ऐतिहासिक पृष्ठ


भारतीय परमाणु कार्यक्रम के कुशल वास्तुशिल्पी

डॉ. राजा रामण्णा

शुकदेव प्रसाद
 
 
18 मई, 1974 की प्रातः 8 बजकर 5 मिनट पर राजस्थान की मरूभूमि, पोखरण क्षेत्र में, भारत ने अपना प्रथम भूमिगत परमाणु परीक्षण सम्पन्न किया और क्षण भर में ही पांच शक्ति राष्ट्रों के वर्चस्व को समाप्त कर विश्व मंच पर प्रतिष्ठ हो गया। इस ऐतिहासिक घटना को अंजाम देने में यद्यपि देश के प्रातिभ विज्ञानियों की पूरी एक टोली का हाथ था लेकिन इसका प्रतिनिधित्व दो वरेण्य विज्ञानियों ने किया था - डॉ. होमी नौसेरवानजी सेठना (परमाणु ऊर्जा आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष) और डॉ. राजा रामण्णा जो उस समय भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई के निदेशक थे। दोनों परमाणु विज्ञानी भी रातों रात अंतर्राष्ट्रीय सितारे बन गए लेकिन यह सारा चमत्कार कोई एक दिन का खेल न था, इसके पीछे वर्षों की नष्ठा, लगन और कुछ कर दिखाने की तमन्ना थी और इस समर्पण भाव ने एक दिन अपना रंग भी दिखाया।
राजा रामण्णा की चर्चा करते हुए प्रायः उन्हें देश के प्रथम परमाणु परीक्षण के सूत्रधार के ही रूप में देखा जाता है जो तर्क संगत नहीं है। भला जिस विज्ञानी ने प्रायः चार दशकों (1949-87) तक देश के परमाणु कार्यक्रमों में कुशल सज्जाकार की भूमिका का निर्वहन किया हो, उसकी दक्षता को हम मात्र देश के परमाणु परीक्षण से जोड़कर कैसे उसकी सेवाओं का आकलन कर सकते हैं? राजा रामण्णा भारत के परमाणु कार्यक्रम के अनिवार्य और अभिन्न अंग थे, परमाणु पितामह डॉ. होमी जहाँगीर भाभा के उत्तराधिकारी तो थे ही। वस्तुतः सच यह है कि इस परिघटना (परमाणु परीक्षण) के बहुत-बहुत पहले ही वे एक प्रखर परमाणु भौतिकविद् और रिएक्टर भौतिकी के अप्रतिम विज्ञानी के रूप में अंतर्राष्ट्रीय यशस्विता अर्जित कर चुके थे। भारत का एक मेगावाट क्षमता वाला (तरणताल किस्म का) पहला रिएक्टर अप्सरा 1956 में निर्मित हुआ था। इसके अभिकल्पन, संरचना के विभिन्न पहलुओं से राजा रामण्णा गहन रूप से संबद्ध थे। अप्सरा के निर्माण के दौरान रामण्णा ने न्यूट्रान तापीयन की प्रक्रिया का अध्ययन किया जिससे आधारभूत अनुसंधानों के लिए प्रभूत मात्रा में तापीय न्यूट्रान पुंजों की प्राप्ति संभव हुई। फिर रामण्णा ने यूरेनियम-235 के तापीय न्यूट्रॉन प्रेरित विखंडन से उत्सर्जित द्वितीयक विकिरणों के प्रायोगिक संधान का कार्यक्रम बनाया और इस क्षेत्र में उन्होंने खासी ख्याति अर्जित की। वस्तुतः रामण्णा पोखरण परीक्षण के पूर्व ही न्यूक्लीय विखंडन परिघटना और न्यूट्रॉन तापीयन में अपने अनुसंधान के लिए प्रख्यात हो चुके थे। उन्होंने भारी न्यूक्लीयों के विखंडन का एक नया सिद्धांत 1964 में प्रस्तुत किया था जो कई असंबद्ध तथ्यों की व्याख्या करता है। उन्होंने अपने सिद्धांत में उद्घाटित किया कि आखिर कैसे भारी नाभिक विखंडित होकर उग्र आण्विक विकिरण प्रदान करता है? इस नवीन संकल्पना ने नाभिकीय भौतिकी की कई व्यावहारिक समस्याओं के उद्घाटन हेतु नवीन पट खोले।
 
रिएक्टर भौतिकी के प्रणेता
