 85 वर्ष की आयु में सन 2002 में यह पुरस्कार दिया गया था। वर्ष 2014 तक इस पुरस्कार से सम्मानित होने वाली महिला वैज्ञानिकों की संख्या 4 है। मॉरी क्यूरी (1911) और डोरोथी सी हॉजकिन (1964), इन दोनों महिलाओं को यह पुरस्कार अकेले मिला है। अमेरिकी रसायन शास्त्री लीनस पाउलिंग एकमात्र वैज्ञानिक हैं जिन्हें दो बार नोबेल पुरस्कार बिना किसी के साथ साझा किए प्राप्त हुआ। लीनस पाउलिंग को वर्ष 1954 में पहली बार रसायन के क्षेत्र में जबकि दूसरी बार वर्ष 1962 में शान्ति के क्षेत्र में प्रदान किया गया। विज्ञान का तीसरा पुरस्कार शरीरक्रिया अथवा आयुर्विज्ञान में उच्च स्तरीय अनुसंधान कार्य के लिए दिया जाता है। इस नोबेल पुरस्कार को पाने वाले वैज्ञानिकों की संख्या अब 207 हो गई है। वर्ष 1901 से लेकर अब तक यह पुरस्कार 105 बार दिया गया है। यह पुरस्कार 38 अवसरों पर सिर्फ किसी एक वैज्ञानिक को, 32 अवसरों पर एक साथ दो वैज्ञानिकों को और 35 अवसरों पर संयुक्त रूप में तीन वैज्ञानिकों को नवाजा गया है। इस पुरस्कार के समय इसे पाने वाले सबसे कम आयु वाले वैज्ञानिक फ्रेडेरिक ग्रांट बेंटिंग
(थ्तमकमतपबा ळतंदज ठंदजपदह) थे। उन्हें यह पुरस्कार 32 वर्ष की आयु में सन 1923 में इंसुलिन की खोज के लिए दिया गया था। इस पुरस्कार को पाते समय सबसे अधिक आयु वाले वैज्ञानिक पेटों रौस (च्मलजवद त्वने) थे जिन्हें 87 वर्ष की आयु में सन 1966 में ट्यूमर पैदा करने वाले विषाणुओं की खोज संबंधी शोध के लिए यह पुरस्कार दिया गया था। अब तक इस पुरस्कार से सम्मानित होने वाली महिला वैज्ञानिकों की संख्या 11 है। इसमें बारबरा मैक्लिंटॉक अकेली ऐसी महिला हैं जिन्हें अपना पुरस्कार बांटना नहीं पड़ा। उल्लेखनीय है कि मोजर दंपति नोबेल पुरस्कार से नवाजे जाने वाले पांचवें दंपति हैं। उनसे पहले मेरी क्यूरी और उनके पति पेरी क्यूरी, मेरी क्यूरी की बेटी इरिन जोलियो क्यूरी तथा उनके पति फ्रेडरिक क्यूरी, गर्टी कोरी और उनके पति कार्ल कोरी तथा अल्वा मिरदाल और गुन्नर मिरदाल को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है।
बहरहाल, जहां तक वर्ष 2014 के भौतिकी नोबेल पुरस्कार का सवाल है, यह पुरस्कार जापानी वैज्ञानिक इसामू अकासाकी ( प्ेंउन ।ांेंाप), हिरोशी अमानो (भ्पतवेीप ।उंदव) और जापानी मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक शुजी नाकामुरा (ैीनरप छंांउनतं) को नीले प्रकाश उत्सर्जित करने वाले डायोड के आविष्कार के लिए नवाजा गया है। रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ़ साइंसेज के अनुसार ये डायोड ऐसे प्रकाश स्रोत युक्तियों में इस्तेमाल हो रहे हैं जो ऊर्जा सक्षम एवं पर्यावरण के अनुकूल हैं। नोबेल समिति ने कहा कि इन तीन वैज्ञानिकों ने 1990 के दशक में सेमीकंडक्टर से तेज नीला प्रकाश पैदा कर प्रकाश तकनीक का रूपांतरण कर दिया है। आज नीले प्रकाश का इस्तेमाल कर सफेद प्रकाश का उत्सर्जन करने वाले लाइट एमिटिंग डायोड (एलईडी) लैम्प का नए तरीके से निर्माण किया जा सकता है। