विज्ञान


आर्यभट की आधुनिक खगोल वैज्ञाानिक दृष्टि

देवेंद्र मेवाड़ी

 

आर्यभट प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ तथा ज्योतिषी (खगोल विज्ञानी) थे जिन्होंने अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से आधुनिक भारतीय खगोल विज्ञान की नींव रखी। आर्यभट ने ‘आर्यभटीय’ ग्रंथ की रचना की जो गणित तथा ज्योतिष का श्रेष्ठ और प्रामाणिक ग्रंथ माना गया। इसकी प्रामाणिकता का ही परिणाम है कि ‘आर्यभटीय’ को सोलहवीं सदी के अंत तक गणित व खगोल विज्ञान के प्रमुख ग्रंथ के रूप में पढ़ा और पढ़ाया जाता रहा। आर्यभट के शिष्यों और अनुयायियों की लंबी परंपरा रही। अनेक विद्वानों ने सदियों तक इस ग्रंथ की टीका की। आर्यभट के परम अनुयायी भास्कर प्रथम उनके इस ग्रंथ को तप से प्राप्त किया हुआ बताते हैं। वे अपने लघु भास्करीय ग्रंथ में लिखते हैंः ‘उन आर्यभट की जय हो जिनका ज्योतिष शास्त्र बहुत काल तक सुदूर देशों में स्फुट फल देता है और जिनका सुंदर यशसागर के पार तक पहुच गया है। आर्यभट के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रहों की गति जानने में समर्थ नहीं है। अन्य लोग गहन अंधकार के समुद्र में घूम रहे हैं।’ असल में, प्रचलित सिद्धांत बहुत पुराने पड़ गए थे और उनसे सही गणनाएं करना संभव नहीं हो पा रहा था। उन दिनों पांच सिद्धांत प्रचलित थेः पैतामह सिद्धांत, वशिष्ठ सिद्धांत, पौलिशसिद्धांत, रोमक सिद्धांत तथा सौर सिद्धांत। इन पांचों सिद्धांतोंं से ग्रहों की गति व ग्रहण आदि की सही गणना करना संभव नहीं हो पा रहा था। आर्यभट के ‘आर्यभटीय’ ग्रंथ अर्थात् ‘आर्यसिद्धांत’ से यह संभव हो गया। इसीलिए आर्यभट के लिए यह भी कहा गया कि गणनाओं में जो दृष्टि वैशम्य था उसे दूर करने के लिए कलियुग में स्वयं सूर्य कुसुमपुर में आर्यभट के नाम से खगोलविद तथा कुलपति के रूप में अवतरित हुए। इस प्रकार उस काल में आर्यभट को अत्यधिक सम्मान प्राप्त था और उनकी ख्याति चतुर्दिक फैली।
    अनुमान है कि आर्यभट का जन्म शक संवत् 398 अर्थात् 476 ईस्वी में मगध की राजधानी के कुसुमपुर नामक स्थान में हुआ जो तब पाटलिपुत्र और आज बिहार राज्य में पटना कहलाता है। मौर्यकाल से ही पाटलिपुत्र एक प्रसिद्ध स्थान था। अपने जन्म स्थान के बारे में स्वयं आर्यभट ने लिखा हैः  
    ‘ब्रह्मकुशशिबुधभृगुरविकुजगुरूकोणभगणान्नमस्कृत्य।
    आर्यभटस्त्विह निगदति कुसुमपुरेऽभ्यर्चितं ज्ञानम्॥’ (गणितपाद, 1)
    अर्थात् ब्रह्मा, पृथ्वी, चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि तथा नक्षत्रों को नमस्कार करके आर्यभट इस कुसुमपुर (अर्थात् पाटलिपुत्र नगर मेंं) अतिशय पूजित ज्ञान का वर्णन करता है।
    इस आधार पर आर्यभट का जन्म स्थान कुसुमपुर अर्थात् पाटलिपुत्र (पटना) माना जाता है। आर्यभट ने अपने जन्म काल का संकेत भी ‘आर्यभटीय’ ग्रंथ के इस श्लोक में दिया हैः
शष्ट्यब्दानां शष्टिर्यदा व्यतीतास्त्रयश्य युगपादाः।
×यधिका विंशार्तरब्दास्तदेह मम जन्मनोऽतीताः॥
अर्थात्, साठ वर्षों की साथ अवधियां तथा युगों के तीन पाद व्यतीत हो गए थे जब मेरे जन्म के पश्चात् 23 वर्ष हो चुके थे।