राजा रामण्णा ‘अप्सरा’ के निर्माण के पूर्व ही भारत के परमाणु विज्ञानियों के टोली के प्रमुख सदस्य बन गए थे। 1953 में उन्हें डॉ। भाभा का स्नेह सानिध्य मिल गया था जब उन्होंने परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान के भौतिकी दल के निदेशक के रूप में इसे ज्वाइन कर लिया था। बाद में डॉ. भाभा के निधन के बाद, जनवरी 1967 में इसका नाम श्रीमती गांधी ने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र रख दिया था। ‘अप्सरा’ से लेकर ‘ध्रुव’ और फास्ट ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर तक के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी (जब तक वे ‘बार्क’ में रहे)। उसके बाद भारत ने और भी रिएक्टर बनाया। वस्तुतः ट्रांबे में निर्मित होने वाले अधिकांश रिएक्टरों की रूपरेखा तैयार करने में उन्होंने कुशल सज्जाकार की भूमिका का निर्वहन किया और वे इन रिएक्टरों के कई क्षेत्रों में अनुसंधान के प्रभारी भी रहे हैं। वे रिएक्टर भौतिकी के कुशल जादूगर थे जिसका परमाणु शक्ति जनन की दिशा में व्यावहारिक लाभ राष्ट्र को मिला।
 
वैज्ञानिक कैरियर
बी. रामण्णा और रुक्मिणी मालती की संतान राजा रामण्णा का जन्म तमकुर, कर्माटक में 28 जनवरी, 1925 को हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षाएँ मैसूर और बंगलोर में संपन्न हुई। तत्पश्चात उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कालेज, तंबारम से भौतिकी में बी। एस-सी। (आनर्स) की उपाधि अर्जित की और टाटा स्कालर के रूप में शोध के लिए इंग्लैंड गए। किंग्स कालेज, लंदन से उन्होंने 1948 में डाक्टोरेट की उपाधि अर्जित की। 1949 में स्वदेश आगमन पर टाटा आधारभूत अनुसंधान संस्थान, मुंबई से फैकल्टी मेंबर (प्रोफेसर) के रूप में जुड़ कर उन्होंने परमाणु भौतिकी में अपने कैरियर की शुरूआत की। स्मरण रहे कि उस समय इस अभिनव विज्ञान के जानकार देश में इक्के-दुक्के लोग ही थे।
डॉ. रामण्णा 1953 में भौतिक दल के निदेशक के रूप में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, ट्रांबे (मुंबई) चले गए (तब इसका नाम परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान था) जहां उन्हें देश के परमाणु पितामह डॉ। होमी जहांगीर भाभा का सानिध्य मिला और वहीं पर भाभा के निर्देशन में देश के परमाणु कार्यक्रमों के कुशल वास्तुशिल्पी के रूप में रामण्णा उभरे और उनकी ख्याति चतुर्दिक फैलने लगी। बार्क में कार्य करने के दौरान उन्होंने डॉ. भाभा के साथ 1957 में ‘बार्क ट्रेनिंग स्कूल’ आरंभ किया ताकि नाभिकीय भौतिकी जैसे प्रगत प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेषज्ञों की एक पूरी जमात खड़ी की जा सके। इसमें वे सफल भी हुए। उक्त ट्रेनिंग स्कूल में प्रतिवर्ष 200 तरुण विज्ञानियों और इंजीनियरों को साल भर तक प्रशिक्षण दिया जाता था और शीघ्र ही उन्हें प्रयोगशालाओं और देश की विभिन्न परियोजनाओं में समाहित कर लिया जाता था। डॉ. रामण्णा ने जिस नन्हें बीज को रोपा था, उसने परमाणु भौतिकी जगत के विशेषज्ञों की कई पीढि़याँ तैयार की हैं जो आज भाभा, साराभाई, सेठना, रामण्णा के संजोये सपनों को साकार कर रही हैं। रामण्णा के बाद बार्क और परमाणु ऊर्जा आयोग की कमान संभाली पी। के। आयंगर ने जो एम.एस-सी. करने के बाद 1952 से ही रामण्णा के सानिध्य में रहे हैं। डॉ। रामण्णा द्वारा 1957 में स्थापित बार्क ट्रेनिंग स्कूल आज भी उसी त्वरा से कार्यशील है और देश के भावी विज्ञानियों को साज और संवार रहा है।