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि डायोड एक वैद्युत युक्ति है। अधिकांशतः डायोड दो सिरों (अग्र) वाले होते हैं किन्तु ताप-आयनिक डायोड में दो अतिरिक्त सिरे भी होते हैं जिनसे हीटर जुड़ा होता है। डायोड कई तरह के होते हैं किन्तु इन सबकी प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक दिशा में धारा को बहुत कम प्रतिरोध के बहने देते हैं जबकि दूसरी दिशा में धारा के विरुद्ध बहुत प्रतिरोध लगाते हैं। इनकी इसी विशेषता के कारण ये अन्य कार्यों के अलावा प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धारा के रूप में बदलने के लिये दिष्टकारी परिपथों में प्रयोग किये जाते हैं। आजकल के परिपथों में अर्धचालक डायोड, अन्य डायोडों की तुलना में बहुत अधिक प्रयोग किये जाते हैं। प्रत्यावर्ती धारा वह धारा है जो किसी विद्युत परिपथ में अपनी दिशा बदलती रहती हैं। इसके विपरीत दिष्ट धारा समय के साथ अपनी दिशा नहीं बदलती है। इन नोबेल विजेताओं की उपलब्धियों के संबंध में चामर्स यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्नॉलॉजी, गोतेनबोर्ग (योते बॉर्य) के माइक्रोटेक्नॉलॉजी एंड नैनोसाइंस डिपार्टमेंट के प्रोफ़ेसर और नोबेल समिति के सदस्य पेर डेलसिंग (च्मत क्मसेपदह ) के अनुसार दिलचस्प तथ्य यह है कि ‘तमाम बड़ी कंपनियां एलईडी का आविष्कार करने की कोशिश कर रही थीं और उनको विफलता मिली।’ उन्होंने नोबेल जीतने वाले वैज्ञानिकों के समर्पण पर ज़ोर देते हुए कहा, ‘लेकिन ये वैज्ञानिक लगे रहे और बार-बार कोशिशों से अंततः उनको इस आविष्कार में सफलता मिली।’
वर्ष 2014 का रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार ‘अतिसूक्ष्म चीजों को देखने के लिए बेहद शक्तिशाली ‘फ्लुओरेसेंस माइक्रोस्कोपी’ का विकास करने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक एरिक बेट्जिग ( म्तपब ठमज्रपह ) और विलियम ई मोएर्नेर ( ॅपससपंउ म्. डवमतदमत ) तथा जर्मन वैज्ञानिक स्टीफन डब्ल्यू हेल (ैजमंिद ॅ. भ्मसस) को संयुक्त रूप से दिया गया है। ‘द रॉयल स्वीडिश अकाडमी ऑफ साइंसेज’ ने कहा कि इन तीन वैज्ञानिकों के कार्य ने परंपरागत आप्टिकल माइक्रोस्कोपी के अधिकतम रिजॉल्यूशन को पीछे छोड़ दिया। अकादमी ने कहा, ‘‘उनके इस अभूतपूर्व कार्य ने ऑप्टीकल माइक्रोस्कोपी को अति सूक्ष्म रूप में ला दिया है।’’ बिट्जिग वर्जीनिया के एशबर्न स्थित होवार्ड ह्यूजेज मेडिकल इंस्टीट्यूट में हैं। हेल जर्मनी के गॉटिंगेन स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉरबायोफिजिकल केमिस्ट्री के निदेशक हैं। वहीं मोएर्नेर कैलिफोर्निया स्थित स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था रॉयल स्वीडिश अकादमी ऑफ साइंसेज’ ने अपनी घोषणा में कहा कि लंबे समय तक ऑप्टिकल माइक्रोस्कोपी बेहतर रिजोल्यूशन हासिल नहीं कर सकी थी। इन