    इसका अर्थ है कि सतयुग, त्रेता, द्वापर तीन युग व्यतीत हो जाने पर तथा  कलियुग के 3600 वर्ष व्यतीत होने पर उनकी आयु 23 वर्ष थी। भारतीय ज्योतिष के अनुसार शक संवत् का प्रारंभ 3179 कलियुग से होता है। आर्यभट जब 23 वर्ष के थे तो कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके थे। अर्थात् वे 3600-3179= 421 शक् में 23 वर्ष के थे। इसका मतलब उनका जन्म 421-23= 398 शक संवत् में हुआ। ईस्वी सन् के अनुसार यह 476 ई. होता है।
    आर्यभट के जन्म के समय गुप्तवंश के सम्राट बुधगुप्त का शासन चल रहा था। तब कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) विद्या अर्जित करने का महान केन्द्र था। सम्राट कुमार गुप्त ने नालंदा में विश्वविद्यालय की स्थापना की थी जहां दूर-दूर से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे। नालंदा विश्वविद्यालय की एक विशेषता यह भी थी कि वहां वेधशाला की भी स्थापना की गई थी। कई विद्वानों का मत है कि संभवतः आर्यभट ने भी नालंदा में शिक्षा प्राप्त की। गुप्त सम्राट इस विश्वविद्यालय को दान देते थे। विद्वानों को दान में ग्राम दिए जाते थे जिन्हें अग्रहार ग्राम कहा जाता था। विद्वत्जन इन ग्रामों से प्राप्त आमदनी का उपभोग करते और विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे। संभव है, आर्यभट ने भी इस प्रकार शिक्षा प्राप्त की हो और विद्यार्थियों को शिक्षा दी हो। आर्यभट को कुलप या कुलपति भी कहा गया है इसलिए यह भी संभव है कि वे नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे हों।
    आर्यभट रचित ग्रंथ ‘आर्यभटीय’ में गणित तथा ज्योतिषशास्त्र (खगोल विज्ञान) के विविध नियमों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ के चार खंड या पाद हैंः दशगीतिका, गणितपाद, कालक्रियापाद तथा गोलपाद। प्रथम खंड ‘दशगीतिका’ के पहले श्लोक में वे वंदना करते हुए कहते हैंः ‘जो ब्रह्मा कारण रूप से एक होते हुए भी कार्य रूप से अनेक है, जो सत्य देवता परम ब्रह्म अर्थात् जगत का मूल कारण है उसको मन, वाणी और कर्म से नमस्कार करके आर्यभट गणित, कालक्रिया और गोल इन तीनों का वर्णन करता है। इस खंड में अक्षरों से बड़ी संख्याएं लिखने की विधि, ब्रह्मा के एक दिन के परिणाम, वर्तमान दिन के बीते समय, आकाशीय पिंडों की गति (भगण), उनके मंद व शीध्र वृत्तों की परिधियों, उनकी कक्षाओं के झुकाव और 24 अर्धज्याओं के मान दिए गए हैं।
उदाहरण के लिए आर्यभट ने अक्षरों के लिए संख्याएं इस प्रकार निर्धारित की हैंः
                    अ = 1                ए = 10000000000
                    इ = 100            ऐ = 1000000000000
                    उ = 10000            ओे = 100000000000000
                    ऋ = 1000000            ऐ = 100000000000000
                    ऌ = 100000000
                    क = 1, ख = 2, ग = 3, घ = 4, ड.= 5, च = 6, छ = 7, ज = 8,
                    झ = 9, ा = 10, ट = 11, ठ = 12, ड = 13, ढ = 14, ण = 15,
                    त = 16, थ = 17, द = 18, ध = 19, न = 20, प = 21, फ = 22,
                    ब = 23, भ = 24, म = 25, य = 30, र = 40, ल = 50, व = 60,
                    भा = 70, श = 80, स = 90, ह = 100
    आर्यभट ने संख्याओं को संक्षेप में बताने के लिए इस विधि का प्रयोग किया ताकि ग्रहों की गति को थोड़े ही श्लोकों में बता सकें जैसेः
    काहो मनवो ढ मनु युग श्ख गतास्ते च मनु युग छ् ना च।