जनवरी, 1966 में एक हवाई दुर्घटना में डॉ। भाभा दुःखद निधन हो गया तो देश के परमाणु कार्यक्रम के लिए यह एक संक्रमणकालीन बेला थी। निस्संदेह उस संशयपूर्ण क्षण में भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रमों के जनक डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई ने इस गुरूतर उत्तरदायित्व को स्वीकारा और उन्होंने देश के अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों के लिए दो दशकों की रूपरेखा निर्मित की। प्रबल मेधा के धनी साराभाई ने जो दृष्टिकोण पत्र तैयार किया था, वही भावी कार्यक्रमों का दिशा निर्देशक था जिसने आज भारत के भाल को उन्नत कर दिया है। बेशक साराभाई अपने सपनों को साकार होता देखने के लिए नहीं रहे, दिसम्बर, 1971 में एक राकेट का निर्देशन करने के बाद रात में श्रीहरिकोटा में सोए तो सोए ही रह गए। यह देश के वैज्ञानिक भविष्य के लिए वज्राघात था। फिर सेठना और रामण्णा ने साराभाई के सपनों में रंग भरा। अब तक अंतरिक्ष का कोई अलग विभाग भी नहीं बना था, सब कुछ डॉ. भाभा की देख-रेख में था लेकिन डॉ. साराभाई ने कभी भी हल्के स्वर में विरोध नहीं किया, भाभा साहब की इच्छा ही उनके लिए सर्वोपरि थी। दोनों में प्रबल मतैक्य था, दोनों तल स्पर्शी मेधा के धनी लेकिन कभी भी दुराव नहीं, उनके लिए राष्ट्र ही सर्वोपरि था और विज्ञान ही उनका धर्म था। साराभाई के तिरोधान के बाद 1972 में अंतरिक्ष आयोग और अंतरिक्ष विभाग अस्तित्व में आये और उनके समकालीनों एवं परिवर्तियों - प्रो.एम.जी. मेनन, प्रो. सतीश धवन (सबसे लंबी अवधि तक ‘इसरो’ के निदेशक), प्रो. ब्रह्म प्रकाश आदि ने साराभाई के अपूरित सपनों को पूरा ही नहीं किया अपितु अंतरिक्ष कार्यक्रम को बुलंदियों तक पहुँचा दिया।
देश की वैज्ञानिक प्रगति की चर्चा करते समय हम परमाणु और अंतरिक्ष कार्यक्रम को भिन्न नहीं कर सकते क्योंकि दोनों कार्यक्रमों का समान्तर रूप से विकास भाभा और साराभाई के निजी प्रयासों, निजी पूंजी और अभिरूचि से हुआ था और सुदीर्घ अवधि तक डॉ। भाभा (परमाणु ऊर्जा आयोग) की देख-रेख में ही शनैः शनैः अंतरिक्ष कार्यक्रमों की रूपरेखा निर्मित हो रही थी, साराभाई के जीवनकाल में ‘इन्कोस्पार’ (1962) और ‘इसरो’ (1969) की स्थापनाएँ हो चुकी थीं लेकिन स्वतंत्र रूप से विभाग और आयोग गठित होने बाकी थे।
देश के भावी परमाणु विज्ञानियों का दल निर्मित करने की दिशा में डॉ. भाभा की टी.आई.एफ.आर. ने जो कार्य किया, वैसा ही कार्य डॉ. साराभाई द्वारा अहमादाबाद (1948) में स्थापित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला ने किया और आगे चलकर पी.आर.एल. देश के अंतरिक्ष संधान की मातृ संस्था बन गई।
इस प्रकार भाभा और साराभाई दोनों ने इतने प्रशिक्षु तैयार कर दिए थे कि वे भावी कार्यक्रमों का कुशल संचालन कर सकते थे और ऐसा ही हुई। प्रतिफल यही है कि चाहे परमाणु संधान हो या कि अंतरिक्ष और रक्षा, सभी क्षेत्रों में भारत ने अपनी दक्षता सिद्ध कर दी है और इस प्रतिस्पर्धी विश्व में उसने एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया है जो हमारे लिए गौरव की बात है।
विगत शती के सातवें दशक के आरंभिक वर्षों में सरकार परमाणु क्षेत्र के लिए एक नियामक एजेंसी की स्थापना के लिए प्रयासरस थी लेकिन यह कार्य तब तक मंथर गति से चलता रहा जब तक कि डॉ. रामण्णा ने इसमें दिलचस्पी न ली। नवंबर, 1983 में डॉ। रामण्णा के प्रयासों से परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के गठन का मार्ग प्रशस्त हो गया और 1985 में बोर्ड की स्थापना हुई। उक्त बोर्ड देश के परमाणु उपक्रमों में सुरक्षा और नियामक क्रियाओं की देखभाल करता है और परमाणु ऊर्जा आयोग को अपनी रपट भेजता है।
 
प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को भी दिशा