वैज्ञानिकों ने फ्लुओरेसेंस माइक्रोस्कोपी की मदद से इस बाधा को दूर कर दिया और ऑप्टिकल माइक्रोस्कोपी को बहुत सूक्ष्म रूप में ला दिया। इस तकनीक को सुपर रिजॉल्व्ड फ्लुओरेसेंस माइक्रोस्कोपी कहा जाता है। इसे सामान्यतः नैनोस्कोपी के नाम से जाना जाता है। अपनी खोज पर नोबेल पुरस्कार मिलने से ये तीन वैज्ञानिक काफी खुश हैं। हेल ने कहा कि वह खबर सुनते ही आश्चर्यचकित रह गए। इस पर विश्वास ही नहीं हो रहा है। मोएर्नेर ने कहा कि वह हेल और बेट्जिग, सभी बहुत ही खुश और रोमांचित हैं। नैनोस्कोपी से पार्किंसन, अल्जाइमर, हंटिंगटन जैसी बीमारियों का इलाज किया जा सकता है। मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं के बीच अणु अंतरग्रंथियों को किस तरह उत्पन्न करते हैं, देखा जा सकता है।
वर्ष 2014 का शरीर क्रिया विज्ञान अथवा आयुर्विज्ञान का नोबेल पुरस्कार ब्रिटिश- अमेरिकी शोधकर्ता जॉन ओ कीफ (श्रवीद व्श्ज्ञमममि), और नॉर्वे के एक दंपति एडवर्ड मोजर (म्कअंतक डवेमत ) और मे-ब्रिट मोजर (डंल.ठतपजज डवेमत) को नवाजा गया है । स्वीडन स्थित ‘रॉयल केरोलिंस्का मेडिको-सर्जिकल इंस्टीट्यूट’ द्वारा जारी विज्ञप्ति में यह जानकारी दी गई है कि इन वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क के ‘भीतरी जीपीएस’ की खोज की है। इसकी मदद से ही हमारा मस्तिष्क दिक् (स्पेस) के अनुरूप अपने आप को ढाल पाता है। दरअसल, इन वैज्ञानिकों ने अपने शोध कार्यों से एक ऐसी पुरानी गुत्थी को सुलझा दिया है, जिससे दार्शनिक और वैज्ञानिक सदियों से जूझ रहे थे। निर्णायक मंडल ने आगे कहा, ‘‘मस्तिष्क के ‘पोजिशनिंग सिस्टम’ की जानकारी से हमें दिक् (स्पेस) संबंधी स्मृति का लोप हो जाने की समस्या को जानने की प्रणाली का पता लगाने में मदद मिलती है। इसी स्मृति के लोप होने से लोग अल्जाइमर रोग से ग्रसित हो जाते हैं।’’ बहरहाल, इन तीन वैज्ञानिकों को इस पुरस्कार के तहत स्वर्ण पदक, प्रशस्ति पत्र, और पुरस्कार राशि से 10 दिसंबर, 2014 के दिन स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में सम्मानित किया गया है। पुरस्कार के रूप में मिलने वाली 80 लाख स्वीडिश क्रोनर (11 लाख अमेरिकी डॉलर) की राशि का आधा हिस्सा जॉन ओ कीफ को तथा शेष राशि मोजर दंपति को प्रदान की गई है। इन तीन वैज्ञानिकों द्वारा किए शोध कार्यों की बदौलत हमें अपने मस्तिष्क की ‘स्थिति निर्धारण प्रणाली’ को समझने में मदद मिली है।
दरअसल, हम यह कैसे जानते हैं कि किसी समय विशेष के दौरान हम कहाँ और कैसी जगह पर हैं? जटिल परिस्थितियों में भी हम अपने लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने का रास्ता कैसे चुनते हैं? और यदि हमें किसी रास्ते पर फिर से जाना हो तो हमारा मस्तिष्क इस सूचना का इस्तेमाल कैसे करता है? वर्ष 2014 के इन तीन नोबेल विजेताओं ने इन सवालों का जवाब खोजने के दौरान मानव और अन्य दूसरे प्राणियों के मस्तिष्क में मौजूद उन तंत्रिका कोशिकाओं का पता चलाया है जो आपसी तालमेल से मस्तिष्क के अंदर उस ‘जैविक जी.