    कल्पादेर्युगपादा ग च गुरूदिवसाच्च भारतात्पूर्वम्॥
    अर्थात्, ब्रहमा के एक दिन (कल्प) में ढ = 14 मनु होते हैं। एक मन्वंतर में श = 70 + ख = 2 यानि 72 युग होते हैं। कल्प के प्रारंभ से महाभारत के अंतिम दिन बृहस्पतिवार तक च = 6 मनु, छ् ना = 27 युग तथा ग = 3 युग पाद व्यतीत हो चुके हैं। आर्यभट के अनुसार ब्रह्मा के एक दिन अर्थात् एक कल्प में 14 मनु द्भ 72 मन्वंतर अर्थात् 1008 युग होते हैं।
गणितपाद में गणित के साधारण नियमों, क्षेत्रफल व धनफल प्राप्त करने की विधियां, वृत्त में परिधि व व्यास के अनुपात आदि के बारे में बताया गया है। उदाहरण के लिए गणितपाद के दसवें श्लोक या आर्या में वृत्त की परिधि का आसन्न मान दिया गया हैः
    चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाशष्टिस्तथा सहस्त्राणाम्।
    अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥10॥
    अर्थात् सौ से चार अधिक (104) का आठ गुना (832) और बासठ सहस्त्र (62832) उस वृत्त की परिधि का आसन्न मान है जिसका व्यास 20ए000 है।
    कालक्रियापाद और गोलपाद में ज्योतिष (खगोल) के ज्ञान का वर्णन किया गया है। उन्होंने अपने जन्म के समय का उल्लेख क्रियाकालपाद की पूर्व वर्णित दसवीं आर्या में ही किया है कि साठ वर्षों की साठ अवधियां तथा युगों के तीन पाद व्यतीत हो गए जब आर्यभट के जन्म के पश्चात् 23 वर्ष हो चुके थे। कालक्रियापाद में उन्होंने यह भी बताया है कि युग, वर्ष, मास, दिवस, सभी का प्रारंभ एक ही समय चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हुआ। काल को उन्होंने अनादि और अनंत कहा है जिसका अनुमान आकाश में ग्रहों के गमन से किया जा सकता है। गोलपाद में ग्रहों की स्थिति या और गतियों का वर्णन किया गया है। एक आर्या में उन्होंने लिखा हैः पृथ्वी, चंद्रमा, बुध, शुक्र आदि ग्रह (चंद्रमा उपग्रह है) एवं तारापुंजों (वे अपने प्रकाश से प्रकाशित होते हैं) के गोला के आधे भाग अपनी छायाओं के कारण अंधकारमय होते हैं। जो आधे भाग सूर्य के सम्मुख होते हैं वे अपने आकार के अनुसार प्र्रकाशित होते हैं (गोलपाद, 5)। आज हम जानते हैं कि सूर्य से ग्रहों का केवल आधा भाग ही प्रकाशित नहीं होता लेकिन अंतर काफी कम होता है। तब न दूरबीनें थीं, न अन्य कोई साधन फिर भी आर्यभट ने ये अनुमान लगाए।
    आर्यभट ने आज से लगभग 1500 वर्ष पहले यह पता लगा लिया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। ‘आर्यभटीय’ में गोलपाद की नवीं आर्या में उन्होंने इसका रहस्योद्घाटन कियाः
    अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
    अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम॥9॥
    अर्थात्, जैसे नाव में बैठा हुआ कोई मनुष्य जब पूर्व दिशा में जाता है तो किनारे की स्थिर वस्तुओं को उल्टी (विलोम) दिशा में जाता हुआ अनुभव करता है। उसी तरह अचल तारागण लंका (शून्य भोगौलिक अक्षांश की स्थिति) में पश्चिम की ओर जाते प्रतीत होते हैं।