इस तथ्य की लोगों को कम जानकारी है कि वर्षों से मंद और ठप पड़ चुके देश के प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम में भी रामण्णा ने ही जान फूँकी थी और उसे त्वरा प्रदान की थी। प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए रामण्णा ने ही ए.पी.जे। अब्दुल कलाम (एस.एल.वी.-3 राकेट के परियोजना निदेशक) का चयन किया था। कलाम को डी.आर.डी.एल। के निदेशक की जो कमान सौंपी गई, उसके पीछे प्रेरक की भूमिका प्रो। राजा रामण्णा की ही थी। इस अवसर पर देश के ‘मिसाइल मैन’ कलाम को ही उधृत करना प्रासंगिक होगा -
डी.आर.डी.ओ. में किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो मिसाइल कार्यक्रम का नेतृत्व कर सके। मिसाइल डिजाइन से लेकर परीक्षण तक का सारा काम बंद पड़ा था। प्रो। रामण्णा ने मुझसे साफ-साफ पूछा कि क्या मैं डी.आर.डी.एल। में जाना पसंद करूंगा और एकीकृत निर्देशित प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम ;प्ळडक्च्द्ध को आकार देने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेना चाहूंगा। प्रो। रामण्णा के इस प्रस्ताव ने मेरे भीतर भावनाएं जगा दी थीं। मुझे राकेट विज्ञान के अपने ज्ञान को सामने रखने और उसके प्रयोग का फिर दुबारा ऐसा अवसर कब मिलेगा?’
प्रो. रामण्णा के मन में मेरे लिए जो श्रद्धा थी, उससे मैं अपने को सम्मानित महसूस कर रहा था। पोखरण परमाणु परीक्षण के पीछे वह ही मार्गदर्शक प्रेरणा-स्रोत थे। मैं काफी रोमांचित था कि प्रो। रामण्णा ने भारत की तकनीकी क्षमता को दुनिया को बताने में मदद की थी। मुझे पता था कि मैं उन्हें मना नहीं कर पाऊंगा। प्रो। रामण्णा ने मुझे इस बारे में प्रो। धवन से बात करने की सलाह दी, ताकि वे इसरो से डी.आर.डी.एल. में मेरे तबादले की रूपरेखा बना सकें।
कई महीने गुजर गए। इसरो और डी.आर.डी.ओ. के बीच पत्र व्यवहार चलता रहा। रामण्णा साहब रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के पद से अवकाश मुक्त हो चुके थे और उनकी जगह ली थी वी.एस। अरूणाचलम् ने जो डिफेंस मेटलर्जिकल रिसर्च लैब के निदेशक थे। अंततोगत्वा फरवरी, 1982 में कलाम को रक्षा अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशाला (डी.आर.डी.एल.), हैदराबाद का निदेशक बनाया गया। इसके पीछे तत्कालीन रक्षा मंत्री आर। वेंकटरामन् (आगे चलकर देश के राष्ट्रपति बने) की प्रमुख भूमिका थी। भारतीय प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को रूपाकार देने के लिए अंततोगत्वा 27 जुलाई, 1983 को एकीकृत निर्देशित प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम ;प्ळडक्च्द्ध के गठन की औपचारिक घोषणा की गई और श्रीमती गांधी ने 388 करोड़ रूपये की आरंभिक अंश पूंजी के साथ भारतीय प्रक्षेपास्त्रों के विकास का बीजारोपण कर दिया। उन्हें इस कार्यक्रम में खासी दिलचस्पी थी। 19 जुलाई, 1984 को श्रीमती गांधी मिसाइल निर्माण की प्रगति का जायजा लेने डी.आर.डी.एल। में भी पधारीं लेकिन जब भारतीय प्रक्षेपास्त्र वजूद में आए तो वह रही नहीं। उनकी नृशंस हत्या कर दी गई थी।
प्रथम भारतीय प्रक्षेपास्त्र ‘त्रिशूल’ का परीक्षण 16 सितंबर, 1985 को श्रीहरिकोटा से किया गया था और कलाम और उनकें सहयोगियों ने मात्र 6 वर्षों की लघु अवधि में भारत की पांच प्रक्षेपास्त्र प्रणालियों - पृथ्वी, अग्नि, नाग, आकाश और त्रिशूल का सफल परीक्षण और विकास करके दिखा दिया। प्रो। रामण्णा ने भारतीय प्रक्षेपास्त्रों के विकास के लिए जिस महानायक कलाम का चयन किया था, वह ठीक ही था और उनके मापदंडों पर कलाम खरे ही नहीं उतरे अपितु इतिहास पुरूष बन गए। इस प्रकार देश के प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम को त्वरा देने में प्रो। रामण्णा के आरंभिक प्रयासों की हमें सराहना करनी ही चाहिए। उनकी दूरंदेशी ने इतिहास रचा और भारत प्रक्षेपास्त्र शक्ति बन गया।
 