पी.एस.’ की संरचना करते हैं जो प्राणियों को किसी स्थान विशेष में अपनी स्थिति तथा वहां से अपना मार्ग तय करने संबंधी आकलन करने में मदद करता है। वर्ष 1971 में जॉन ओ कीफ ने इस ‘स्थिति निर्धारण प्रणाली’ से संबंधित पहले घटक को समझा। उन्होंने चूहों में किये प्रयोगों के दौरान देखा कि जब चूहा किसी कमरे में एक विशेष जगह पर होता है तो उसके दिमाग के हिप्पोकैंपस क्षेत्र में सदैव कुछ विशिष्ट तंत्रिका कोशिकाएं सक्रिय होती हैं। स्थान में परिवर्तन होते ही हिप्पोकैंपस क्षेत्र में कुछ दूसरी तंत्रिका कोशिकाएं सक्रिय होती हैं। इन कोशिकाओं को ‘प्लेस सेल्स’ कहते हैं और इनकी खोज का श्रेय जॉन ओ कीफ को जाता है। ओ कीफ के अनुसार ये कोशिकाएं दिमाग में उस स्थान विशेष का नक्शा बनाने का कार्य करती हैं जहां वह किसी समय काल के दौरान होता है। अब तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार हिप्पोकैम्पस मानव तथा अन्य स्तनधारियों के मस्तिष्क का एक प्रमुख घटक है। यह लिम्बिक प्रणाली का भाग है तथा दीर्घकालीन स्मृति एवं स्थानिक दिशा-निर्देशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बहरहाल, वर्ष 2005 में नॉर्वे के एक दंपति मे-ब्रिट मोजर और उनके पति एडर्वड मोजर ने चूहों के मस्तिष्क के ‘पृष्ठमध्यस्थ अन्तर्नासीय कॉर्टेक्स ( कवतेवउमकपंस मदजवतीपदंस बवतजमग) में ‘स्थिति निर्धारण प्रणाली’ से जुड़ी दूसरी महत्वपूर्ण तंत्रिका कोशिकाओं के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि ‘ग्रिड सेल्स’ नामक ये कोशिकाएं प्राणियों में सटीक स्थिति निर्धारण और दिशा ज्ञान में अहम भूमिका निभाती हैं। इन वैज्ञानिकों के द्वारा किये शोध कार्यों की बदौलत हमें यह ज्ञात हो पाया कि प्लेस सेल्स और ग्रिड सेल्स हमें किसी स्थान विशेष के नक्शे और वहाँ से बाहर निकलने के लिए अपना मार्ग तय करने में मदद करते हैं।
यहाँ यह जानकारी देना समीचीन होगा कि किसी वर्ष के लिए दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकन की अंतिम तिथि उस वर्ष के जनवरी माह की 31 तारीख सुनिश्चित की गई है। नामांकन के लिए कुछ शर्तें हैं जिनका पालन करना अनिवार्य है। पुरस्कारों की घोषणा 15 नवंबर तक हो जानी चाहिए। शांति का नोबेल पुरस्कार नॉर्वे की राजधानी ऑस्लो तथा शेष नोबेल पुरस्कार स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में आयोजित भव्य समारोहों में प्रदान किये जाते हैं। नोबेल पुरस्कारों में प्रशस्ति पत्र, पदक और नकद राशि की व्यवस्था है। वर्ष 2014 में प्रत्येक नोबेल पुरस्कार के लिए 80 लाख स्वीडिश क्रोनर (11 लाख अमेरिकी डॉलर) की राशि निर्धारित की गई थी। जब कोई पुरस्कार एक से अधिक व्यक्तियों या संस्थाओं को मिलता है, तब इस राशि का नियमानुसार विभाजन किया जाता है।
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