1863 में हेंड्रिक केर्न नामक विद्वान ने वाराहमिहिर रचित ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ की भट्ट उत्पल कृत टीका में आर्यभटीय की उक्त आर्या का उद्धरण पढ़ कर घोषणा की थी कि आर्यभट इस देश में प्रथम तथा संभवतः अकेले खगोलशास्त्री थे जिन्होंने पृथ्वी के अपने ही अक्ष पर घूमने का विचार व्यक्त किया। आर्यभट का यह विचार स्थापित मान्यताओं के खिलाफ था इसलिए ज्योतिषशास्त्रियों और विद्वानों ने इसका समर्थन नहीं किया। वे पृथ्वी को स्थिर मानने के विचार का ही प्रचार करते रहे। उस काल के विद्वान ज्योतिषियों ने अपने ग्रंथों में प्राचीन मत का ही समर्थन किया। इसलिए आर्यभट का यह वैज्ञानिक विचार सदियों तक दबाया जाता रहा। पश्चिम में हजार साल बाद कोपर्निकस इसी नतीजे पर पहुंचा। 1543 में उसकी पुस्तक छपने के बाद उसके विचारों को भी धार्मिक मान्यताओं के विरूद्ध माना गया। लेकिन, सच का वह सिद्धांत टिका रहा और अंततः उसे वैज्ञानिक सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया। भारतीय ज्योतिषशास्त्रियों ने महान खगोलशास्त्री आर्यभट का साथ नहीं दिया। गोलपाद की सैंतीसवीं आर्या में आर्याभट ने स्पष्ट वर्णन किया है कि सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण चंद्रमा तथा पृथ्वी की छाया के कारण होते हैंः

चंद्रोजलमर्कोग्निर्मृद् भूच्छायानि या तमस्तद्धि।
छादयति शशी सूर्यं शशिनं महती च भूच्छाया॥37॥
    अर्थात् चंद्रमा जल का बना है, सूर्य अग्नि का बना है, पृथ्वी मिट्टी की बनी है और छाया अंधकारमय है। सूर्य को चंद्रमा ढक लेता है (सूर्यग्रहण) और पृथ्वी की बड़ी छाया चंद्रमा को ढक लेती है (चंद्रग्रहण)।
    आर्यभट ने गोलपाद की अठतीसवीं आर्या में लिखा हैः ‘जब चंद्रमा स्फुट चांद्रमास के अंत में पात के समीप होता है तब वह सूर्य में प्रवेश करता है। तब अधिककालिक अथवा अल्पकालिक सूर्यग्रहण का मध्य होता है। इसी प्रकार पक्ष के अंत में जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है तब चंद्रग्रहण होता है।  
    उस काल में विभिन्न ज्योतिषी यह मानते थे कि सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण राहु के कारण होते हैं। आर्यभट का यह कहना कि ग्रहण चंद्रमा और पृथ्वी की छाया के कारण होते हैं, एक क्रांतिकारी विचार था। परंपरावादी ज्योतिषी इस विचार का भी विरोध करते रहे। इस अंधविश्वास की जड़े आज भी समाज में फैली हुई हैं जबकि आर्यभट ने डेढ़ हजार वर्ष से भी पहले ग्रहणों की सच्चाई सामने रख दी थी।
    ‘गोलपाद’ की अंतिम आर्याओं मं आर्यभट कहते हैं कि जो यथार्थ ज्ञान का उत्तम रत्न यथार्थ ज्ञान और मिथ्या ज्ञान के समुद्र में डूबा हुआ था उसे मैंने देवता के प्रसाद से अपनी बुद्धिरूपी नाव की सहायता से निकाला है। उनके इस यथार्थ ज्ञान का खगोलविज्ञान तथा गणित मं अप्रतिम योगदान है। ‘ज्या’ (साइन) के निकटतम मान 3ण्1416 की गणना, अक्षर अंक शद्धति, काल विभाजन, युग पद्धति, खगोलीय स्थिरांक, ग्रह स्थिति की गणना विधि आदि आर्यभट की प्रमुख देन हैं। गणित, बीज गणित और त्रिकोणमिति में भी उनके ज्ञान और गवेषणाओं का सम्मान किया गया।
    आर्यभट अपने युग के महान गणितज्ञ और खगोल वैज्ञानिक थे। परंपरापोशक विद्वानांे का समर्थन न मिलने के बावजूद आर्य सिद्धांत जीवित रहा और अनेक ज्योतिषी पंचांग बनाने के लिए आर्यभट की गणनाओं का निरंतर उपयोग करते रहे। उनके द्वारा रचित ‘आर्यभटीय’ गणित और ज्योतिष शास्त्र का वैज्ञानिक ग्रंथ है। आर्यभट का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने भारतीय खगोल विज्ञान को वैज्ञानिक दृष्टि दी और वैज्ञानिक अनुसंधान की नींव डाली।

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