सम्मान एवं अलंकरण
नाभिकीय भौतिकी में महत्वपूर्ण अवदानों के लिए उन्हें शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (1983), पद्मश्री (1968), पद्म भूषण (1973), पद्म विभूषण (1975), इन्सा का मेघनाद साहा पदक (1984), नेहरू अवार्ड फॉर इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलॉजी, म। प्र। सरकार (1983), ओम प्रकाश भसीन पुरस्कार (1985) से अलंकृत किया गया। मैसूर, मेरठ, धारवाड़, श्रीवेंकटेश्वर, सरदार पटेल आदि विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी। एस-सी। की मानद उपाधियां प्रदान की। डॉ। रामण्णा इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के सदस्य (1975-76), अध्यक्ष (1977-78) और अतिरिक्त सदस्य (1979-80) भी रहे और इस अवधि में देश के तरूण विज्ञानियों को दिशा-निर्देश देते रहे।
भारतीय विज्ञान समितियां भी उनका सम्मान करने में पीछे न रहीं। इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज, इंडियन सोसायटी ऑफ इंजीनियर्स, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी ने उन्हें अपना फेलो नामित किया। कमेटी फार स्टडी ऑफ सालिड स्टेट फिजिक्स, भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड के आप अध्यक्ष रहे तो नेहरू साइंस सेंटर के महासचिव के रूप में भी आपने अपनी सेवाएं प्रदान कीं। डॉ. रामण्णा परमाणु भौतिकी और रिएक्टर भौतिकी के शलाका पुरूष थे। उनकी यशस्विता ने अंतर्राष्ट्रीय क्षितिजों का भी संस्पर्श किया। उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी विएना और नार्वे के इंस्टीट्यूट ऑफ एटामिक एनर्जी द्वारा गठित नोरा समिति का भी अध्यक्ष बनाया गया था। अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के नाना पैनलों में उन्होंने विशेषज्ञ के रूप में सहभागिता की।
 
राष्ट्रीय सेवाएँ
डॉ. रामण्णा ने 1952 में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र ज्वाइन किया था। नाभिकीय भौतिकी और रिएक्टरों की डिजाइनिंग के क्षेत्र में उनके अप्रतिम योगदानों को दृष्टिगत कर उन्हें भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र का निदेशक (1972-78) बनाया गया। इसी अवधि में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ. एच.एन. सेठना और डॉ. रामण्णा की अगुवाई में भारत ने अपना प्रथम परमाणु परीक्षण (1974) अत्यंत दक्षता के साथ सम्पन्न किया था और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर एक शक्ति सम्पन्न राष्ट्र के रूप में उभरा। पाँच राष्ट्रों के परमाणु एकाधिकार का वर्चस्व समाप्त कर भारत भी उन्हीं में पांक्तेय हो गया था। अपनी मेधा के बल पर डॉ. रामण्णा भारत के शीर्ष परमाणु विज्ञानी बन गए और उन्हें परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष के शीर्ष और प्रतिष्ठ पद पर आसीन किया गया। इस पद पर वह 1983-1987 तक आसीन रहे। फिर भी उन्हें अभिमान छू तक नहीं गया था। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। विदेशों से उन्हें अनेकानेक लोभ और आकर्षण के आमंत्रण मिलते रहे लेकिन उन्होंने विनम्रता से उन्हें ठुकरा दिया और याज्जीवन राष्ट्र के प्रति शुभेच्छु बने रहे। वे 1978-83 तक रक्षा मंत्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार, डी.आर.डी.ओ. के महानिदेशक, रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के सचिव भी रहे। रक्षा राज्य मंत्री (जनवरी-नवंबर 1990) के रूप में उन्होंने राष्ट्र को अपनी सेवाएं अर्पित की। टाटा आधारभूत अनुसंधान संस्थान, मुंबई के अध्यक्ष के रूप में अपने देश के भावी तकनीकीविदों का कुशल मार्ग निर्देशन भी किया। वे राज्य सभा के नामित सदस्य (अगस्त 1997-अगस्त 2003 तक) भी रहे।
डॉ. रामण्णा की आंतों में संक्रमण के कारण उन्हें स्थानीय बांबे हास्पिटल, मुंबई में भर्ती किया गया था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। काल के क्रूर हाथों ने डॉ. रामण्णा को 79 वर्ष की वय में हमसे छीन लिया। 24 सितंबर, 2004 की भोर में 3:15 बजे उनका निधन हो गया। विश्व के परमाणु मानचित्र पर भारत की यशस्वी छवि निर्मित करने में डॉ. रामण्णा के योगदान अविस्मरणीय और उनकी स्मृतियां कालातीत हैं।
जिस तरह मानवीय मेधा के चरमोत्कर्ष, महाविज्ञानी, अल्बर्ट आइंस्टाइन को वायलिन वादन का शौक था, उसी तरह डॉ. रामण्णा भी पियानो वादन के शौकीन थे। उनकी संगीत, दर्शन, अध्यात्म में गहन रूचि थी। रामण्णा अपने पीछे अपनी पत्नी, पुत्र श्याम और दो पुत्रियों नीना तथा निरूपा को छोड़ गए हैं। उनकी पुत्रियां बड़ी शिद्दत से महसूस करती हैं कि उन्हें उनके पिता के हास-परिहास और पियानो की धुनों की कमी सालती रहेगी। संगीत में उनकी गहन अभिरूचि थी। उन्होंने संगीत पर कदाचित इसी नाते ‘दि स्ट्रक्चर ऑफ म्यूजिक इन राग एंड वेस्टर्न म्यूजिक’ शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी थी। डॉ. रामण्णा का संस्कृत भाषा के प्रति अगाध प्रेम था। उन्होंने ‘संस्कृत एड साइंस’ शीर्षक से एक लघु पुस्तिका भी लिखी थी (भारतीय विद्या भवन, मुंबई, 1984) जो उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक को उसके मुंबई प्रवास के दौरान भेंट की थी। यह पुस्तिका उनके विज्ञानोतिहास के अगाध ज्ञान की परिचायक है।
बहुत थोड़े से वैज्ञानिक हैं जिन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी है। डॉ. राजा रामण्णा की आत्मकथा ‘इयर्स ऑफ पिलिग्रिमेज : एन ऑटोबायोग्राफी’ (वाइकिंग, नई दिल्ली, 1991) शीर्षक से उपलब्ध है।’
मुझे इस बात का आत्म संतोष है कि विज्ञान ऋषि रामण्णा का आशीष मुझे मिला। 1984 में मुझे अंतरिक्ष विभाग की ओर से विक्रम साराभाई पुरस्कार प्रदान किया गया। उक्त समारोह ‘बार्क’ में ही आयोजित था। मेरे अनुरोध पर आचार्य ने ‘ध्रुव’ रिएक्टर दिखाने की मेरी बात मान ली, यद्यपि जन-साधारण के लिए इसकी मनाही है। फिर तो मेरे साथ के.आर. नारायणन् (उस समय के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री जो आगे चलकर देश के राष्ट्रपति भी बने) समेत कई लोगों ने इस दुर्लभ क्षण का लाभ उठाया। यद्यपि डॉ. रामण्णा उसी दिन दिल्ली की फ्लाइट पकड़ चुके थे। (कारण यह कि परमाणु ऊर्जा विभाग में इंजीनियर बनाम वैज्ञानिक का विवाद निपटाने के लिए राजीव गांधी ने उन्हें उसी दिन दिल्ली आमंत्रित किया था) फिर भी उनके सहयोगियों ने हमें रिएक्टर दर्शन कराया। आगे चलकर जब मैं इलेक्ट्रानिकी, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष विभाग की संयुक्त हिंदी सलाहकार समिति का गैर-सरकारी सदस्य नामित हुआ तो डॉ। रामण्णा और प्रो.यू.आर. राव का भी मुझे उसकी मीटिगों में सानिध्य मिलता रहा और उस अवसर का लाभ उठाकर मैंने बहुत सी बारीकियाँ उनसे सीखीं। एक विद्यार्थी की भांति कागज और कलम लेकर डॉ. रामण्णा ने मुझे बहुत सी तकनीकी पहलुओं को समक्षाया। उक्त क्षण मेरे जीवन के ऐसे स्वर्णिम पृष्ठ हैं जिनकी सुवास मैं आज भी महसूस करता हूँ।
 
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